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Tuesday, August 1, 2017

------शिव-विष्णु: सामाजिक मर्यादा-स्वातंत्र्य का सन्तुलन------

हमें अक्सर समाज में अनेक विरोधाभास दिखाई देते हैं | समान परम्पराओं को मानने वालों में भी सोच की भिन्नताएं | एक वर्ग सामाजिक परम्पराओं को जीवन का आधार मान लेता है, वहीँ दूसरा वर्ग इसे रूढ़िवादिता का स्वरुप मानते हुए सर्वथा अस्वीकार करता है तथा स्वतन्त्रता हेतु संघर्ष करता दिखाई देता है | किन्तु दोनों एक ही समाज के अभिन्न अंग हैं |
यही विरोधाभास भगवान विष्णु तथा शिव के स्वरुप एवं उनके क्रियाकलापों में दिखाई देता है | दोनों का वर्ण विपरीत है – एक श्याम है तो दूसरा गौर | एक सुन्दर वस्त्रों एवं आभूषणों से सुसज्जित है तो दूसरा वस्त्रों का विग्रह स्वीकार करता है | एक सामाजिक मर्यादाओं के मापदंड स्थापित करता है तो दूसरा अपने प्रत्येक क्रियाकलाप में इन मर्यादाओं का उपहास करता है | एक सामाजिक संरचना एवं नियमों को स्थापित करता है तो दूसरा इसके विपरीत स्वतन्त्रता का पक्षधर है | परन्तु दोनों तत्व एक ही ईश्वर के दो रूपों को प्रतिविम्बित करते हैं | दोनों स्वरुप एक दूसरे के पूरक तथा सर्वथा अभिन्न हैं | इन दोनों के बीच का सन्तुलन ही एक सुस्पष्ट, संस्कारी तथा प्रगतिशील समाज की रचना करने में सक्षम है |
सामाजिक संरचना में नियंत्रण के साथ-साथ स्वतन्त्रता की अभिव्यक्ति भी आवश्यक है अन्यथा उनका पालन करते करते परम्पराएं रूढ़ियाँ बन जाती हैं और समाज इनमे दम तोड़ने लगता है | स्वतंत्रता एवं नियंत्रण परस्पर विरोधी भले ही लगती हों लेकिन दोनो ही एक दूसरे से सर्वथा अभिन्न हैं | स्वतन्त्रता का अधिकार व्यक्ति का सहज स्वभाव है, किन्तु प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में पूर्ण स्वतंत्र होते हुए भी सामाजिक संरचना का अभिन्न अंग है अतः समाज के संरक्षण हेतु व्यक्तियों की स्वतंत्रता पर नियंत्रण भी अति-आवश्यक है | नियंत्रण भी ऐसा हो कि मर्यादाओं के बन्धन में दम न टूटे | यहीं से सन्तुलन की प्रक्रिया आरम्भ होती है | जहाँ विष्णु मर्यादा के संरक्षक हैं वहीँ शिव स्वतन्त्रता के प्रतीक |
शिव समता के मूलक के रूप में दिखाई देते हैं | असुरों तथा देवताओं पर उनकी समान रूप से कृपादृष्टि दिखाई देती है वहीँ विष्णु देवताओं का पक्ष लेते दिखाई देते हैं | देवता आध्यात्मिक तो असुर भौतिक वृत्तियों के प्रतीक हैं | यही कारण है कि असुर भोग की ओर आकर्षित होते हैं | प्रत्येक भोगवादी व्यक्ति स्वेच्छाचार की छूट चाहता है और शिव के वाह्य स्वरुप को न समझ पाने के कारण शिव के स्वरुप को स्वतन्त्रता का पर्यायवाची मानने लगता है | यही कारण है कि शिव का स्वरुप समझे बिना अपने स्वयं के भ्रान्त धारणाओं के आधार पर उसके अन्दर शिव के प्रति सहज आकर्षण जागता है | बदलती जीवन शैली एवं सभ्यता के मशीनीकरण द्वारा संचालित होने के कारण अपने आप को इतना बंधा हुआ महसूस करता है कि भगवान् शिव का नग्न स्वरुप एवं उनके साथ जुड़े मादक पदार्थ उसे अपने जीवन के लिए स्वतन्त्रता का बोध कराने लगता है |
बाहरी रूप से मर्यादा के विरुद्ध दिखाई देना वाला शिव-स्वरुप उनके अनंत स्वरुप का परिचायक है | जब परम्पराएं एवं रूढ़ियाँ समाज की प्रगति की दिशा में अवरोध उत्पन्न करने लगें तो उनका विध्वंस आवश्यक हो जाता हैं | मर्यादाओं का निर्माण परिस्थितियों पर आधारित होता है अतः परिस्थितियों के परिवर्तन के आधार पर इनमे परिवर्तन भी आवश्यक है | मर्यादा के नाम पर जब समाज सत्य से भटकने लगता है, दिखावे को ही सत्य समझने लगता है तब शिव का शाश्वत स्वरुप उनका उपहास करता दिखाई देता है | उनकी नग्नता उनके अन्तर तथा वाह्य स्वरुप के बीच की समता को स्पष्ट करती है | जिन्हें इनमे मर्यादा का अभाव दिखता है वे वास्तविकता से दूर अपनी वासना को आवरण में ढके रखने का दुष्प्रचार कर रहे होते हैं | शिव स्वरुप में कोई भोग कामना नहीं है जिसे छिपाने हेतु आवरण की आवश्यकता हो | अतः प्रत्येक नग्न व्यक्ति शिव उपासक है यह आवश्यक नहीं | वहीँ सामाजिक लोक व्यवहार में आवरण एवं मर्यादाएं व्यक्ति को सुरक्षा तथा प्रगतिगामी दृष्टि देती हैं | यही विष्णु का स्वरुप है |
शिव और विष्णु वस्तुतः एक ही समाज के दो भिन्न पक्ष हैं जो एक दूसरे के पूरक हैं |


