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Wednesday, August 15, 2018

--- स्वतंत्रता दिवस पर विशेष ---

 --- स्वतंत्रता दिवस पर विशेष ---

 हे जननी हे जन्मभूमि शत बार तुम्हारा वंदन है।
 सर्वप्रथम मां तेरी पूजा तेरा ही अभिनंदन है॥

 सन 1857 से सन 1947 का सफर अत्यंत संघर्ष भरा रहा है जिसमें अनेक जीवन मातृभूमि की सेवा में समर्पित हो गए। यह समर्पण किसी एक विशेष वर्ग अथवा समुदाय का नहीं है जब समाज की पीड़ा प्रत्येक व्यक्ति की अपनी पीड़ा बन जाती है तब क्रांति की ज्वाला धधकती है। सन 1857 का संग्राम सेना में उपस्थित केवल भारतीय सैनिकों का नहीं था बल्कि यह तो क्रांति की ज्वाला सभी भारतवासियों के ह्रदय में धधक रही थी। कोटि कोटि कंठों के माध्यम से भारत माता की करुण पुकार अपनी वेदना अभिव्यक्त कर रही थी।

हमारा देश एक राष्ट्र का रूप धारण कर रहा था। देश तो भूमि का एक टुकड़ा मात्र है किंतु जब अनेक स्वर धाराएं एक साथ मिलकर एक उद्देश्य के लिए प्रयास करती हैं तब देश एक राष्ट्र का रूप धारण कर लेता है, और हमारी संस्कृति तो अपने देश की माटी को अपनी माता का स्थान देती आई है। प्रश्न यह उठता है कि आज हम स्वतंत्र हैं तो उस स्वतंत्रता की बात करना आज के दौर में कितना प्रासंगिक है? और इसकी क्या आवश्यकता है? कहीं हम स्वतंत्रता दिवस मनाने के नाम पर फूहड़ संगीत के माध्यम से केवल खानापूर्ति तो नहीं कर रहे। क्या केवल अंग्रेजों को अपने देश की सीमा से बाहर कर देना ही हमारे देश की वास्तविक स्वतंत्रता का परिचायक है?

एक सशक्त एवं संपूर्ण वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिकता पर आधारित सक्षम संस्कृति को धारण करने के बावजूद हम अंग्रेजों के मानसिक गुलाम कैसे हो गए? शारीरिक शक्ति से भले ही कोई शत्रु विजय प्राप्त कर लें किंतु यदि मानसिक रूप से शत्रु का प्रभाव नहीं पड़ा है तो संस्कृति के बल पर कभी भी पुनः समाज उठ खड़ा हो सकता है। वैभव से पराभव की ओर जाने में संस्कृति से दूरी तथा अपनों द्वारा किया गया देशद्रोह समर्थ एवं सक्षम समाज को भी धराशायी कर देता है। सन 1857 में देश की जनता जब अपनी संस्कृति पर किए जा रहे लगातार प्रहारों से त्रस्त हो चुकी थी तब संपूर्ण भारतीय समाज अंगड़ाई ले कर उठ खड़ा हुआ और भारत माता अत्याचारों से मुक्त होने ही वाली थी कि कुछ अपने ही घर में मौजूद देशद्रोहियों के व्यक्तिगत एवं ऊंची महत्वाकांक्षाओं का परिणाम संपूर्ण देश ने भोगा।

अपनी संस्कृति से दूर होने तथा देशद्रोह के बड़े भयानक परिणाम हैं। त्रेतायुग में विभीषण धर्म के मार्ग पर चले, उन्हें लंका का राज्य भी मिला किंतु देशद्रोह का परिणाम ऐसा कि आज भी भारतीय समाज में कोई अपने बच्चे का नाम विभीषण नहीं रखता। द्वापर युग में कर्ण अधर्म का साथ देने के बावजूद यश एवं कीर्ति से सुशोभित हैं । रामधारी सिंह दिनकर जी ने भी रश्मिरथी में जिक्र किया है कि जब अश्वसेन नामक एक सर्प अर्जुन का वध करने के लिए कर्ण से प्रत्यंचा पर चढ़ने हेतु निवेदन करता है तो कर्ण का उत्तर है-
अर्जुन है मेरा शत्रु किंतु वह सर्प नहीं नर ही तो है।
संघर्ष सनातन नहीं शत्रुता इस जीवन भर ही तो है॥

