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Friday, August 31, 2018

पुस्तक "समग्रता की ओर" - भावांजलि

बलिया के एक छोटे से गांव शिवपुर से प्रारंभ हुई मेरे जीवन की भौतिक यात्रा गोरखपुर, वाराणसी, पुनः गोरखपुर तथा अब राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में लेकर आई है। प्रारंभिक दिनों में आज जैसी सुख सुविधाएं नहीं थी। मनोरंजन के नाम पर मिट्टी के घरौंदे बनाना, खेत की मिट्टी से विभिन्न चित्र तैयार करना, गांव के बच्चों के साथ विभिन्न प्रकार के खेल जैसे विष-अमृत, चोर सिपाही जैसे अनेक खेल हुआ करते थे। हमारे गांव में बिजली भी नहीं थी किंतु जब तक गांव में रहे तब तक किसी सुविधा की आवश्यकता महसूस नहीं हुई। हमारा गांव का घर मिट्टी की मोटी दीवारों से बना हुआ था जहां प्रतिदिन गोबर की लिपाई होती थी। मोटी मोटी बल्लियों के सहारे खपरैल की छत बनी थी जिनके नीचे भयानक से भयानक गर्मी भी बेअसर रहती थी। पानी के लिए घर में एक हैंडपंप था जिसके पानी की मिठास के मुकाबले शोधित बोतलबंद पानी अत्यंत फीका महसूस होता है। मेरे बाबा सिंचाई विभाग में सेवारत थे तथा दादी ग्रहणी थी। संयुक्त परिवार में दादी एवं बाबा का रुतबा किसी रानी एवं राजा से कम न था। बाबा गांव के मुखिया हुआ करते थे अतः पूरे गांव के निवासी अपनी समस्याओं को सुलझाने हेतु बाबा के पास आया करते थे। शिक्षा के नाम पर एक प्राइमरी विद्यालय था जो कक्षा 5 तक ही था। इससे ऊपर की शिक्षा प्राप्त करने हेतु दूर शहर में जाना पड़ता था जो लगभग 10 किलोमीटर दूर था। इन परिस्थितियों में मेरे पिताजी पहले व्यक्ति थे जो इस गांव से बाहर निकले तथा चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े। मेरे पिताजी को सरकारी सेवा का प्रथम अवसर गोरखपुर में मिला जहां से मेरी शिक्षा प्रारंभ हुई। आज तो शिक्षा में व्यवसायीकरण होने के कारण शिक्षा का उद्देश्य एक बेहतर रोजगार प्राप्त करने तक ही सीमित रह गया है किंतु जब मेरी शिक्षा प्रारंभ हुई थी तो मुझे आज भी याद है कि मेरे माता-पिता ने मुझसे कहा था सबसे पहले वहां जाकर आचार्य जी के पैर छूने हैं। वहां जो भी बताया जाए उसे पूरे मन से सीखना है तथा सजा मिलने पर भी उसे हृदय से स्वीकार करना है। यहां से गुरु एवं शिष्य के बीच एक संबंध बना था जो आज भी उसी भाव से जीवंत है जैसे प्रारंभ हुई थी। जब मैं कक्षा तृतीय में था तभी पिताजी का स्थानांतरण वाराणसी हो गया किंतु यहां भी शिक्षा उसी आदर्श परिवेश में हुई। वाराणसी में यूपी कॉलेज से स्नातक करने के बाद कुछ समय के लिए जीवन की दिशा को लेकर भ्रम रहा, संघर्ष रहा जो वास्तविक रूप में इंजीनियरिंग क्षेत्र की ओर अग्रसारित हुई तथा मदन मोहन मालवीय इंजीनियरिंग कॉलेज गोरखपुर से इंजीनियरिंग करने के पश्चात राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में आना हुआ।

जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव देखे तथा संघर्षों से जूझते हुए अनेक ठोकरें खाई फिर संभला किंतु अब तक की इस यात्रा में अनेक बार ईश्वर की प्रत्यक्ष कृपा का अनुभव किया है। यह साक्षात ईश्वर की कृपा ही है जो लगभग पूर्ण भौतिकवादी युग एवं समाज में होने के बावजूद बचपन की शिक्षा आज तक हृदय में जीवंत है। यह मेरे माता पिता एवं गुरुजनों द्वारा दी गई शिक्षा एवं स्नेहा का परिणाम ही है जो राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में आकर अनेक महान विचारकों तथा विद्वानों का सानिध्य मिला तथा सीखने की प्रक्रिया जारी रही। सन 2010 में श्री अतुल नागपाल के माध्यम से नोएडा के वरिष्ठ समाजसेवी श्री अशोक श्रीवास्तव से मुलाकात मेरे जीवन की अविस्मरणीय पलों में से एक है क्योंकि इसी मुलाकात ने मुझे नोएडा शहर में प्रथम बार तीन मिनट हेतु मंच दिया था। यह मेरे सामाजिक जीवन की शुरुआत थी। इसके बाद जो सम्मान मिला वह किसी ईश्वरीय कृपा से कम नहीं है। वरिष्ठ लेखिका डॉ सरोजिनी कुलश्रेष्ठ जी से हिंदी कविता तथा पद्मश्री शीला झुनझुनवाला जी से हिंदी लेख का बीज पड़ा।  परम विद्वान श्री कृष्ण कुमार दीक्षित जी से श्री रामचरितमानस प्रेम का बीज पड़ा। यह बातें मन में इतनी गहरी उतरी है के जीवन में जिस दिन इन पर बात ना हो उस दिन जीवन अधूरा सा लगता है।

हृदय में सदा विराजमान रहने वाले जिन भावों में हर क्षण प्रत्यक्ष ईश्वर की अनुभूति होती हो तथा पूज्य वरिष्ठ जनों के स्नेहाशीष द्वारा जिन भावों को रोपा और सींचा जाता हो उन्हें पूर्णतया लेखबद्ध करना असंभव है। जिस प्रकार ईश्वर के विराट स्वरूप की कल्पना भी मनुष्य द्वारा स्थूल शरीर के माध्यम से असंभव है किंतु फिर भी मनुष्य विभिन्न माध्यमों द्वारा उस ईश्वर को सांकेतिक रूप से देखने का प्रयास करता है चाहे वह पत्थर के रूप में हो या पुस्तक के रूप में। ठीक उसी प्रकार यह पुस्तक मेरे हृदय में स्थापित संस्कारों एवं सामाजिक परिकल्पना का प्रतीक भर ही है परंतु मेरी असमर्थ लेखनी इसे शब्दायित करने में समर्थ नहीं हो पाती यदि ईश्वर का प्रत्यक्ष आलंबन ना होता।

अतः इन रचनाओ को मेरी कलम ने सिर्फ कागज पर उतारने का कार्य किया है तथा स्वयं ईश्वर ने इन रचनाओं को रचकर मेरे माध्यम से समाज को देने का जो यश मुझे प्रदान किया है उसके आगे शब्दों के समूह अत्यंत सूक्ष्म है। भारतीय ज्ञानपीठ के पूर्व निदेशक स्वर्गीय दिनेश मिश्र जी मुझसे कहा करते थे कि रचनाओं के व्याकरण को समझने हेतु बहुत जीवन पड़ा है पहले रचनाओं को जीना शुरू करें, लिखना शुरू करें।  ह्रदय की अभिव्यक्ति को शब्दों में डालना आवश्यक है क्योंकि रचनाएं केवल कुछ शब्दों का समुच्चय नहीं है बल्कि यह तो सामाजिक परिकल्पना एवं व्यक्ति की अंतश्चेतना का आधार है। ईश्वर साक्षी है इन लेखों को लिखते समय मेरा मन विचारशून्य रहा है तथा कलम स्वतंत्र रूप से लिखती रही है। मैं हिंदी अकादमी के पूर्व अध्यक्ष डॉ रामशरण गौड़ जी का हृदय तल से आभार व्यक्त करता हूं जिन्होंने इस पुस्तक को साकार रुप देने हेतु प्रत्येक क्षण पर मेरा मार्गदर्शन किया है तथा पुस्तक का नाम "समग्रता की ओर" भी उन्हीं द्वारा दिया हुआ है। अनेक गुरु स्वरूप भारतीय विद्वानों ने इस पुस्तक को साकार रुप देने में मेरा मार्गदर्शन किया है। इसके साथ ही मेरे अभियंत्रण महाविद्यालय के आदरणीय अग्रज श्री अवधेश कुमार सिंह तथा श्री बी एल गुप्ता का निरंतर मार्गदर्शन मिलता रहा है। मैं प्रिय अनुजस्वरूप कवि श्री अंकित चहल एवं ऑफिस के सहकर्मी श्री मनीष पटवाल जी का भी आभार व्यक्त करता हूं जिन्होंने प्रथम पाठक के रूप में पाठकीय दृष्टि से मेरा सहयोग किया है। विशेष रूप से मैं अपनी पत्नी के योगदान को भी प्रणाम करता हूँ जिसने इस पुस्तक को मूर्तरूप देने में एक सच्चे सहयोगी एवं समालोचक की भूमिका अत्यंत निष्ठा से निभाई है ।

अपनी कलम से लिखी हुई रचनाएं किसे प्रिय नहीं होती अतः इस पुस्तक का कण-कण मुझे प्यारा है। मेरी अंतश्चेतना में निरंतर बसने वाली ईश्वर की इस रचना को साकार रूप में अब मैं पाठकों के हाथों में सौंपता हूं।  यदि इस में उपस्थित एक लेख भी सामाजिक एकता एवं अखंडता के स्वरूप को साकार करने में अपना योगदान दे सके तो मैं यह जीवन धन्य समझूंगा।

 - दीपक श्रीवास्तव

Tuesday, August 28, 2018

--- पुस्तक समीक्षा - एक शीशी गुलाब जल ---

साहित्य किसी भी समाज के पोर-पोर में बसी हुई संस्कृति की पहचान है। किसी भी देश अथवा समाज को भौतिक रूप से समझने के लिए यात्रा एक माध्यम अवश्य है किंतु समाज की पूर्ण पहचान वहां के साहित्य द्वारा ही है। रहन सहन, जीवन शैली, खानपान, विचारों का आदान-प्रदान, शिक्षा पद्धति, लोक व्यवहार एवं संस्कृति, खेल एवं मनोरंजन, बच्चों की परवरिश, घर की साज सज्जा, पूजन पद्धति इत्यादि अनेक ऐसे विषय हैं जो समाज के साहित्य द्वारा ही भली प्रकार से समझे जा सकते हैं। यदि साहित्य रचना सरस सुगम्य  कविता अथवा गीत शैली में हो तो यह जन भाषा का हिस्सा बन जाती है तथा युगों-युगों तक समाज का मार्गदर्शन करती रहती है। विनोद पाण्डेय द्वारा रचित "एक शीशी गुलाब जल" अपनी सहज अभिव्यक्ति के माध्यम से भारतीय समाज के अनेक पहलुओं का प्रतिनिधित्व करती है।

 आज के भौतिकवादी युग में जहां धन लोलुपता की माया ने समाज के एक बड़े हिस्से को इतना प्रभावित किया है कि लोग इस आंधी में हित-अहित भी नहीं देख पाते वहां पुस्तक के प्रारंभ में ही माता सरस्वती से श्रद्धा परक ज्ञान एवं रूढ़ियों तथा आडंबरों से दूर रहने की कामना समाज को अपने मानवीय मूल्यों का एहसास दिलाती है दिखावे से दूर सत्य की परिकल्पना को साकार करती है। इतना ही नहीं यह झूठे आडंबरों से समाज को मुक्त करने एवं सत्य की प्रतिस्थापना हेतु बदलाव की भी पक्षधर है।

 जीवन में सुख भला किसे प्रिय नहीं होता। सुख की कामना में अधिकतर व्यक्ति दुख के महत्व को कमतर आता है जबकि सच्चाई यह है कि दुख के बिना व्यक्ति सुख के महत्व को समझ ही नहीं सकता। मैंने कभी अपनी एक कविता में लिखा था- "तुम कहते हो भौतिकता है, जीवन अविरल दौड़ रहा है। धन लिप्सा की आंधी में मानव का मन भी डोल रहा है। पर पापों के बढ़ने से ही होता ईश्वर का अवतार। बिन पापों के कैसे पूजे ईश्वर को सारा संसार।" दुख से सुख तक की यात्रा को जीवन का संघर्ष कहते हैं। यही परिवर्तन प्रकृति में भी है और मनुष्य के जीवन में भी। पतझड़ की अनुभूति के बिना मधुमास के सौंदर्य का आनंद नहीं तथा खोने का दर्द जाने बिना मिलने के सुख की सच्ची अनुभूति नहीं हो सकती। यही मानव जीवन का शाश्वत दर्शन है। इतने गूढ़ रहस्य को कविता में सरलतम रूप में प्रस्तुत करने की क्षमता उसी कवि की रचनाओं में हो सकती है जिसने इस मर्म को अपने हृदय के आभ्यंतर से अनुभव किया हो।

वस्तुतः मनुष्य का सहज स्वभाव प्रेम एवं आनंद का है किंतु मनुष्य अपने अंतर्मन की बात पर बुद्धि को वरीयता देकर अपने वास्तविक चेहरे के ऊपर मुखोटे लगा लेता है तथा इन्हीं मुखौटों के कारण अपने निज स्वरूप से दूर वह अहम की प्रवृत्ति विकसित करता है और दूसरों को छोटा अथवा नीचा साबित करने की भेड़चाल में सम्मिलित हो जाता है। समाज को दिशाहीनता से बचाने के लिए तथा उसे प्रगति के मार्ग की ओर प्रवृत्त करने हेतु अनेक बार कठोरता बरतने की भी आवश्यकता पड़ती है। इसी तथ्य को "एक शीशी गुलाब जल" में प्रकशित व्यंग रचनाएं सुंदर सहज एवं प्रभावी तरीके से साकार करते हुए समाज में मौजूद दिखावटीपन पर करारा प्रहार करती हैं। इतना ही नहीं वह यह भी दर्शाती हैं कि आज समाज कितना गतिशील हो चुका है कि किसी को अपनों से मिलने का भी समय नहीं है। हर कोई जीवन में सफलता तो फटाफट पा लेना चाहता है किंतु संघर्ष के लिए तैयार नहीं है।

