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Wednesday, September 25, 2019

--- ॐ नमः शिवाय: भगवान् शिव जी की अलौकिक अनुभूति ---

इस वर्ष का सावन मेरे लिए अत्यन्त अलौकिक अनुभव लेकर आया था। सावन प्रारम्भ होने के प्रथम शनिवार को मन बेचैन था तथा बार-बार शिव जी के दर्शन की इच्छा हो रही थी। मुझे पता भी नहीं था कि सावन प्रारम्भ हो गया है। कई मित्रों से मैंने शिवजी के दर्शन हेतु साथ चलने का निवेदन किया परन्तु अधिकांश मित्र व्यस्त थे। मेरे इंजीनियरिंग कॉलेज के प्रिय मित्र सचिन ने साथ चलना स्वीकार किया। हम दोनों ने अपने बच्चों को लेकर रावण जन्मभूमि स्थित पुलत्स्य मुनि द्वारा स्थापित शिवलिंग के दर्शन किये। उस दिन शाम को मेरे मुख से शब्द तक ठीक से नहीं निकल रहे थे। अगले दिन संस्कार भारती के कार्यक्रम में जाना था जहाँ जाने के बावजूद कार्यक्रम में उपस्थित होने की इच्छा नहीं हुई। इसके स्थान पर श्री अरविन्द भवन में आदरणीय श्री अरुण नायक सर के साथ उनके केदारनाथ धाम की अलौकिक यात्रा पर घंटो बात हुई तथा ऐसा लग रहा था जैसे मैं स्वयं ही इस यात्रा में मानसिक रूप से उपस्थित हो गया हूँ।

सावन माह में बुधवार दिनांक २४ जुलाई को प्रातःकाल मन में एक अलौकिक अनुभूति हो रही थी तथा उसी अनुभूति के दौरान अंदर से शब्द फूट रहे थे। ईश्वर साक्षी हैं है ये शब्द बिना प्रयास के ही स्वतः स्फुटित हो रहे थे तथा तीन छंदों का सृजन हुआ। अगले दिन शिव-कृपा से चार छंदों का निर्माण हुआ तथा शिव-स्तुति बन गई किन्तु पूरे श्रावण मास में इसे गाने की धुन समझ नहीं आई। एक रविवार को इसकी पांच प्रतियों को श्री दूधेश्वर नाथ शिवलिंग तथा रावण जन्मभूमि स्थित पुलत्स्य मुनि द्वारा स्थापित शिवलिंग पर अर्पित करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि बिसरख स्थित शिवलिंग पर केवल एक लोटा जल चढाने के बाद इसका पाठ करने के बाद मुझे उस सुगन्ध की अनुभूति हुई जो वाराणसी स्थित श्री काशी विश्वनाथ मंदिर में सदा विद्यमान रहती है। आँखे खोलने पर वहां वही चढ़ाया हुआ जल था तथा और कुछ भी नहीं था परन्तु सुगन्ध विद्यमान थी।

सावन समाप्त होने के बाद प्रथम सोमवार को पूजा करने के दौरान स्वतः ही इसकी धुन निकल आई। मेरे जीवन में इस प्रकार का प्रथम अनुभव था। इस स्तुति को आपके समक्ष रख रहा हूँ कृपया भक्ति पूर्वक ग्रहण करें।

- दीपक श्रीवास्तव

https://www.youtube.com/watch?v=9ymPT8iVWTw

Saturday, September 14, 2019

आदि अंत कोउ जासु न पावा

आदि अंत कोउ जासु न पावा ।
मति अनुमानि निगम अस गावा ॥
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना ।
कर बिनु करम करइ बिधि नाना ॥
आनन रहित सकल रस भोगी ।
बिनु बानी बकता बड़ जोगी ॥
तनु बिनु परस नयन बिनु देखा ।
ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा ॥

