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Friday, August 24, 2018

--- सामाजिक नियमों की उत्पत्ति तथा संस्कृति निर्माण ---

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है अतः प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी समाज का हिस्सा है। विभिन्न समाजों की भिन्न मान्यताओं के बावजूद समाज-निर्माण की प्रक्रिया सभी में लगभग एक सी ही होती है। समाज केवल कुछ लोगों का समूह नहीं है अपितु यह लोगों के रहन-सहन, आचार-व्यवहार, वेशभूषा, खानपान, मनोरंजन इत्यादि के समन्वय से निर्मित होता है। 
भारतीय सनातन मूल्य तथा परम्पराएं भौतिक, आध्यात्मिक एवं प्राकृतिक आधारों पर निर्मित है। जब तक सभ्यता नहीं है तब तक जीव स्वतंत्र विचरण करता है अतः किसी अन्य जीव के रहन-सहन, खान-पान, जीवन-मृत्यु अथवा वेदना-संवेदना से उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। उसे अपना जीवन प्रिय तो होता है किंतु जीवन-मूल्य की अनुभूति के अभाव में वह किसी न किसी का शिकार होकर इस संसार से विदा हो जाता है। इस प्रकार का जीवन असामाजिक जीवन कहलाता है।
जब जीव कुछ नियमों को अपनाता है, अपनी जीवनशैली में साहचर्य विकसित करता है, तब उसे अन्य जीवों की स्वतंत्रता का भी ध्यान रखना पड़ता है। इस प्रकार स्वतंत्रता में थोड़ा सी मर्यादाओं को अपनाकर जीव एक सामूहिक जीवन का अभ्यास करता है। जब समूह में कुछ मानक स्थापित किए जाते हैं तो वही मानक परंपराओं का रुप लेने लगते हैं। समूह की सुरक्षा, संख्यावृद्धि, खाना-पीना इत्यादि के तौर-तरीकों के अभ्यास एवं पीढ़ी-दर-पीढ़ी पालन से समाज आकार लेने लगता है तथा प्रथाओं एवं मनोरंजन जैसे तत्वों का समावेश एक संस्कृति का निर्माण कर देता है। लगभग हर समाज इसी आधार पर आकार लेता है।
सनातन सभ्यता के तीन प्रमुख देव है - ब्रह्मा, विष्णु और शिव। ब्रह्मा को सृष्टि का निर्माता माना गया है। शेष जीवन में विष्णु एवं शिव-तत्व के मध्य का संतुलन ही सामाजिक संरचना एवं जीवन शैली का आधार है। दोनों तत्व अपने वाह्य स्वरुप के कारण भले ही परस्पर विरोधी लगते हो किंतु ये एक ही समाज के दो पक्षों को प्रदर्शित करते हैं। एक ओर विष्णु जहां सुंदर वस्त्रों से सुशोभित हैं, वही शिव वस्त्र-विग्रह स्वीकार करते हैं। विष्णु विभिन्न कालखण्डों में अवतार लेकर मर्यादाओं के मानक स्थापित करते तो शिव अनेक बार मर्यादाओं का उपहास करते दिखाई देते हैं। विष्णु संपन्नता की मूर्ति के रूप में स्थापित होते हैं तो शिव वन-वन भटकते हुए उपेक्षित वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। दोनों का वर्ण भी विपरीत है। विष्णु देवताओं का पक्ष लेते हुए दिखाई देते हैं जबकि शिव देवताओं एवं असुरों से समान प्रीति रखते हैं।
सुन्दर आभूषणों से सुसज्जित विष्णु स्वरूप सामाजिक मर्यादाओं का प्रतीक है जबकि वस्त्रविग्रह युक्त शिवस्वरूप सामाजिक स्वतंत्रता का मानक है। विष्णु अपने प्रत्येक अवतार में समाज की आवश्यकता के अनुसार परंपराओं को स्थापित करते हुए दिखाई देते हैं। परंपराएं विकसित होती हैं तथा संपूर्ण मानव समाज उनका अनुगामी बन जाता है। अनेक वर्षों तक परंपराएं वैसी ही चलती रहती हैं। जब तक समाज को परंपराओं के मूल आधार का ज्ञान है तब तक परंपराएं समाज को प्रगतिगामी बनाती हैं। समय के साथ जब