हमारे जीवन में जो भी घटनाएं घटती हैं या जो भी कहानियां हम सुनते हैं, सभी का अपना-अपना महत्व है। हम जीवन गुजार कर चले जाते हैं और पीछे कुछ स्मृतियां छोड़ जाते हैं। जीवन से जुड़ी घटनाओं का महत्व व्यक्ति के लिये कम अथवा अधिक हो सकता है, किंतु समाज के लिए प्रत्येक घटना महत्वपूर्ण है क्योंकि कोई घटना केवल एक व्यक्ति के जीवन का हिस्सा ही नहीं होती, बल्कि पूरे समाज की दिग्दर्शिका होती है। किसी भी संप्रदाय, समुदाय, पंथ, राज्य, देश, कालखण्ड अथवा संस्कृति के अपने आधारभूत सिद्धांत तथा लोककथाएं होती हैं जो उसके भिन्न-भिन्न पक्ष प्रस्तुत करती है तथा समाज को आगे बढ़ने हेतु दिशा देती है।
एक पुरानी पौराणिक कथा याद आती है - शिव-सती के विवाह के समय माता सती के बड़े भाई सारंगनाथ, जो एक महान ऋषि थे, तपस्या में लीन होने के कारण विवाह में उपस्थित नहीं हो सके। तपस्या पूरी होने के बाद जब उन्हें विवाह का पता चला तो वे बहुत नाराज हो गए। शिव के वास्तविक स्वरुप को समझे बिना उनकी बाहरी वेशभूषा को देखकर मोहवश उन्हें भ्रम हो गया तथा विचार किया कि “मेरी बहन एक समृद्ध परिवार से है किन्तु उसका विवाह एक ऐसे पुरुष के साथ हो गया है जिसके पास रहने को न घर है, न आभूषण है, न धन है तथा उसका एक ऐसे पर्वत पर निवास है जहाँ दूर-दूर तक कोई संसाधन भी नहीं है तथा वे जंगलों में भटकते हुए अपना जीवन-यापन करते हैं, मेरी बहन ऐसे व्यक्ति के साथ पूरा जीवन सुखपूर्वक कैसे बिता सकेगी?” परन्तु विवाह तो हो चुका था, अतः बहन को जीवन-यापन हेतु आवश्यक वस्तुएं उपलब्ध कराने के उद्देश्य से वे बहुत सारे आभूषण, रत्न, माणिक इत्यादि लेकर चल दिए। चलते-चलते कई दिन बीत गए। काशी के समीप से गुजरते हुए अत्यधिक थकान के कारण वे वहीं विश्राम करने लगे तथा उन्हें नींद आ गई। स्वप्न में उन्होंने भगवान शिव की नगरी काशी का वैभव देखा जो सोने, चांदी, हीरे समेत अनेक रत्नों से सुशोभित थी। निद्रा टूटने पर वे विचारमग्न हो गये। अतः वे ध्यान लगा कर वहीं बैठ गए। समाधि की अवस्था में उन्हें शिव के वास्तविक स्वरुप के दर्शन हुए तथा अपने अज्ञान पर पश्चाताप हुआ। उनकी तपस्या से भगवान शिव प्रसन्न हुए तथा उन्हें दर्शन दिए। तत्पश्चात उस स्थान पर दो शिवलिंग स्वतः उत्पन्न हुए। वाराणसी में सारनाथ के समीप स्थित शारंगनाथ मंदिर आज भी इस पौराणिक घटना का साक्षी है तथा दो शिवलिंग वाले मंदिर के नाम से विख्यात है जहां शिवजी अपने साले के साथ विराजमान हैं।
यह घटना एक पवित्र पौराणिक कथा के रूप में प्रसिद्ध है। इससे समाज तथा हम किस प्रकार से जुड़े हुए हैं यह जानना महत्वपूर्ण है। आस्था के केंद्रबिंदु बने अनेक मंदिर एवं अन्य स्थल इसलिए स्थापित होते हैं ताकि वे अनंतकाल तक समाज का मार्गदर्शन करते रहें। जब व्यक्ति ज्ञान के अहंकार में होता है तथा अपनी क्षमताओं पर झूठा गर्व करता है, तब यही अहंभाव उसकी दृष्टि पर पर्दा चढ़ा जाती है जिस कारण उसे सत्य दिखाई नहीं देता। शिवस्वरूप को समझे बिना शारंगनाथ का भ्रम यही दर्शाता है जिसके वशीभूत एक व्यक्ति स्वयं को समर्थ तथा दूसरे को असमर्थ मानने के अहंकार में घिरता है। दो बाहरी नेत्र केवल जगत का बाह्य स्वरूप देखते हैं जो भ्रम उत्पन्न होने का कारण है। धन के चकाचौंध से प्रभावित मन तथा चुँधियाई हुई आंखें भ्रम के आर-पार देखने की दृष्टि