श्रीराम का स्वरुप कैसा है? जो आदि- अन्त से रहित हैं तथा वेदों ने अपनी सीमित बुद्धि से अनुमान करके उनके स्वरुप को गाने का प्रयास किया है। सती के मन की भी यही जिज्ञासा थी, किन्तु समझने के प्रयास के पूरा एक जीवन निकल गया तत्पश्चात पुनः नए जीवन में घोर तप करने के पश्चात उन्होंने पुनः भगवान् शिव को पति रूप में प्राप्त किया तथा जहाँ कथा अधूरी रह गई थी वहीँ से पुनः प्रारम्भ हुई। यह भाव यह भी दर्शाता है कि अनेक योनियों में भटकने के बाद भी सत्संग निरन्तर चलता रहता है तथा किसी बाधा के आने के बावजूद उपयुक्त अवसर आने पर सत्संग उसी स्थान पुनः जीवात्मा की तृप्ति करने लगता है। “जगत प्रकाश्य प्रकाशक रामू” – श्रीराम मायाधीश हैं, उन्ही की माया से जीव, जड़, चेतन इत्यादि उत्पन्न होने हैं तथा उन्ही में समां जाते हैं। जीवात्मा एवं शरीर, विषयों का भोग करने वाली इन्द्रियां इत्यादि एक दुसरे के परस्पर सहयोग से संचालित हैं, तथा इनके मूल में जो अविरल प्रकाश एवं उर्जा का प्रवाह है वही श्रीराम का सूक्ष्म अंश है। राम जीवनी शक्ति हैं इसीलिए शरीर में चेतना है।

माया, मोह इत्यादि भ्रम श्रीराम कृपा से ही मिट सकता है किन्तु यह भ्रम बिना अनुभव के नहीं मिटता। महर्षि मार्कन्डेय के अनुभव में महाप्रलय के पश्चात भी श्रीराम सत्ता का जीवित पाया जाना, मानस उत्तरकाण्ड में काकभुशुण्डी जी द्वारा अनेक योनियों में भटकने के बाद श्रीराम का एक ही आनन्द एवं चैतन्य स्वरुप देखने से सिद्ध है कि श्रीराम कृपा एवं अनुभव द्वारा ही भ्रम के आर-पार देखने की दृष्टि विकसित हो सकती है एवं उनके स्वरुप के कणमात्र का अनुभव कर सकता है, केवल इतने से ही जीव की तृप्ति हो जाती है।

“वह (ब्रह्म) बिना ही पैर के चलता है, बिना ही कान के सुनता है, बिना ही हाथ के नाना प्रकार के काम करता है, बिना मुँह (जिव्हा) के ही सारे (छहों) रसों का आनंद लेता है और बिना ही वाणी के बहुत योग्य वक्ता है। वह बिना ही शरीर (त्वचा) के स्पर्श करता है, बिना ही आँखों के देखता है और बिना ही नाक के सब गंधों को ग्रहण करता है (सूँघता है)। उस ब्रह्म की करनी सभी प्रकार से ऐसी अलौकिक है कि जिसकी महिमा कही नहीं जा सकती।“

वस्तुतः अद्वैत भाव यही दर्शाता है कि जीव एवं ब्रह्म का स्वरुप एक ही है, यह शरीर तो केवल भक्ति प्राप्ति का साधनमात्र है। किन्तु माया की विडम्बना देखिये कि जीव जिस योनि में है उसी शरीर को अपना स्वरुप मान लेता है ठीक उसी प्रकार जैसे वातानुकूलित कमरे में मनुष्य वास्तविक प्राकृतिक वातावरण से अनभिज्ञ रहता है और कमरे के वातावरण को ही सत्य समझकर सुख की अनुभूति करने का प्रयास करता है।

एक और महत्वपूर्ण बात ध्यान देने योग्य है कि हमारे देश में लगभग डेढ़ शताब्दी पहले देवी देवताओं के मानव रुपी चित्र उपलब्ध नहीं थे। सन 1848 में जन्मे त्रावणकोर के मशहूर चित्रकार राजा रवि वर्मा ने काफी घूमने के बाद इस बात को समझा कि धार्मिक ग्रंथों और महाकाव्यों में भारत की आत्मा बसी है। अतः उन्होंने फैसला लिया कि वे इन ग्रंथों के चरित्रों की पेंटिंग बनाएंगे। तत्पश्चात उन्होंने पौराणिक कथाओं और उनके पात्रों के जीवन को अपने कैनवास पर उतारा। आज हम मूर्तियों के रूप में, तस्वीरों, कैलेंडरों और पुस्तकों में देवी-देवताओं के जो चित्र देखते हैं वे वास्तव में राजा रवि वर्मा की कल्पनाशीलता की देन हैं।