--दीपक श्रीवास्तव 

Monday, July 31, 2017

-------- बढ़ते कदम, घटते एहसास --------

प्रगतिशीलता की अंधी दौड़ में खोते हुए न जाने कितने एहसासों को दम तोड़ते हुए देखा है | नहीं-नहीं, मेरे कथन का यह तात्पर्य बिलकुल नहीं है कि प्रगतिशील सोच गलत है किन्तु प्रगति की दिशा एकमुखी की बजाय चहुंमुखी हो तभी वह समाज के लिए अधिक फलदायी हो सकती है | यदि एक व्यक्ति पहलवान बनना चाहे तो उसे खान-पान के साथ शरीर की सभी मांसपेशियों तथा मन को भी उतना ही ताकतवर बनाना पड़ता है तथा उसे अपने लक्ष्य तक पहुँचने में सफलता प्राप्त होती है |
पश्चिम की नक़ल करते करते हम अपने सांस्कृतिक मूल्यों को भी उसी चश्मे से देखने लगते हैं | मेरा विचार इस जगह पर पश्चिम की आलोचना भी नहीं है – कुछ समय पूर्व मैंने लिखा था कि सनातन सभ्यता यदि आत्मा है तो पश्चिमी सभ्यता शरीर है | दोनों के तालमेल से ही जीवन सुचारू रूप से चल सकता है अतः भौतिक आवश्यकताओं के लिए यदि हमें पश्चिम की ओर देखना पड़ता है तो पश्चिमी देशों को आध्यात्मिक उन्नति के लिए केवल सनातन संस्कृति का सहारा है | दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं लेकिन इस अन्तर को समझने के लिए आँखों से नकली चश्मे का उतारना आवश्यक है |
कहीं एक कवि सम्मेलन में एक हास्य कवि को कहते सुना था कि पति के प्रतीक के रूप में ईश्वर के स्थान अर्थात महिलाओं के माथे पर सजने वाली बिन्दी सरकते सरकते आँखों के बीच आ गयी, सही भी है, ईश्वर के प्रति आस्था के मापदंडों को कुछ दशकों से लगातार बदलते हुए देखा है | पति आजकल सजाने की बजाय हमेशा निगरानी की वस्तु हो गया अतः उसकी नई जगह बदलते समाज के अनुरूप ही है | एक अच्छा पति पाने के लिए न जाने कितने सोमवार शिवजी का व्रत करती हैं, और विवाह के पश्चात यह सिलसिला और भी बढ़ जाता है जो न जाने कितने प्रकार व्रतों में तब्दील होता है | सोमवार व्रत के अतिरिक्त तीज, करवा चौथ और न जाने कितनी तपस्याएँ शामिल हैं | इससे भी आगे बढ़कर अब दूसरे स्थानों की परम्पराओं को अपनाने में भी तनिक भी देर नहीं होती | कुछ महिलाओं इस मामले में बड़ी सुस्पष्ट सोच की भी होती हैं उनके लिए व्रत का कारण पति हेतु मंगलकामना से कहीं अधिक डाइटिंग प्रभावी रहता है ताकि बढ़ता मोटापा कहीं दूसरों के आगे उनकी वास्तविक आयु न स्पष्ट कर दे|
