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Monday, September 9, 2019

--- सीता की खोज: वर्तमान सन्दर्भ में ---

जब तक जीवन है तब तक अपूर्णता है, पूर्णता ही मुक्ति है जो ईश्वर कृपा बिना संभव नहीं। कृपा कैसे प्राप्त हो, यह एक अलग विषय है किन्तु प्रत्येक जीव अपने अनुसार इसके लिए प्रयास करता है। त्रेतायुग में जब असुरों के अत्याचारों से पूरी धरती थर्रा उठी, सभी देवता, गन्धर्व, नर-नाग, किन्नर, पशु-पक्षी आर्तनाद करने लगे तब भगवान् ने सभी को भयमुक्त करने के उद्देश्य से कहा कि मैं अतिशीघ्र समाज को इस संकट से उबारने नर रूप में अवतार लूँगा।

इस प्रकार ईश्वर की कृपा तो प्राप्त हो गई किन्तु जीव की भूमिका क्या होनी चाहिए? ईश्वर की कृपा का फल बिना सतत कर्म के प्राप्त नहीं हो सकता अतः कर्म तो करना ही है। “ईश्वर अंस जीव अविनासी” – जीव तो ईश्वर का अंश ही है अतः जिस प्रकार शरीर में पोषक तत्वों की पूर्ति हेतु भोजन का सामने होना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि हाथ, मुंह, दांत, जिह्वा, पेट, आंत इत्यादि सभी को समवेत प्रयास करना पड़ता है, उसी प्रकार ईश्वर के संकल्प को सार्थक करने हेतु सभी जीवों द्वारा समवेत कर्म आवश्यक है। ईश्वर तो सर्व-समर्थ हैं, तथापि जीवों के जीवन के जब तक कर्म की वृत्ति न हो तब तक सिर्फ कृपा प्राप्त होने से प्राप्त लक्ष्य अस्थायी रह जाता है। इसी उद्देश्य से सभी देवता, गन्धर्व इत्यादि वानर रूप में कर्म हेतु धरती पर आ जाते हैं।

जीवन लक्ष्य क्या केवल असुरों के आतंक से मुक्त होना ही है? नहीं! ईश्वर तो कण-कण में हैं तथापि यदि जीव निर्भय हो भी जाता है तो भी उसका जीवन पूर्ण नहीं होता। श्रीरामचरितमानस में इसी ओर गोस्वामीजी ने एक विचारणीय बिन्दु रखा है कि प्रत्येक जीव सीता की खोज में भटक रहा है। रावण को भी सीता चाहिए, वानर, भालू इत्यादि भी सीता तक पहुँचने हेतु निरन्तर प्रयत्नशील हैं किन्तु दोनों की वृत्तियों में अन्तर है। यहाँ सीता को भक्ति अथवा जीवन लक्ष्य के अर्थ में देखें तो यहाँ एक अलग ही स्वरुप दिखाई देता है।

जहाँ भगवान् राम की कृपा है, वहां तो सभी वानर भालू एवं अन्य जीव निरन्तर सीता की खोज में प्रयत्नशील हैं, वे दिन-रात नहीं देखते, मार्ग की दुर्गमता की चिंता नहीं करते, राम की कृपा साथ है अतः वे निरन्तर लक्ष्य हेतु गतिशील हैं। वहीँ दूसरी ओर जहाँ वासनात्मक एवं छल की प्रवृत्ति हैं, वहां सीता का छल द्वारा अपहरण स्वाभाविक लगता है किन्तु परिणाम क्या है – रावण द्वारा छल एवं बलपूर्वक सीता हरण के बाद भी रावण बेचैन है, प्रतिक्षण सीता के खोने का भय उसे अनेक प्रकार से अशान्त कर रहा है जिसके लिए उसे अनेक सुरक्षाकर्मियों के सहारे की आवश्यकता पड़ती है जो एक-एक करके समाप्त हो जाते हैं तथा सीता बंधनमुक्त हो जाती हैं। वहीँ दूसरी ओर संघर्ष करते-करते वानरी सेना एक ऐसे स्थान पर पहुँचती है जहाँ सागर की विशाल लहरें उनकी क्षमताओं को चुनौती दे रही हैं तथा यहीं उन्हें अपनी अक्षमता का अनुभव होता है। जिसके जीवन में जितना तप है, उसकी उतनी ही क्षमता है। सागर को परास्त करने के लिए श्री हनुमानजी जितना धैर्य, संयम और बल चाहिए, जिसकी अनुकूलता प्राप्त करने हेतु अक्सर जीवों के प्रयास कम पड़ जाते हैं। ऐसी स्थिति में जीवों का कर्तव्य क्या है-वहां से हार मानकर लौट जाना या श्रद्धा से भगवान् के नाम का निरन्तर स्मरण करते हुए प्रतीक्षा करना। शबरी, अहिल्या इत्यादि अनेक उदाहरण हैं जो समाज को बताते हैं कि धैर्यपूर्वक निरन्तर प्रभु स्मरण एवं कर्म से प्रतीक्षाएँ पूर्ण होती हैं। अतः वानर सेना दूसरा विकल्प चुनती है तथा प्रभुनाम स्मरण के साथ धैर्यपूर्वक प्रतीक्षारत हो जाती है जब तक क्षमतावान श्रीहनुमानजी लौट नहीं आते। परिणामस्वरूप रावण अर्थात वासनात्मक वृत्तियों के नाश के पश्चात भक्तिस्वरूपा लक्ष्य अर्थात माता सीता से दर्शन एवं कृपा से सभी वानर एवं भालू कृतकृत्य होते हैं तथा लक्ष्य की प्राप्ति होती है।

अतः जीवन में यदि लक्ष्य दुर्गम भी है तो भी निरन्तर प्रयास एवं धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा फलीभूत होती है।

- दीपक श्रीवास्तव

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