श्री विनोद पाण्डेय जी ने शिक्षा के बदलते स्वरूप पर भी चिंता व्यक्त करते हुए द्रोणाचार्य का उदाहरण लेकर एक काल्पनिक चित्र खींचा है जो शिक्षा के गिरते मूल्यों की ओर समाज का ध्यान आकृष्ट कराता है। वर्तमान परिवेश में आपराधिक प्रवृत्ति के व्यक्तियों का समाज के महत्वपूर्ण पदों पर आसीन होना चिंता का विषय है क्योंकि इससे समाज सिर्फ पतन की ओर जाता है। इसका जिम्मेदार कौन है-  हम स्वयं इसके जिम्मेदार हैं तथा जिम्मेदार हैं समाज के वरिष्ठजन जो सक्षम होते हुए भी इसका विरोध नहीं करते तथा समाज को पतनोन्मुख होते हुए देखते रहते हैं। कवि ने भीष्म पितामह का उदाहरण लेकर अत्यंत नैसर्गिक एवं सहज भाव से इस ओर ध्यान आकृष्ट कराया है।

 यूं तो जीवन में अनेक पड़ाव आते हैं किंतु किशोरावस्था एवं युवावस्था के बीच का समय अति महत्वपूर्ण है जब व्यक्ति के अंदर उमंगों की उड़ान होती है, अल्हड़ता होती है, सम्वेदनाओं के ज्वार होते हैं। प्रेम दिवस अर्थात वैलेंटाइन डे का मस्ती भरा चित्रण एवं परीक्षा कक्ष से बाहर निकलने का उमंग इन्हीं भावनाओं की सजीव अभिव्यक्ति है।

कहते हैं जब तक जीवन है तब तक इच्छाओं का अंत नहीं। जब व्यक्ति अपनी इच्छाओं को वश में कर लेता है तब उसके अंदर देवत्व का उदय होना शुरू हो जाता है। इच्छाएं बहुत है कितनी है कुछ पता नहीं। "एक शीशी गुलाब जल" में जिन्न पर आधारित कविता व्यंग रूप में मानवीय इच्छाओं के पहाड़ का सशक्त चित्रण है जिनके आगे जिंदगी बेबस है। यही अंतहीन इच्छाएं व्यक्ति के अंदर रावण तत्व को जगा देती हैं जिसके बाद व्यक्ति अच्छे बुरे का ख्याल छोड़कर इच्छा पूर्ति हेतु किसी भी स्तर तक गिरने को तैयार है।  त्रेता युग में रावण के विनाश के लिए भगवान श्री राम का अवतार हुआ था किंतु वर्तमान में मनुष्य अपने मन में इतने रावणों को लिए घूम रहा है उससे पार पाना बहुत कठिन होता जा रहा है। परंतु कवि के अंदर ईश्वर में अटूट विश्वास है तथा वह उनकी प्रतीक्षा में गुहार लगा रहा है।

विनोद जी को मैं अनेक वर्षों से जानता हूं। वह भी एक बेटी के पिता हैं तथा मेरी भी एक नन्हीं पुत्री है। दोनों की पुत्रियों में लगभग 6 माह का अंतर है। अतः पुत्रियों को लेकर हम दोनों की संवेदनाएं एवं परिस्थितियां लगभग एक सी हैं। अनेक कवियों ने माता एवं पिता का पुत्र अथवा पुत्री के प्रति प्रेम का सुंदर चित्रण किया है किंतु मेरे सामने पहली ऐसी रचना आई है जब दिन भर की थकान से मां चूर है तथा नन्हीं बेटी मां के साथ खेलना चाहती है तब एक पिता अपनी नन्हीं बेटी को अत्यंत मार्मिक भाव से मां की स्थिति का अनुभव कराता है।

समाज के विविध रूप रंग हैं। कहीं उमंगे हैं कहीं अल्हड़ता है तो कहीं गंभीरता एवं जिम्मेदारियों का बोध भी है। कहीं बाल-मन है तो मां की ममता भी है। कहीं पिता होने की अनुभूति है तो प्रेमी होने का सुख भी है। कहीं सामाजिक कुरीतियां हैं तो समाज निर्माण के प्रयास भी हैं। कहीं मन पर बुद्धि हावी है तो अंतश्चेतना का एहसास भी है। इतने विविध रंगों को एक पुस्तक में संजोकर, समेट कर लाने का जो महान कार्य श्री विनोद पाण्डेय जी ने किया है वह अद्भुत है। पुस्तक की लेखन शैली अत्यंत सरल एवं सहज है जो साधारण जनमानस के हृदय में सीधे उतरने वाली है। मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि "एक शीशी गुलाब जल" जन जन के हृदय में सदा के लिए अपना स्थान बनाएगी तथा सुंदर समाज की परिकल्पना को साकार करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देगी।

- दीपक श्रीवास्तव

Friday, August 24, 2018

--- सामाजिक नियमों की उत्पत्ति तथा संस्कृति निर्माण ---

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है अतः प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी समाज का हिस्सा है। विभिन्न समाजों की भिन्न मान्यताओं के बावजूद समाज-निर्माण की प्रक्रिया सभी में लगभग एक सी ही होती है। समाज केवल कुछ लोगों का समूह नहीं है अपितु यह लोगों के रहन-सहन, आचार-व्यवहार, वेशभूषा, खानपान, मनोरंजन इत्यादि के समन्वय से निर्मित होता है। 
भारतीय सनातन मूल्य तथा परम्पराएं भौतिक, आध्यात्मिक एवं प्राकृतिक आधारों पर निर्मित है। जब तक सभ्यता नहीं है तब तक जीव स्वतंत्र विचरण करता है अतः किसी अन्य जीव के रहन-सहन, खान-पान, जीवन-मृत्यु अथवा वेदना-संवेदना से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। उसे अपना जीवन प्रिय तो होता है किंतु जीवन-मूल्य की अनुभूति के अभाव में वह किसी न किसी का शिकार होकर इस संसार से विदा हो जाता है। इस प्रकार का जीवन असामाजिक जीवन कहलाता है।
जब जीव कुछ नियमों को अपनाता है, अपनी जीवनशैली में साहचर्य विकसित करता है, तब उसे अन्य जीवों की स्वतंत्रता का भी ध्यान रखना पड़ता है। इस प्रकार स्वतंत्रता में थोड़ा सी मर्यादाओं को अपनाकर जीव एक सामूहिक जीवन का अभ्यास करता है। जब समूह में कुछ मानक स्थापित किए जाते हैं तो वही मानक परंपराओं का रुप लेने लगते हैं। समूह की सुरक्षा, संख्यावृद्धि, खाना-पीना इत्यादि के तौर-तरीकों के अभ्यास एवं पीढ़ी-दर-पीढ़ी पालन से समाज आकार लेने लगता है तथा प्रथाओं एवं मनोरंजन जैसे तत्वों का समावेश एक संस्कृति का निर्माण कर देता है। लगभग हर समाज इसी आधार पर आकार लेता है।
सनातन सभ्यता के तीन प्रमुख देव है - ब्रह्मा, विष्णु और शिव। ब्रह्मा को सृष्टि का निर्माता माना गया है। शेष जीवन में विष्णु एवं शिव-तत्व के मध्य का संतुलन ही सामाजिक संरचना एवं जीवन शैली का आधार है। दोनों तत्व अपने वाह्य स्वरुप के कारण भले ही परस्पर विरोधी लगते हो किंतु ये एक ही समाज के दो पक्षों को प्रदर्शित करते हैं। एक ओर विष्णु जहां सुंदर वस्त्रों से सुशोभित हैं, वही शिव वस्त्र-विग्रह स्वीकार करते हैं। विष्णु विभिन्न कालखण्डों में अवतार लेकर मर्यादाओं के मानक स्थापित करते तो शिव अनेक बार मर्यादाओं का उपहास करते दिखाई देते हैं। विष्णु संपन्नता की मूर्ति के रूप में स्थापित होते हैं तो शिव वन-वन भटकते हुए उपेक्षित वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। दोनों का वर्ण भी विपरीत है। विष्णु देवताओं का पक्ष लेते हुए दिखाई देते हैं जबकि शिव देवताओं एवं असुरों से समान प्रीति रखते हैं।
सुन्दर आभूषणों से सुसज्जित विष्णु स्वरूप सामाजिक मर्यादाओं का प्रतीक है जबकि वस्त्रविग्रह युक्त शिवस्वरूप सामाजिक स्वतंत्रता का मानक है। विष्णु अपने प्रत्येक अवतार में समाज की आवश्यकता के अनुसार परंपराओं को स्थापित करते हुए दिखाई देते हैं। परंपराएं विकसित होती हैं तथा संपूर्ण मानव समाज उनका अनुगामी बन जाता है। अनेक वर्षों तक परंपराएं वैसी ही चलती रहती हैं। जब तक समाज को परंपराओं के मूल आधार का ज्ञान है तब तक परंपराएं समाज को प्रगतिगामी बनाती हैं। समय के साथ जब समाज परंपराओं के आधार को विस्मृत करने लगता है तब परंपराएं रूढ़ियां में बदलने लगती हैं और समाज में अंधविश्वास का जन्म होता है। कुरीतियों का जन्म होने लगता है। अब तक जो समाज को प्रगतिगामी था, हर व्यक्ति स्वयं को उनमें बंधा हुआ महसूस करने लगता है। जब बालक जन्म के समय स्वतंत्र ही होता है, शिक्षा के माध्यम से धीरे-धीरे उसके अंदर सदाचरण एवं समाज हेतु अनुकूलता विकसित की जाती है तथा वह सामाजिक मर्यादाओं में स्वयं को सहज महसूस करने लगता है। कालान्तर में जब वह परंपराओं के आधार ढूंढता है तथा समुचित उत्तर न मिल पाने पर उन्हें अंधविश्वास का स्वरूप समझने लगता है। 
विष्णु मर्यादा के आधार है तथा धर्म की रक्षा के लिए कृतसंकल्प है अतः वे मनुष्य की आध्यात्मिक वृत्तियों अर्थात देवताओं का साथ देते दिखाई देते हैं। शिव-स्वरूप सभी आडंबरों से मुक्त व्यक्ति की स्वतंत्र चेतना का प्रतीक है। जो लोभ-मोह तथा कामनाओं से मुक्त है तथा जिसमें अज्ञानता का अंधकार नहीं, जो शाश्वत,अनंत, भेदरहित तथा निर्विकार है उसे कोई भी बंधन जकड़ नहीं सकता। उसे किसी भी आडंबर अथवा दिखावारुपी वस्त्र की आवश्यकता नहीं। शिव का यही वाह्य रूप उनके अनंत स्वरूप का परिचायक है। अतः उनके लिए सुख-दुख समान अवस्था है, मनुष्य-पशु कोई अंतर नहीं, उनकी सब पर एक समान दृष्टि है अतः शिव देवताओं तथा असुरों दोनों पर समान कृपा करते दिखाई देते हैं। यही कारण है कि शिव का वास्तविक स्वरूप समझे बिना भोगवाद की ओर आकृष्ट अनेक मनुष्य उनके बाहरी स्वरूप को स्वतन्त्रता का पर्यायवाची मानते हुए उनकी ओर सहजता से आकृष्ट हो जाते हैं। मर्यादाएं व्यक्ति को पूर्ण स्वतंत्र नहीं होने देतीं तथा उसे सामाजिक नियमों में बांधने का प्रयास करती हैं किंतु स्वेच्छाचारी व्यक्ति स्वतंत्र होना चाहता है अतः सीमित दृष्टिकोण से उसके अन्दर शिवस्वरूप के प्रति सहज आकर्षण जागता है तथा वह भोगवादी प्रवृत्ति को ही सही ठहराने का प्रयास करता है। 
जो भेदरहित है, उसी के अंदर इतनी क्षमता हो सकती है कि वह संसार में उपस्थित त्याज्य वस्तुओं को भी सम्मान देते हुए स्वयं विष को धारण करके संसार को संजीवनी दे सके यही संत स्वभाव है। अतः मर्यादाएं जब रूढ़ियां और अंधविश्वास में परिवर्तित होती हैं तब शिव का शाश्वत स्वरूप उनका उपहास करता है तथा समाज को रूढ़ियों के बंधन से मुक्ति देता है। भगवान शिव के वस्त्र विग्रह का यही स्वरुप है जिसे अपनी अंतर्दृष्टि का भान है उसे किसी बाहरी आवरण की आवश्यकता नहीं।
जहाँ मर्यादाएं व्यक्ति को समाज में जीना सिखाती हैं तो वहीं स्वतंत्रता व्यक्ति की नैसर्गिक प्रतिभा को उजागर करते हुए उसे प्रगतिगामी दृष्टि देती है। स्वतंत्रता स्वेच्छाचार की छूट तक नहीं होनी चाहिए, अतः समाज के लिए मर्यादा का आवरण आवश्यक है। किंतु मर्यादाएं व्यक्ति की प्रगति के मार्ग में कभी बंधन ना बने इसलिए स्वतंत्रता भी आवश्यक है। विष्णु-स्वरूप अर्थात मर्यादा समाज की सभ्यता है तो वहीं शिव-स्वरूप अर्थात स्वतंत्रता सामाजिक संस्कृति है। अतः देखने में यह दो तत्व भले ही विरोधी लगते हो परंतु यह एक ही समाज के दो भिन्न पक्ष हैं। इन दोनों के बीच का संतुलन से ही एक सुंदर स्वच्छ एवं प्रगतिशील समाज रचा जा सकता है।

