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Monday, July 31, 2017

-------- बढ़ते कदम, घटते एहसास --------

प्रगतिशीलता की अंधी दौड़ में खोते हुए न जाने कितने एहसासों को दम तोड़ते हुए देखा है | नहीं-नहीं, मेरे कथन का यह तात्पर्य बिलकुल नहीं है कि प्रगतिशील सोच गलत है किन्तु प्रगति की दिशा एकमुखी की बजाय चहुंमुखी हो तभी वह समाज के लिए अधिक फलदायी हो सकती है | यदि एक व्यक्ति पहलवान बनना चाहे तो उसे खान-पान के साथ शरीर की सभी मांसपेशियों तथा मन को भी उतना ही ताकतवर बनाना पड़ता है तथा उसे अपने लक्ष्य तक पहुँचने में सफलता प्राप्त होती है |
पश्चिम की नक़ल करते करते हम अपने सांस्कृतिक मूल्यों को भी उसी चश्मे से देखने लगते हैं | मेरा विचार इस जगह पर पश्चिम की आलोचना भी नहीं है – कुछ समय पूर्व मैंने लिखा था कि सनातन सभ्यता यदि आत्मा है तो पश्चिमी सभ्यता शरीर है | दोनों के तालमेल से ही जीवन सुचारू रूप से चल सकता है अतः भौतिक आवश्यकताओं के लिए यदि हमें पश्चिम की ओर देखना पड़ता है तो पश्चिमी देशों को आध्यात्मिक उन्नति के लिए केवल सनातन संस्कृति का सहारा है | दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं लेकिन इस अन्तर को समझने के लिए आँखों से नकली चश्मे का उतारना आवश्यक है |
कहीं एक कवि सम्मेलन में एक हास्य कवि को कहते सुना था कि पति के प्रतीक के रूप में ईश्वर के स्थान अर्थात महिलाओं के माथे पर सजने वाली बिन्दी सरकते सरकते आँखों के बीच आ गयी, सही भी है, ईश्वर के प्रति आस्था के मापदंडों को कुछ दशकों से लगातार बदलते हुए देखा है | पति आजकल सजाने की बजाय हमेशा निगरानी की वस्तु हो गया अतः उसकी नई जगह बदलते समाज के अनुरूप ही है | एक अच्छा पति पाने के लिए न जाने कितने सोमवार शिवजी का व्रत करती हैं, और विवाह के पश्चात यह सिलसिला और भी बढ़ जाता है जो न जाने कितने प्रकार व्रतों में तब्दील होता है | सोमवार व्रत के अतिरिक्त तीज, करवा चौथ और न जाने कितनी तपस्याएँ शामिल हैं | इससे भी आगे बढ़कर अब दूसरे स्थानों की परम्पराओं को अपनाने में भी तनिक भी देर नहीं होती | कुछ महिलाओं इस मामले में बड़ी सुस्पष्ट सोच की भी होती हैं उनके लिए व्रत का कारण पति हेतु मंगलकामना से कहीं अधिक डाइटिंग प्रभावी रहता है ताकि बढ़ता मोटापा कहीं दूसरों के आगे उनकी वास्तविक आयु न स्पष्ट कर दे|
बीस वर्ष पहले जहाँ तक मुझे याद है, मैंने बहुत कम ही घरों के लोगों को एक वक्त के भोजन के लिए होटलों के चक्कर काटते देखा था | चाहे जितना बड़ा परिवार हो, सभी रोटी एक चूल्हे पर बनती थी, भोजन में प्यार परोसा जाता था | ऐसा सुस्वादु भोजन और घर की बहुएं एक बार भी उफ़ तक नहीं करती थी | यही कर्मण्यता उन्हें एवं उनके परिवारों के लिए उत्तम स्वास्थ्य के साथ साथ स्वस्थ मस्तिष्क भी प्रदान करती है, लेकिन बीते वर्षों में कुछ ऐसा हो गया कि होटलों की संख्या भी कम पड़ने लगी | अभी कुछ दिन पूर्व ऐसे ही एक होटल में जाने का सौभाग्य मिला जहाँ हम वेटिंग में थे, हमारा नम्बर था 56 तथा बुकिंग के समय 39वे नम्बर का ग्राहक अन्दर गया था | अक्सर घरों में यह सुनने को भी मिल जाता है कि खाना बनाना मेरे बस का नहीं है कोई नौकरानी ले आओ जबकि अब तो परिवार भी अत्यन्त संकुचित हो गए हैं |
फिर प्रश्न खड़ा होता है कि किन मापदंडों को लेकर हम अपने परिवारों के मूल्यों की नींव रख रहे हैं एवं अपने बच्चों के लिए किस प्रकार के समाज की रचना कर रहे हैं | हम तो फिर भी भाग्यशाली हैं कि बीते दौर के नैतिक मूल्यों तथा एहसासों को करीब से महसूस किया है | चिंता इस बात की है हमारी आगे की पीढ़ी अपने आगे की पीढ़ी को क्या दिशा निर्देश प्रस्तुत करेगी | आज कुछ नहीं तो भी हम अपने व्रत-त्योहारों को अपने जीवन से सीधे सीधे जोड़कर देख पाते हैं, लेकिन क्या आने वाली पीढ़ी केवल इन्हें एक कर्मकांड के रूप में ही देख पाएगी?


