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Monday, August 6, 2018

--- लक्ष्य की प्राप्ति एवं जीवन-संघर्ष ---

जीवन में किया गया कोई भी कार्य किसी न किसी लक्ष्य की ओर उन्मुख होता है तथा उसकी प्राप्ति व्यक्ति की इच्छाशक्ति तथा परिश्रम की दिशा पर निर्भर है। लक्ष्य भक्त के लिए भक्ति, शिक्षार्थी के लिए रोजगार तथा राजनीतिज्ञ के लिए राजनीति का कोई पद हो सकता है। किंतु उसकी प्राप्ति के लिए बाधाओं का सामना करना ही पड़ता है, जिससे जूझकर आगे बढ़ना ही संघर्ष है। लक्ष्य मार्ग में तीन प्रकार की बाधाएं आती हैं जो क्रमशः स्वर्ग-लोक, पाताल-लोक तथा मृत्युलोक की बाधा कहलाती है। बाधाओं की प्रकृति भिन्न होने के कारण उनके हल भी अलग-अलग हैं।
गोस्वामी तुलसीदासकृत श्रीरामचरितमानस के हृदय में स्थित सुंदरकांड इस विषय में बहुत सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करता है। हनुमान जी समेत वानर एवं भालुओं के समूह मां सीता का पता लगाने के लिए समुद्र तट पर बैठे हुए विचारमग्न थे कि इस अथाह जलराशि को कैसे पार करें? ऐसे ही यह संसार भी एक विशाल समुद्र के समान है जिसमें हम अपने जीवन का लक्ष्य पाने के लिए विचारमग्न होकर बैठे हुए हैं। जिस प्रकार हनुमान जी अपनी उन शक्तियों को भूल चुके थे जो उन्हें एक ही छलांग में समुद्र पार करा सकती थीं, उसी प्रकार हम भी अपनी क्षमताओं को भूले बैठे हैं। तब वहाँ उपस्थित जामवंत जी ने उन्हें अपनी शक्तियों का भान कराया। जामवन्त जी वरिष्ठ एवं गुरुस्वरूप थे अतः उन्हें हनुमान जी की शक्तियों का पता था। हमारे जीवन में भी माता-पिता एवं अध्यापक हमारी शक्तियों को पहचानते हैं तथा लक्ष्य तक पहुँचने में पग-पग पर हमारा मार्गदर्शन करते हैं परिणामस्वरूप हमारी दृष्टि विकसित होती है जो हमें लक्ष्य से अवगत कराती है तथा हमें अपनी क्षमताओं का ज्ञान होने लगता है और हम सही दिशा में बढ़ने लगते हैं।
यहीं से हनुमान जी की समुद्र यात्रा का प्रारम्भ होता है जहाँ सर्वप्रथम मैनाक पर्वत से मिलना होता है जो उनसे कहता है, “हे तात! तुम थक गए होगे थोड़ा सा विश्राम कर लो”। समाज में अनेक लोग हैं जो जीवन में लक्ष्य तो बना लेते हैं किन्तु थोड़ा सा चलने पर ही आलस्य के कारण रुकने या भटकने लगते हैं। किन्तु लक्ष्य से पहले रुकने का क्या काम!
“क्या सवेरा, रात क्या है, नियति का प्रतिघात क्या है?
थक गए जो, रुक गए जो, लक्ष्य की फिर बात क्या है?
राह को ही वर लिया तो फिर नियति की मार कैसी?
कंटकों को ही बहा दे, अश्रु की हो धार ऐसी।
अतः हनुमान जी का उत्तर है, “राम-काज कीन्हे बिनु, मोहि कहां विश्राम”। वास्तव में यह हमारे संकल्पशक्ति की परीक्षा है जिसमें उत्तीर्ण होने के पश्चात ही लक्ष्य तक पहुंचने का मार्ग प्रारंभ होता है। हनुमान जी को मार्ग में तीन राक्षसियां मिलती हैं जो ऊपर वर्णित बाधाओं के प्रतीकात्मक भाव को प्रदर्शित करती हैं। यात्रा में तीन पड़ाव क्रम से आते हैं तथा प्रत्येक पड़ाव की बाधा विशिष्ट है अतः उसका हल उसी के अनुसार है। यदि प्रचलित मान्यता के अनुसार राक्षसी का सामान्य अर्थ लिया जाय तो तीनों का वध भी किया जा सकता था किन्तु हनुमान जी सुरसा का सम्मान, सिंहिका का वध तथा लंकिनी को घायल करते हैं।
सर्वप्रथम स्वर्गलोक की बाधा के रूप में सुरसा देवताओं के निवेदन पर हनुमान जी की परीक्षा लेने के लिए आई थी। उसका उद्देश्य पावन था, अतः इसे बाधा नहीं बल्कि हमें और मजबूत बनाने हेतु बड़ों द्वारा ली गई परीक्षा कहना अधिक उपयुक्त होगा। स्वर्ग को देवताओं का निवास स्थान माना गया है जो आध्यात्मिक शक्तियों के प्रतीक हैं अतः वे पग-पग पर विभिन्न माध्यमों से हमारे संकल्प को दृढ़ करते हैं तथा मार्गदर्शन भी करते हैं। वे हमारी संकल्पशक्ति की परीक्षा लेते हैं जो दृढ़ता को आधार प्रदान करती है। हमें जीवन में