आपस में कितना भी विरोधाभास हो किंतु दूसरे लोगों से मिलकर जो अपनों की जड़े काटते हैं वह थोड़ी बहुत सफलता प्राप्त करने के बावजूद कलंकित ही रहते हैं।

हमने अनेक क्रांतिकारियों का जीवन पढ़ा होगा तथा स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उनके द्वारा लिखित रचनाएं भी अवश्य पढ़ी होंगी। आखिर देश पर मर मिटने वाला गीत या संगीत से क्यों जुड़ा हुआ है शहीद रामप्रसाद बिस्मिल, शहीद भगत सिंह जैसे महान क्रांतिकारी क्यों लेख लिखते हैं, क्यों कविताएं लिखते हैं, क्यों दीवानों की तरह गीत गाते हुए फांसी के तख्तो तक पहुंचते हैं और हंसते-हंसते इस भारत माता की बलिवेदी पर अपने प्राणों को न्योछावर कर देते हैं। रचनाएं या गीत संगीत कोई मजाक नहीं है और ना ही केवल मनोरंजन है क्योंकि गीत संगीत के माध्यम से किसी भी संस्कृति की परंपराएं जीवंत होती हैं। परंपराओं और संस्कृति में समाज के प्राण बसते हैं। भारतीय ग्रंथों में भारत माता की आत्मा बसती है। यही कारण है कि कहा जाता है किसी देश को मारना है तो युद्ध से बेहतर है वहां की संस्कृति को मार दो समाज स्वयं ही आत्मसमर्पण कर देगा। अपनी सांस्कृतिक भावना से जुड़ा हुआ अमर शहीद राम प्रसाद बिस्मिल जी द्वारा रचित गीत की कुछ पंक्तियां देखें-
 न चाहूं मान दुनिया में न चाहूं स्वर्ग को पाना।
 मुझे वर दे यही माता रहूं भारत पे दीवाना॥
 मुझे हो प्रेम हिंदी से, पढूं हिंदी लिखूं हिंदी।
 चलन हिंदी चलूँ, हिंदी पहनना ओढ़ना खाना॥

जब अपने मातृभूमि के प्रति इस प्रकार के भाव उत्पन्न होते हैं तब जो क्रांति की ज्वाला धधकती है उसमें इतना ताप होता है कि वह शत्रुओं के घर को जलाकर भस्म कर सकती है और उसे देश से बाहर निकलने को मजबूर कर सकती है। यह भावना देश को न जाति में बंटने देती है, न धर्म में बंटने देती है और संपूर्ण देश को एक ही सूत्र में पिरोने की क्षमता रखती है।

दुर्भाग्य का विषय है विदेशियों की पराधीनता से मुक्त होने के बावजूद इतने वर्षों बाद भी हम मानसिक रूप से स्वतंत्र नहीं हो सके हैं तथा उनकी संस्कृति को अपनाने में अपना गौरव समझते हैं। श्रेष्ठता का अहंकार लिए फिरते हैं जो पराधीनता के समय से भी ज्यादा भयावह स्थिति है परंतु यह स्थिति अभी भी नियंत्रण में लाई जा सकती है अपनी जड़ों से जुड़कर। स्वतंत्रता दिवस केवल मनाने के लिए नहीं है- केवल अपनी संस्कृति से हृदय से जुड़ने का प्रयास ही हमें मानसिक पराधीनता से मुक्त कर सकता है। यही शहीदों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

- दीपक श्रीवास्तव

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