- दीपक श्रीवास्तव

Thursday, August 23, 2018

---शिवोहम---

अपने निज स्वरूप को लेकर प्रत्येक जीव के मन में जिज्ञासा का होना स्वाभाविक है। मृत तथा जीवित शरीर के सभी तत्वों में समानता होने के बावजूद वह कौन सा ऐसा अंश है जिस कारण जीवित शरीर में चेतना व्याप्त है- उस चेतन अंश का स्वरूप क्या है, वह कहां से उत्पन्न होता है तथा जीवन समाप्ति के बाद उस अंश का क्या होता है? ऐसे ही अनेक प्रश्न लगभग हर जीव के मन में स्वाभाविक रूप से होते हैं। विभिन्न विद्वान अलग-अलग मतों द्वारा इसकी व्याख्या करते हैं।
कुछ अपवादों को छोड़कर लगभग सभी ग्रंथ यही बताते हैं कि जीव का स्वरूप भी ब्रह्म के समान ही अनंत है। ब्रह्म एक महासागर के समान है जबकि जीव उसी महासागर के जल की एक बूंद के समान है। यही बूंद जिस पदार्थ में उपस्थित है उसमें चेतना है। सृष्टि में दो प्रमुख तत्व माने गए हैं - जड़ एवं चेतन। जड़ पदार्थ में चेतना का संचार होते ही जीवन प्रारंभ हो जाता है। ब्रह्म को कोई साकार तथा कोई निराकार स्वरूप में मानता है। स्वरुप चाहे जो भी हो किन्तु इसमें कोई संदेह नहीं कि जीव उसी का अंश हैं अतः जो अमरता परमतत्व में है वही प्रत्येक जीव के चेतन अंश को प्राप्त है। फिर समाज में इतनी व्याधियां क्यों है, जीवन में इतना कष्ट क्यों है तथा जीवन की गति क्या है?
शास्त्रों ने उपरोक्त प्रश्न के उत्तर में बहुत कुछ लिखा है तथा सुंदर व्याख्याओं के माध्यम से अनेक सिद्धांत दिए हैं जिन्हें भक्तिपूर्वक ग्रहण करने से व्यक्ति सभी प्रश्नों के उत्तर पा जाता है। सामाजिक रूढ़ियों तथा अंधविश्वासों के चलते हम ईश्वर से प्रेम करने की बजाय भय करने लगते हैं तथा कर्मकांडों के माध्यम से उसे प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं। धन, चढ़ावा, सोने-चांदी, चादर, निरीह पशुओं की बलि इत्यादि अनेक भोगपरक वस्तुओं का दान उस परमचेतन स्वरूप को देने का प्रयास करते हैं जो सभी विषयों एवं वस्तुओं के मोह से पूर्णतया मुक्त है। इतना ही नहीं इसके भरोसे हम स्वयं की उत्तम गति, जो उसी महासागर से मिलने का नाम है, का भ्रम पालने लगते हैं तथा इस औपचारिकता के बाद उन कर्मों में संलग्न हो जाते हैं जो हमें उससे दूर करते हैं।
जीव और ब्रह्म की प्रत्येक व्याख्या सत्य है यदि उसके भाव को ठीक तरह समझा जाए। अनेक विद्वानों ने जीवन को रूपकों के माध्यम से दर्शाने का प्रयास किया है। डॉ सरोजिनी कुलश्रेष्ठ जी ने अपनी एक कविता में लिखा है- "मैं बनी हूं दीप बाती" - कितना सुंदर चिंतन है! यदि इस रूपक पर दृष्टि डालें तो महसूस होगा कि परमतत्व एक दिए के समान है तथा हम उसकी बत्ती की तरह है जिसमें एक गांठ पड़ गई है। गांठ के एक ओर हम हैं तथा दूसरी ओर जो हिस्सा घी में डूबा हुआ है वह परमात्मा का अंश है। गांठ घी में आधा डूबा है तथा आधा बाहर है। इस प्रकार बत्ती तो एक ही है किंतु गांठ उसे दो भागों में दर्शाने का प्रयास करती है। गांठ ईश्वर की माया के समान है जो अनेक जड़ तत्वों को भी समेटे हुए हैं। ईश्वर ही माया रूपी भ्रम को उत्पन्न करते हैं जिस कारण जीव स्वयं को ईश्वर से अलग समझते हुए लघुरूप को ही अपना संपूर्ण स्वरूप समझने की भूल करने लगता है। स्वयं में ईश्वर तत्व की अनुभूति के लिए इस गांठ को खोलना आवश्यक है। हमारा निज स्वरूप निरंतर ज्ञान के प्रकाश से प्रदीप्त रहता है जिसका रूपक बत्ती की ज्योति है। यही ज्योति बार-बार हमें अपनी लघुता का अनुभव कराती है तथा बत्ती के निरन्तर क्षय द्वारा यह संदेश देती रहती है कि जीवन एक न एक दिन समाप्त हो जायेगा। सच्ची प्रेममय भक्ति ही माया से संघर्ष करके इस गाँठ को खोल सकती है जिससे हमारे अनंत स्वरूप से साक्षात्कार का मार्ग प्रशस्त होना सम्भव है। बत्ती के छोर पर उपस्थित ज्ञानरूपी ज्योति बार-बार इस उद्देश्य की ओर ध्यान आकृष्ट कराने का प्रयास भी करती है किंतु अग्नि में ताप है अतः ज्ञान भी कई बार जीवन में अहंकार तत्व को उत्पन्न करता है जिसके वशीभूत होकर हम स्वयं के वास्तविक स्वरुप को नहीं समझ पाते और आत्मप्रशंसा में ही प्रसन्न रहने लगते हैं। एक समय ऐसा भी आता है जब जीवन पूरा करके बत्ती बुझ जाती है और गांठ वैसी की वैसी पड़ी रह जाती है। इससे भी बुरी स्थिति तब है - जब मन हवा के झोंकों की तरह आई इच्छाओं में ही लिप्त हो कर रह जाता है। धन, पुत्र, स्वर्ण, रजत, सुख-सुविधाओं एवं विलासिता की कामनाये हवा के झोंकों की तरह है जो जैसे ही जीवन में प्रवेश करती हैं वैसे ही ज्ञानरुपी बत्ती का प्रकाश हिलने लगता है तथा अस्थिर हो जाता है। जब कामना पूरी हो जाती है अर्थात झोंका गुजर जाता है तभी प्रकाश स्थिर हो पाता है। जब कामनाओं का झोंका बहुत तेज या आंधी की तरह हो तो बत्ती का प्रकाश उस का मुकाबला नहीं कर पाता और बुझ जाता है। गांठ वैसी की वैसी पड़ी रह जाती है, ज्ञानरूपी प्रकाश भी लुप्त हो जाता है तथा निज स्वरूप को जानने की सारी संभावनाएं समाप्त हो जाती हैं। विषयासक्त एवं कामनाओं से भरे जीवन की यही गति है।
हमारा प्रारब्ध हमें इस अनंत महासागर में लेकर आया है अतः अपने अंदर प्रदीप्त प्रकाश के सहयोग से भक्तिरूपी संसाधनों द्वारा इस गांठ को खोलने का प्रयास करें तभी जीवन में उत्तम गति का मार्ग प्रशस्त होगा।

- दीपक श्रीवास्तव

Wednesday, August 22, 2018

--- मनुष्य में देवता तथा असुर ---

हम मनुष्य जन्म लेकर सोद्देश्य इस धरती पर आए हैं किंतु जन्म का हेतु न जानने के कारण एक निरर्थक जीवन बिता कर चले जाते हैं। कलयुग के प्रभाव तथा सीमित बुद्धि द्वारा तर्कों के माध्यम से जीवन को समझने का प्रयास हमें और उलझाता जाता है और हम आत्ममंथन से परे भ्रमजाल में ही उलझे रह जाते हैं।
देवताओं तथा असुरों के बारे में हम सभी ने सुना है। एक सीमित दृष्टि के कारण अच्छे और बुरे की परिभाषा को हमने देवताओं एवं असुरों के माध्यम से समझा है। किन्तु एक भ्रम अवश्य उत्पन्न होता है कि अनेक बार असुरों ने भी देवताओं को युद्ध में हराया है तथा कुछ असुर ज्ञानी, प्रतापी एवं बड़े भक्त हुए हैं फिर भी वे असुर के रूप में ही जाने जाते हैं। अनेक किंवदंतियां तथा पौराणिक कहानियां देवों तथा असुरों के बीच का सैद्धांतिक अंतर स्पष्ट करती हैं।
सृष्टि में कोई भी घटना निरर्थक नहीं होती बल्कि प्रत्येक घटना व्यक्ति तथा समाज का मार्गदर्शन करती है तथा किसी न किसी सिद्धांत को स्थापित एवं प्रसारित करती है। केवल उन पर मौलिक दृष्टि से चिंतन करने की आवश्यकता है। देवता एवं असुर हमारे जीवन में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है तथा क्रमशः आध्यात्मिक एवं भौतिक चेतना का विस्तार करते हैं किन्तु दोनों एक दूसरे के विरोधी तत्व हैं। एक उदाहरण से इसे समझने का प्रयास करेंगे - हमने जीवन में एक लक्ष्य निर्धारित किया तथा सही दिशा में कदम बढ़ा लिए। स्वाभाविक है कि मार्ग में उतार-चढ़ाव भी आएंगे तथा संघर्षों से जूझना पड़ेगा। अनेक बार दुविधाएं भी आती हैं हमारी भौतिक और आध्यात्मिक शक्तियों के बीच के अंतर को स्पष्ट कर देती हैं। जैसे अत्यधिक परिश्रम के कारण जब शरीर थकने लगता है तो भौतिक शक्तियां विश्राम करने का संकेत देती हैं क्योंकि स्वस्थ शरीर ही लक्ष्य तक पहुंचने की अनुकूलता विकसित करता है। किंतु साथ ही यह संकेत भी मिलता है कि थोड़ी सी दूरी ही शेष है, एक बार लक्ष्य मिल जाए फिर जितना चाहे आराम कर लें - यही आध्यात्मिक शक्ति का संकेत है। भौतिक वृत्ति शरीर तथा आध्यात्मिक वृत्ति लक्ष्य का ध्यान रखती है। अध्ययनकाल में किसी कक्षा की परीक्षा देते समय देर रात तक पढ़ते हुए हम अक्सर इसी दुविधा की स्थिति में होते हैं- शरीर को थकान के कारण निद्रा चाहिए जबकि आध्यात्मिक वृत्ति कहती है कि सुबह-सुबह परीक्षा देना है, यदि सुबह जल्दी नहीं उठ पाए तो अध्याय अधूरा रह जाएगा। आध्यात्मिक वृत्ति मनुष्य के लक्ष्य तक पहुंचने से पहले किसी प्रकार की बाधा नहीं चाहती जबकि भौतिक वृत्ति लक्ष्य तक पहुंचने वाले भौतिक संसाधनों की सुरक्षा का ध्यान रखती है। अतः दोनों शक्तियां एक दूसरे की परस्पर विरोधाभासी तथा परस्पर एक दूसरे से युद्ध करती दिखाई देती हैं इनमें जो शक्ति मनुष्य में प्रबल होती है वही उसकी मूल वृत्ति बन जाती है।
हमारा शरीर दस इंद्रियों को धारण करता है जिसमें पांच ज्ञानेंद्रियां तथा पांच कर्मेंद्रियां हैं। इंद्रियों के माध्यम से ही हम कोई कार्य करते हैं। यही कारण है कि देवताओं का राजा इंद्र को माना गया है जो ऎन्द्री शक्ति के स्वामी हैं। भौतिकवादी कलयुग में व्यक्ति की शारीरिक आवश्यकताएं जब इतनी हावी हो जाती हैं कि वह हित-अहित, दुराचरण-सदाचरण के बीच में अंतर नहीं कर पाता तथा अपने क्षणिक सुख के लिए पाप-कर्म जैसे चोरी, निंदा या इससे भी बढ़कर कोई निन्दनीय कर्म करने में नहीं हिचकता तो समझ लें कि उसके अंदर भौतिक वृत्तियाँ इतनी प्रबल हो गई हैं कि वे आध्यात्मिक वृत्तियों पर विजय पा चुकी हैं अर्थात स्वर्ग पर असुरों का राज्य हो गया।
असुर और देवता दोनों ही अमरत्व की प्राप्ति हेतु निरंतर संघर्ष कर रहे हैं। यही जीवन का वास्तविक लक्ष्य है, जिसके लिए मनुष्य की भौतिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों को एक साथ मिलकर संघर्ष करना होता है। समुद्रमंथन इसी का प्रतीक है। यह भवसागर समुद्र के समान है तथा मंदराचल पर्वत हमारे दृढ़ संकल्प का प्रतीक है। भगवान विष्णु को सृष्टि का पालनकर्ता माना गया है अतः वे कच्छप के रूप में मंदराचल पर्वत अर्थात हमारे संकल्प को आधार देते हैं। यह समुद्रमंथन अर्थात जीवन के मंथन का प्रारंभ है जो आत्ममंथन का स्वरुप है। इसी उद्देश्य हेतु प्राणी जन्म लेकर मृत्युलोक में आता है। प्राणी के अंदर विद्यमान रहने वाले ईश्वरतत्व अर्थात जाग्रत चेतना का अनुभव ही व्यक्ति के जीवन का प्रारंभिक लक्ष्य है जो समुद्रमंथन के रूप में जाना जाता है। इसके लिए देवता तथा असुर अर्थात भौतिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों को मिलकर प्रयास करना पड़ता है। अतः इस प्रक्रिया में सबसे पहले व्यक्ति के अंदर का विष अर्थात अहंकार, निंदा इत्यादि विषैले तत्व बाहर निकल जाते हैं। विष यदि बाहर निकलेगा तो संसार को जलाएगा और अन्दर ही रह गया तो मन को जलाएगा अतः निर्विकार शिव-स्वरूप इसे बीच में ही रोक लेता है। मंथन हमारे जीवन में अनेक रत्नों की उपलब्धता का अनुभव कराता है जो समुद्र मंथन के रत्नों के रूप में प्रतिष्ठित हैं तथा अंत में अमृत प्राप्त होता है जो आत्मज्ञान का प्रतीक है। शरीर तो नश्वर है अतः मृत्यु तो आनी ही है किंतु जो आध्यात्मिक गुणधर्म है वे सदा जीवित रहते हैं जो चिरकाल तक मनुष्य की पहचान के रूप में प्रतिष्ठित होते हैं। यही कारण है कि आत्ममंथन के परिणाम अर्थात आत्मज्ञान अर्थात अमृत को केवल हमारी आध्यात्मिक वृतियां अर्थात देवता ग्रहण करते हैं तथा अमरत्व को प्राप्त करते हैं।

