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Thursday, September 12, 2019

एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई

एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥
जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥

यहाँ विधि का प्रयोग अत्यन्त अनूठा है। विधि ब्रह्मा जी का नाम है तथापि यहाँ विधि-हरि-हर, तीनों का अलौकिक संगम द्रष्टव्य है। अमृत वर्षा करने वाले है हर, रसपान करने वाली माता पार्वती और अमृत हरि चरित्र है। विधि ने सृष्टि को जना, जीव ने पलकें खोली, अब उत्तरदायित्व हरि पर है। सारी सृष्टि अपनी प्रथम स्वांस से अंतिम स्वांस तक हरि के आश्रित है।

“बिना तुम्हारे कण न डोले, कंठ मेरे पर तू ही बोले।
तुम्ही स्वांस तुम ही स्वर मेरे, हम तो केवल करते फेरे।।“

इसको द्वैत अथवा अद्वैत किसी भी भाव में देखें तो अर्थ समान है। दोनों ही प्रकार से चाहे हरि बाहर से या अन्दर से उन्ही का एकमात्र अवलंबन जीव को है। रश्मिरथी में दिनकर जी हरि स्वरुप को कुछ यूँ लिखा है –
यह देख गगन मुझमे लय है,
यह देख पवन मुझमे लय है।
मुझमे विलीन संसार सकल,
मुझमे विलीन झंकार सकल।
सब जन्म मुझी से पाते हैं।।
फिर लौट मुझी में आते हैं।।

माता को प्रभु ने इसी स्वरुप के दर्शन अपने मुख में करा दिए थे। - ब्रह्माण्ड निकाया, निर्मित माया। किन्तु ममता की मारी माता अपनी दुविधा नहीं छुपा पाती हैं और कहती हैं कि अस्तुति तोरी, केहि विधि करूँ अनंता फिर अपनी याचना प्रकट कर देती हैं – कीजै शिशुलीला अति प्रियशीला। अब मायानिधान मुस्काते हुए शिशुरूप में आ जाते हैं और माता की स्मृति को मिटा देते हैं।

यहाँ प्रश्न उठता है कि यदपि यह असत्य है – यह लिखने के पीछे क्या कारण हो सकता है- इसके पीछे का भाव हो सकता है- “सकल पदारथ एही जग माही, कर्महीन नर पावत नाही।“ एक प्रकरण आया है कि त्रेतायुग में जब असुरों के अत्याचारों से पूरी धरती थर्रा उठी, सभी देवता, गन्धर्व, नर-नाग, किन्नर, पशु-पक्षी आर्तनाद करने लगे तब भगवान् ने सभी को भयमुक्त करने के उद्देश्य से कहा कि मैं अतिशीघ्र समाज को इस संकट से उबारने नर रूप में अवतार लूँगा।

इस प्रकार ईश्वर की कृपा तो प्राप्त हो गई किन्तु जीव की भूमिका क्या होनी चाहिए? ईश्वर की कृपा का फल बिना सतत कर्म के प्राप्त नहीं हो सकता अतः कर्म तो करना ही है अन्यथा जीवन दुखों से भर जाएगा। “ईश्वर अंस जीव अविनासी” – जीव तो ईश्वर का अंश ही है अतः जिस प्रकार शरीर में पोषक तत्वों की पूर्ति हेतु भोजन का सामने होना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि हाथ, मुंह, दांत, जिह्वा, पेट, आंत इत्यादि सभी को समवेत प्रयास करना पड़ता है, उसी प्रकार ईश्वर के संकल्प को सार्थक करने हेतु सभी जीवों द्वारा समवेत कर्म आवश्यक है। ईश्वर तो सर्व-समर्थ हैं, तथापि जीवों के जीवन के जब तक कर्म की वृत्ति न हो तब तक सिर्फ कृपा प्राप्त होने से प्राप्त लक्ष्य अस्थायी रह जाता है। इसी उद्देश्य से सभी देवता, गन्धर्व इत्यादि वानर रूप में कर्म हेतु धरती पर आ जाते हैं।

माया छलती है तथा भ्रम में रखती है, ज्ञान इसी भ्रम के आर-पार देखने की दृष्टि विकसित करता है। सपने सर काटे कोई में इसी ओर संकेत दिया गया है, कि वास्तव में ईश्वर का चैतन्य स्वरुप होने के कारण जीव को कोई कष्ट नहीं हो सकता किन्तु माया जीव को भ्रम में रखती है जिसके कारण उसे कष्ट की प्रतीति अर्थात भ्रम होता है। इसके पार दृष्टि विकसित हो जाने पर द्वैत का स्वरुप अद्वैत हो जाता है, और सुख-दुःख की सीमा को पार करके आनन्द के सागर में गोते लगाने लगता है।

- दीपक श्रीवास्तव

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