शास्त्र रचना के दो महत्वपूर्ण बिंदु हैं – एक तो जन-मानस को ऐतिहासिक तथ्यों से अवगत कराना तथा घटनाओं के माध्यम से मनुष्यों के अन्दर उपस्थित प्रकाश की अनुभूति करा देना। गोस्वामी जी के राम ऐसे चरित्र हैं जो प्रत्येक जीव के अंतःकरण में प्रसारित हैं। वे सबमे प्रतिक्षण विराजमान हैं जिसका अनुभव होने के बाद भी जीव द्वारा उनके स्वरुप की विवेचना कर पाना संभव नहीं है। ठीक उसी प्रकार जैसे सूरदास जी कहा है – “अबिगत गति कछु कहत न आवै, ज्यों गूंगा मीठे फल को रस अन्तरगत ही पावै।“ किन्तु व्यक्ति के जीवन में तो हर क्षण काम, लोभ,मोह का चरित्र ही विस्तार लिए हुए है। अतः मन में होने के बावजूद श्रीराम जीव को दिखाई नहीं देते यथा “कस्तूरी कुंडलि बसे, मृग ढूंढें बन माहि। ऐसे घटि-घटि राम हैं, दुनिया देखे नाहि।“ जैसे ही मन में श्रीराम जाग्रत हो जाते हैं, वैसे ही उनका निर्गुण स्वरुप जीव को द्रष्टव्य हो जाता है।

- दीपक श्रीवास्तव

Friday, September 13, 2019

--- जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई ---

जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥
जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई॥

यहाँ गोस्वामी जी ने स्वप्नावस्था में सिर कटने की कल्पना का अनूठा प्रयोग किया है। स्वप्न व्यक्ति की अचेतन अवस्था है तथापि इस अवस्था में होने वाले सुख एवं दुःख दोनों से ही हमारा मुक्त होना निश्चित है। इस प्रयोग में सिर कटने अर्थात दुःख का दृश्य है जिसे कोई भी जीव अपने जीवन में नहीं चाहता। हरि की माया से उत्पन्न भ्रम में सुख तो सभी चाहते हैं किन्तु दुःख नहीं चाहते, यदि स्वप्न में रत्नों से भरा कलश मिल जाय तो व्यक्ति को जागने की इच्छा तक नहीं होती, इसीलिए यहाँ गोस्वामीजी से भ्रम द्वारा उत्पन्न दुःख की बात की है। श्रीराम कृपा से तो दुःख एवं सुख दोनों के पार देखने की दृष्टि उत्पन्न हो जाती है तथा जीवन आनन्दमय हो जाता है। किन्तु निद्रा एक विशेष अवस्था है जिसे प्रतिदिन प्राप्त करना आवश्यक है इस सम्बन्ध में एक विचार प्रस्तुत है:

हम में से ज्यादातर को जीवन से या जीवन में क्या चाहिए- एक सुखी परिवार, आवश्यकतानुसार या कुछ अधिक धन, भौतिक जरूरतों के सामान, कुछ मित्र तथा अनेक ऐसी वस्तुएं, जिसको पाने से हम अपने सुखी जीवन की कल्पना करते हैं, किंतु इच्छित वस्तुएं मिल जाने के बाद भी क्या हम उतने ही सुखी रह पाते हैं जो हमारी कल्पना में होता है? शायद नहीं! फिर हमारे प्रयास की दिशा क्या होनी चाहिए, यह मंथन का विषय है।

अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हम निरंतर प्रयास करते हैं। प्रयास फलीभूत भी होता है तथा हमें कुछ समय की खुशी अवश्य देता है। इसके पश्चात मन अन्य आवश्यकताओं हेतु अपने आपको तैयार करता है, यही प्रक्रिया अनवरत चलती रहती है। मैं, मेरा परिवार, मेरा घर, मेरा समाज, मेरी संपत्ति, मेरा नाम इत्यादि में हमने अपने अनंत स्वरूप को बांध रखा है किन्तु हम प्रतिदिन इन बंधनों से मुक्त भी होते हैं। अपने निद्रावस्था की कल्पना करिए, बड़ी से बड़ी थकान हो किंतु निद्रा की अवस्था में, हमें अपनी प्रत्येक प्रिय वस्तु, संबंध, सामाजिक स्तर, धन-बल इत्यादि से पूर्णतया मुक्ति होती है। इतना ही नहीं, जब निद्रा की अचेतन अवस्था में हम अपने चेतन स्वरूप के साथ होते हैं, तब हमारे अंदर इतनी उर्जा का संचार होता है कि शरीर में कोई थकान नहीं रह जाती, एवं मन शारीरिक एवं मानसिक थकान से मुक्त हो जाता है। यह अनुभव हम सभी ने किया है, जिसका सीधा अर्थ है- अचेतन अवस्था में स्वयं से मुलाकात अर्थात उर्जा का अनंत प्रवाह। निद्रा में स्वप्न का होना भी हमारे परम-आनंद के मार्ग में बाधक है अतः स्वप्न रहित होना ही सबसे सबसे बड़ा स्वप्न है। 