कई बार ऐसा लगता है कि हमारे माता-पिता हमारे विरुद्ध हैं तथा हमपर अपनी इच्छाएं थोप रहे हैं लेकिन सत्य इसके विपरीत होता है। उदाहरण के लिए माता-पिता बेटे को इंजीनियर बनने को कहते हैं लेकिन बेटा की इच्छा कुछ और है। इस वार्ता में कभी हम अपनी बात को मजबूती से रखते हैं तो हमारे बड़े और भी अधिक मजबूती से, फिर उससे ज्यादा मजबूती से हम रखते हैं फिर हमारे बड़े और मजबूती से अपना तर्क प्रस्तुत करते हैं। हनुमान जी द्वारा सुरसा के मुंह से दुगुना आकार लेना, सुरसा द्वारा अपने मुख का आकार हनुमान जी से दुगुना कर लेना तथा इस क्रम का बढ़ना इसी बात को दर्शाता है। किंतु एक समय ऐसा आता है जब सुरसा अपना अपना मुख सौ योजन विशाल कर लेती है। यही चिंतन का बिंदु है क्योंकि लक्ष्य अर्थात सीता माँ की दूरी भी सौ योजन ही है। यदि हनुमान जी अपना आकार दो सौ योजन कर लेते तो इसका सीधा अर्थ होता कि वे अपने अहंकार को प्रदर्शित कर रहे हैं। चूंकि यह परीक्षा हमारे लिए हितकारी है, अतः हमें इसका सम्मान करना चाहिए, यही उदाहरण हनुमानजी प्रस्तुत करते हैं तथा वे लघु रुप लेकर सुरसा की इच्छा पूरी कर देते हैं जिसके परिणामस्वरूप सुरसा उन्हें सफलता का आशीष देती है। सत्य है - बड़ों का आशीष लिए बिना जीवन में सफलता प्राप्त नहीं हो सकती।
यहां से आगे अब हम समाज में प्रतिस्पर्धा का सामना कर रहे होते हैं। तभी हनुमान जी की यात्रा में सिंहिका नामक राक्षसी पाताललोक की बाधा के रूप में सामने आती है। समुद्र में रहने वाली सिंहिका अपने ऊपर उड़ने वाले पक्षियों की परछाई को पकड़कर उनका शिकार किया करती थी। अब प्रश्न उठता है कि समुद्र में भी तो बहुत सारे जीव थे, उनका शिकार छोड़कर वह उपर उड़ने वाले पक्षियों की परछाई को ही क्यों पकड़ती थी? उत्तर स्पष्ट है – व्यक्ति स्वयं से ऊपर जिसे देखता हैं, यदि वहां तक नहीं पहुंच सकता तो उसे गिराकर स्वयं को ऊपर दिखाने का प्रयास करने लगता हैं, यही ईर्ष्या, अहंकार अथवा लालच का रूप है। अतः हनुमान जी सिंहिका से बिना कोई वार्ता किये वध करके आगे बढ़ जाते हैं।
लक्ष्य के निकट मृत्युलोक की बाधा के रूप में लंकिनी मिलती है जो कहती है – “मोर अहार जहां लगि चोरा”। बाहरी नेत्र दूसरों की भूल आसानी से देख लेते है किन्तु अक्सर आंतरिक नेत्र बंद होने के कारण हमें अपनी भूल दिखाई नहीं देती। यदि अपनी गलती भूल समझ आ जाए तो उसे सुधारना बहुत आसान है, किंतु दूसरों की गलतियों को सुधारना बहुत मुश्किल है। लंकिनी का यह वाक्य कि मैं सिर्फ चोरों को खाती हूं इसी बात की पुष्टि करता है, क्योंकि चोर तो लंका के भीतर बैठा है जो सीता को हर लाया है। लंकिनी वास्तविक चोर को आहार नहीं बनाती बल्कि वह चोरी का पता लगाने वाले श्री हनुमान जी को ही आहार बनाने की बात कहती है। अतः उसका वध करने की बजाए उसके भ्रम आवरण हटाना आवश्यक है। उसे हनुमानजी का मुक्का लगाना उसकी दृष्टि से पर्दा हटाने का प्रयास है जिसके हटते ही उसे सत्य दिखाई देने लगता है और वह कहती है कि उसे बहुत आनंद आ रहा है उसके सामने सत्य शीशे की तरह साफ है।
तीनों बाधाएं पार होने के बाद भी लक्ष्य प्राप्ति के लिए सद्गुरु का मिलना जरूरी है। दिन के समय में पहुंचने के बावजूद हनुमान जी लंका की यात्रा रात में करते हैं। क्योंकि दिन में तो मनुष्य अपने ऊपर कई प्रकार के आवरण लगाकर रखता है परंतु रात्रि में वह अपने मूल स्वरुप में होता है। सद्गुरु की पहचान ऐसे ही हो सकती है जो उन्हें विभीषण के रूप में मिलते हैं और भक्तिरुपी लक्ष्य अर्थात सीता माँ का पता बताते हैं जिससे हनुमान जी अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेते हैं। यही तीन बाधाएं प्रत्येक मनुष्य के जीवन में आती हैं तथा हनुमान जी की समुद्रयात्रा का मर्म उसे प्रत्येक बाधा का हल प्रदान करते हुए लक्ष्य का मार्ग प्रशस्त करता है।