बीस वर्ष पहले जहाँ तक मुझे याद है, मैंने बहुत कम ही घरों के लोगों को एक वक्त के भोजन के लिए होटलों के चक्कर काटते देखा था | चाहे जितना बड़ा परिवार हो, सभी रोटी एक चूल्हे पर बनती थी, भोजन में प्यार परोसा जाता था | ऐसा सुस्वादु भोजन और घर की बहुएं एक बार भी उफ़ तक नहीं करती थी | यही कर्मण्यता उन्हें एवं उनके परिवारों के लिए उत्तम स्वास्थ्य के साथ साथ स्वस्थ मस्तिष्क भी प्रदान करती है, लेकिन बीते वर्षों में कुछ ऐसा हो गया कि होटलों की संख्या भी कम पड़ने लगी | अभी कुछ दिन पूर्व ऐसे ही एक होटल में जाने का सौभाग्य मिला जहाँ हम वेटिंग में थे, हमारा नम्बर था 56 तथा बुकिंग के समय 39वे नम्बर का ग्राहक अन्दर गया था | अक्सर घरों में यह सुनने को भी मिल जाता है कि खाना बनाना मेरे बस का नहीं है कोई नौकरानी ले आओ जबकि अब तो परिवार भी अत्यन्त संकुचित हो गए हैं |
फिर प्रश्न खड़ा होता है कि किन मापदंडों को लेकर हम अपने परिवारों के मूल्यों की नींव रख रहे हैं एवं अपने बच्चों के लिए किस प्रकार के समाज की रचना कर रहे हैं | हम तो फिर भी भाग्यशाली हैं कि बीते दौर के नैतिक मूल्यों तथा एहसासों को करीब से महसूस किया है | चिंता इस बात की है हमारी आगे की पीढ़ी अपने आगे की पीढ़ी को क्या दिशा निर्देश प्रस्तुत करेगी | आज कुछ नहीं तो भी हम अपने व्रत-त्योहारों को अपने जीवन से सीधे सीधे जोड़कर देख पाते हैं, लेकिन क्या आने वाली पीढ़ी केवल इन्हें एक कर्मकांड के रूप में ही देख पाएगी?


--दीपक श्रीवास्तव

Thursday, July 27, 2017

-------- श्रीराम शिशुलीला --------


सारे जग के पालनहारा,
पैरन मे पैजनिया डारा ।
उठत गिरत अरु किलकि किलकि कर,
ठुमक ठुमक मोहें जग सारा ॥

माँ की गोदी रहे लुकाई,
इधर उधर ढूंढे सब भाई ।
धूरि धूरि भये भुइयां लोटे ,
लीला प्रभु की अपरम्पारा ॥1॥

दशरथ तो आनन्द मगन हैं ,
राम धरा राम ही गगन हैं ।
सुत रूठे गोदी ना आये ।
बड़े प्यार से तब पुचकारा ॥2॥

शिशुलीला सुख परम अनूपा ,
गायें सुर नर मुनि जन भूपा ।
हरि की महिमा अजब निराली ।
अति आनंदा परम अपारा ॥3॥

-दीपक श्रीवास्तव 

Wednesday, July 26, 2017

श्रीराम अवतार

नाचे झूमे धरती सारी, खुशियाँ भई अपार ।
दशरथ घर गूंजे किलकारी, प्रकटे पालनहार ॥

श्याम सलोना रूप निहारे।
मातायें तन मन सब वारे ।
ऋषि मुनि संत दरस को आये ।
सब खुद को बंधन मे पाये ।
प्रभु अनन्त शिशु रूप धरे, जग देखे बारम्बार ॥1॥

तभी चतुर्भुज रूप दिखाया ।
जिसमें सारा जगत समाया ।
कौशल्या ममता की मारी ।
हाथ जोड़ बोली बेचारी ।
कैसे अपनी ममता वारुं, तुम अनन्त संसार ॥2॥