- दीपक श्रीवास्तव

Tuesday, August 21, 2018

शिव कथा - भ्रम से सत्य की ओर

हमारे जीवन में जो भी घटनाएं घटती हैं या जो भी कहानियां हम सुनते हैं, सभी का अपना-अपना महत्व है। हम जीवन गुजार कर चले जाते हैं और पीछे कुछ स्मृतियां छोड़ जाते हैं। जीवन से जुड़ी घटनाओं का महत्व व्यक्ति के लिये कम अथवा अधिक हो सकता है, किंतु समाज के लिए प्रत्येक घटना महत्वपूर्ण है क्योंकि कोई घटना केवल एक व्यक्ति के जीवन का हिस्सा ही नहीं होती, बल्कि पूरे समाज की दिग्दर्शिका होती है। किसी भी संप्रदाय, समुदाय, पंथ, राज्य, देश, कालखण्ड अथवा संस्कृति के अपने आधारभूत सिद्धांत तथा लोककथाएं होती हैं जो उसके भिन्न-भिन्न पक्ष प्रस्तुत करती है तथा समाज को आगे बढ़ने हेतु दिशा देती है।
एक पुरानी पौराणिक कथा याद आती है - शिव-सती के विवाह के समय माता सती के बड़े भाई सारंगनाथ, जो एक महान ऋषि थे, तपस्या में लीन होने के कारण विवाह में उपस्थित नहीं हो सके। तपस्या पूरी होने के बाद जब उन्हें विवाह का पता चला तो वे बहुत नाराज हो गए। शिव के वास्तविक स्वरुप को समझे बिना उनकी बाहरी वेशभूषा को देखकर मोहवश उन्हें भ्रम हो गया तथा विचार किया कि “मेरी बहन एक समृद्ध परिवार से है किन्तु उसका विवाह एक ऐसे पुरुष के साथ हो गया है जिसके पास रहने को न घर है, न आभूषण है, न धन है तथा उसका एक ऐसे पर्वत पर निवास है जहाँ दूर-दूर तक कोई संसाधन भी नहीं है तथा वे जंगलों में भटकते हुए अपना जीवन-यापन करते हैं, मेरी बहन ऐसे व्यक्ति के साथ पूरा जीवन सुखपूर्वक कैसे बिता सकेगी?” परन्तु विवाह तो हो चुका था, अतः बहन को जीवन-यापन हेतु आवश्यक वस्तुएं उपलब्ध कराने के उद्देश्य से वे बहुत सारे आभूषण, रत्न, माणिक इत्यादि लेकर चल दिए। चलते-चलते कई दिन बीत गए। काशी के समीप से गुजरते हुए अत्यधिक थकान के कारण वे वहीं विश्राम करने लगे तथा उन्हें नींद आ गई। स्वप्न में उन्होंने भगवान शिव की नगरी काशी का वैभव देखा जो सोने, चांदी, हीरे समेत अनेक रत्नों से सुशोभित थी। निद्रा टूटने पर वे विचारमग्न हो गये। अतः वे ध्यान लगा कर वहीं बैठ गए। समाधि की अवस्था में उन्हें शिव के वास्तविक स्वरुप के दर्शन हुए तथा अपने अज्ञान पर पश्चाताप हुआ। उनकी तपस्या से भगवान शिव प्रसन्न हुए तथा उन्हें दर्शन दिए। तत्पश्चात उस स्थान पर दो शिवलिंग स्वतः उत्पन्न हुए। वाराणसी में सारनाथ के समीप स्थित शारंगनाथ मंदिर आज भी इस पौराणिक घटना का साक्षी है तथा दो शिवलिंग वाले मंदिर के नाम से विख्यात है जहां शिवजी अपने साले के साथ विराजमान हैं।
यह घटना एक पवित्र पौराणिक कथा के रूप में प्रसिद्ध है।  इससे समाज तथा हम किस प्रकार से जुड़े हुए हैं यह जानना महत्वपूर्ण है। आस्था के केंद्रबिंदु बने अनेक मंदिर एवं अन्य स्थल इसलिए स्थापित होते हैं ताकि वे अनंतकाल तक समाज का मार्गदर्शन करते रहें। जब व्यक्ति ज्ञान के अहंकार में होता है तथा अपनी क्षमताओं पर झूठा गर्व करता है, तब यही अहंभाव उसकी दृष्टि पर पर्दा चढ़ा जाती है जिस कारण उसे सत्य दिखाई नहीं देता। शिवस्वरूप को समझे बिना शारंगनाथ का भ्रम यही दर्शाता है जिसके वशीभूत एक व्यक्ति स्वयं को समर्थ तथा दूसरे को असमर्थ मानने के अहंकार में घिरता है। दो बाहरी नेत्र केवल जगत का बाह्य स्वरूप देखते हैं जो भ्रम उत्पन्न होने का कारण है। धन के चकाचौंध से प्रभावित मन तथा चुँधियाई हुई आंखें भ्रम के आर-पार देखने की दृष्टि विकसित नहीं कर पातीं। किंतु सत्य का दर्शन इतना सरल नहीं है, उसके लिये परिश्रम करना पड़ता है। सारंगनाथ की यात्रा इसी श्रम एवं संघर्ष का प्रतीक है। जब तक यात्रा दिशाहीन है तब तक जीवन में थकान के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता तथा एक समय ऐसा आता है जब व्यक्ति निराश होकर हार मानने लगता है। यहां से आत्ममंथन प्रारंभ होता है। जब व्यक्ति बाहरी नेत्रों को बंद करके अपनी अंत:दृष्टि खोलता है तब वह सुख अथवा दुख के वशीभूत नहीं होता। इस अवस्था में उसे धन, ऐश्वर्य, भोग, लोकलाज, मान-मर्यादा इत्यादि का भान नहीं होता। वह स्वयं की चेतना से साक्षात्कार कर रहा होता है अतः इस परिस्थिति में उसे सत्य का मार्ग दिखाई दे जाता है तथा भौतिक थकान दूर हो जाती है। अब वह आनन्द के सागर में गोते लगाता अपने भीतर पुनः ऊर्जा के संचार का अनुभव करता है। सत्य का दर्शन होते ही व्यक्ति सही दिशा में आगे बढ़ने लगता है तथा सारे भ्रम दूर हो जाते हैं। इसी मार्ग पर निरंतर चलते रहने से जीवन-लक्ष्य की प्राप्ति होती है जो सारंगनाथ को शिवजी के दर्शन के रूप में मिलती है। चूंकि ये कहानियां सामाजिक आधार की परिकल्पना के प्राणतत्व के रूप में अवस्थित है, अतः युग-युगांतर तक इन कहानियों पर मनन करना आवश्यक है अन्यथा समाज भटक जाएगा। भगवान शिव का अपने साले सारंगनाथ के साथ लिंग रूप में स्थापित होना तथा उस पावन मंदिर का आज भी साकार रूप में उपस्थित होना उन्हीं आदर्शों की स्थापना का प्रमाण है।
इसी प्रकार आज भी समाज में अनेक कहानियां जीवित है तथा उनके प्रमाण भी उपस्थित हैं। व्यक्ति इन्हें अपनी बौद्धिक क्षमता के अनुसार ग्रहण करता है। हर युग में ये गाथाएं विद्वानों द्वारा सुनाई जाती हैं तथा रचनाकार इन्हें अपनी क्षमता के अनुसार पुनः रचते हैं। हमारा सतत प्रयास होना चाहिये कि ये कहानियां केवल किवदंतियां बनकर ना रह जाए बल्कि समाज इनके मर्म को समझकर अपने जीवन में अपना सके।

- दीपक श्रीवास्तव

Saturday, August 18, 2018

---अहंकार: गुण अथवा अवगुण---

हम जन्म लेकर इस धरती पर आते हैं और विभिन्न चरणों में अपना जीवन पूरा करते हैं। जीवन-गढ़न के लिए प्रकृति में उपस्थित लगभग सभी तत्वों का योगदान होता है। अतः सभी तत्व महत्वपूर्ण हैं, केवल दृष्टि ही गलत या सही की परिभाषा गढ़ती है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी लिखा है - जाकी रही भावना जैसी, हरि मूरत देखी तिन्ह तैसी। प्रकृति में उपस्थित किसी भी तत्व का सदुपयोग जीवन और समाज को बेहतर बना सकता है तथा दुरुपयोग विनाश के कगार पर लाकर खड़ा कर देता है।
जब व्यक्ति अंत:चेतना से परे भौतिक अस्तित्व को ही अपना मूल स्वरूप समझने लगता है तो इसे अहंकार की वृत्ति कहते है। इस स्थिति में बौद्धिक दृष्टि की सीमाएं उसके स्वरूप को शरीर तक ही दर्शा पाती हैं। सामान्यतया अहंकार का नकारात्मक भाव ही प्रचलन में है किन्तु यह अधूरा है। अहंकार अर्थात मनुष्य में अहं तत्व अथवा मैं तत्व का जीवंत होना। स्वयं को सृष्टि से अलग करके देखने की प्रवृत्ति कहीं ना कहीं अहं-तत्व को दर्शाती है। अतः इसके सकारात्मक तथा नकारात्मक दोनों ही पक्ष हैं। जीवन के गढ़न में अहंकार तत्व की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है। प्रतिस्पर्धात्मक ज्ञानार्जन के दौर में यदि अहं तत्व का आभास न हो बालक अन्य बालकों से पीछे हो सकता है अतः विद्यार्थी जीवन में अहं तत्व की बड़ी भूमिका है - मैं अन्य बच्चों से बेहतर हूं, बेहतर बना रहूँ, मुझे और परिश्रम करने की आवश्यकता है ताकि मैं सबसे आगे रहूँ – यह अहं तत्व का सकारात्मक पक्ष है।
हम सभी ने मकान बनते देखे होंगे। पहले नींव बनाई जाती है, उसके बाद दीवारें, फिर छत बनती है। छत बनाने के लिए अनेक बल्लियों का सहारा लेना पड़ता है। जब तक छत कमजोर है या सुरक्षा देने में असमर्थ है तब तक बल्लियाँ ही उसे आधार देती हैं। छत के मजबूत हो जाने पर उन्हीं बल्लियों को हटा दिया जाता हैतब जाकर उसमे इतनी शक्ति आती है कि वह संपूर्ण परिवार को सुरक्षा दे सकता है। व्यक्ति का जीवन भी इसी प्रकार गढ़ा जाता है। नींव तैयार करना अर्थात वर्णमाला का अभ्यास, अक्षरों को जोड़कर शब्द बनाना तथा शब्द बनाने के बाद वाक्य बनाने का प्रारंभ। इसके बाद अनेक शिक्षाएं विभिन्न चरणों में दीवारों के रूप में खड़ी की जाती हैं जिनमें सामाजिक शिक्षा नैतिक शिक्षा तथा अन्य उपयोगी बातें शामिल होती हैं। चूंकि यही शिक्षाएं जीवनपर्यन्त व्यक्ति को अनेक बुराइयों से बचाकर रखती हैं अतः दीवारों का मजबूत होना आवश्यक है। छत व्यक्ति की सफलता अर्थात ऊंचाइयों की पहचान है अतः इसके निर्माण के लिए अहंकार रूपी बल्लियों का सहारा लेना पड़ता है। जब तक जीवन गढ़न की प्रक्रिया चल रही है, प्रतिस्पर्धाएं हैं, तब तक अहं की अनुभूति आवश्यक है जो लक्ष्य तक पहुँचने की अवधि तक ही होना चाहिए। जब छत पक्की हो जाए तब जीवन में से अहंकार तत्व को निकालना लें क्योंकि जब बल्लियां हटेंगी तभी व्यक्ति दूसरों को सहारा दे सकेगा।
हम अक्सर जीवन का गढ़न तो कर लेते हैं किंतु लक्ष्य की प्राप्ति के बाद अहं की बल्लियों को हटाने की बजाय और बल्लियां खड़ी कर लेते हैं जिसका दुष्परिणाम एकाकी जीवन के रूप में मिलता है। अहंकार व्यक्ति को समाज से अलग कर देता है। जिस प्रकार मकान का निर्माण प्राणियों को आश्रय देने के लिए होता है, उसी प्रकार समाज के लिए जीवन का गढ़न होता है। छत बनने के बाद यदि बल्लियों को न हटाया जाए तो घर साफ सफाई के अभाव में सड़ने लगता है, उसी प्रकार व्यक्ति के जीवन में यदि अहं तत्व को समय से न हटाया जाए तो व्यक्ति का भी यही हाल होता है।
अतः अहं तत्व के दोनों पक्षों का मर्म जानना आवश्यक है क्योंकि यहीं से व्यक्ति, परिवार तथा समाज की नींव पड़ती है।

- दीपक श्रीवास्तव

Friday, August 17, 2018

---हरि अनंत हरि कथा अनंता, कहहिं सुनहिं बहु विधि सब संता---

सामाजिक स्थापना की दिशा में किया गया प्रत्येक कार्य ईश्वर का कार्य सदृश्य है। हम आखिर ईश्वर की चर्चा क्यों करते हैं, उनको जीवन में धारण करने का प्रयास क्यों करते हैं जबकि उनको हमने ना कभी देखा है, ना ही उन के स्वरूप का ज्ञान है। किंतु अनेक प्रतीकों के माध्यम से, चाहे वह पत्थर हो या प्रकृति में उपस्थित अन्य कोई तत्व, पशु या मनुष्य-  लगभग हर प्रकार से हमने ईश्वर की परिकल्पना की है। इन परिकल्पनाओं के आधार पर अनेक कथाएं रची हैं और आज हम स्वयं की बनाई गई परिभाषाओं पर ही अनेक प्रश्न चिन्ह लगाते हुए उन्हें अस्तित्व के प्रश्नों से निरंतर जूझ रहे हैं तथा स्वयं एवं ईश्वर के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगा देते हैं।

अनेक शास्त्रों ने समस्त जगत को ही ईश्वर का अंश माना है किंतु प्रश्न यह उठता है कि इन परिकल्पनाओं से हमारा जीवन कैसे जुड़ा हुआ है? भगवान श्री राम के चरित्र की कथा सर्वप्रथम भगवान शिव ने कही तत्पश्चात काक भुसुंडि जी उसके बाद बाल्मीकि रामायण के माध्यम से भारतीय समाज का अंग बन गया। विभिन्न काल खंडों में इसी चरित्र को विभिन्न विद्वान, साहित्यकार, लेखक, कवि इत्यादि ने अपने कौशल एवं साहित्यिक क्षमता के माध्यम से विभिन्न भाषाओं में अपने अपने भावनाओं के माध्यम से रचा है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने अवधी में श्री रामचरितमानस की रचना की, ऋषि कम्ब ने तमिल में कंब रामायण की रचना की तथा ऐसे ही अनेक साहित्यकारों ने अपनी अपनी भाषाओं में श्री राम चरित्र की अभिव्यक्ति की है। प्रश्न यह उठता है कि आखिर ऐसे आदर्श चरित्र को जन-जन तक विभिन्न माध्यमों से पुनः पुनः स्थापित करने की क्या आवश्यकता है।