--दीपक श्रीवास्तव

Thursday, July 27, 2017

-------- श्रीराम शिशुलीला --------


सारे जग के पालनहारा,
पैरन मे पैजनिया डारा ।
उठत गिरत अरु किलकि किलकि कर,
ठुमक ठुमक मोहें जग सारा ॥

माँ की गोदी रहे लुकाई,
इधर उधर ढूंढे सब भाई ।
धूरि धूरि भये भुइयां लोटे ,
लीला प्रभु की अपरम्पारा ॥1॥

दशरथ तो आनन्द मगन हैं ,
राम धरा राम ही गगन हैं ।
सुत रूठे गोदी ना आये ।
बड़े प्यार से तब पुचकारा ॥2॥

शिशुलीला सुख परम अनूपा ,
गायें सुर नर मुनि जन भूपा ।
हरि की महिमा अजब निराली ।
अति आनंदा परम अपारा ॥3॥

-दीपक श्रीवास्तव 

Wednesday, July 26, 2017

श्रीराम अवतार

नाचे झूमे धरती सारी, खुशियाँ भई अपार ।
दशरथ घर गूंजे किलकारी, प्रकटे पालनहार ॥

श्याम सलोना रूप निहारे।
मातायें तन मन सब वारे ।
ऋषि मुनि संत दरस को आये ।
सब खुद को बंधन मे पाये ।
प्रभु अनन्त शिशु रूप धरे, जग देखे बारम्बार ॥1॥

तभी चतुर्भुज रूप दिखाया ।
जिसमें सारा जगत समाया ।
कौशल्या ममता की मारी ।
हाथ जोड़ बोली बेचारी ।
कैसे अपनी ममता वारुं, तुम अनन्त संसार ॥2॥

तब शिशु का लेकर आकार ।
माँ की गोद किये साकार ।
पर माता की याद भुला दी ।
अपनी ही माया फैला दी ।
सुर नर मुनि जन इस चरित्र को गायें बारम्बार ॥3॥

-दीपक श्रीवास्तव 

Friday, July 14, 2017

---------कर्म-लाभ-लोभ--------

कर्म ही केवल हाथ हमारे, सबका जीवन यही सँवारे ।
देखो लोभ न आये मन में, फल तो हरि इच्छा है प्यारे ॥

