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Sunday, September 23, 2018

जय जय माँ - एक मित्र के संगीत एल्बम हेतु रचित

भक्ति भाव से खुश होती हैं, मोरी माता रानी
भूखे को अन्न मिले और प्यासे को पानी !

जय जगदम्बा जय महारानी, जय वरदानी माँ
हम आये तेरे द्वारे मईया, शरण लगा लों माँ !!

जय मईया .....

सूरज सा है तेज तुम्हारा सिंह सवारी करती हो
दुनिया से तुम पाप मिटाकर धर्म संवारा करती हो|
कष्ट हमारे हर लों मैया सिंह भवानी माँ ||

सबके मन मंदिर में मईया तुम ही पल पल बसती हो
राजा रंक सभी के घर में मईया तुम ही रहती हो
जय जय अम्बे जय जगदम्बे शरण लगा लों माँ !!

जो भी तुमको भजता मन से मईया वो सुख पाता है
माँ बेटे का इस दुनिया में सबसे पावन नाता है |
हमको भी स्वीकार करो माँ मातु भवानी माँ !!


- दीपक श्रीवास्तव

Saturday, September 15, 2018

--- पूज्य अटल बिहारी बाजपेयी को श्रद्धांजलि ---

राजनीति का अटल सितारा,
है उजला इतिहास हमारा। 
जो मर कर भी अमर हुआ है,
उसको वंदन नमन हमारा॥ 

जय जवान जय जय किसान में, 
जिसने जय विज्ञान संवारा। 
रचा पोखरण में था जिसने, 
एक अमर इतिहास हमारा॥ 

मुख पर मृदु मुस्कान लिए जो, 
बना करोड़ों मन का प्यारा। 
दम्भ जिसे छू भी ना पाया, 
ऐसा अमर चिराग हमारा॥ 

हिंदी तन मन जिसका जीवन, 
फैलाया जग में उजियारा। 
कवि मन की ओजस्वी वाणी, 
जैसे सुरसरि बहती धारा॥ 

आओ श्रद्धा सुमन चढ़ाएं, 
जो था अटल चिराग हमारा।
जो मर कर भी अमर हुआ है,
उसको वंदन नमन हमारा॥

- दीपक श्रीवास्तव

Friday, September 14, 2018

--- हिंदी दिवस पर विशेष ---

सृष्टि के संचालन में संचार की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है अतः संचार के माध्यम का सशक्त होना अति आवश्यक है। जब दो असमान तत्वों के बीच संचार होता है तो उसका माध्यम अनुभव या भाव-भंगिमा इत्यादि हो सकते हैं।

जब समान तत्वों के बीच संचार की बात होती है,  विशेष तौर से मनुष्य में, तब भाषा बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यही कारण है कि शिशु से भी संवाद करते समय व्यक्ति अपनी मूल भाषा का प्रयोग करता है। शिशु को भले ही वर्णमाला का ज्ञान ना हो किंतु निरंतर हो रहे संवादों से उसे वस्तुओं को पृथक शब्दों के साथ साम्यता स्थापित करने का अभ्यास हो जाता है तथा इस प्रकार उसके अंदर भाषा का विकास होता है। यह एक चरणबद्ध प्रक्रिया है तथा आगे के चरणो में वह वर्णमाला का अभ्यास करता है तथा भाषा को लिपियों के माध्यम से श्रव्य के साथ-साथ दृश्य भाव में भी अंगीकार करता है। किंतु भाषा का क्षेत्र केवल संचार माध्यम तक ही सीमित नहीं होता, बल्कि भावाभिव्यक्ति का यह माध्यम व्यापार, चिकित्सा, विज्ञान इत्यादि क्षेत्रों में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए संस्कृति एवं विकास का अंग बन जाता है।

आज भारतीय समाज ने वैश्विक स्तर पर बहुत प्रगति की है तथा लगभग हर देश के साथ अच्छे व्यापारिक एवं राजनैतिक संबंध स्थापित किए हैं। जाहिर सी बात है कि इस कार्य में अन्य देशों की भाषाओं को अपनाने की शैली विकसित की गई है। यह कार्य इसीलिए सफलतापूर्वक हो सका है क्योंकि हमारी संस्कृति प्रत्येक भारतीय के जीवन में वसुधैव कुटुंबकम की भावना को मजबूती से स्थापित करती है। यह कार्य केवल एक भाषा का चमत्कार नहीं है वरन् जब भाषा में संस्कृति घुली हुई हो, आदर्शों की भावना हो, जीवमात्र हेतु सम्मान का भाव हो, मर्यादाएं हो, स्वतंत्रता हो, विनम्रता हो तभी नागरिकों में इतनी शक्ति आती है कि वे विश्व बंधुत्व की भावना लिए अन्य संस्कृतियों एवं भाषाओं का सम्मान करते हुए उनके मध्य प्रगाढ़ संबंध बना सकते है। हमारी हिंदी में यह सुंदरता नैसर्गिक रूप से रची बसी है।

यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि हमारी हिंदी केवल संचार का माध्यम न होकर अपने आप में पूरी संस्कृति है। यही कारण है कि एक आम हिंदीभाषी के अंदर अन्य भाषाओं एवं संस्कृतियों के प्रति सम्मान का भाव है। वैश्विक भाषा बन चुकी अंग्रेजी को भी हिंदी से प्रेम रखने वाले उसी भाव से स्वीकार कर पाते हैं। यह हिंदी की शाश्वत सुंदरता है। हिंदी भाषियों के हृदय में श्रेष्ठता का अहंकार नहीं होता बल्कि आदर एवं विनय उनके सहज स्वभाव में सम्मिलित होता है। हिंदी के जितने प्रमाणिक ग्रंथ हैं वे व्यक्ति की आंतरिक दृष्टि को उनकी चेतना से जोड़कर व्यक्ति के सहज स्वरूप का दर्शन कराने की क्षमता रखते हैं। जब व्यक्ति के अंदर श्रेष्ठता का अहंकार होता है तब वह बाहरी नेत्रों द्वारा दूसरों के दोष एवं आत्मप्रशंसा में अपना जीवन व्यर्थ कर देता है। ऐसा जीवन पूरी तरह दिखावटी होता है तथा झूठी श्रेष्ठता के दिखावे के कारण व्यक्ति के अंदर अनर्गल संचय की प्रवृत्ति विकसित होती है जिसके कारण मान-सम्मान एवं मर्यादाओं की परवाह किए बिना वह कोई भी अनैतिक कार्य करने में नहीं हिचकता।

भाषा केवल कुछ अक्षरों, मात्राओं, शब्दों एवं वाक्यों का समुच्चय नहीं है बल्कि यह मानवीय सभ्यता का प्रथम चरण है। अतः इसमें मानवीय संवेदनाओ की अभिव्यक्ति होनी चाहिए। जो मधुरता का भाव मां, अम्मा, माई, बाबूजी, पिताजी, भइया, दीदी जैसे शब्दों में आता है वही भाव मॉम, पा, ब्रो या सिस जैसे शब्दों में नहीं मिलता। भारतीयों के लिए वैश्विक भाषा को संचार माध्यम के रूप में अपनाना बहुत अच्छा है क्योंकि इसमें देश की प्रगति निहित है।

विकास आवश्यक है किंतु अपनी जड़ों की कीमत पर किया हुआ विकास स्वयं के ही अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर देता है। हम तभी तक सशक्त हैं तथा दूसरों के साथ सक्षम संवाद करने में समर्थ है जब तक हम अपनी जड़ों से जुड़े हुए हैं अन्यथा हमारा जीवन कटी हुई पतंग के समान है जो भले ही जमीन से बहुत ऊंचा दिखाई दे रहा हो किंतु उसके अस्तित्व का भविष्य अनिश्चित है - वह पेड़ों की झाड़ियों में फंसकर नष्ट हो सकता है, नदी नालों में बहकर अपनी लीला समाप्त कर सकता है अथवा बच्चों की छीनाझपटी के दौरान फट सकता है।  उसके पुनः आकाश तक पहुंचने का केवल एक ही मार्ग है कि किसी सुरक्षित हाथ में पड़े जो उसे पुनः डोरी से जोड़ कर उसे ऊंचाई तक पहुंचाने हेतु प्रयास करे।

हिंदी संवेदनशील है। हिंदी में दूसरी भाषाओं का सम्मान है यही कारण है कि इतनी सशक्त भाषा होने के बावजूद हिंदी अन्य भाषाओं जैसे अंग्रेजी, उर्दू, सिंधी, पंजाबी, गुजराती, बांग्ला इत्यादि के शब्दों को भी सहजता से स्वीकार कर लेती है। हमारा दायित्व है कि हिंदी की इस विशालता एवं विराटता को नमन करें तथा इसका प्रयोग करने में गर्व का अनुभव करें। हिंदी हमारी संस्कृति है, हिंदी हमारा गर्व है, हिंदी हमारी धरती है, हिंदी हमारा आकाश है, हिंदी हमारा जीवन है, हिंदी हमारी चेतना है,  हिंदी हमारी स्वांस है, हिंदी हमारा प्राण है, हिंदी हमारी जागृति है।