सामाजिक संरचना के दो प्रमुख आधार हैं - मर्यादा एवं स्वतंत्रता। किंतु मर्यादा एवं स्वतंत्रता केवल शब्द के आधार पर समाज का दिशा निर्देशन करने में प्रभावी नहीं होते। यह सामाजिक संरचना के दो प्रमुख सिद्धांत है। किंतु आम जनमानस को सिद्धांत के सूत्र सीधे-सीधे बताना अत्यंत दुष्कर होता है अतः परिभाषाएं गढ़ी जाती हैं तथा परिभाषाओं को सफलतापूर्वक जनमानस के हृदय में उतारने हेतु सहज कहानियों का आधार लेना पड़ता है या ऐसे कह सकते हैं कि कहानियां गढ़नी पड़ती हैं जो आम जनमानस से सीधे संवाद करती हैं तथा सिद्धांत को उनके मानस पटल पर अंकित कर देती हैं। सामाजिक संरचना एवं आदर्शों के आधारभूत शास्त्र ऐसे ही रचे जाते हैं। उदाहरण के रूप में आलस नहीं करना चाहिए अथवा आलसी सदैव पराजित होता है यह सिद्धांत है किंतु कछुए एवं खरगोश की कहानी अत्यंत सहजता से इस सिद्धांत को बच्चों के मन में स्थापित कर देती है।

समय की गति के साथ सामाजिक परिवर्तन होना स्वाभाविक है। अतः सिद्धांत वही होने के बावजूद उनकी व्याख्या वर्तमान समाज के दृष्टिकोण एवं आवश्यकता के अनुसार करना आवश्यक हो जाता है। यदि ऐसा ना किया जाए तो समाज कहानी के पात्रों में ही उलझ कर रह जाता है तथा सही गलत की अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार व्याख्या करता है और भटकाव से निकल नहीं पाता।

वर्तमान समय में भी अनेक विद्वान सामाजिक सिद्धांतों की व्याख्या अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार करते हैं। इनमें जो भी जनमानस से सीधे सीधे जुड़कर समाज का मार्गदर्शन करती हैं वे रचनाएं कालातीत हो जाती हैं तथा समाज के पुनर्निर्माण में मील का पत्थर साबित होती है। कलयुग में ईश्वर के चरित्र का गान अथवा नाम भर लेना भी समाज को भटकाव से परे उचित मार्गदर्शन देता हुआ उसे ऊंचाई पर ले जाता है। मन के कलुष भेद इत्यादि सभी इससे नष्ट हो जाते हैं।

अतः ईश्वर के चरित्र पर जिस प्रकार से भी चर्चा हो, जिस प्रकार से भी नाम लिया जाए, जिस प्रकार से भी उनके जीवन के आदर्श को समझा जाए, जिस प्रकार भी अपने जीवन में उतारा जाए, जिस प्रकार से भी समाज नैतिकता की ओर जाए सभी सत्य हैं, सभी पूज्य हैं, अभी जीवन में धारण करने योग्य हैं।

-  दीपक श्रीवास्तव

Wednesday, August 15, 2018

--- स्वतंत्रता दिवस पर विशेष ---

 --- स्वतंत्रता दिवस पर विशेष ---

 हे जननी हे जन्मभूमि शत बार तुम्हारा वंदन है।
 सर्वप्रथम मां तेरी पूजा तेरा ही अभिनंदन है॥

 सन 1857 से सन 1947 का सफर अत्यंत संघर्ष भरा रहा है जिसमें अनेक जीवन मातृभूमि की सेवा में समर्पित हो गए। यह समर्पण किसी एक विशेष वर्ग अथवा समुदाय का नहीं है जब समाज की पीड़ा प्रत्येक व्यक्ति की अपनी पीड़ा बन जाती है तब क्रांति की ज्वाला धधकती है। सन 1857 का संग्राम सेना में उपस्थित केवल भारतीय सैनिकों का नहीं था बल्कि यह तो क्रांति की ज्वाला सभी भारतवासियों के ह्रदय में धधक रही थी। कोटि कोटि कंठों के माध्यम से भारत माता की करुण पुकार अपनी वेदना अभिव्यक्त कर रही थी।

हमारा देश एक राष्ट्र का रूप धारण कर रहा था। देश तो भूमि का एक टुकड़ा मात्र है किंतु जब अनेक स्वर धाराएं एक साथ मिलकर एक उद्देश्य के लिए प्रयास करती हैं तब देश एक राष्ट्र का रूप धारण कर लेता है, और हमारी संस्कृति तो अपने देश की माटी को अपनी माता का स्थान देती आई है। प्रश्न यह उठता है कि आज हम स्वतंत्र हैं तो उस स्वतंत्रता की बात करना आज के दौर में कितना प्रासंगिक है? और इसकी क्या आवश्यकता है? कहीं हम स्वतंत्रता दिवस मनाने के नाम पर फूहड़ संगीत के माध्यम से केवल खानापूर्ति तो नहीं कर रहे। क्या केवल अंग्रेजों को अपने देश की सीमा से बाहर कर देना ही हमारे देश की वास्तविक स्वतंत्रता का परिचायक है?

एक सशक्त एवं संपूर्ण वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिकता पर आधारित सक्षम संस्कृति को धारण करने के बावजूद हम अंग्रेजों के मानसिक गुलाम कैसे हो गए? शारीरिक शक्ति से भले ही कोई शत्रु विजय प्राप्त कर लें किंतु यदि मानसिक रूप से शत्रु का प्रभाव नहीं पड़ा है तो संस्कृति के बल पर कभी भी पुनः समाज उठ खड़ा हो सकता है। वैभव से पराभव की ओर जाने में संस्कृति से दूरी तथा अपनों द्वारा किया गया देशद्रोह समर्थ एवं सक्षम समाज को भी धराशायी कर देता है। सन 1857 में देश की जनता जब अपनी संस्कृति पर किए जा रहे लगातार प्रहारों से त्रस्त हो चुकी थी तब संपूर्ण भारतीय समाज अंगड़ाई ले कर उठ खड़ा हुआ और भारत माता अत्याचारों से मुक्त होने ही वाली थी कि कुछ अपने ही घर में मौजूद देशद्रोहियों के व्यक्तिगत एवं ऊंची महत्वाकांक्षाओं का परिणाम संपूर्ण देश ने भोगा।

अपनी संस्कृति से दूर होने तथा देशद्रोह के बड़े भयानक परिणाम हैं। त्रेतायुग में विभीषण धर्म के मार्ग पर चले, उन्हें लंका का राज्य भी मिला किंतु देशद्रोह का परिणाम ऐसा कि आज भी भारतीय समाज में कोई अपने बच्चे का नाम विभीषण नहीं रखता। द्वापर युग में कर्ण अधर्म का साथ देने के बावजूद यश एवं कीर्ति से सुशोभित हैं । रामधारी सिंह दिनकर जी ने भी रश्मिरथी में जिक्र किया है कि जब अश्वसेन नामक एक सर्प अर्जुन का वध करने के लिए कर्ण से प्रत्यंचा पर चढ़ने हेतु निवेदन करता है तो कर्ण का उत्तर है-
अर्जुन है मेरा शत्रु किंतु वह सर्प नहीं नर ही तो है।
संघर्ष सनातन नहीं शत्रुता इस जीवन भर ही तो है॥

आपस में कितना भी विरोधाभास हो किंतु दूसरे लोगों से मिलकर जो अपनों की जड़े काटते हैं वह थोड़ी बहुत सफलता प्राप्त करने के बावजूद कलंकित ही रहते हैं।

हमने अनेक क्रांतिकारियों का जीवन पढ़ा होगा तथा स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उनके द्वारा लिखित रचनाएं भी अवश्य पढ़ी होंगी। आखिर देश पर मर मिटने वाला गीत या संगीत से क्यों जुड़ा हुआ है शहीद रामप्रसाद बिस्मिल, शहीद भगत सिंह जैसे महान क्रांतिकारी क्यों लेख लिखते हैं, क्यों कविताएं लिखते हैं, क्यों दीवानों की तरह गीत गाते हुए फांसी के तख्तो तक पहुंचते हैं और हंसते-हंसते इस भारत माता की बलिवेदी पर अपने प्राणों को न्योछावर कर देते हैं। रचनाएं या गीत संगीत कोई मजाक नहीं है और ना ही केवल मनोरंजन है क्योंकि गीत संगीत के माध्यम से किसी भी संस्कृति की परंपराएं जीवंत होती हैं। परंपराओं और संस्कृति में समाज के प्राण बसते हैं। भारतीय ग्रंथों में भारत माता की आत्मा बसती है। यही कारण है कि कहा जाता है किसी देश को मारना है तो युद्ध से बेहतर है वहां की संस्कृति को मार दो समाज स्वयं ही आत्मसमर्पण कर देगा। अपनी सांस्कृतिक भावना से जुड़ा हुआ अमर शहीद राम प्रसाद बिस्मिल जी द्वारा रचित गीत की कुछ पंक्तियां देखें-
 न चाहूं मान दुनिया में न चाहूं स्वर्ग को पाना।
 मुझे वर दे यही माता रहूं भारत पे दीवाना॥
 मुझे हो प्रेम हिंदी से, पढूं हिंदी लिखूं हिंदी।
 चलन हिंदी चलूँ, हिंदी पहनना ओढ़ना खाना॥

जब अपने मातृभूमि के प्रति इस प्रकार के भाव उत्पन्न होते हैं तब जो क्रांति की ज्वाला धधकती है उसमें इतना ताप होता है कि वह शत्रुओं के घर को जलाकर भस्म कर सकती है और उसे देश से बाहर निकलने को मजबूर कर सकती है। यह भावना देश को न जाति में बंटने देती है, न धर्म में बंटने देती है और संपूर्ण देश को एक ही सूत्र में पिरोने की क्षमता रखती है।

दुर्भाग्य का विषय है विदेशियों की पराधीनता से मुक्त होने के बावजूद इतने वर्षों बाद भी हम मानसिक रूप से स्वतंत्र नहीं हो सके हैं तथा उनकी संस्कृति को अपनाने में अपना गौरव समझते हैं। श्रेष्ठता का अहंकार लिए फिरते हैं जो पराधीनता के समय से भी ज्यादा भयावह स्थिति है परंतु यह स्थिति अभी भी नियंत्रण में लाई जा सकती है अपनी जड़ों से जुड़कर। स्वतंत्रता दिवस केवल मनाने के लिए नहीं है- केवल अपनी संस्कृति से हृदय से जुड़ने का प्रयास ही हमें मानसिक पराधीनता से मुक्त कर सकता है। यही शहीदों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

- दीपक श्रीवास्तव

Monday, August 13, 2018

--- अहंकार की उत्पत्ति ---

मनुष्य का सहज स्वभाव अहंकार एवं लोभ से परे सदा आनंद में डूबे रहने का है। जब तक हम भौतिक वस्तुओं की इच्छा में निरंतर प्रयास करते रहते हैं तब तक हृदय में कहीं ना कहीं असंतोष की भावना अवश्य रहती है। सुख चाहिए, धन चाहिए तथा विलासिता भरी सामग्री भी चाहिए परंतु कितना चाहिए यह नहीं पता होता। आज जितनी संपत्ति है या जितनी संपत्ति की आवश्यकता है उससे पांच गुना भी मिल जाए तब भी इच्छाएं अनंत रूप से बढ़ती जाती हैं। चाहिए तो अवश्य परंतु कितना चाहिए इसका कोई मानक नहीं हैकिन्तु जीवन भर असंतोष बना रहता है। वही एक दूसरा दृश्य देखिए- जब व्यक्ति निश्छल भाव से खेलते हुए बच्चों के बीच अपने बचपन का अनुभव कर रहा होता है तो उस समय उसके पास कोई कामना नहीं होती वह स्वयं भी निश्छल भाव से ओतप्रोत होकर अपना बचपन जीने में लग जाता है। किसी शांत सुरम्य वातावरण में प्रकृति के गोद में खिलता हुआ हिलोरे लेता हुआ मनुष्य भी किसी भोग की कामना नहीं करता अपितु वह आनंद में निमग्न रहता है। तो व्यक्ति का सहज स्वभाव क्या है- प्रथम दृश्य अहंकार से उपजा सुख है तथा दूसरा प्रेम से उपजा आनंद है। प्रथम दृश्य आसक्ति तथा द्वितीय दृश्य विरक्ति है। प्रथम दृश्य शारीरिक संतुष्टि है तथा द्वितीय दृश्य आत्मिक संतुष्टि।

अहंकार से प्राप्त सुख क्षणभंगुर होता है किंतु ज्ञान के बावजूद व्यक्ति अहंकार के अंधेरे में क्यों फंस जाता है? व्यक्ति वास्तव में सृष्टि में उत्पन्न समस्त वस्तुओं को अपनी सीमित बुद्धि द्वारा तर्क की कसौटी पर कसकर देखना चाहता है। सृष्टि अनंत है, ईश्वर अनंत है जिसमें एक व्यक्ति का शरीर या मन अत्यंत सीमित है। ठीक वैसे ही जैसे एक कमरे में व्यक्ति बंद हो और बाहर के वातावरण का ज्ञान ना होने पर व्यक्ति कमरे के भीतर के वातावरण को ही समस्त जगत का वातावरण समझ लेता है।

हम जीवन में जो भी उपलब्धियां प्राप्त करते हैं उसे अपने परिश्रम का फल मानते हैं। क्योंकि हम जो भी कर रहे हैं उसकी एक दिशा निर्धारित होती है अतः उसका लक्ष्य भी लगभग मस्तिष्क में साफ होता है। और कहते हैं कि हमने परिश्रम किया और जीवन में इस लक्ष्य को हासिल कर लिया। परंतु यह दृष्टि वैसी ही है जैसे एक बंद कमरे से संपूर्ण सृष्टि की कल्पना करना। यदि हमने कर्म किया है तो उसका फल मिलेगा यह सृष्टि का विधान है अतः हमें जो भी मिलता है उसे हम ईश्वर की कृपा ना मानकर उसको पूर्णतया अपने परिश्रम का फल मानते हैं। यह अधूरी दृष्टि है तथा यही वह कारण है जिसके द्वारा हमारे जीवन में अहंकार की उत्पत्ति होती है- मैंने किया, इसलिए हुआ यही अहंकार का प्रारंभ है।
 हमारे सामने त्रेता युग में रावण का उदाहरण मौजूद है जो अपने अहंकार को सही मानता है। उसका कथन है कि आप मुझे अपनी शक्तियों पर अहंकार करने का पूरा अधिकार है क्योंकि यह शक्तियां मुझे भीख या दान में नहीं मिलीं यह मेरे तप एवं परिश्रम द्वारा किए गए कर्मों के प्रतिफल के रूप में मुझे मिला है अतः यह शक्तियां मेरी विरासत हैं इनका मैं दुरुपयोग करूं या सदुपयोग करो इस पर सिर्फ मेरा अधिकार है। इतना ही नहीं वह यह भी कहता है कि कि जिस शान से मैंने इन शक्तियों को भोगा है उनका दुरुपयोग किया है उसी शान से में दंड भोगने को भी तैयार हूं। यह अहंकार का दूसरा चरण है जब व्यक्ति स्वयं को गलत जानने के बावजूद उससे होने वाली हानि भी उठाने को तैयार होता है। हम भी अपने जीवन में चाहे इंजीनियर हो डॉक्टर हो या किसी अन्य ऊंचे पद पर सुशोभित हो वहां तक पहुंचने का कारण ईश्वर की कृपा ना मानकर केवल अपने परिश्रम का परिणाम मानने लगते हैं जो अंततः हमारे लिए दुखों का कारण हो जाता है क्योंकि जीवन में अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं और अपेक्षाएं जब पूरी नहीं हो पाती तो व्यक्ति के जीवन में असंतोष की भावना उपजती है।