कैकेयी का नाम क्रिया है ।
जो दशरथ की स्नेह प्रिया है ।
फल का नाम मंथरा दासी ।
कर्म लाभ की जो प्रतिभासी ।
रहे कर्म आगे ही सारे, फल तो हरि इच्छा है प्यारे ॥1॥

अवध प्रेम का अमिट खजाना ।
कर्म प्रमुखता स्वर्ग समाना ।
जब तक हों कैकेयी आगे ।
दुख दारिद्र दूर से भागे ।
प्रेम सभी के जीवन तारे, फल तो हरि इच्छा है प्यारे ॥2॥

जैसे भई मंथरा आगे ।
कर्म लाभ के पीछे भागे ।
लाभ तभी बन जाये लोभ ।
अति फल दृष्टि जगाये क्षोभ ।
चारों ओर जलें अंगारे, फल तो हरि इच्छा है प्यारे ॥3॥

-दीपक श्रीवास्तव 

Wednesday, July 12, 2017

लंका दहन

हे शिवरूप तुझे मैं कैसे, राजमहल ले जाऊं?
पूज्य पिता के पावन गुरुवर, कैसे ध्यान लगाऊं??

लंका का मैं श्रेष्ठ वीर हूँ, पर विचलित थोड़ा अधीर हूँ |
यहाँ न कोई है फलहारी, किसकी है वाटिका हमारी |
इक तो तुम रावणसुत मारे, उसपर कुछ निशिचर संहारे |
पर वध की आज्ञा ना पाई, निश्चित शिव की हो परछाईं |
क्यों ना सर्पों से ही तुमको, श्रृंगारित ले जाऊं ||1||

हनुमत नागों से श्रृंगारित, जब रावण के सम्मुख आये |
सभी सुर-असुर और देवजन, मन में उनको ध्यान लगाए |
कहे दशानन हे त्रिपुरारी, कहाँ रह गईं मातु हमारी |
सारी ममता पूंछ तुम्हारी, अरे यही हैं माता प्यारी |
खुद शिव का श्रृंगार रचाए, क्यों माँ को ऐसे ही लाये |
नहीं-नहीं भोले भंडारी, ये तो न्याय नहीं त्रिपुरारी |
हे माँ ज्योतिस्वरूपा जननी, मैं श्रृंगार कराऊं ||2||

माता का अद्भुत श्रृंगार, बचा न वस्त्र एक भी द्वार |
तभी दशानन ने उर खोले, मन ही मन हनुमत से बोले |
यहाँ राम के चरण पड़ेंगे, सब उनकी ही शरण लगेंगे |
पर पापो की नगरी लंका, दूर करो हम सबकी शंका |
तभी पूंछ में ज्योति जलाई, लपटें आसमान तक छाई |
सत्य कहा जलकर ही सोना, कुन्दन बनता कोना कोना |
क्या मैं भेंट तुम्हे दूं भोले, सब तुमसे ही पाऊं ||३||

--दीपक श्रीवास्तव

Thursday, July 6, 2017

श्रीराम द्वारा शबरी को नवधा भक्ति का सन्देश

नवधा भक्ति सुनो हे माते, जो धारे उत्तम गति पाते ||

प्रथम भक्ति संतों का संग,
दूजी प्रिय हरि कथा प्रसंग |
भक्ति तृतीया गर्व रहित हो,
गुरु सेवा में प्रेम सहित हो |
चौथी छोड़ कपट अभिमान,
हरि गुण वन्दन, हरि गुणगान |
पंचम हरि में दृढ़ विश्वास,
हरि का भजन हरी की आस |
षष्टम भक्ति शील वैराग्य,
धर्म –कर्म से जागे भाग्य |
सप्तम भक्ति रहें समभाव,
हरि से ऊंचा संत स्वभाव |
अष्टम भक्ति लाभ संतोष,
कभी नहीं देखें परदोष |
नवम भक्ति हैं सहज सरलता,
कपटहीन मन बड़ी विरलता |
ऐसे मनुज मुझे अति भाते, जो धारे उत्तम गति पाते ||