- दीपक श्रीवास्तव

Wednesday, September 12, 2018

--- आस्था की आड़ में खिलवाड़ ---

--- आस्था की आड़ में खिलवाड़ ---

आज हम अपने देश में अनेक असामाजिक तत्वों को भोले भाले लोगों को मूर्ख बनाकर अपना हित साधते हुए देख रहे हैं। धर्मगुरु एक धंधे की तरह विकसित होता जा रहा है चाहे वह हिंदू मुस्लिम अथवा ईसाई ही क्यों ना हो। कहीं कम तो कहीं अधिक किंतु इनके द्वारा आस्था की आड़ में भोली भाली जनता का शोषण हो रहा है।

मैं अधिकतर अपने लेखों में किसी व्यक्ति का नाम नहीं लेता क्योंकि श्री रामचरितमानस के बालकांड में पूज्य गोस्वामी जी ने लिखा है कि जब कोई रचनाकार सृजन की प्रक्रिया में होता है तो स्वयं माता सरस्वती अवतरित होकर रचना करती हैं रचनाकार तो आम जनमानस तक रचना पहुंचाने हेतु माध्यम बनता है और यश प्राप्त करता है। इसीलिए गोस्वामी जी किसी नश्वर देहधारी की वंदना नहीं करते अपितु सनातन आदर्श निराकार निर्विकार सगुण राम की वंदना करते हैं जिनकी भक्ति के सरोवर में डूबकर माता सरस्वती भी स्वयं को धन्य महसूस करती हैं। अतः यहां भी किसी का नाम नहीं लूंगा किंतु रचनाओं एवं लेखों का उद्देश्य समाज हित में होता है अतः कुछ अनुभवजन्य बातें अवश्य प्रस्तुत करूंगा। बीते कुछ वर्षों में हमने विभिन्न धर्म गुरुओं को उनके कुकृत्य हेतु कठोर दंड पाते हुए देखा है। यदि उद्देश्य अपवित्र है तो एक ना एक दिन छद्मावरण हट ही जाता है तथा घिनौने कार्य का दंड भी मिलता है।

लगभग 5 वर्ष पुरानी बात है मेरे एक मित्र को ऐसे ही एक बाबा के कार्यक्रम में मंच संचालन करने का उत्तरदायित्व मिला था उनके साथ एक प्रसिद्ध रेडियो उद्घोषिका भी थीं। मैंने अपने मित्र से पूछा कि ऐसे कार्यक्रम में संचालन क्यों करना चाहते हो तब उसने उत्तर दिया कि केवल थोड़ी देर की स्क्रिप्ट पढ़नी है उसके बदले में मुझे एक अच्छी धनराशि मिलेगी। कार्यक्रम देखने मैं भी पहुंचा था। ऑडिटोरियम बहुत सुंदरता से सजाया गया था तथा कुछ धार्मिक चैनल अपने अपने कैमरों द्वारा पूरा कार्यक्रम रिकॉर्ड कर रहे थे। वहां अनेक ऐसी महिलाएं दिखाई देती थीं जो अच्छे परिवारों से थी तथा अपने कपड़े बदलने के बाद हॉल में आई तथा बाबा के साथ हुए सत्संग पर अपने निजी अनुभव सुनाए। कार्यक्रम की समाप्ति के बाद जब मेरा मित्र अपना चेक लेने पहुंचा तब मैंने उन महिलाओं को भी चेक लेने की कतार में पाया जिन्होंने अपने अपने अनुभव बताए थे। यह अनुभव उनके लिए कितने निजी थे यह तो  नहीं पता किंतु जो भी उन्होंने बोला वह उन्हें पहले से कागज पर लिखकर दिया हुआ था। वास्तव में यह एक व्यापार का रूप लेता जा रहा है तथा चैनल भी पूर्ण रूप से पाक साफ नहीं है। इस प्रकार के कार्यक्रमों को प्रसारित करने से चैनलों की अच्छी खासी आमदनी हो जाती है। जिसकी पेमेंट पहुंच गई उस धर्मगुरु की वाह-वाह तथा जिसकी पेमेंट रुकी हुई है यही चैनल उस की धज्जियां उड़ा कर रख देते हैं। कुछ वर्ष पहले ऐसी ही घटना हुई थी जब एक धर्मगुरु की अनेक चैनल धज्जियां उड़ा रहे थे वहां एक चैनल उसके कार्यक्रमों को भली प्रकार प्रसारित कर रहा था।  मेरी मुलाकात अनेक ऐसे मुस्लिम भाइयों से भी हुई हैं जो अपने ही धर्म गुरुओं से किसी न किसी प्रकार शोषण के शिकार हुए हैं।