वस्तुतः जब हम जन्म लेकर इस धरती पर आते हैं तो हमारे जीवन का कोई न कोई उद्देश्य होता है किसी ना किसी की सेवा करने की भावना से हम यहां आते हैं। रावण यदि एक कदम पीछे जा कर देखता तो उसे यह अवश्य स्पष्ट होता इतनी सिद्धियां जो उसने प्राप्त की है उसके लिए श्रम करने की जो शक्ति थी वह उस युग में और किसी भी व्यक्ति के पास नहीं थी। जिस प्रकार ईश्वर ने सूर्य को अपरिमित प्रकाश दिया उसका चयन किया ताकि संपूर्ण सृष्टि आवश्यक प्रकाश से तृप्त हो सके। यह चयन अथवा यह क्षमता ईश्वर द्वारा हमें उपहार स्वरूप प्रदत्त है। रावण के अंदर कर्म का अहंकार है किंतु यह नहीं देखता कि तप करने की इतनी क्षमता ईश्वर ने उस युग में और किसी को नहीं दी, यह तो ईश्वर द्वारा दिया हुआ उपहार अथवा दान ही है।

यही दान हमें मिला हुआ है जिसके अनुसार हम अपने कर्म की दिशा की ओर आगे बढ़ते हैं तथा वह प्राप्त करते हैं जिसके लिए ईश्वर ने हमारा चयन किया है। हम सभी ईश्वर की इच्छा से धरती पर जन्म लेकर आए हैं तथा अपने जीवन के उद्देश्यों की ओर सही दिशा में बढ़ना ही हमारी गति है। यदि कर्म में यह भाव रखेंगे तो अहंकार का लेशमात्र भी हमारे जीवन में नहीं होगा तथा हम सही दिशा में कदम बढ़ा सकेंगे।

- दीपक श्रीवास्तव

Sunday, August 12, 2018

--- प्रेम तथा अहंकार, भक्ति या ज्ञान ---

भक्ति प्रेम का सबसे शाश्वत रूप है। यूं तो स्वयं को अपने शाश्वत रुप से एकाकार करने के अनेक मार्ग हैं। कोई उस रूप को ज्ञान के माध्यम से देखने  का प्रयास करता है तथा कोई ज्ञान की गहराइयों में ना जाकर निर्मल भक्ति भावना द्वारा स्वयं की चेतना को ईश्वरीय चेतना से एकाकार करता है। ज्ञान मार्ग को शास्त्रों ने अत्यंत कठिन बताया है किंतु यदि ज्ञान को ठीक से साध सके जिसमें अहंकार का लेशमात्र भी ना हो तब ज्ञान ही व्यक्ति के अंदर भक्ति की भावना को जागृत कर देता है।
भक्ति निर्मल होती है। भक्ति की भावना स्वयं को हीन मानते हुए परम तत्व की और निश्चल भाव से समर्पित होती है। अतः इसमें विकार होने की संभावना नहीं है। अतः भक्ति सरल है किंतु वर्तमान समाज में सरलता को प्राप्त करना अत्यंत कठिन हो गया है क्योंकि हर व्यक्ति अपने मूल स्वभाव से परे कठिनता प्राप्त करने का प्रयास कर रहा है जिसका उद्देश्य ना तो ज्ञान है ना भक्ति। जीवन के उद्देश्यों को जानने का प्रयास करने की बजाय मानव का प्रयास जीविकोपार्जन तक ही सीमित रह गया है। जीविकोपार्जन तत्पश्चात अर्थ की प्रगति से भी आगे बढ़ता हुआ भौतिक संसाधनों से परिपूर्ण एक विलासी जीवन। दुर्भाग्य से वर्तमान मनुष्य के जीवन का उद्देश्य यही तक सिमट कर रह गया है।
हम सभी जानते हैं कि सृष्टि के कण-कण में ईश्वर स्वयं विराजमान रहकर हमें आत्मोत्सर्ग के संकेत देते रहते हैं किंतु भौतिक चकाचौंध में दृष्टि पर भ्रम की अनेक परतों के चढ़े होने के कारण हम उन संकेतों को समझ नहीं पाते अतः एक अत्यंत सीमित एवं संकुचित जीवन बिता कर इस संसार को छोड़कर चले जाते हैं।
ज्ञान मानव जीवन को उन्नति के शिखर पर पहुंचाने की क्षमता रखने के बावजूद अनेक अवसरों पर जीवन में भ्रम उत्पन्न कर देता है वास्तव में यह ज्ञान की वजह से नहीं होता। ज्ञान के कारण मनुष्य के अंदर श्रेष्ठता की भावना उत्पन्न होती है। यह श्रेष्ठता की भावना उसके अंदर अहंकार को निर्मित करती है। अहंकार अपने मूल स्वभाव के कारण व्यक्ति की भौतिक दृष्टि जो दूसरों के दोषों को देख सकती है उसको सदा जागृत रखता है किंतु अंतर्दृष्टि जो स्वयं की चेतना का आकलन करने की क्षमता रखती है उस पर श्रेष्ठता के अहंकार का पर्दा चढ़ा जाती है। अतः व्यक्ति कण-कण में उपस्थित ईश्वर के अंश को जानने के बावजूद श्रेष्ठता से दूर रह जाता है। यदि ज्ञान के साथ भक्ति का समावेश हो जाए तो जीवन निर्विकार हो जाता है तथा ऐसा एक भी जीवन संपूर्ण समाज की प्रगति के लिए अति महत्वपूर्ण होता है क्योंकि ऐसे ही जीवन समाज के शाश्वत मूल्यों की रचना करने में सफल हो सकते हैं। दुर्भाग्य से वर्तमान समाज में अहंकार का आधार ज्ञान ना होकर आर्थिक स्थिति है जो किसी विषबेल से कम नहीं है।
शिक्षा जब तक मनुष्य को उसके मूल्यों का अनुभव नहीं कराती तब तक वह शिक्षा केवल आजीविका उपलब्ध कराने तक ही सीमित होकर रह जाती है। इस प्रकार निर्मित समाज ज्ञान एवं भक्ति से कोसों दूर मनुष्यों को पशुओं से भी नीचे स्तर का जीवन जीने पर विवश करता है। इस प्रकार के समाज में किसी भी प्रकार के संबंधों की गरिमा को बनाए रखने की क्षमता नहीं होती। वर्तमान में महिलाओं एवं छोटे बच्चों के विरुद्ध हो रहे अमानवीय कृत्यों के पीछे सबसे बड़ा कारण यही है।
 झूठी श्रेष्ठता साबित करने के इस दौर में भक्ति का मार्ग पाना अत्यंत दुष्कर है क्योंकि मन की मलिनता को दूर करना इतना सरल नहीं है। किंतु फिर भी यदि अपने शास्त्रों का अध्ययन ठीक से किया जाए तो कुछ हद तक हमारे जीवन में ज्ञान का समावेश तो हो ही सकता है। ज्ञान भले ही हमारे जीवन में श्रेष्ठता का अहंकार उत्पन्न करें किंतु फिर भी वह सामाजिक विकृतियों से लड़ने में सक्षम है। और ज्ञान भी तभी तक अहंकार उत्पन्न करता है जब तक ज्ञान संपूर्ण नहीं है।
 अतः आदर्श स्थिति तो भक्ति के साथ ज्ञान का संगम है किंतु निश्चल मन के साथ यदि भक्ति को हम ग्रहण न कर सके तो भी ज्ञान के माध्यम से वर्तमान समाज को सार्थक दिशा तो दे ही सकते हैं अतः अब भी समय है अपनी संस्कृति के मापदंडों को समझें, मर्यादाओं को अपने हृदय में धारण करें जिससे समाज की दिशा एवं दशा दोनों में उत्थान हो।

-  दीपक श्रीवास्तव

Tuesday, August 7, 2018

--- सुंदरता एवं प्रगतिशील समाज ---


 अक्सर हम  सृष्टि में बहुत सारी चीजों को देखते हैं महसूस करते हैं। कुछ वस्तुएं हमें सुंदर लगती हैं कुछ बहुत सुंदर और कुछ हृदय में गहरे उतर जाती हैं। यदि वस्तुओं से अलग मनुष्य की ओर देखें तो पायेंगे कि कुछ मनुष्य हमें बहुत सुंदर लगते हैं तथा कुछ असुंदर। बहुधा हमें यह भी देखने को मिलता है कि कि जो मनुष्य हमें सुंदर लगता है वह किसी और की दृष्टि में असुन्दर हो सकता है तथा इसका विपरीत भी संभव है। प्रश्न यह उठता है कि एक ही व्यक्ति अथवा वस्तु के लिए अलग-अलग व्यक्तियों की दृष्टि में भिन्नता क्यों?  हमारी दृष्टि में जो गलत है वह किसी और की दृष्टि में सही तथा किसी और की दृष्टि में जो गलत है वह हमारी दृष्टि में सही हो सकता है।
 तो प्रश्न उठता है कि वास्तव में सुंदरता कहां है- वस्तु में, व्यक्ति में अथवा दृष्टि में? एक मित्र को अचानक कुछ आवश्यकता आन पड़ी तो दूसरे मित्र के पास पहुंचे और बोला कि भाई मुझे कुछ आवश्यकता है मुझे तुम्हारी मदद चाहिए। दूसरे मित्र कहते हैं हां मित्र क्यों नहीं आखिर सुख दुख में हम एक दूसरे के साथ नहीं खड़े होंगे तो मित्रता कैसी? पहले व्यक्ति की जरूरत में दूसरे व्यक्ति ने साथ दिया था अतः पहला व्यक्ति यही कहेगा कि कि दूसरा व्यक्ति बहुत सुंदर है उसका मन बहुत सुंदर है उसका हृदय विशाल है। अब दूसरा दृश्य एक तीसरे मित्र को आवश्यकता पड़ती है तथा वह पहले मित्र के पास पहुंचता है और बोलता है कि भाई मुझे कुछ सहयोग चाहिए तो पहला मित्र उन्हें दूसरे मित्र के पास भेजता है परंतु उस समय दूसरे मित्र किन्हीं परेशानियों में उलझे हुए थे, मनोदशा भी ठीक नहीं थी अतः उन्होंने तीसरे मित्र का ठीक से अभिवादन नहीं किया तथा उनका सहयोग करने में भी अक्षम रहे। तीसरे मित्र का क्या विचार होगा दूसरे मित्र के बारे में? व्यक्ति वही किंतु दो व्यक्तियों की धारणाएं उस व्यक्ति के बारे में अलग-अलग, दोनों की अपनी-अपनी पृथक परिभाषाएं, अपने-अपने पृथक विचार।
 यह धरती बहुत बड़ी है तथा भिन्नताएं भी अपरिमित हैं अतः किसी एक व्यक्ति के होने ना होने अथवा उसके विचार से इस सृष्टि के चलन पर कोई फर्क नहीं पड़ता। किंतु उसमें पृथक विचारों के बीच में जब साम्यता स्थापित की जाती है तब एक समाज का निर्माण होता है। उसमें लोगों का चाल-चलन, आचार-व्यवहार इन सब की परिभाषाएं बनती हैं तब एक संस्कृति का निर्माण होता है। संस्कृति बनती है तो मर्यादाएं भी बनती हैं। किंतु मर्यादाओं का निर्माण देश, काल एवं परिस्थितियों पर निर्भर करता है।  सामाजिक एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समय की मांग को देखते हुए परंपराएं निर्मित की जाती हैं, शास्त्र रचे जाते हैं। इस प्रकार एक प्रगतिशील समाज की रचना हो जाती है।
चूंकि मर्यादाओं पर आधारित परंपराएं समय की आवश्यकता के अनुसार निर्मित होती हैं यदि शास्त्रों को ठीक से न समझा जाए तो वहीं परंपराएं समय बदलने के साथ-साथ रूढ़ियां बन जाती हैं तथा समाज में अंधविश्वास का जन्म होता है। एक कालखंड में जो चीजें सुंदर थी वही अब असुन्दर होती चली जाती हैं। अल्प ज्ञान के आधार पर हर व्यक्ति उन्हें रूढ़ियों कि अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार व्याख्या करने लगता है। विभिन्न दृष्टिकोण उपजते हैं, कोई पक्ष में होता है कोई विपक्ष में होता है किसी को सुंदर लगती हैं किसी को बदसूरत जबकि परंपराएं वही है, मानक वही है, मान्यताएं वही है किंतु दृष्टिकोण ने अलग-अलग परिभाषाएं गढ़ दीं।
 यदि एक प्रगतिशील समाज की रचना करनी है तो सामाजिक संरचना के आधार स्तंभ शास्त्रों का गहन अध्ययन अनिवार्य है। तभी परंपराओं एवं मान्यताओं के मापदंडों को समझा जा सकता है और समय चक्र के बदलने के साथ ही परंपराओं में परिवर्तन की सामर्थ्य पैदा की जा सकती है इस प्रकार समाज को रूढ़ियों एवं अंधविश्वासों से बचाया जा सकता है। बदलता हुआ समय समाज की आंखों पर अनेक पर्दे चढ़ा जाता है तब शास्त्र पैदा करते हैं इन पदों के आर पार देखने की नजर ताकि सत्य बिल्कुल शीशे की तरह साफ हो। दृष्टि सुंदर हो। चारों ओर सूर्य सा चमकता हुआ प्रकाश हो और समाज भटकाव से परे निरंतर प्रगति की ओर कदम बढ़ा रहा हो।