लक्ष्य प्राप्ति को निकल पड़े तो पथ में कहाँ विराम है ?
बाधाओं से जूझ – जूझ कर बढ़ना अपना काम है।।

बाधाएं भी क्रम से आयें, हमें लक्ष्य से ये भटकायें।
पर सबका हल एक नहीं है, सोचें समझें फिर सुलझाएं
हर बाधा है एक परीक्षा, यह पथ का संग्राम है।
बाधाओं से जूझ – जूझ कर बढ़ना अपना काम है।।

पहली बाधा स्वर्गलोक से, पर यह कभी विरुद्ध नहीं।
गुरुजन सा सम्मान इसे दो, इस बाधा से युद्ध नही।
इनका लो आशीष चलो फिर जहाँ तुम्हारा धाम है।
बाधाओं से जूझ – जूझ कर बढ़ना अपना काम है।।

दूजी है पाताल लोक से, नष्ट इसे कर दो अविलम्ब।
यही रूप है अहंकार का, ईर्ष्या, लिप्सा लालच दम्भ।
दो बाधाएं पार हो चुकीं, पर चलना अविराम है।
बाधाओं से जूझ – जूझ कर बढ़ना अपना काम है।।

अंतिम मृत्युलोक की बाधा, लक्ष्य निकट तब इसने साधा,
इसे करो न पूर्ण नष्ट तुम, केवल इसको मारो आधा।
सद्गुरु मिल जायेंगे तुमको, बस अब नहीं विराम है।
बाधाओं से जूझ – जूझ कर बढ़ना अपना काम है।।

-  दीपक श्रीवास्तव

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