प्रश्न यह उठता है कि प्रामाणिक धर्म ग्रंथ किसी भी प्रकार के कर्मकांड अथवा अंधविश्वास को बढ़ावा नहीं देते फिर इस प्रकार के कुटिल धर्मगुरुओं की खेप कैसे पनप रही है। सभी के जीवन में संघर्ष है कुछ न कुछ समस्या है उस समस्या का हल ढूंढने के लिए भोली भाली माताएं अपने बच्चों को इन धर्मगुरुओं के हवाले करते समय विचार नहीं करतीं तथा अप्रिय घटना अनेक वर्षों तक घटने के बाद एकदम से उत्पीड़न हेतु शोर मचाने लगती है। क्या इस प्रकार की घटनाओं के लिए वह भी इन ढोंगी धर्मगुरुओं जितनी ही जिम्मेदार नहीं है? आग का स्वभाव ही है जलाना किंतु जब तक हम अपने हाथ उसमें नहीं देते तब तक वह नहीं जलाती। यही भोली-भाली जनता के साथ हो रहा है।

कोई भी प्रामाणिक धार्मिक ग्रंथ कभी भी व्यक्ति को ईश्वर से अलग नहीं मानता एवं उसी चेतना को प्राप्त करना ही मानव जीवन का लक्ष्य है। फिर हम उन चीजों की कामना में इतना क्यों उलझे हुए हैं जो चीजें एक सीमित समय के सुख का भ्रम ही दे सकती हैं। हम जब तक अपने प्रामाणिक शास्त्रों से दूर हैं तब तक अंधविश्वास है, कुरीतियां है तथा तब तक ही ढोंगी पाखंडी धर्मगुरुओं का व्यापार है। आज जाति एवं धर्म का धंधा सबसे आसान लगता है क्योंकि जब समाज बंटता है तो उसके एक एक हिस्से का लाभ किसी ना किसी स्वार्थी तत्व को आकर्षित करता है वह राजनेता भी हो सकता है और धर्मगुरु भी। राम के नाम पर ओछी राजनीति करने वालों से बात करें तो पता लगेगा कि उन्हें ना तो रामचरितमानस का कुछ अता पता है ना बाल्मीकि रामायण का किंतु चूंकि इस विषय से समाज को बांटने में सफल हो रहे हैं तथा राजनीति की दुकान चल रही है इसलिए मुद्दे को जीवित रखना जरूरी हो जाता है और हो भी क्यों ना क्योंकि एक सुनी-सुनाई पंक्ति के सहारे एक जातिवादी मुद्दा भी इन अवसरवादियों को आसानी से मिल जाता है और फिर इनके मन में मगरमच्छ के आंसू की तरह दलित प्रेम उमड़ता है। यह कथन याद नहीं रहता कि सेवा का भाव सर्वोत्तम होता है इससे ईश्वर की प्राप्ति आसान है यही भक्ति का मार्ग है। भगवान श्रीराम को निजी स्वार्थ के वशीभूत दलित विरोधी कहने वालों को श्री राम कथा के सच्चे वाचक काक भुशुंडी जी तथा सेवक के रूप में शबरी एवं जटायु नहीं दिखाई देते। उन्हें बाल्मीकि रामायण के उत्तरकांड का धोबी अवश्य दिखाई देता है जिसका अस्तित्व ही प्रश्नचिन्ह के घेरे में है क्योंकि बाल्मीकि रामायण में युद्ध कांड के बाद फलश्रुती लिखी गई है तथा फलश्रुती के पश्चात कोई भी ग्रंथ समाप्त हो जाता है अतः उसके पश्चात किसी अध्याय की संभावना ही नहीं बनती। अतः बाल्मीकि रामायण में उत्तरकांड का अस्तित्व ही संदेहास्पद लगता है तथा कुछ विद्वानों का यह भी मानना है वाल्मीकि रामायण में उत्तरकांड श्री वाल्मीकि द्वारा रचित नहीं है गोस्वामी तुलसी कृत उत्तरकांड एवं वाल्मीकि द्वारा रचित उत्तरकांड में जमीन -आसमान की असमानता भी इस संदेश को पुष्ट करती है।

अतः यदि जीवन को वास्तव में उन्नत बनाना है तो प्रामाणिक ग्रंथों से सच्ची निष्ठा से जुड़ने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय कारगर नहीं है। तथा जो प्रामाणिक ग्रंथ न खोज सकें, न पा सकें न पढ़ सकें, उनके लिए भी एक सुगम मार्ग है। अपने आस पास कुछ ऐसों को खोजिए जो आपसे कम भाग्यशाली है। वे ज़रूर मिलेंगे। उनमें ईश्वर को देखिये, उनके भोजन, वस्त्र, शिक्षा, मानसिक जागरण के लिए अपनी सीमाओं में रहते हुए कुछ योगदान स्वयम करिये। उनकी मुस्कुराहट में परमपिता का आशीर्वाद देखिये-आप को और कहीं नहीं भटकना होगा। यदि ऐसा नहीं होगा तो समाज में पाखंड एवं अंधविश्वास की जड़े गहराती जाएंगी एवं ढोंगी धर्म गुरुओं का व्यापार ऐसे ही चलता रहेगा और भोली-भाली जनता उन के शिकंजे में फंसती रहेगी और हमारा सुंदर समाज बंटता रहेगा।