तब शिशु का लेकर आकार ।
माँ की गोद किये साकार ।
पर माता की याद भुला दी ।
अपनी ही माया फैला दी ।
सुर नर मुनि जन इस चरित्र को गायें बारम्बार ॥3॥

-दीपक श्रीवास्तव 

Friday, July 14, 2017

---------कर्म-लाभ-लोभ--------

कर्म ही केवल हाथ हमारे, सबका जीवन यही सँवारे ।
देखो लोभ न आये मन में, फल तो हरि इच्छा है प्यारे ॥

कैकेयी का नाम क्रिया है ।
जो दशरथ की स्नेह प्रिया है ।
फल का नाम मंथरा दासी ।
कर्म लाभ की जो प्रतिभासी ।
रहे कर्म आगे ही सारे, फल तो हरि इच्छा है प्यारे ॥1॥

अवध प्रेम का अमिट खजाना ।
कर्म प्रमुखता स्वर्ग समाना ।
जब तक हों कैकेयी आगे ।
दुख दारिद्र दूर से भागे ।
प्रेम सभी के जीवन तारे, फल तो हरि इच्छा है प्यारे ॥2॥

जैसे भई मंथरा आगे ।
कर्म लाभ के पीछे भागे ।
लाभ तभी बन जाये लोभ ।
अति फल दृष्टि जगाये क्षोभ ।
चारों ओर जलें अंगारे, फल तो हरि इच्छा है प्यारे ॥3॥

-दीपक श्रीवास्तव 

Wednesday, July 12, 2017

लंका दहन

हे शिवरूप तुझे मैं कैसे, राजमहल ले जाऊं?
पूज्य पिता के पावन गुरुवर, कैसे ध्यान लगाऊं??

लंका का मैं श्रेष्ठ वीर हूँ, पर विचलित थोड़ा अधीर हूँ |
यहाँ न कोई है फलहारी, किसकी है वाटिका हमारी |
इक तो तुम रावणसुत मारे, उसपर कुछ निशिचर संहारे |
पर वध की आज्ञा ना पाई, निश्चित शिव की हो परछाईं |
क्यों ना सर्पों से ही तुमको, श्रृंगारित ले जाऊं ||1||

हनुमत नागों से श्रृंगारित, जब रावण के सम्मुख आये |
सभी सुर-असुर और देवजन, मन में उनको ध्यान लगाए |
कहे दशानन हे त्रिपुरारी, कहाँ रह गईं मातु हमारी |
सारी ममता पूंछ तुम्हारी, अरे यही हैं माता प्यारी |
खुद शिव का श्रृंगार रचाए, क्यों माँ को ऐसे ही लाये |
नहीं-नहीं भोले भंडारी, ये तो न्याय नहीं त्रिपुरारी |
हे माँ ज्योतिस्वरूपा जननी, मैं श्रृंगार कराऊं ||2||

माता का अद्भुत श्रृंगार, बचा न वस्त्र एक भी द्वार |
तभी दशानन ने उर खोले, मन ही मन हनुमत से बोले |
यहाँ राम के चरण पड़ेंगे, सब उनकी ही शरण लगेंगे |
पर पापो की नगरी लंका, दूर करो हम सबकी शंका |
तभी पूंछ में ज्योति जलाई, लपटें आसमान तक छाई |
सत्य कहा जलकर ही सोना, कुन्दन बनता कोना कोना |
क्या मैं भेंट तुम्हे दूं भोले, सब तुमसे ही पाऊं ||३||

--दीपक श्रीवास्तव

Thursday, July 6, 2017

श्रीराम द्वारा शबरी को नवधा भक्ति का सन्देश

नवधा भक्ति सुनो हे माते, जो धारे उत्तम गति पाते ||

प्रथम भक्ति संतों का संग,
दूजी प्रिय हरि कथा प्रसंग |
भक्ति तृतीया गर्व रहित हो,
गुरु सेवा में प्रेम सहित हो |
चौथी छोड़ कपट अभिमान,
हरि गुण वन्दन, हरि गुणगान |
पंचम हरि में दृढ़ विश्वास,
हरि का भजन हरी की आस |
षष्टम भक्ति शील वैराग्य,
धर्म –कर्म से जागे भाग्य |
सप्तम भक्ति रहें समभाव,
हरि से ऊंचा संत स्वभाव |
अष्टम भक्ति लाभ संतोष,
कभी नहीं देखें परदोष |
नवम भक्ति हैं सहज सरलता,
कपटहीन मन बड़ी विरलता |
ऐसे मनुज मुझे अति भाते, जो धारे उत्तम गति पाते ||