समाज परंपराओं के आधार को विस्मृत करने लगता है तब परंपराएं रूढ़ियां में बदलने लगती हैं और समाज में अंधविश्वास का जन्म होता है। कुरीतियों का जन्म होने लगता है। अब तक जो समाज को प्रगतिगामी था, हर व्यक्ति स्वयं को उनमें बंधा हुआ महसूस करने लगता है। जब बालक जन्म के समय स्वतंत्र ही होता है, शिक्षा के माध्यम से धीरे-धीरे उसके अंदर सदाचरण एवं समाज हेतु अनुकूलता विकसित की जाती है तथा वह सामाजिक मर्यादाओं में स्वयं को सहज महसूस करने लगता है। कालान्तर में जब वह परंपराओं के आधार ढूंढता है तथा समुचित उत्तर न मिल पाने पर उन्हें अंधविश्वास का स्वरूप समझने लगता है। 
विष्णु मर्यादा के आधार है तथा धर्म की रक्षा के लिए कृतसंकल्प है अतः वे मनुष्य की आध्यात्मिक वृत्तियों अर्थात देवताओं का साथ देते दिखाई देते हैं। शिव-स्वरूप सभी आडंबरों से मुक्त व्यक्ति की स्वतंत्र चेतना का प्रतीक है। जो लोभ-मोह तथा कामनाओं से मुक्त है तथा जिसमें अज्ञानता का अंधकार नहीं, जो शाश्वत,अनंत, भेदरहित तथा निर्विकार है उसे कोई भी बंधन जकड़ नहीं सकता। उसे किसी भी आडंबर अथवा दिखावारुपी वस्त्र की आवश्यकता नहीं। शिव का यही वाह्य रूप उनके अनंत स्वरूप का परिचायक है। अतः उनके लिए सुख-दुख समान अवस्था है, मनुष्य-पशु कोई अंतर नहीं, उनकी सब पर एक समान दृष्टि है अतः शिव देवताओं तथा असुरों दोनों पर समान कृपा करते दिखाई देते हैं। यही कारण है कि शिव का वास्तविक स्वरूप समझे बिना भोगवाद की ओर आकृष्ट अनेक मनुष्य उनके बाहरी स्वरूप को स्वतन्त्रता का पर्यायवाची मानते हुए उनकी ओर सहजता से आकृष्ट हो जाते हैं। मर्यादाएं व्यक्ति को पूर्ण स्वतंत्र नहीं होने देतीं तथा उसे सामाजिक नियमों में बांधने का प्रयास करती हैं किंतु स्वेच्छाचारी व्यक्ति स्वतंत्र होना चाहता है अतः सीमित दृष्टिकोण से उसके अन्दर शिवस्वरूप के प्रति सहज आकर्षण जागता है तथा वह भोगवादी प्रवृत्ति को ही सही ठहराने का प्रयास करता है। 
जो भेदरहित है, उसी के अंदर इतनी क्षमता हो सकती है कि वह संसार में उपस्थित त्याज्य वस्तुओं को भी सम्मान देते हुए स्वयं विष को धारण करके संसार को संजीवनी दे सके यही संत स्वभाव है। अतः मर्यादाएं जब रूढ़ियां और अंधविश्वास में परिवर्तित होती हैं तब शिव का शाश्वत स्वरूप उनका उपहास करता है तथा समाज को रूढ़ियों के बंधन से मुक्ति देता है। भगवान शिव के वस्त्र विग्रह का यही स्वरुप है जिसे अपनी अंतर्दृष्टि का भान है उसे किसी बाहरी आवरण की आवश्यकता नहीं।
जहाँ मर्यादाएं व्यक्ति को समाज में जीना सिखाती हैं तो वहीं स्वतंत्रता व्यक्ति की नैसर्गिक प्रतिभा को उजागर करते हुए उसे प्रगतिगामी दृष्टि देती है। स्वतंत्रता स्वेच्छाचार की छूट तक नहीं होनी चाहिए, अतः समाज के लिए मर्यादा का आवरण आवश्यक है। किंतु मर्यादाएं व्यक्ति की प्रगति के मार्ग में कभी बंधन ना बने इसलिए स्वतंत्रता भी आवश्यक है। विष्णु-स्वरूप अर्थात मर्यादा समाज की सभ्यता है तो वहीं शिव-स्वरूप अर्थात स्वतंत्रता सामाजिक संस्कृति है। अतः देखने में यह दो तत्व भले ही विरोधी लगते हो परंतु यह एक ही समाज के दो भिन्न पक्ष हैं। इन दोनों के बीच का संतुलन से ही एक सुंदर स्वच्छ एवं प्रगतिशील समाज रचा जा सकता है।

- दीपक श्रीवास्तव

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