विकसित नहीं कर पातीं। किंतु सत्य का दर्शन इतना सरल नहीं है, उसके लिये परिश्रम करना पड़ता है। सारंगनाथ की यात्रा इसी श्रम एवं संघर्ष का प्रतीक है। जब तक यात्रा दिशाहीन है तब तक जीवन में थकान के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता तथा एक समय ऐसा आता है जब व्यक्ति निराश होकर हार मानने लगता है। यहां से आत्ममंथन प्रारंभ होता है। जब व्यक्ति बाहरी नेत्रों को बंद करके अपनी अंत:दृष्टि खोलता है तब वह सुख अथवा दुख के वशीभूत नहीं होता। इस अवस्था में उसे धन, ऐश्वर्य, भोग, लोकलाज, मान-मर्यादा इत्यादि का भान नहीं होता। वह स्वयं की चेतना से साक्षात्कार कर रहा होता है अतः इस परिस्थिति में उसे सत्य का मार्ग दिखाई दे जाता है तथा भौतिक थकान दूर हो जाती है। अब वह आनन्द के सागर में गोते लगाता अपने भीतर पुनः ऊर्जा के संचार का अनुभव करता है। सत्य का दर्शन होते ही व्यक्ति सही दिशा में आगे बढ़ने लगता है तथा सारे भ्रम दूर हो जाते हैं। इसी मार्ग पर निरंतर चलते रहने से जीवन-लक्ष्य की प्राप्ति होती है जो सारंगनाथ को शिवजी के दर्शन के रूप में मिलती है। चूंकि ये कहानियां सामाजिक आधार की परिकल्पना के प्राणतत्व के रूप में अवस्थित है, अतः युग-युगांतर तक इन कहानियों पर मनन करना आवश्यक है अन्यथा समाज भटक जाएगा। भगवान शिव का अपने साले सारंगनाथ के साथ लिंग रूप में स्थापित होना तथा उस पावन मंदिर का आज भी साकार रूप में उपस्थित होना उन्हीं आदर्शों की स्थापना का प्रमाण है।
इसी प्रकार आज भी समाज में अनेक कहानियां जीवित है तथा उनके प्रमाण भी उपस्थित हैं। व्यक्ति इन्हें अपनी बौद्धिक क्षमता के अनुसार ग्रहण करता है। हर युग में ये गाथाएं विद्वानों द्वारा सुनाई जाती हैं तथा रचनाकार इन्हें अपनी क्षमता के अनुसार पुनः रचते हैं। हमारा सतत प्रयास होना चाहिये कि ये कहानियां केवल किवदंतियां बनकर ना रह जाए बल्कि समाज इनके मर्म को समझकर अपने जीवन में अपना सके।
- दीपक श्रीवास्तव
एक पुरानी पौराणिक कथा याद आती है - शिव-सती के विवाह के समय माता सती के बड़े भाई सारंगनाथ, जो एक महान ऋषि थे, तपस्या में लीन होने के कारण विवाह में उपस्थित नहीं हो सके। तपस्या पूरी होने के बाद जब उन्हें विवाह का पता चला तो वे बहुत नाराज हो गए। शिव के वास्तविक स्वरुप को समझे बिना उनकी बाहरी वेशभूषा को देखकर मोहवश उन्हें भ्रम हो गया तथा विचार किया कि “मेरी बहन एक समृद्ध परिवार से है किन्तु उसका विवाह एक ऐसे पुरुष के साथ हो गया है जिसके पास रहने को न घर है, न आभूषण है, न धन है तथा उसका एक ऐसे पर्वत पर निवास है जहाँ दूर-दूर तक कोई संसाधन भी नहीं है तथा वे जंगलों में भटकते हुए अपना जीवन-यापन करते हैं, मेरी बहन ऐसे व्यक्ति के साथ पूरा जीवन सुखपूर्वक कैसे बिता सकेगी?” परन्तु विवाह तो हो चुका था, अतः बहन को जीवन-यापन हेतु आवश्यक वस्तुएं उपलब्ध कराने के उद्देश्य से वे बहुत सारे आभूषण, रत्न, माणिक इत्यादि लेकर चल दिए। चलते-चलते कई दिन बीत गए। काशी के समीप से गुजरते हुए अत्यधिक थकान के कारण वे वहीं विश्राम करने लगे तथा उन्हें नींद आ गई। स्वप्न में उन्होंने भगवान शिव की नगरी काशी का वैभव देखा जो सोने, चांदी, हीरे समेत अनेक रत्नों से सुशोभित थी। निद्रा टूटने पर वे विचारमग्न हो गये। अतः वे ध्यान लगा कर वहीं बैठ गए। समाधि की अवस्था में उन्हें शिव के वास्तविक स्वरुप के दर्शन हुए तथा अपने अज्ञान पर पश्चाताप हुआ। उनकी तपस्या से भगवान शिव प्रसन्न हुए तथा उन्हें दर्शन दिए। तत्पश्चात उस स्थान पर दो शिवलिंग स्वतः उत्पन्न हुए। वाराणसी में सारनाथ के समीप स्थित शारंगनाथ मंदिर आज भी इस पौराणिक घटना का साक्षी है तथा दो शिवलिंग वाले मंदिर के नाम से विख्यात है जहां शिवजी अपने साले के साथ विराजमान हैं।