--दीपक श्रीवास्तव

भाइयों का प्रेम

इक साधक की सुनो कहानी, झर-झर नयनन बहता पानी ||
परिवारों में जकड़न देखी,
अपनों में ही अकडन देखी |
धन स्त्री औ भूमि चाह में,
हथियारों की पकड़न देखी |
मिले न सच्ची प्रेम निशानी, झर-झर नयनन बहता पानी||1||

पिता वचन को प्रभु घर त्यागे,
मगर भरत उनसे भी आगे |
रघुनायक को राज्य दिलाने,
संग प्रजा ले वन को भागे |
इक त्यागी दूजा बलिदानी, झर-झर नयनन बहता पानी||2||

हर समाज का अपना कल है,
जिसमे वर्तमान का हल है |
फिर भी जाने क्यों मानव का,
दम घुटता, हर पल हर क्षण है |
यही जगत की राम कहानी, झर-झर नयनन बहता पानी|३||

--दीपक श्रीवास्तव

श्री राम केवट संवाद


प्रेम भक्ति की अजब कहानी, गंगा तट पर है मिल जानी|
एक ओर सियराम लखन हैं, एक ओर है बहता पानी||
ये कैसी लीला रघुनन्दन,
दुनिया करती जिनका वन्दन |
जो भवसागर से जग तारें,
वे केवट की राह निहारे|
महिमा जाय न जात बखानी, अधरों पर है मीठी बानी||1||
केवट कहें रुको प्रभु मोरे,
माया भरे चरण हैं तोरे |
पावन यह जीवन तो कर लूं |
चरणों का अमृत तो भर लूं |
ऐसी घड़ी न फिर से ना आनी, नयनों में न नीर समानी||2||
केवट सबको पार उतारे,
अपने तीनों लोक संवारे|
प्रभु तब उन्हें मुद्रिका दीन्हे,
भक्त कहें हम तुमको चीन्हें|
जिनकी महिमा सिन्धु समानी, उन चरणों में जगह बनानी||३||

--दीपक श्रीवास्तव

Saturday, July 1, 2017

श्रीराम वन गमन

मोरे राम, मोरे राम, मोरे राम|
अवध न छोड़ो, रुक जाओ श्री राम|
प्रभु राम, मोरे राम, मोरे राम,
तुम ही सुबह तुम्ही हम सबकी शाम||

चलत रामु लखि अवध अनाथा। बिकल लोग सब लागे साथा।।
कृपासिंधु बहुबिधि समुझावहिं। फिरहिं प्रेम बस पुनि फिरि आवहिं।।
छले पड़ गए रटते रटते राम||1||

सूनी मोरी नगरी सारी, कहाँ गयी घर की किलकारी|
समय ख़ुशी का कैसे बीता, रंगत सारी ले गयी सीता|
राम तुम्ही जीवन अधार हो, भीतर बाहर तुम सकार हो|
हे दुःखभंजन हे रघुनन्दन,
तुम्ही ही प्राण, तुम ही हम सबके धाम||2||

-दीपक श्रीवास्तव

राम-सीता दर्शन

चलो चलो साथी दर्शन को आये हैं सियराम|
आये हैं सियराम अवध में आये हैं सियराम||

आज अवध कैसा रंगीला, ज्यों बासंती धानी-पीला|
लखन धरा, श्रीराम गगन हैं, मध्य सिया का शुभ दर्शन है|
तरस रही थी प्यासी धरती, अमृत हैं सियराम||1||

दो नैना भरपूर निहारें, लेकिन तृप्ति नहीं मिल पाए|
रोम-रोम अंखियाँ बन जाएँ, तभी प्यास पूरी हो पाए|
जीव, गगन औ धरा मगन हो, गाये हैं सियराम||2||