- दीपक श्रीवास्तव

Life: From Ordinary towards Extraordinary


The earth is very vast, there is vast ocean of the waters and there is sky which is eternal. Can they ever limit their magnitude? Far from the city - If you sit at the edge of a sea at a quiet place, then a place can be seen far away, where all three, earth, ocean and sky, come at one place called the horizon - it is bound to the vastness of the vastness. There is neither, nor end, nor zero, nor infinite, but it is not an unusual phenomenon because nothing unusual happens in the world. Whatever the earth, sky, wind, mineral, mountain, river, etc. are all normal. It is normal - sometimes wandering in the forests, sometimes while living on the stale meat of other animals, when man goes beyond the search of fire and wheels, crossing different stages, human reached towards great inventions like computer and Internet. It proves that the human's capabilities can’t be bound. Can these capabilities be restricted? May be not. Since only one element in creature is infinite - the element of god, if a particle of it is present in a body, the body is in consciousness. With the influence of those particles, thinking and power progresses towards infinity.
The life of man is very common, but there is a very specific process which bring the human towards the range of vastness and incomparable. There is a moment comes in every person's life when he gets the opportunity that he can rise above his own life and become an exceptionally extravagant personality. If you recognize that moment, then you can make the correct use of your unlimited energy. When he try to progress through somebody's door or flattering, believe that he will be losing himself because these are all compromises. But it is necessary to make an agreement on certain occasions in life. What to do with the agreement - this question arises. When person can have capability to recognizes it correctly, then only he can take the actual steps towards becoming an extraordinary personality.
Life is a journey, so we are all travelling. Sometimes in the house, in outside, in crowd, in lonely, in dreams, in awake, in void, in infinite, in thought, in thoughtlessness. This journey is going on continuously. When the feeling of loneliness in the crowd starts to occur, then it is time understand that there is a need to change direction. Since man is a social creature, there is a sense of social security inside him. He wants to live as a part of society. He feels safe with his friends and his family, he feels safe by himself, and the thought of getting away from his community, he begins to feel loneliness in his mind. This is the feeling of loneliness in the crowd.
When a person rises above the crowd and hears the call of himself in his heart, then he start to takes in the form of an independent personality. This is a stepping stone from ordinary to Extraordinary. In such  situation, he seems to be able to accommodate many people in his personality. For example, any great person, whether it be Rama, Krishna, Swami Vivekananda, etc, were not the ordinary persons who lost in the crowd but they are personalities, who, despite being in the crowd, are different from the crowd. They are always be alive. As soon as I said that I want to become like this person, it means that the person has reconciled my personality within him. This is the identity of an extraordinary personality.
We have taken birth on the earth, We got the abilities to do something, So please do all those which can add our life with our consciousness. This is the purpose of life, that is the ultimate happiness, that is the unhanged sound, that is the greatness of life.

- Deepak Srivastava

Monday, August 6, 2018

--- लक्ष्य की प्राप्ति एवं जीवन-संघर्ष ---

जीवन में किया गया कोई भी कार्य किसी न किसी लक्ष्य की ओर उन्मुख होता है तथा उसकी प्राप्ति व्यक्ति की इच्छाशक्ति तथा परिश्रम की दिशा पर निर्भर है। लक्ष्य भक्त के लिए भक्ति, शिक्षार्थी के लिए रोजगार तथा राजनीतिज्ञ के लिए राजनीति का कोई पद हो सकता है। किंतु उसकी प्राप्ति के लिए बाधाओं का सामना करना ही पड़ता है, जिससे जूझकर आगे बढ़ना ही संघर्ष है। लक्ष्य मार्ग में तीन प्रकार की बाधाएं आती हैं जो क्रमशः स्वर्ग-लोक, पाताल-लोक तथा मृत्युलोक की बाधा कहलाती है। बाधाओं की प्रकृति भिन्न होने के कारण उनके हल भी अलग-अलग हैं।
गोस्वामी तुलसीदासकृत श्रीरामचरितमानस के हृदय में स्थित सुंदरकांड इस विषय में बहुत सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करता है। हनुमान जी समेत वानर एवं भालुओं के समूह मां सीता का पता लगाने के लिए समुद्र तट पर बैठे हुए विचारमग्न थे कि इस अथाह जलराशि को कैसे पार करें? ऐसे ही यह संसार भी एक विशाल समुद्र के समान है जिसमें हम अपने जीवन का लक्ष्य पाने के लिए विचारमग्न होकर बैठे हुए हैं। जिस प्रकार हनुमान जी अपनी उन शक्तियों को भूल चुके थे जो उन्हें एक ही छलांग में समुद्र पार करा सकती थीं, उसी प्रकार हम भी अपनी क्षमताओं को भूले बैठे हैं। तब वहाँ उपस्थित जामवंत जी ने उन्हें अपनी शक्तियों का भान कराया। जामवन्त जी वरिष्ठ एवं गुरुस्वरूप थे अतः उन्हें हनुमान जी की शक्तियों का पता था। हमारे जीवन में भी माता-पिता एवं अध्यापक हमारी शक्तियों को पहचानते हैं तथा लक्ष्य तक पहुँचने में पग-पग पर हमारा मार्गदर्शन करते हैं परिणामस्वरूप हमारी दृष्टि विकसित होती है जो हमें लक्ष्य से अवगत कराती है तथा हमें अपनी क्षमताओं का ज्ञान होने लगता है और हम सही दिशा में बढ़ने लगते हैं।
यहीं से हनुमान जी की समुद्र यात्रा का प्रारम्भ होता है जहाँ सर्वप्रथम मैनाक पर्वत से मिलना होता है जो उनसे कहता है, “हे तात! तुम थक गए होगे थोड़ा सा विश्राम कर लो”। समाज में अनेक लोग हैं जो जीवन में लक्ष्य तो बना लेते हैं किन्तु थोड़ा सा चलने पर ही आलस्य के कारण रुकने या भटकने लगते हैं। किन्तु लक्ष्य से पहले रुकने का क्या काम!
“क्या सवेरा, रात क्या है, नियति का प्रतिघात क्या है?
थक गए जो, रुक गए जो, लक्ष्य की फिर बात क्या है?
राह को ही वर लिया तो फिर नियति की मार कैसी?
कंटकों को ही बहा दे, अश्रु की हो धार ऐसी।
अतः हनुमान जी का उत्तर है, “राम-काज कीन्हे बिनु, मोहि कहां विश्राम”। वास्तव में यह हमारे संकल्पशक्ति की परीक्षा है जिसमें उत्तीर्ण होने के पश्चात ही लक्ष्य तक पहुंचने का मार्ग प्रारंभ होता है। हनुमान जी को मार्ग में तीन राक्षसियां मिलती हैं जो ऊपर वर्णित बाधाओं के प्रतीकात्मक भाव को प्रदर्शित करती हैं। यात्रा में तीन पड़ाव क्रम से आते हैं तथा प्रत्येक पड़ाव की बाधा विशिष्ट है अतः उसका हल उसी के अनुसार है। यदि प्रचलित मान्यता के अनुसार राक्षसी का सामान्य अर्थ लिया जाय तो तीनों का वध भी किया जा सकता था किन्तु हनुमान जी सुरसा का सम्मान, सिंहिका का वध तथा लंकिनी को घायल करते हैं।
सर्वप्रथम स्वर्गलोक की बाधा के रूप में सुरसा देवताओं के निवेदन पर हनुमान जी की परीक्षा लेने के लिए आई थी। उसका उद्देश्य पावन था, अतः इसे बाधा नहीं बल्कि हमें और मजबूत बनाने हेतु बड़ों द्वारा ली गई परीक्षा कहना अधिक उपयुक्त होगा। स्वर्ग को देवताओं का निवास स्थान माना गया है जो आध्यात्मिक शक्तियों के प्रतीक हैं अतः वे पग-पग पर विभिन्न माध्यमों से हमारे संकल्प को दृढ़ करते हैं तथा मार्गदर्शन भी करते हैं। वे हमारी संकल्पशक्ति की परीक्षा लेते हैं जो दृढ़ता को आधार प्रदान करती है। हमें जीवन में कई बार ऐसा लगता है कि हमारे माता-पिता हमारे विरुद्ध हैं तथा हमपर अपनी इच्छाएं थोप रहे हैं लेकिन सत्य इसके विपरीत होता है। उदाहरण के लिए माता-पिता बेटे को इंजीनियर बनने को कहते हैं लेकिन बेटा की इच्छा कुछ और है। इस वार्ता में कभी हम अपनी बात को मजबूती से रखते हैं तो हमारे बड़े और भी अधिक मजबूती से, फिर उससे ज्यादा मजबूती से हम रखते हैं फिर हमारे बड़े और मजबूती से अपना तर्क प्रस्तुत करते हैं। हनुमान जी द्वारा सुरसा के मुंह से दुगुना आकार लेना, सुरसा द्वारा अपने मुख का आकार हनुमान जी से दुगुना कर लेना तथा इस क्रम का बढ़ना इसी बात को दर्शाता है। किंतु एक समय ऐसा आता है जब सुरसा अपना अपना मुख सौ योजन विशाल कर लेती है। यही चिंतन का बिंदु है क्योंकि लक्ष्य अर्थात सीता माँ की दूरी भी सौ योजन ही है। यदि हनुमान जी अपना आकार दो सौ योजन कर लेते तो इसका सीधा अर्थ होता कि वे अपने अहंकार को प्रदर्शित कर रहे हैं। चूंकि यह परीक्षा हमारे लिए हितकारी है, अतः हमें इसका सम्मान करना चाहिए, यही उदाहरण हनुमानजी प्रस्तुत करते हैं तथा वे लघु रुप लेकर सुरसा की इच्छा पूरी कर देते हैं जिसके परिणामस्वरूप सुरसा उन्हें सफलता का आशीष देती है। सत्य है - बड़ों का आशीष लिए बिना जीवन में सफलता प्राप्त नहीं हो सकती।
यहां से आगे अब हम समाज में प्रतिस्पर्धा का सामना कर रहे होते हैं। तभी हनुमान जी की यात्रा में सिंहिका नामक राक्षसी पाताललोक की बाधा के रूप में सामने आती है। समुद्र में रहने वाली सिंहिका अपने ऊपर उड़ने वाले पक्षियों की परछाई को पकड़कर उनका शिकार किया करती थी। अब प्रश्न उठता है कि समुद्र में भी तो बहुत सारे जीव थे, उनका शिकार छोड़कर वह उपर उड़ने वाले पक्षियों की परछाई को ही क्यों पकड़ती थी? उत्तर स्पष्ट है – व्यक्ति स्वयं से ऊपर जिसे देखता हैं, यदि वहां तक नहीं पहुंच सकता तो उसे गिराकर स्वयं को ऊपर दिखाने का प्रयास करने लगता हैं, यही ईर्ष्या, अहंकार अथवा लालच का रूप है। अतः हनुमान जी सिंहिका से बिना कोई वार्ता किये वध करके आगे बढ़ जाते हैं।
लक्ष्य के निकट मृत्युलोक की बाधा के रूप में लंकिनी मिलती है जो कहती है – “मोर अहार जहां लगि चोरा”। बाहरी नेत्र दूसरों की भूल आसानी से देख लेते है किन्तु अक्सर आंतरिक नेत्र बंद होने के कारण हमें अपनी भूल दिखाई नहीं देती। यदि अपनी गलती भूल समझ आ जाए तो उसे सुधारना बहुत आसान है, किंतु दूसरों की गलतियों को सुधारना बहुत मुश्किल है। लंकिनी का यह वाक्य कि मैं सिर्फ चोरों को खाती हूं इसी बात की पुष्टि करता है, क्योंकि चोर तो लंका के भीतर बैठा है जो सीता को हर लाया है। लंकिनी वास्तविक चोर को आहार नहीं बनाती बल्कि वह चोरी का पता लगाने वाले श्री हनुमान जी को ही आहार बनाने की बात कहती है। अतः उसका वध करने की बजाए उसके भ्रम आवरण हटाना आवश्यक है। उसे हनुमानजी का मुक्का लगाना उसकी दृष्टि से पर्दा हटाने का प्रयास है जिसके हटते ही उसे सत्य दिखाई देने लगता है और वह कहती है कि उसे बहुत आनंद आ रहा है उसके सामने सत्य शीशे की तरह साफ है।
तीनों बाधाएं पार होने के बाद भी लक्ष्य प्राप्ति के लिए सद्गुरु का मिलना जरूरी है। दिन के समय में पहुंचने के बावजूद हनुमान जी लंका की यात्रा रात में करते हैं। क्योंकि दिन में तो मनुष्य अपने ऊपर कई प्रकार के आवरण लगाकर रखता है परंतु रात्रि में वह अपने मूल स्वरुप में होता है। सद्गुरु की पहचान ऐसे ही हो सकती है जो उन्हें विभीषण के रूप में मिलते हैं और भक्तिरुपी लक्ष्य अर्थात सीता माँ का पता बताते हैं जिससे हनुमान जी अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेते हैं। यही तीन बाधाएं प्रत्येक मनुष्य के जीवन में आती हैं तथा हनुमान जी की समुद्रयात्रा का मर्म उसे प्रत्येक बाधा का हल प्रदान करते हुए लक्ष्य का मार्ग प्रशस्त करता है।

लक्ष्य प्राप्ति को निकल पड़े तो पथ में कहाँ विराम है ?
बाधाओं से जूझ – जूझ कर बढ़ना अपना काम है।।

बाधाएं भी क्रम से आयें, हमें लक्ष्य से ये भटकायें।
पर सबका हल एक नहीं है, सोचें समझें फिर सुलझाएं
हर बाधा है एक परीक्षा, यह पथ का संग्राम है।
बाधाओं से जूझ – जूझ कर बढ़ना अपना काम है।।

पहली बाधा स्वर्गलोक से, पर यह कभी विरुद्ध नहीं।
गुरुजन सा सम्मान इसे दो, इस बाधा से युद्ध नही।
इनका लो आशीष चलो फिर जहाँ तुम्हारा धाम है।
बाधाओं से जूझ – जूझ कर बढ़ना अपना काम है।।

दूजी है पाताल लोक से, नष्ट इसे कर दो अविलम्ब।
यही रूप है अहंकार का, ईर्ष्या, लिप्सा लालच दम्भ।
दो बाधाएं पार हो चुकीं, पर चलना अविराम है।
बाधाओं से जूझ – जूझ कर बढ़ना अपना काम है।।