निद्रा अचेतन अवस्था में मनुष्य को उसके अनंत स्वरुप से साक्षात्कार कराती है, किन्तु जाग्रत होने पर उसे स्वयं से साक्षात्कार की विस्मृति हो जाती है फिन्तु फिर भी वह स्वयं के अन्दर नवीन उर्जा संचार का अनुभव कर लेता है। चेतनावस्था में सामाजिक तानों-बानों से पृथक होकर स्वयं से एकाकार हो जाना ही समाधि की अवस्था है जो हमें अपने अनंत स्वरूप से मिलाने की दिशा में सार्थक प्रयास है। श्रीराम कृपा बिना चेतनावस्था में स्वयं से एकाकार होने की कोई संभावना नहीं बनती। लोकभाषा में एक कहावत है – “जेकर बनरिया, उहै नचावै” अतः जिसकी माया अर्थात जिसने भ्रम दिया, वही इस भ्रम से दूर करे, परन्तु भ्रम से मुक्ति सहज नहीं है, उसके लिए निरन्तर कर्म करना पड़ता है। ठीक वैसे ही जैसे एक कक्षा में अनेक विद्यार्थी हैं, गुरु सभी के लिए एक ही हैं किन्तु अंक योग्यता एवं परिश्रम के आधार पर तय होते हैं। वही दूसरी ओर योग्यता होने पर भी यदि विद्यालय न जाएँ तथा गुरुकृपा न हो तो जीवन में ज्ञान प्राप्ति की संभावनाएं नगण्य हो जाती हैं उसी प्रकार भ्रम से मुक्ति हेतु रघुनाथ कृपा ही एकमात्र विकल्प है।


- दीपक श्रीवास्तव

Thursday, September 12, 2019

एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई

एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥
जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥

यहाँ विधि का प्रयोग अत्यन्त अनूठा है। विधि ब्रह्मा जी का नाम है तथापि यहाँ विधि-हरि-हर, तीनों का अलौकिक संगम द्रष्टव्य है। अमृत वर्षा करने वाले है हर, रसपान करने वाली माता पार्वती और अमृत हरि चरित्र है। विधि ने सृष्टि को जना, जीव ने पलकें खोली, अब उत्तरदायित्व हरि पर है। सारी सृष्टि अपनी प्रथम स्वांस से अंतिम स्वांस तक हरि के आश्रित है।

“बिना तुम्हारे कण न डोले, कंठ मेरे पर तू ही बोले।
तुम्ही स्वांस तुम ही स्वर मेरे, हम तो केवल करते फेरे।।“

इसको द्वैत अथवा अद्वैत किसी भी भाव में देखें तो अर्थ समान है। दोनों ही प्रकार से चाहे हरि बाहर से या अन्दर से उन्ही का एकमात्र अवलंबन जीव को है। रश्मिरथी में दिनकर जी हरि स्वरुप को कुछ यूँ लिखा है –
यह देख गगन मुझमे लय है,
यह देख पवन मुझमे लय है।
मुझमे विलीन संसार सकल,
मुझमे विलीन झंकार सकल।
सब जन्म मुझी से पाते हैं।।
फिर लौट मुझी में आते हैं।।

माता को प्रभु ने इसी स्वरुप के दर्शन अपने मुख में करा दिए थे। - ब्रह्माण्ड निकाया, निर्मित माया। किन्तु ममता की मारी माता अपनी दुविधा नहीं छुपा पाती हैं और कहती हैं कि अस्तुति तोरी, केहि विधि करूँ अनंता फिर अपनी याचना प्रकट कर देती हैं – कीजै शिशुलीला अति प्रियशीला। अब मायानिधान मुस्काते हुए शिशुरूप में आ जाते हैं और माता की स्मृति को मिटा देते हैं।