-दीपक श्रीवास्तव 

Friday, June 30, 2017

राम-सीता विवाह

जनकसुता वरने रघुवर को, वरमाला ले हाथ चली |
थोड़ी सिमटी कुछ सकुचाई, लाज शर्म के साथ चली ||
जन्मों का ये बन्धन कैसा,
साथ गंध के चन्दन जैसा |
ये विवाह का अनुपम अवसर,
युग-युग से तरसे नारी-नर |
निर्गुण को बन्धन में लेने, वरमाला ले हाथ चली |
थोड़ी सिमटी कुछ सकुचाई, लाज शर्म के साथ चली ||1||
नारायण का रूप अनोखा,
कहीं न हो अखियों का धोखा |
नर-हरि की ऐसी अद्भुत छवि,
वर्णन कर सकते ना मुनि-कवि|
देखन ऐसे महामिलन को, जगती नाथ-सनाथ चली ||
जनकसुता वरने रघुवर को, वरमाला ले हाथ चली |||2||  

--दीपक श्रीवास्तव

अहिल्या - उद्धार

जन्मों जन्मों राम पुकारा ।
राम नाम पर जीवन वारा ।
कुटिया मे करने उजियारा
स्वयं राम ने तब पग धारा ॥

उसका भाग्य न वर्णित होये । जो प्रभु पर ही अर्पित होये ॥
जीवन भर जो शरण पड़े हैं । वहीं राम के चरण पड़े हैं ॥
 मन में जो हो सच्ची भक्ति । भले नही हो तन मे शक्ति ॥
जो कण भर भी चल न पाते । उन्हें तारने खुद प्रभु आते ॥


भगवन मैं इक शापित नारी । कैसे पूजा करूँ तुम्हारी ॥
कैसी आज विचित्र घड़ी है । कुटिया भी खंडहर पड़ी है ॥
कहीं फूल अक्षत न चन्दन । न जानूं पूजन न वन्दन ॥
भेंट तुम्हें देने को भगवन । अश्रुधार से भरे दो नयन ॥

निश्छल निर्मल मन को धारे।
प्रभु को प्यारे भाव तुम्हारे ॥

-दीपक श्रीवास्तव

Thursday, June 29, 2017

राजा दशरथ का पुत्र प्रप्ति यज्ञ

राजा रानी दोनों तरसे |
पुत्र न जन्मे, बीते अरसे ||
यज्ञ पुत्र कामेष्टि कराया |
अग्नि देव ने रूप दिखाया ||
देव कहें चिन्तित क्यों राजे |
खुले ख़ुशी के सब दरवाजे ||
खीर पात्र राजन को दीन्ही |
सादर दशरथ कर में लीन्ही ||
अग्निदेव मृदु वचन सुनाये |
राजा-रानी के मन भाये ||
कौशल्या का आधा हिस्सा |
आधा कैकेयी का हिस्सा ||
दोनों ने इक भाग निकाला |
रानी सुमित्रा को दे डाला ||

-दीपक श्रीवास्तव 

प्रकृति माँ

जिसकी सुन्दरता की बातें ।
शब्द छन्द सीमित हो जाते ॥
जिन पर आधारित उपमायें ।
वर्णन मे सारे सकुचाये॥
तुम्हें प्रकृति या ईश्वर बोलूं ।
मन के भेद तुम्हीं से खोलूं ॥
सारी जीवन सृष्टि तुम्ही से ।
चेतनता की वृष्टि तुम्ही से ॥
हरा रंग समृद्धि रूप है ।
जीवन मे अमृत स्वरूप है ॥
धानी-पीला है मधुमास ।
सदा बुझाये जीवन प्यास ॥
सुन्दरता की सब सीमाएँ ।
तेरे आगे लघु हो जायें ॥

-दीपक श्रीवास्तव

Monday, May 29, 2017

सन्त - असंत अन्तर

अन्तर सन्त असंतन कैसे ।
कमल जोंक के गुण हों जैसे ॥
दोनों ही दुख देना जानें ।
पर दुख मे अन्तर पहचानें ॥

मिले असंत तभी दुख होये ।
दुख पायें चेतनता खोये ॥
सन्त मिलें मानवता जागे ।
पीड़ा दूर दूर तक भागे ।

संतों से बिछुड़न दुख देता ।
सारी खुशियों को हर लेता ॥
लाभ -हानि सब अपनी करनी ।
कीर्ति-अकीर्ति इन्हीं की भरनी ॥