अंतिम मृत्युलोक की बाधा, लक्ष्य निकट तब इसने साधा,
इसे करो न पूर्ण नष्ट तुम, केवल इसको मारो आधा।
सद्गुरु मिल जायेंगे तुमको, बस अब नहीं विराम है।
बाधाओं से जूझ – जूझ कर बढ़ना अपना काम है।।

-  दीपक श्रीवास्तव

Saturday, August 4, 2018

--- पेट की आग से परे ---

हम सब एक ही परम सत्ता के अंश हैं।  एक ही तरह से हमने जन्म लिया है, अलग-अलग परिवेश में पलने के बावजूद हम सबके बचपन में एक जैसी ही मासूमियत रही है, एक जैसी किलकारियां, एक जैसा हंसना, एक जैसा रोना, एक जैसे शारीरिक परिवर्तन रहे हैं।   बाल्यावस्था से किशोरावस्था, किशोरावस्था से युवावस्था, युवावस्था से अधेड़ावस्था, अधेड़ावस्था से वृद्धावस्था तत्पश्चात जाने की तैयारी लगभग सभी के साथ एक सा ही है। फिर मनुष्यों के बीच इतने विरोधाभास क्यों, इतनी भिन्नताएं, एक दूसरे के प्रति ईर्ष्या, अमानवीयता की हदों को पार करने वाली गलाकाट प्रतियोगिताएं केवल उस सुख को प्राप्त करने के लिए जो सुख कभी हमारा रहा ही नहीं और न कभी हो सकता है।
जन्म लेना और जीवन जीना एक सहज प्रक्रिया है किंतु अनेक अवसरों पर यह सहजता प्रभावित होती है।  कभी सामाजिक दिखावे के लिए, कभी भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति के लिए, कभी इंद्रियों के सुख के लिए, कभी भीड़ से अलग दिखने के लिए, कभी पारिवारिक मोह के वशीभूत होकर तो कभी दूसरों को नीचा साबित करने के लिए व्यक्ति सहज से  असहज होने का प्रयास करता है। इस असहजता का छोटा सा स्पर्श भी व्यक्ति के अंदर कुंठा, असंतोष, ईर्ष्या जैसे तमाम विकारों को जन्म दे देता है।
 किंतु मानवीय स्वभाव अत्यंत सहज है। यदि हम किसी से प्रेम करते हैं तथा उससे प्रेम मिलता है तो हमें आनंद की अनुभूति होती है। शिशुओं की मुस्कान देखते ही चित्त प्रसन्न हो जाता है। सुंदर गीत संगीत सुनने  पर हृदय को सुकून मिलता है। यदि यही सहजता जीवन भर बनी रहे तो व्यक्ति प्रत्येक प्रकार की व्याधियों से दूर रहकर एक खुशहाल जीवन बिता सकता है। इसके विपरीत यदि हम किसी पर क्रोध करें या इर्ष्या करें तो तमाम नकारात्मक विचारों भावनाओं एवं ऊर्जाओं के चलते हमें भी कष्ट होता है तथा उसे भी कष्ट होता है। इससे यह तो स्पष्ट है कि मनुष्य का मूल स्वभाव ईर्ष्या, जलन के परे प्रेम एवं आनंद की प्राप्ति का है।
 पेट की आग सब कुछ नहीं होती, निरंतर एक अग्नि व्यक्ति के जीवन में जलती रहती है - आनंद की चाह, प्रेम की चाह, प्रेम करने की इच्छा। मन कहता है कि शहर से दूर कहीं प्रकृति के किसी सुरम्य वातावरण में बैठकर अपने हृदय का पोर-पोर खोल दें। न तो भौतिक सुख चाहिए, न घर, न पैसे -  कोई इच्छा नहीं जब प्रकृति की गोद में बैठे हो तो स्वतः एक आनंद की अनुभूति होती है यह है मनुष्य का सहज स्वभाव।  नीतिशास्त्र का प्रकांड विद्वान  लंकानरेश रावण जिसके महल में किसी भी प्रकार के भौतिक सुख का अभाव नहीं था वह भी यदि कुछ कामना करता है तो यही करता है कि हे शिव कब मैं इस भौतिक चमक दमक से दूर प्रकृति के किसी सुरम्य में कोने में बैठ कर आपके नाम को जपने का सुख ले पाऊंगा। इसका जिक्र रावण रचित शिव-तांडव-स्तोत्रम में भी है-


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कदा निलिंपनिर्झरी निकुंजकोटरे वसन्‌ विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्‌।
विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन्‌ कदा सुखी भवाम्यहम्‌ ॥
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 आनंद की इस भूख को जीवन भर न मिटने दें।  पेट की आग के साथ-साथ इस आग को भी बनाकर रखें क्योंकि यही अग्नि हमें अपने जीवन के उद्देश्य से परिचित कराने का सामर्थ्य रखती है। अपने अस्तित्व के प्रश्नों से जूझने की बजाय उस अस्तित्व को महसूस करें क्योंकि जीवन में सब कुछ खोना पाना तभी तक है जब तक यह जीवन है-यही जीवन सबसे बड़ा सत्य है। दूसरों को सुख देने में जो आनंद है वह आनंद अन्यत्र कहीं नहीं।
 सच्चे आनंद की तलाश करने के लिए हमें बाहर कहीं भी जाने की आवश्यकता नहीं है। बस इसे अपने भीतर महसूस करें और हर पल इसे बाहर आने दें कभी प्रकृति की सुरम्य वादियों के साथ, कभी परिवार के साथ, कभी मित्रों के साथ। हर क्षण अपने मूल स्वभाव के साथ जिए यही वास्तविक आनंद है यही परम सुख है।

-  दीपक श्रीवास्तव

Friday, August 3, 2018

जीवन - विराटता की ओर

--- जीवन - विराटता की ओर ---

यूं तो धरती बहुत विशाल है, विशाल है महासागर की अथाह जलराशि और आकाश अनंत है। क्या कभी इनकी विशालता को सीमाबद्ध किया जा सकता है?  शहर से दूर - शांत भाव से कभी किसी समुद्र के किनारे बैठें तो दूर - बहुत दूर एक ऐसा स्थान दिखाई देता है जहां तीनों एक स्थान पर आकर मिलते हैं जिसे क्षितिज कहते हैं - यह है विशालता का सीमाबद्ध होना। ना आदि है, न अंत है, न शून्य है, ना अनंत है, किंतु यह एक असामान्य घटना नहीं है क्योंकि असामान्य कुछ भी नहीं होता। धरती, आकाश,  पवन,  खनिज,  पर्वत,  नदी,  इत्यादि जो कुछ भी है सब सामान्य है।  सामान्य है - कभी जंगलों में भटकता हुआ, कभी कंदमूल तो कभी दूसरे जानवरों के बासी मांस पर गुजारा करता हुआ मनुष्य जब आग और पहिए की खोज से आगे बढ़कर, विभिन्न पड़ावों को पार करता हुआ जब कंप्यूटर इंटरनेट जैसे महान अविष्कारों की ओर कदम बढ़ाता है तो लगता है कि व्यक्ति की क्षमताएं अनंत है। क्या इन क्षमताओं को सीमाबद्ध किया जा सकता है? शायद हाँ, शायद नहीं । क्योंकि अनन्त तो सृष्टि में सिर्फ एक ही तत्व है, वह परम तत्व जिसके कण जिस शरीर में हैं उसमें चेतना है। उन्हीं कणों के प्रभाव से सोच एवं शक्तियां अनंतता की ओर बढ़ती जाती हैं।
 यूं तो मनुष्य का जीवन अत्यंत सामान्य है किंतु इसे विशालता और असामान्यता की श्रेणी तक पहुंचाना एक विशिष्ट प्रक्रिया है। हर व्यक्ति के जीवन में एक ऐसा क्षण अवश्य आता है जब उसे यह अवसर मिलता है कि वह अपने जीवन से ऊंचा उठ कर साधारण से एक असाधारण व्यक्तित्व बन सकता है। यदि उस क्षण को पहचान गए तभी अपनी असीमित ऊर्जा का सही उपयोग कर सकते हैं। जब हम किसी के द्वार जाकर या किसी की चापलूसी द्वारा आगे बढ़ने का प्रयास करते हैं तो यकीन मानिए हम स्वयं को खो रहे होते हैं क्योंकि यह सब समझौते हैं।  किंतु जीवन में कुछ मौकों पर समझौते करना आवश्यक हो जाता है। समझौते करें तो किस से करें - यह प्रश्न उठता है। जो व्यक्ति इसकी पहचान कर लेता है वही असाधारण व्यक्तित्व बनने की दिशा में वास्तविक कदम उठा पाता है।
 जीवन एक यात्रा है अतः हम सभी चल रहे हैं।  घर में, बाहर में, भीड़ में, अकेले में, स्वप्न में, जाग्रत में, शून्य में, अनंत में, विचार में,  विचारशून्यता में।  यह यात्रा अनवरत चल रही है।  जब भीड़ में अकेलेपन का एहसास होने लगे तो समझ लें कि अब दिशा परिवर्तन की आवश्यकता है।  चूंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है अतः उसके अंदर सामाजिक सुरक्षा  पाने की भावना है। वह समाज का एक हिस्सा बनकर जीना चाहता है। उसके मित्र हैं, भाई हैं, परिवार है, इन सबके बीच होकर वह अपने आप को सुरक्षित महसूस करता है और इनसे दूर होने का विचारमात्र ही उसके मन में अकेलेपन का बोध कराने लगता है। बस यही है भीड़ में होते हुए भी अकेलेपन का एहसास।
जब भीड़ से ऊपर उठकर व्यक्ति अपने अंतर्मन में जाग्रत चेतना की पुकार सुनता है तब कहीं जाकर वह एक स्वतंत्र व्यक्तित्व का रूप धारण करता है। यह पुरुषत्व से महापुरुषत्व की ओर बढ़ता हुआ कदम है। ऐसी स्थिति में वह अनेक व्यक्तियों को अपने व्यक्तित्व में समेट लेने की क्षमता रखने लगता है।  उदाहरणस्वरूप कोई भी महापुरुष चाहे वह राम हों, कृष्ण हों, स्वामी विवेकानंद, शहीद अशफाक उल्ला खां या राम प्रसाद बिस्मिल हों यह भीड़ में खोए हुए व्यक्ति नहीं है बल्कि स्वतंत्र व्यक्तित्व है जो भीड़ में होकर भी भीड़ से अलग अपने स्वतन्त्र व्यक्तित्व के रूप में सदा जीवित हैं। जैसे ही मैंने कहा कि मैं फलां जैसा बनना चाहता हूं इसका सीधा अर्थ यह है कि उस व्यक्तित्व ने मेरे व्यक्तित्व को अपने भीतर समेट लिया।  यह है एक असाधारण व्यक्तित्व की पहचान।
 यदि मनुष्य जन्म मिला है, क्षमताएं मिली हैं तो वह सब करें जो हमारे जीवन को हमारी चेतना से एकाकार करती हैं।  यही जीवन का उद्देश्य है, यही परम सुख है, यही अनहद नाद है,  यही है जीवन की विराटता।

-  दीपक श्रीवास्तव

Thursday, August 2, 2018

जीवन का लक्ष्य - वृक्ष या पर्वत

जीवन में ऊंचाइयों को पाना किसे अच्छा नहीं लगता।  ऊंचाइयों का पैमाना सबके लिए अलग-अलग है सबकी अपनी-अपनी सोच है अपनी अपनी इच्छा शक्ति है।  वृक्ष बने या पर्वत यह हमारी अपनी सोच पर निर्भर करता है।  दोनों  का अपना अपना संघर्ष है अपनी-अपनी चुनौतियां है।
 वर्तमान में हर व्यक्ति वृक्ष बनने के लिए संघर्ष कर रहा है। कोई रोप दे, कोई  सींच दे,  बस वृक्ष का आकार ले लें  और अपनी इस उपलब्धि पर गौरवान्वित महसूस करें।  किंतु इससे व्यक्तिगत प्रगति तो मिल जाती है,  व्यक्तिगत  लक्ष्य मिल जाता है किंतु जीवन का उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता।  वृक्ष कभी भी  तूफानों से सामना नहीं कर सकता क्योंकि वह अपने आधार पर टिका हुआ होता है।  बिल्कुल वैसे ही जैसे एक व्यक्ति अपने सारे संबंधों का उपयोग करता हुआ एक लक्ष्य प्राप्त कर लेता है और अपने आप को समाज से अलग मानते हुए जीवन जीता है।  अक्सर ऐसे व्यक्ति जीवन में नाम तो पा लेते हैं किंतु उनका जीवन एकाकी हो जाता है स्टार डम के कारण सामान्य जनता से जुड़ने में उन्हें कठिनाई होती है।  ऐसी ऊंचाइयों किस काम की जो व्यक्ति को समाज से ही अलग कर दे।
 इससे भी अधिक संघर्षों से जूझकर धरती की प्लेटे जब टकराती हैं अंदर से ज्वार उठता है तब कहीं जाकर एक पर्वत का निर्माण शुरू होता है जो अनेक वर्षों तक चलता है।  पर्वत किसी एक व्यक्ति की स्वतंत्र उपलब्धियों का प्रतीक नहीं है।  यह तो प्रतीक है समवेत स्वर में उठते नादों का,  समाज के हर व्यक्ति के अंदर हिलोरे लेती भावनाओं के ज्वार के आकार  लेने का।  और ऊंचाइयां इतनी कि ऊंचे से ऊंचे तमाम वृक्ष भी उसके अंदर चींटी से भी छोटे लगने लगें।  इतने संघर्ष के साथ, इतनी सबल भावनाओं के साथ जब पर्वत आकार लेता है तब उसमें इतनी शक्ति आती है कि वह तूफानों को भी रोक सकता है आवारा बादलों को थाम कर उनसे प्रेम की वर्षा करा सकता है,  अनेक प्राणियों का आश्रय बनकर उन्हें जीवन दे सकता है।  पर्वत बनने के लिए व्यक्ति को अहंकार से मुक्त होना पड़ता है समाज की शक्ति पहचानी पड़ती है।
 वृक्ष में अहंकार तत्व है इसीलिए शक्तिशाली तूफानों क सामने वृक्ष को झुकना पड़ता है। पर्वत अहंकार मुक्त है बड़े-बड़े तूफानों को भी उसके सामने अपनी दिशा बदलनी पड़ती है।

-  दीपक श्रीवास्तव