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Sunday, May 3, 2020

फिर विलीन हो जाना है

उठा शून्य से भंगुर जीवन,
फिर जग में खोया यह तन-मन।
जाने क्यों ढूंढें अनन्त को,
जब तक है प्राणों का बन्धन।।

किसे प्रभावित करना है,
किस-किस को नाम जताना है।
ज्यों सागर में उठें बुलबुले,
फिर विलीन हो जाना है।।

सागर में लहरें अनन्त हैं,
सबका अपना छोर, अन्त है।
अनगिन हैं उठ रहे बुलबुले,
गति ऊपर को जहाँ अन्त है।।

सबकी स्थितियां विभिन्न हैं,
चंचल गति है, प्राण छिन्न हैं।
लहरों में हैं झूल रहा जग,
किन्तु भ्रमित है, सोच भिन्न है।।

ज्यों सागर जलराशि अथाह,
ढूंढे पर भी मिले न थाह।
वैसे कण-कण ब्रह्म समाहित,
निर्झर और अनन्त प्रवाह।।

धरती बांटी, सोच बंटे है,
इक दूजे को मार कटे हैं।
क्या-क्या पाना चाह रहे हैं,
साँसे भी न थाम सके हैं।।

साँसों की लय से है जीवन,
बाहर की है हवा लिए तन।
जाने ढूंढें किस अनन्त को,
शून्य नियति है, शून्य भरा मन।।

उठा शून्य से भंगुर जीवन,
फिर जग में खोया यह तन-मन।
जाने क्यों ढूंढें अनन्त को,
जब तक है प्राणों का बन्धन।।

- दीपक श्रीवास्तव