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Tuesday, October 8, 2013

आने को है सपना कोई

चल रहे जाने कहाँ कब से कभी समझा कोई?
फिर नया आकाश दो, आने को है सपना कोई||

फडफडाते चेतना के पर, इन्हें आकार दो|
काल भी यही रोकना चाहे, उसे दुतकार दो|
आग जो मन में बसी, उसको कलम की धार दो,
स्वप्न जो है बंद आँखों में उसे साकार दो|
जो अचेतन हैं, उन्हें कब तक कहे अपना कोई?
फिर नया आकाश दो, आने को है सपना कोई||१||

कल कभी आये नहीं, चाहे स्वयं को हार दो|
क्षण अभी है आज है, जीवन इसी पर वार दो|
आज अनगढ़ पत्थरों को मूर्ति का उपहार दो|
जो तुम्हारे हैं, उन्हें अब स्वप्न का संसार दो|
लक्ष्य तो संघर्ष से ही जूझकर मिलना कोई|
फिर नया आकाश दो, आने को है सपना कोई||२||

-- दीपक श्रीवास्तव

नयन में धार कैसी

इस नयन में धार कैसी?
कर्म पथ में हार कैसी?
कंटकों को भी बहा दे,
अश्रु की हो धार ऐसी||

क्या सवेरा, रात क्या है?
नियति का आघात क्या है?
थक गए जो, रुक गए जो,
लक्ष्य की फिर बात क्या है?

अश्रु या मोती नयन के,
क्यों नियति पर है बहाना?
कल हमीं थे, आज हम है,
जूझना, है आजमाना|

राह को ही वर लिया तो
फिर नियति की मार कैसी?
कंटकों को भी बहा दे,
अश्रु की हो धार ऐसी||

--दीपक श्रीवास्तव

Monday, October 7, 2013

सर्वप्रथम माँ तेरी पूजा

हे जननी, हे जन्मभूमि, शत-बार तुम्हारा वंदन है|
सर्वप्रथम माँ तेरी पूजा, तेरा ही अभिनन्दन है||

तेरी नदियों की कल-कल में सामवेद का मृदु स्वर है|
जहाँ ज्ञान की अविरल गंगा, वहीँ मातु तेरा वर है|
दे वरदान यही माँ, तुझ पर इस जीवन का पुष्प चढ़े|
तभी सफल हो मेरा जीवन, यह शरीर तो क्षण-भर है|
मस्तक पर शत बार धरुं मै, यह माटी तो चन्दन है|
सर्वप्रथम माँ तेरी पूजा, तेरा ही अभिनन्दन है||१||

क्षण-भंगुर यह देह मृत्तिका, क्या इसका अभिमान रहे|
रहे जगत में सदा अमर वे, जो तुझ पर बलिदान रहे|
सिंह-सपूतों की तू जननी, बहे रक्त में क्रांति जहाँ,
प्रेम, अहिंसा, त्याग-तपस्या से शोभित इन्सान रहे|
सदा विचारों की स्वतन्त्रता, जहाँ न कोई बंधन है|
सर्वप्रथम माँ तेरी पूजा, तेरा ही अभिनन्दन है||

–दीपक श्रीवास्तव

Friday, September 6, 2013

कैसे सत्य सुनायें

कैसे सत्य सुनायें साथी, चारों ओर दिखावा है|
सौ सौ झूठी बातों पर भी सच्चाई का दावा है||

दुनिया का विस्तार हुआ है,
धन का तो अम्बार हुआ है|
छोटी छोटी बातों में भी,
अपना ही व्यापार हुआ है|
शिक्षा की तो बात न पूछो,
उसमे बहुत छलावा है||
सौ सौ झूठी बातों पर भी सच्चाई का दावा है||१||

चल रहे हैं, जल रहे है,
किस भंवर में पल रहे है|
लक्ष्य क्या है? भ्रांतियां हैं,
भ्रांतियों में गल रहे है|
अन्तर में पशुता ही देखी,
जीवन एक दिखावा है||
सौ सौ झूठी बातों पर भी सच्चाई का दावा है||२||

बहुत चले हैं अब तक जग में,
मगर नहीं कुछ आस दिखी|
अब तक तो सबकी आँखों में,
भूख दिखी है, प्यास दिखी|
जहाँ प्यार की उम्मीदें थीं,
वहां द्वेष का लावा है||
सौ सौ झूठी बातों पर भी सच्चाई का दावा है||३||

–दीपक श्रीवास्तव

Wednesday, September 4, 2013

अपने को पहचानो तो

मन की अपने मानो तो|
अपने को पहचानो तो||

जो दुनिया में आये हो,
विघ्नों से लड़ना होगा|
अगर शिखर को पाना है,
तूफां में अड़ना होगा|
जग से लड़कर क्या होगा,
खुद से ही लड़ना होगा|
मन में अपने ठानो तो|
अपने को पहचानो तो||१||

चाहे हों संघर्ष बड़े,
मन को बांधे खड़े रहो|
राह नहीं तो राह गढ़ो,
लेकिन हरदम लड़े रहो|
जीत अभी मिल जायेगी,
इसी भरोसे अड़े रहो|
मन में अपने ठानो तो|
अपने को पहचानो तो||२||

--दीपक श्रीवास्तव

Tuesday, July 30, 2013

अभी तो रात बाकी है


जरा सा और सोने दो|
अभी तो रात बाकी है||

हो रही आँखें उनींदी,
स्वप्न में अब डूब जाऊं|
कुछ घडी भूलूं जगत को,
जब दिवा से उब जाऊं|

जरा स्वप्नों में खोने दो,
अभी तक आस बाकी है|
जरा सा और सोने दो|
अभी तो रात बाकी है||१||

चल दिए अब तुम कहाँ ?
कुछ प्रहर का संग तो हो|
दो घड़ी को और ठहरो,
शून्यता यह भंग तो हो|

जरा सा और जीने दो,
अभी तक साँस बाकी है|
जरा सा और सोने दो|
अभी तो रात बाकी है||२||

--दीपक श्रीवास्तव

Saturday, July 27, 2013

मूरख इन्सां समझ न पाया

माँ कहती है तुम हो एक,
फिर क्यों तेरे रूप अनेक?
हम तुमको क्या कहें बताओ |
राम, कृष्ण या अल्ला नेक ||१||

कोई पूरब को मुंह करता,
कोई पश्चिम को ही धरता |
चाहे पूजा या नमाज हो,
ध्यान तुम्हारा ही तो करता ||२||

क्यों हैं तेरे इतने रूप?
दुनिया तो है अँधा कूप |
जात-धर्म की पग-पग हिंसा,
यही जगत का हुआ स्वरुप ||३||

माँ कहती सब तेरी माया,
अलग-अलग रखकर के काया |
जीवन का आदर्श बताया,
मूरख इन्सां समझ न पाया ||४||

--दीपक श्रीवास्तव