यहाँ प्रश्न उठता है कि यदपि यह असत्य है – यह लिखने के पीछे क्या कारण हो सकता है- इसके पीछे का भाव हो सकता है- “सकल पदारथ एही जग माही, कर्महीन नर पावत नाही।“ एक प्रकरण आया है कि त्रेतायुग में जब असुरों के अत्याचारों से पूरी धरती थर्रा उठी, सभी देवता, गन्धर्व, नर-नाग, किन्नर, पशु-पक्षी आर्तनाद करने लगे तब भगवान् ने सभी को भयमुक्त करने के उद्देश्य से कहा कि मैं अतिशीघ्र समाज को इस संकट से उबारने नर रूप में अवतार लूँगा।

इस प्रकार ईश्वर की कृपा तो प्राप्त हो गई किन्तु जीव की भूमिका क्या होनी चाहिए? ईश्वर की कृपा का फल बिना सतत कर्म के प्राप्त नहीं हो सकता अतः कर्म तो करना ही है अन्यथा जीवन दुखों से भर जाएगा। “ईश्वर अंस जीव अविनासी” – जीव तो ईश्वर का अंश ही है अतः जिस प्रकार शरीर में पोषक तत्वों की पूर्ति हेतु भोजन का सामने होना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि हाथ, मुंह, दांत, जिह्वा, पेट, आंत इत्यादि सभी को समवेत प्रयास करना पड़ता है, उसी प्रकार ईश्वर के संकल्प को सार्थक करने हेतु सभी जीवों द्वारा समवेत कर्म आवश्यक है। ईश्वर तो सर्व-समर्थ हैं, तथापि जीवों के जीवन के जब तक कर्म की वृत्ति न हो तब तक सिर्फ कृपा प्राप्त होने से प्राप्त लक्ष्य अस्थायी रह जाता है। इसी उद्देश्य से सभी देवता, गन्धर्व इत्यादि वानर रूप में कर्म हेतु धरती पर आ जाते हैं।

माया छलती है तथा भ्रम में रखती है, ज्ञान इसी भ्रम के आर-पार देखने की दृष्टि विकसित करता है। सपने सर काटे कोई में इसी ओर संकेत दिया गया है, कि वास्तव में ईश्वर का चैतन्य स्वरुप होने के कारण जीव को कोई कष्ट नहीं हो सकता किन्तु माया जीव को भ्रम में रखती है जिसके कारण उसे कष्ट की प्रतीति अर्थात भ्रम होता है। इसके पार दृष्टि विकसित हो जाने पर द्वैत का स्वरुप अद्वैत हो जाता है, और सुख-दुःख की सीमा को पार करके आनन्द के सागर में गोते लगाने लगता है।

- दीपक श्रीवास्तव

Monday, September 9, 2019

--- सीता की खोज: वर्तमान सन्दर्भ में ---

जब तक जीवन है तब तक अपूर्णता है, पूर्णता ही मुक्ति है जो ईश्वर कृपा बिना संभव नहीं। कृपा कैसे प्राप्त हो, यह एक अलग विषय है किन्तु प्रत्येक जीव अपने अनुसार इसके लिए प्रयास करता है। त्रेतायुग में जब असुरों के अत्याचारों से पूरी धरती थर्रा उठी, सभी देवता, गन्धर्व, नर-नाग, किन्नर, पशु-पक्षी आर्तनाद करने लगे तब भगवान् ने सभी को भयमुक्त करने के उद्देश्य से कहा कि मैं अतिशीघ्र समाज को इस संकट से उबारने नर रूप में अवतार लूँगा।

इस प्रकार ईश्वर की कृपा तो प्राप्त हो गई किन्तु जीव की भूमिका क्या होनी चाहिए? ईश्वर की कृपा का फल बिना सतत कर्म के प्राप्त नहीं हो सकता अतः कर्म तो करना ही है। “ईश्वर अंस जीव अविनासी” – जीव तो ईश्वर का अंश ही है अतः जिस प्रकार शरीर में पोषक तत्वों की पूर्ति हेतु भोजन का सामने होना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि हाथ, मुंह, दांत, जिह्वा, पेट, आंत इत्यादि सभी को समवेत प्रयास करना पड़ता है, उसी प्रकार ईश्वर के संकल्प को सार्थक करने हेतु सभी जीवों द्वारा समवेत कर्म आवश्यक है। ईश्वर तो सर्व-समर्थ हैं, तथापि जीवों के जीवन के जब तक कर्म की वृत्ति न हो तब तक सिर्फ कृपा प्राप्त होने से प्राप्त लक्ष्य अस्थायी रह जाता है। इसी उद्देश्य से सभी देवता, गन्धर्व इत्यादि वानर रूप में कर्म हेतु धरती पर आ जाते हैं।