- दीपक श्रीवास्तव
(आदरणीय श्री बी. एल. गुप्ता सर के मार्गदर्शन से साभार)

Sunday, September 9, 2018

--- जातिगत भेदभाव के भंवर में हम ---

सैकड़ों वर्ष पुराना भारतीय समाज तो हमने नहीं देखा किंतु यह सत्य है कि जब से होश संभाला है, स्थानीय स्तर पर जाति के आधार पर भेदभाव महसूस किया है। निश्चित रूप से कुछ पीढ़ियां इसके लिए जिम्मेदार हो सकती हैं किंतु यह भी सत्य है कि अनेक वर्गों ने इसके विरुद्ध जन जागरण हेतु निरंतर प्रयास किया है। दुर्भाग्यवश बीते समय को लौटाना असंभव है किंतु यदि घाव हो जाए तो उसे बढ़ाने से पीड़ा कम नहीं होती बल्कि बढ़ती ही है। आज यही घाव नासूर का रूप लेता जा रहा है जिसके कारण देश दुर्बलता की ओर बढ़ रहा है। जब शरीर दुर्बल हो जाता है कोई भी शत्रु मौका देख कर उसे मार सकता है किंतु अभी भी समय है और हम अपने राष्ट्र की एकता एवं अखंडता को बनाकर इस नासूर पर विजय प्राप्त कर सकते हैं केवल थोड़ी सी इच्छाशक्ति की आवश्यकता है।

बचपन में पढ़ी एक छोटी सी कहानी याद आती है कि एक बार शरीर के सभी अंगों में विवाद हो गया। पैरों का कहना था कि मेरे ही दम से पूरा शरीर एक स्थान से दूसरे स्थान पर गति करता है, हाथों का कहना था कि सारे प्रमुख काम में ही करता हूं, मुंह का कथन था कि मेरे माध्यम से भोजन शरीर में पहुंचता है इसी प्रकार अन्य अंगों की भी अपनी अपनी बातें थी। किंतु सबका एक कथन था कि सभी लोग मिलकर पेट के लिए प्रयास करते हैं तथा पेट को क्या काम करना होता है?  यह तो निट्ठल्ला बैठा हुआ हमारी मेहनत को हजम करने में लगा रहता है। सभी अंगों ने निश्चय किया कि जब तक पेट कुछ काम नहीं करेगा तब तक हम इसके लिए कोई काम नहीं करेंगे। बस फिर क्या था सभी अंग हड़ताल पर चले गए। कुछ दिन बीते तो सभी अंगों ने अपने अंदर कमजोरी महसूस की। तब अनुभव से सभी को समझ में आया कि जो भी भोजन अंदर जाता है पेट उसे बचा कर सभी अंगों को आवश्यक पोषक तत्व पहुंचाता है जिसकी वजह से वह काम करते हैं अतः उन्होंने अपना अपना कार्य करना शुरू कर दिया तथा पुनः पहले जैसे सशक्त हो गए।

 जगदीश गुप्त जी की एक प्रसिद्ध कविता है - अपने हृदय का सत्य अपने आप हमको खोजना। अपने नयन का नीर अपने आप हमको पोंछना। आकाश सुख देगा नहीं धरती पसीजी है कहीं? जिससे हृदय को बल मिले है दे अपना तो वही।" 

अतः हमारे समाज में आ रही समस्याओं को ना तो कोई राजनीतिज्ञ सुलझाएगा या ना कोई बाहर से आकर हमारा सहयोग करेगा। यह एक परिवार की बात है तथा परिवार के अंदर से ही इसका हल निकलेगा। यदि हर वर्ग केवल अपना अपना निजी लाभ देखते  हुए एक दूसरे पर कीचड़ उछाले गा या कमजोर करने का प्रयास करेगा तो तो कभी भी इसका लाभ समाज को नहीं मिल पाएगा तथा नासूर बन चुका यह घाव हमारी जान ले लेगा। इसका लाभ स्वार्थी षड्यंत्रकारी उठाते रहेंगे और हम बंटते रहेंगे। अतः सभी से निवेदन है कि भले ही अपना लाभ देखें किंतु समाज को बांटने वाली शक्तियों को पहचानकर उसके विरुद्ध संगठित होकर प्रतिकार करें।  अपनी दृष्टि में दूरदर्शिता विकसित करें ताकि हमारे बाद भी हमारी पीढ़ी हमारे द्वारा की गई गलतियों का फल न भोगने पाये। हम जिए न जिए हमारी पीढ़ी जिये।  हमारा देश जिए यह राष्ट्र जिए। 