गुण-अवगुण जन सारे जानें ।
जो भाये उसको ही मानें ॥

- दीपक श्रीवास्तव 

Thursday, May 25, 2017

दुष्ट आचरण

जो केवल देखें परदोष ।
सज्जन अनहित जिनका कोष ॥
बिना प्रयोजन जो प्रतिकूल ।
पर अनहित ही जिनका मूल ॥
जो हरियश के राहु समान ।
सच्चे मन से उन्हें प्रणाम ॥

जैसे मक्खी घी में गिरकर ।
नष्ट करे निज जीवन तजकर ॥
दुष्ट बिगाड़े ऐसे काम ।
भले होय निज काम तमाम ॥

क्रोध करें जैसे यमराज ।
नाश ताप ही जिनका काज ॥
कैसे उनकी करूँ बुराई ।
जिनकी निद्रा जगत भलाई ॥

जैसे फसल नाश कर ओले ।
गल जाते जैसे हों भोले ॥
नाश हेतु जो माया जोड़ ।
देते निज शरीर तक छोड़ ॥

दुर्जन इतने बदलें भेष ।
ज्यों हज़ार मुख वाले शेष ॥
हित जिनको कण भर न भाता ।
वज्र वचन ही जिन्हें सुहाता ॥

सहस्र मुख में भरकर रोष ।
वर्णन करते जो परदोष ॥
उन्हें समझकर शेष समान ।
करता बारम्बार प्रणाम ॥

- दीपक श्रीवास्तव 

Tuesday, May 23, 2017

सन्त नमन

विधि हरि हर कवियों की वाणी ।
जिनके वर्णन मे सकुचानी ॥
किस प्रकार मैं करूँ अकिंचन ।
संतों की महिमा का चिंतन ॥

जिनका मन हरि का वरदान ।
शत्रु - मित्र सब एक समान ॥
जैसे शुभ हाथों मे फूल ।
जो समता के अनुपम मूल ॥

सन्त सरल, जग के हितकारी ।
सकल सृष्टि जिनकी आभारी ॥
सच्चे मन से करूँ प्रणाम ।
सन्त कृपा से मिलते राम ॥

- दीपक श्रीवास्तव 

Friday, May 19, 2017

सत्संग प्रप्ति

जीवन भर नर यत्न करे तो ।
बुद्धि कीर्ति समृद्धि वरे वो ॥
पाये सद्गति और विभूती ।
ये सब सत्संगति की ज्योती ॥

सत्संगति आनन्द धाम है ।
जो केवल कल्याण नाम है ॥
सारे साधन फूलों जैसे ।
सत्संगति फल मिले न कैसे ॥

सत्संगति से दुष्ट सुधरते ।
मन मे अवगुण नहीं ठहरते ॥
साधु कुसंगति में पड़ जायें ।
तब भी अवगुण ना अपनायें ॥

- दीपक श्रीवास्तव 

Friday, May 5, 2017

सत्संगति

सत्संगति मे अति आनन्द ।
शब्द नहीं क्या लिखूं छन्द ॥
जो अविरल निर्मल प्रयाग ।
विषयों की जिससे बुझे आग ॥

राम कथा है गंगधार सी ।
ज्ञानदायिनी की पुकार सी ॥
विधि - निषेध कर्मों की बानी ।
यमुनाजी की पुण्य कहानी ॥

जहाँ शिव-हरी कथा निरन्तर ।
भर देती अंतस के अन्तर ॥
जहाँ धर्म मे दृढ़ विश्वास ।
हरि का प्रतिक्षण हो आभास ॥

शुभ कर्मों से बना समाज ।
हरि का ही स्वर, हरि ही साज ॥
सत्संगति अत्यन्त सहज है ।
इससे बड़ा न कोई ध्वज है ॥

महा अलौकिक अति रमणीय ।
शुभ - फलदायी निर्वचनीय ॥
सत्संगति की सुनो कहानी ।
यह श्री हरि की अमृत बानी ॥

पाते जो सुनते निष्काम ।
धर्म अर्थ मोक्ष व काम ॥

- दीपक श्रीवास्तव 

Thursday, May 4, 2017

सन्त गुण

धरती पर पर्वत जल उपवन ।
भीतर खनिजों की है खन खन ॥
ऐसा ही संतों का जीवन ।
राम नाम मे रमा रहे मन ॥
रामचरित मणियों की ज्योती ।
सारे दोषों को हर लेती ॥
गुरु पद कमल, नयन हैं अमृत ।
जिनका जीवन पुण्यों का कृत ॥
ग्रहण करूँ चरणामृत अंजन ।
रचता रामचरित दुख भंजन ॥
सर्व गुणों की जो हैं खान ।
गुरुवर को मेरा प्रणाम ॥