जीवन लक्ष्य क्या केवल असुरों के आतंक से मुक्त होना ही है? नहीं! ईश्वर तो कण-कण में हैं तथापि यदि जीव निर्भय हो भी जाता है तो भी उसका जीवन पूर्ण नहीं होता। श्रीरामचरितमानस में इसी ओर गोस्वामीजी ने एक विचारणीय बिन्दु रखा है कि प्रत्येक जीव सीता की खोज में भटक रहा है। रावण को भी सीता चाहिए, वानर, भालू इत्यादि भी सीता तक पहुँचने हेतु निरन्तर प्रयत्नशील हैं किन्तु दोनों की वृत्तियों में अन्तर है। यहाँ सीता को भक्ति अथवा जीवन लक्ष्य के अर्थ में देखें तो यहाँ एक अलग ही स्वरुप दिखाई देता है।

जहाँ भगवान् राम की कृपा है, वहां तो सभी वानर भालू एवं अन्य जीव निरन्तर सीता की खोज में प्रयत्नशील हैं, वे दिन-रात नहीं देखते, मार्ग की दुर्गमता की चिंता नहीं करते, राम की कृपा साथ है अतः वे निरन्तर लक्ष्य हेतु गतिशील हैं। वहीँ दूसरी ओर जहाँ वासनात्मक एवं छल की प्रवृत्ति हैं, वहां सीता का छल द्वारा अपहरण स्वाभाविक लगता है किन्तु परिणाम क्या है – रावण द्वारा छल एवं बलपूर्वक सीता हरण के बाद भी रावण बेचैन है, प्रतिक्षण सीता के खोने का भय उसे अनेक प्रकार से अशान्त कर रहा है जिसके लिए उसे अनेक सुरक्षाकर्मियों के सहारे की आवश्यकता पड़ती है जो एक-एक करके समाप्त हो जाते हैं तथा सीता बंधनमुक्त हो जाती हैं। वहीँ दूसरी ओर संघर्ष करते-करते वानरी सेना एक ऐसे स्थान पर पहुँचती है जहाँ सागर की विशाल लहरें उनकी क्षमताओं को चुनौती दे रही हैं तथा यहीं उन्हें अपनी अक्षमता का अनुभव होता है। जिसके जीवन में जितना तप है, उसकी उतनी ही क्षमता है। सागर को परास्त करने के लिए श्री हनुमानजी जितना धैर्य, संयम और बल चाहिए, जिसकी अनुकूलता प्राप्त करने हेतु अक्सर जीवों के प्रयास कम पड़ जाते हैं। ऐसी स्थिति में जीवों का कर्तव्य क्या है-वहां से हार मानकर लौट जाना या श्रद्धा से भगवान् के नाम का निरन्तर स्मरण करते हुए प्रतीक्षा करना। शबरी, अहिल्या इत्यादि अनेक उदाहरण हैं जो समाज को बताते हैं कि धैर्यपूर्वक निरन्तर प्रभु स्मरण एवं कर्म से प्रतीक्षाएँ पूर्ण होती हैं। अतः वानर सेना दूसरा विकल्प चुनती है तथा प्रभुनाम स्मरण के साथ धैर्यपूर्वक प्रतीक्षारत हो जाती है जब तक क्षमतावान श्रीहनुमानजी लौट नहीं आते। परिणामस्वरूप रावण अर्थात वासनात्मक वृत्तियों के नाश के पश्चात भक्तिस्वरूपा लक्ष्य अर्थात माता सीता से दर्शन एवं कृपा से सभी वानर एवं भालू कृतकृत्य होते हैं तथा लक्ष्य की प्राप्ति होती है।

अतः जीवन में यदि लक्ष्य दुर्गम भी है तो भी निरन्तर प्रयास एवं धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा फलीभूत होती है।

- दीपक श्रीवास्तव