- दीपक श्रीवास्तव

Saturday, September 8, 2018

--- कारपोरेट संस्कृति के चोले में बदलता भारतीय परिवेश ---

लगभग 30 वर्ष पहले जब भारत में कारपोरेट जगत बाल्यावस्था से किशोरावस्था में प्रवेश कर रहा था उस समय भारतीय शिक्षा पद्धति पर अंग्रेजी शिक्षा पद्धति हावी होने का प्रयास कर रही थी। यदि बात केवल भाषा तक होती तब ठीक था किंतु यह भारतीय समाज का एक अनिवार्य अंग बनता जा रहा था तथा तथाकथित प्रगतिवादी सोच वाले भारतीयों के जीवन में अपने सांस्कृतिक मूल्य कम होते जा रहे थे तथा अंग्रेजी सिर्फ एक भाषा के रूप में नहीं बल्कि आडंबरयुक्त बनावटी जीवन शैली के रूप में विकसित हो रही थी।

झूठ एवं दिखावे यह मुखौटा भारतीय सिनेमा के बदलते स्वरुप में भी दिखाई देने लगा था। एक पुरानी फिल्म याद आती है जिसमें नायिका एक मोटर मैकेनिक अपनी कार ठीक कराती है तथा हड़बड़ी में पैसे देना भूल जाती है तथा उसका पर्स भी मोटर मैकेनिक की गैराज में छूट जाता है। जब दुकान के मालिक जो मैकेनिक के बड़े भाई थे उन्हें इस बात का पता चला है तो उन्होंने मैकेनिक को आदेश दिया कि अपनी मजदूरी के पैसे इसमें से निकाल लो तथा महिला के दोबारा आने पर पर्स लौटा देना तब मैकेनिक के शब्द कि बिना महिला से पूछे पर्स में से पैसे निकालना नैतिकता के खिलाफ है ।उस समय के उच्च मानवीय आदर्शों को स्थापित करता दिखाई देता है। समाज में आए बदलाव ने यह भी दिखाया कि अनैतिक कार्यों को करने के बावजूद कानून की गिरफ्त से बचने हेतु क्या क्या तरीके हो सकते हैं। एक ऐसी फिल्म भी आई थी जिसमें कुछ मित्र मिलकर देश एवं विदेश में धोखाधड़ी का कारोबार करते हैं तथा मौज मस्ती के नए आयाम स्थापित करते हैं।

दुर्भाग्यवश फिसलते आदर्शों का क्रम भारतीय समाज की जीवन शैली मे अनवरत शामिल होता चला जा रहा है और समाज बदलाव की बयार को आधुनिकता की मुखौटे से छुपाने का प्रयास कर रहा है। इसका सबसे दुखद पहलू यह है कि जहां बड़े बुजुर्गों की छांव में संयुक्त परिवार के रूप में परिवार का प्रत्येक सदस्य आधुनिक जीवन शैली को अपनाने के बावजूद अपने मूल्यों से जुड़ा हुआ था आज वह एकाकी जीवन बिताने को मजबूर है क्योंकि इस जीवन शैली ने धैर्य एवं संयम जैसे मानवीय गुणों पर करारी चोट की है।  हर व्यक्ति सफलता पाने हेतु कठिन परिश्रम की बजाय आसान रास्ता ढूंढने में लगा है तथा करोड़पति कैसे बने जैसी पुस्तकों की समाज में स्वीकार्यता बढ़ी है। मैनेजमेंट की अनेक पुस्तकें बाजार में उपलब्ध है तथा विभिन्न कोर्सों के माध्यम से इसके सूत्रों को आम विद्यार्थियों तक पहुंचाने का प्रयास भी किया जा रहा है। यदि इन सूत्रों को अपनी कार्यशैली में सही तरीके से अपनाया जाए तो निश्चित रूप से कार्य क्षमता एवं व्यक्तिगत जीवन शैली भी उन्नत होती है।