संतों की महिमा विचित्र है ।
ज्यों कपास का शुभ चरित्र है ॥
नीरस जिसकी डोडी होती ।
विषयासक्ति न कण भर होती ॥
जिसका भाल सदा उज्ज्वलतम ।
संतों का ऐसा निर्मल मन ॥
ज्यों कपास मे रेशे होते ।
संतों में गुण वैसे होते ॥
सहे कष्ट परछिद्र छिपाते ।
परदोषों को सन्त छिपाते ॥

- दीपक श्रीवास्तव 

Wednesday, May 3, 2017

गुरु महिमा वन्दना

मानव तन में श्री हरि आये ।
जग मे गुरु वे ही कहलाये ॥
जिनके वचनों मे तत्व छिपा ।
अव्यक्त-व्यक्त का सत्व छिपा ॥
जो गुण-दोषों से रहें परे ।
जीवन रस से जो रहें भरे ॥
जिनके पद जीवन का प्रकाश ।
जो अन्धकार का करें नाश ॥
जो पाप कर्म को चूर करें ।
मन की मलीनता दूर करें ॥
ऐसे गुरु चरणों मे वन्दन।
जो प्रेम-ज्ञान के हैं चन्दन ॥

- दीपक श्रीवास्तव 

Tuesday, May 2, 2017

राम-धाम

जिस हृदय सदा सियराम बसे ।
जिस देह राम सिन्दूर लसे ॥
हनुमत की प्रभुता है विचित्र ।
है रोम-रोम मे राम चित्र ॥
जो चिर विशुद्ध विज्ञान नाम ।
उन राम-धाम को है प्रणाम ॥

- दीपक श्रीवास्तव 

सर्व देव वंदना

भाव शब्द रस छँदन वंदन।
अक्षर शोभे जैसे चन्दन ॥
अर्थ अनेक छुपे निष्काम
सबको बारम्बार प्रणाम ॥

जिनके कर मे कलम सुशोभित ।
गुप्त किन्तु कण कण मे बोधित ॥
शब्दाक्षर से करूँ प्रणाम ।
जय जय चित्रगुप्त भगवान ॥

जय सरस्वती हँसवाहिनी ।
नमो नमो हे ज्ञानदायिनी ॥
तेरी ही किरपा से माते ।
तुच्छ जीव मन्त्र रच पाते ॥

जय गणेश जय जय गणनायक ।
विघ्नहरण जय , जयति विनायक ॥
मातृशक्ति जय आदिशक्ति जय ।
कृपा हुई तव, हुआ भक्तिमय ॥

जिनकी कृपा बिना मानव तन
देख न पाये अपना ही मन ॥
भूत प्रेत भस्म शमशान ।
जिनसे जुड़ पायें सम्मान ।
जो अनादि शाश्वत अविराम ॥
उन चरणों मे कोटि प्रणाम ।

 -दीपक श्रीवास्तव 

Monday, May 1, 2017

हरि गुरु वंदना

जिनकी माया के वशीभूत ,
सम्पूर्ण सृष्टि औ चन्द्र सूर्य ॥
जिनकी माया से जीव जहाँ।
 भटके शरीर-अशरीर यहाँ ॥
उन हरि के चरणों मे वंदन।
अव्यक्त-व्यक्त के जो चन्दन ॥
जो नाम मात्र लेने भर से
कट जायें जग के भवबन्धन ॥
जो श्यामवर्ण ज्यों नीलकमल ।
जिनकी आँखें ज्यों लालकमल ॥
जो शयन क्षीरसागर मे करते ।
सर्व जगत का पालन करते ॥

मै तुच्छ जीव गुरु वंदन करता ।
हृदयातल से क्रंदन करता ॥
लोभ - मोह से मुझे उबारो ।
अब तो भवसागर से तारो ॥
जो कृपा होय तो नेत्र खुलें।
होवे प्रकाश तब प्रभू मिलें ॥
मै तमस रूप फिरता मारा ।
जीवन मे केवल अंधियारा ॥
अब तो मुझको अपना लो ना ।
मेरा स्वरूप दिखला दो ना ॥

- दीपक श्रीवास्तव