--दीपक श्रीवास्तव

भाइयों का प्रेम

इक साधक की सुनो कहानी, झर-झर नयनन बहता पानी ||
परिवारों में जकड़न देखी,
अपनों में ही अकडन देखी |
धन स्त्री औ भूमि चाह में,
हथियारों की पकड़न देखी |
मिले न सच्ची प्रेम निशानी, झर-झर नयनन बहता पानी||1||

पिता वचन को प्रभु घर त्यागे,
मगर भरत उनसे भी आगे |
रघुनायक को राज्य दिलाने,
संग प्रजा ले वन को भागे |
इक त्यागी दूजा बलिदानी, झर-झर नयनन बहता पानी||2||

हर समाज का अपना कल है,
जिसमे वर्तमान का हल है |
फिर भी जाने क्यों मानव का,
दम घुटता, हर पल हर क्षण है |
यही जगत की राम कहानी, झर-झर नयनन बहता पानी|३||

--दीपक श्रीवास्तव

श्री राम केवट संवाद


प्रेम भक्ति की अजब कहानी, गंगा तट पर है मिल जानी|
एक ओर सियराम लखन हैं, एक ओर है बहता पानी||
ये कैसी लीला रघुनन्दन,
दुनिया करती जिनका वन्दन |
जो भवसागर से जग तारें,
वे केवट की राह निहारे|
महिमा जाय न जात बखानी, अधरों पर है मीठी बानी||1||
केवट कहें रुको प्रभु मोरे,
माया भरे चरण हैं तोरे |
पावन यह जीवन तो कर लूं |
चरणों का अमृत तो भर लूं |
ऐसी घड़ी न फिर से ना आनी, नयनों में न नीर समानी||2||
केवट सबको पार उतारे,
अपने तीनों लोक संवारे|
प्रभु तब उन्हें मुद्रिका दीन्हे,
भक्त कहें हम तुमको चीन्हें|
जिनकी महिमा सिन्धु समानी, उन चरणों में जगह बनानी||३||

--दीपक श्रीवास्तव

Saturday, July 1, 2017

श्रीराम वन गमन

मोरे राम, मोरे राम, मोरे राम|
अवध न छोड़ो, रुक जाओ श्री राम|
प्रभु राम, मोरे राम, मोरे राम,
तुम ही सुबह तुम्ही हम सबकी शाम||

चलत रामु लखि अवध अनाथा। बिकल लोग सब लागे साथा।।
कृपासिंधु बहुबिधि समुझावहिं। फिरहिं प्रेम बस पुनि फिरि आवहिं।।
छले पड़ गए रटते रटते राम||1||

सूनी मोरी नगरी सारी, कहाँ गयी घर की किलकारी|
समय ख़ुशी का कैसे बीता, रंगत सारी ले गयी सीता|
राम तुम्ही जीवन अधार हो, भीतर बाहर तुम सकार हो|
हे दुःखभंजन हे रघुनन्दन,
तुम्ही ही प्राण, तुम ही हम सबके धाम||2||

-दीपक श्रीवास्तव

राम-सीता दर्शन

चलो चलो साथी दर्शन को आये हैं सियराम|
आये हैं सियराम अवध में आये हैं सियराम||

आज अवध कैसा रंगीला, ज्यों बासंती धानी-पीला|
लखन धरा, श्रीराम गगन हैं, मध्य सिया का शुभ दर्शन है|
तरस रही थी प्यासी धरती, अमृत हैं सियराम||1||

दो नैना भरपूर निहारें, लेकिन तृप्ति नहीं मिल पाए|
रोम-रोम अंखियाँ बन जाएँ, तभी प्यास पूरी हो पाए|
जीव, गगन औ धरा मगन हो, गाये हैं सियराम||2||

-दीपक श्रीवास्तव