किंतु अधिकांश स्थानों पर प्रबंधन के इन महत्वपूर्ण सूत्रों का उपयोग सत्य को छिपाते हुए बनावटी मुखौटों से ढके हुए असत्य को बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत करने में उपयोग किया जा रहा है। मैनेजमेंट अपने कर्मियों द्वारा किए गए कार्यों की समीक्षा लेकर ही अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेता है तथा टीम के प्रदर्शन से  संतुष्ट हो जाता है। इस प्रकार हर व्यक्ति द्वारा अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन भली प्रकार होने के बावजूद कर्मियों में असंतोष की भावना उपजती है तथा  जीवन में कोई विशेष बदलाव ना होने के कारण कर्मी नए अवसरों की तलाश में जुट जाते हैं। नए अवसर अपेक्षा के अनुरूप भी हो सकते हैं तथा विपरीत भी हो सकते हैं। आज के दौर में प्रबंधन पर एक बड़ी जिम्मेदारी है कि वह अपने कर्मियों की योग्यता अनुसार उनकी प्रगति का मार्ग भी सुनिश्चित करें। नई तकनीकों के अध्ययन की पहली जिम्मेदारी प्रबंधन पर है ताकि वहां से बेहतर अवसर निकाले जा सके तथा कुछ चुनिंदा कर्मियों को उपयुक्त दिशा में आगे बढ़ने के अवसर दिए जा सके।  इस प्रकार प्रबंधन एवं कर्मियों के सर्वांगीण विकास का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है। इस स्थान पर भी प्रबंधन के इन आधारभूत सिद्धांतों का अनुपालन नहीं होता वहां अपने आप को सही साबित करने की होड़ लगी होती है तथा हर व्यक्ति असंतोष को हृदय में लिए हुए स्वयं को बंधा हुआ महसूस करता है तथा उपयुक्त अवसर मिलते ही बंधन से मुक्त हो जाता है।

 इसी असंतोष की भावना ने व्यक्तिगत जीवन शैली पर भी बहुत करारा प्रहार किया है था व्यक्ति के व्यवहार में अपने आप को वास्तविकता से अधिक दिखाने का प्रयास तथा येन केन प्रकारेण अधिक से अधिक संचय करने की प्रवृत्ति विकसित हुई है। जगदीश गुप्त जी ने लिखा है - "संसार सारा आदमी की चाल देख हुआ चकित। पर झांक कर देखो दृगों में है सभी प्यासे थकित॥"

 कारपोरेट जगत के अधिकांश कर्मियों की सामान्य बातचीत में 80% सैलरी एवं आर्थिक असंतोष की भावना रहती है तथा बेहतर जीवन शैली का मानसिक दबाव क्षमता से अधिक खर्च करने को मजबूर करता है जिस कारण उपजी असंतोष की भावना उन्हें आर्थिक चर्चाओं के शिकंजे से बाहर नहीं निकलने देती तथा अनर्गल संचय की प्रवृत्ति विकसित होती है। मै मेरे बच्चे मेरा परिवार इसके अतिरिक्त यदि उन्हें कुछ दिखाई देता है तो वह सिगरेट अथवा शराब। सामाजिकता से दूर होने के कारण उन्हें अपने नागरिक अधिकारों पर बहस करना तो ठीक लगता है किंतु उन अधिकारों की प्राप्ति के प्रयास से दूर ही रहते हैं तथा राष्ट्र निर्माण के भागीदार नहीं बन पाते।

यह समाज के लिए आत्मघाती स्थिति है क्योंकि कॉरपोरेट जगत के अधिकांश कर्मी उच्च शिक्षा प्राप्त होते हैं तथा उनके अंदर अच्छी समझ होती है। राष्ट्र निर्माण हेतु वह एक अच्छी भूमिका निभा सकते हैं। इतने योग्य व्यक्तियों का अपने सांस्कृतिक मूल्यों से दूर होना तथा बनावटी जीवन का अभ्यास देश की प्रगति में न सिर्फ बाधक है बल्कि उसे प्रगति पथ पर कई मील पीछे धकेल देता है।

- दीपक श्रीवास्तव

Sunday, September 2, 2018

--- अयोग्यता से राष्ट्र निर्माण ---

हम जब भी अपने घर के लिए, अपने परिवार के लिए अथवा अपने स्वास्थ्य के लिए कोई सेवा चाहते हैं तो उसकी गुणवत्ता से कोई समझौता नहीं चाहते। जो भी सर्वश्रेष्ठ सेवा दे सकता है उसका पता लगाने के पश्चात ही हम इसमें आगे बढ़ते हैं। व्यक्तियों से परिवार बनता है, परिवारों से समाज बनता है तथा मिट्टी संस्कृति एवं समाज से मिलकर राष्ट्र का निर्माण होता है। अतः राष्ट्र की बेहतर संकल्पना हेतु व्यक्तियों के स्तर तक प्रत्येक क्षेत्र में सशक्तिकरण की आवश्यकता है।

जब तक व्यक्तिगत स्तर पर प्रत्येक क्षेत्र में गुणवत्ता नहीं है तब तक कोई भी राष्ट्र वैश्विक स्तर पर अपनी पहचान नहीं बना सकता क्योंकि राष्ट्र की पहचान सर्वोच्च पदों पर आसीन व्यक्तियों से नहीं बल्कि वहां के आम जनमानस से होता है।