यह घटना एक पवित्र पौराणिक कथा के रूप में प्रसिद्ध है। इससे समाज तथा हम किस प्रकार से जुड़े हुए हैं यह जानना महत्वपूर्ण है। आस्था के केंद्रबिंदु बने अनेक मंदिर एवं अन्य स्थल इसलिए स्थापित होते हैं ताकि वे अनंतकाल तक समाज का मार्गदर्शन करते रहें। जब व्यक्ति ज्ञान के अहंकार में होता है तथा अपनी क्षमताओं पर झूठा गर्व करता है, तब यही अहंभाव उसकी दृष्टि पर पर्दा चढ़ा जाती है जिस कारण उसे सत्य दिखाई नहीं देता। शिवस्वरूप को समझे बिना शारंगनाथ का भ्रम यही दर्शाता है जिसके वशीभूत एक व्यक्ति स्वयं को समर्थ तथा दूसरे को असमर्थ मानने के अहंकार में घिरता है। दो बाहरी नेत्र केवल जगत का बाह्य स्वरूप देखते हैं जो भ्रम उत्पन्न होने का कारण है। धन के चकाचौंध से प्रभावित मन तथा चुँधियाई हुई आंखें भ्रम के आर-पार देखने की दृष्टि विकसित नहीं कर पातीं। किंतु सत्य का दर्शन इतना सरल नहीं है, उसके लिये परिश्रम करना पड़ता है। सारंगनाथ की यात्रा इसी श्रम एवं संघर्ष का प्रतीक है। जब तक यात्रा दिशाहीन है तब तक जीवन में थकान के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता तथा एक समय ऐसा आता है जब व्यक्ति निराश होकर हार मानने लगता है। यहां से आत्ममंथन प्रारंभ होता है। जब व्यक्ति बाहरी नेत्रों को बंद करके अपनी अंत:दृष्टि खोलता है तब वह सुख अथवा दुख के वशीभूत नहीं होता। इस अवस्था में उसे धन, ऐश्वर्य, भोग, लोकलाज, मान-मर्यादा इत्यादि का भान नहीं होता। वह स्वयं की चेतना से साक्षात्कार कर रहा होता है अतः इस परिस्थिति में उसे सत्य का मार्ग दिखाई दे जाता है तथा भौतिक थकान दूर हो जाती है। अब वह आनन्द के सागर में गोते लगाता अपने भीतर पुनः ऊर्जा के संचार का अनुभव करता है। सत्य का दर्शन होते ही व्यक्ति सही दिशा में आगे बढ़ने लगता है तथा सारे भ्रम दूर हो जाते हैं। इसी मार्ग पर निरंतर चलते रहने से जीवन-लक्ष्य की प्राप्ति होती है जो सारंगनाथ को शिवजी के दर्शन के रूप में मिलती है। चूंकि ये कहानियां सामाजिक आधार की परिकल्पना के प्राणतत्व के रूप में अवस्थित है, अतः युग-युगांतर तक इन कहानियों पर मनन करना आवश्यक है अन्यथा समाज भटक जाएगा। भगवान शिव का अपने साले सारंगनाथ के साथ लिंग रूप में स्थापित होना तथा उस पावन मंदिर का आज भी साकार रूप में उपस्थित होना उन्हीं आदर्शों की स्थापना का प्रमाण है।
इसी प्रकार आज भी समाज में अनेक कहानियां जीवित है तथा उनके प्रमाण भी उपस्थित हैं। व्यक्ति इन्हें अपनी बौद्धिक क्षमता के अनुसार ग्रहण करता है। हर युग में ये गाथाएं विद्वानों द्वारा सुनाई जाती हैं तथा रचनाकार इन्हें अपनी क्षमता के अनुसार पुनः रचते हैं। हमारा सतत प्रयास होना चाहिये कि ये कहानियां केवल किवदंतियां बनकर ना रह जाए बल्कि समाज इनके मर्म को समझकर अपने जीवन में अपना सके।
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