 दुर्भाग्य की बात है कि जो व्यक्ति परिश्रमी है, क्षमताशील है, तथा स्वयं के विकास हेतु निरंतर प्रयास एवं संघर्षों का सामना करते हैं, अक्सर वे अपने अधिकारों के प्रति सजग नहीं होते। उनकी आम धारणा ऐसी होती है कि यदि योग्यता है तो उपयुक्त स्थान पा ही लेंगे। इसके विपरीत जो व्यक्ति परिश्रम नहीं करना चाहते परंतु अपनी क्षमता से अधिक पाने की इच्छा रखते हैं वे अक्सर इच्छित स्थान प्राप्त करने हेतु अनेक अनैतिक संसाधनों का सहारा लेने का प्रयास करते हैं और अयोग्य होते हुए भी योग्य व्यक्तियों के समकक्ष खड़े होने का प्रयास करते हैं। इतिहास साक्षी है यदि समाज के किसी भी एक वर्ग में एकता है तो समाज का भले ही हित हो या अहित हो राजनीतिक कारणों से उसे सरकारी सहयोग प्राप्त होता है तथा वे समाज में मजबूत हो जाते हैं। उन्हें अपनी योग्यता पर भले ही संदेह हो किंतु राजनैतिक सहयोग का चश्मा चढ़े होने के कारण राष्ट्र का हित उन्हें दिखाई नहीं देता। इसमें भी सबसे बड़े आश्चर्य की बात यह है कि जब अपने परिवार के हित की बात आती है तो वह उसी व्यक्ति से सेवा लेना चाहते हैं जो योग्यता के आधार पर अपने यथोचित स्थान पर हो।

राष्ट्र के हित इसी में है कि उपेक्षित वर्ग को भी आगे आने के पर्याप्त अवसर दिए जाएं जिसके अनेक प्रयास हमें प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं परंतु दुर्भाग्य की बात यह है इन वर्गों में योग्यता को ऊपर उठाने हेतु एक भी प्रयास नहीं किया गया। जो कानून बनते हैं उनका उपयोग से अधिक दुरुपयोग होने लगता है।

पैरों के कमजोर होने पर बैसाखियों का सहारा लेना ठीक है किंतु जब कदमों में ताकत आ जाती है तब बैसाखियां पैरों की गति को कम करती हैं। कमोवेश आज भारतीय समाज की यही स्थिति है। आज अनेक उपेक्षित वर्ग सक्षम हो चुके हैं किंतु बैसाखियां छोड़ने को तैयार नहीं। ऐसा करके वह अपनी ही भावी पीढ़ी को योग्य बनने से रोक रहे हैं। सक्षम हो चुके वर्गों की आज नैतिक जिम्मेदारी भी है कि जिस राष्ट्र ने आगे बढ़ाने हेतु योग्यता के ऊपर उन्हें वरीयता दी है उसके निर्माण में अपना योगदान दें किंतु स्थिति आज इसके विपरीत है। उन्हें आगे बढ़ने का अवसर तो मिल गया किंतु उन्होंने इसका हृदय से सम्मान करना नहीं सीखा और स्वयं भी स्वार्थी होते हुए कुछ स्वार्थी एवं मौकापरस्त राजनीतिज्ञों के हाथों के मोहरे बन गए जिनकी बिसात पर आज देश में गंदा राजनीतिक खेल खेला जा रहा है।

निश्चित रूप से आज भले ही हम वैश्विक स्तर पर चंद कदम आगे बढ़े हो किंतु यदि योग्यता की उपेक्षा ऐसे ही होती रही तो राष्ट्र को पतन के गर्त में जाने से विश्व की कोई भी शक्ति रोक नहीं सकती।

- दीपक श्रीवास्तव

मोहन के धाम

चलो चलो साथी हिल-मिल कर, मनमोहन के धाम,
मुरली की मीठी धुन बाजे, जहाँ प्रेम अविराम।।
गैया, पाहन और कदम्बें, सबकी जहाँ एक ही बोली,
छुपे जहाँ कण कण में मोहन, खोजत सब ग्वालन की टोली।
जहाँ कृष्ण की शीतल छाया, बाकी जग है घाम,
चलो चलो साथी हिल-मिल कर, मनमोहन के धाम।।१।।
छलके जहाँ भक्ति रस ऐसे, मुरली की मीठी धुन जैसे,
जहाँ गोपियाँ प्रेम मगन हों, भव-बन्धन छूटे ना कैसे,
जहाँ रचाते हर पल कोई, लीला मोरे श्याम,
चलो चलो साथी हिल-मिल कर, मनमोहन के धाम।।२।।
- दीपक श्रीवास्तव