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Saturday, September 14, 2019

आदि अंत कोउ जासु न पावा

आदि अंत कोउ जासु न पावा ।
मति अनुमानि निगम अस गावा ॥
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना ।
कर बिनु करम करइ बिधि नाना ॥
आनन रहित सकल रस भोगी ।
बिनु बानी बकता बड़ जोगी ॥
तनु बिनु परस नयन बिनु देखा ।
ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा ॥

श्रीराम का स्वरुप कैसा है? जो आदि- अन्त से रहित हैं तथा वेदों ने अपनी सीमित बुद्धि से अनुमान करके उनके स्वरुप को गाने का प्रयास किया है। सती के मन की भी यही जिज्ञासा थी, किन्तु समझने के प्रयास के पूरा एक जीवन निकल गया तत्पश्चात पुनः नए जीवन में घोर तप करने के पश्चात उन्होंने पुनः भगवान् शिव को पति रूप में प्राप्त किया तथा जहाँ कथा अधूरी रह गई थी वहीँ से पुनः प्रारम्भ हुई। यह भाव यह भी दर्शाता है कि अनेक योनियों में भटकने के बाद भी सत्संग निरन्तर चलता रहता है तथा किसी बाधा के आने के बावजूद उपयुक्त अवसर आने पर सत्संग उसी स्थान पुनः जीवात्मा की तृप्ति करने लगता है। “जगत प्रकाश्य प्रकाशक रामू” – श्रीराम मायाधीश हैं, उन्ही की माया से जीव, जड़, चेतन इत्यादि उत्पन्न होने हैं तथा उन्ही में समां जाते हैं। जीवात्मा एवं शरीर, विषयों का भोग करने वाली इन्द्रियां इत्यादि एक दुसरे के परस्पर सहयोग से संचालित हैं, तथा इनके मूल में जो अविरल प्रकाश एवं उर्जा का प्रवाह है वही श्रीराम का सूक्ष्म अंश है। राम जीवनी शक्ति हैं इसीलिए शरीर में चेतना है।

माया, मोह इत्यादि भ्रम श्रीराम कृपा से ही मिट सकता है किन्तु यह भ्रम बिना अनुभव के नहीं मिटता। महर्षि मार्कन्डेय के अनुभव में महाप्रलय के पश्चात भी श्रीराम सत्ता का जीवित पाया जाना, मानस उत्तरकाण्ड में काकभुशुण्डी जी द्वारा अनेक योनियों में भटकने के बाद श्रीराम का एक ही आनन्द एवं चैतन्य स्वरुप देखने से सिद्ध है कि श्रीराम कृपा एवं अनुभव द्वारा ही भ्रम के आर-पार देखने की दृष्टि विकसित हो सकती है एवं उनके स्वरुप के कणमात्र का अनुभव कर सकता है, केवल इतने से ही जीव की तृप्ति हो जाती है।

“वह (ब्रह्म) बिना ही पैर के चलता है, बिना ही कान के सुनता है, बिना ही हाथ के नाना प्रकार के काम करता है, बिना मुँह (जिव्हा) के ही सारे (छहों) रसों का आनंद लेता है और बिना ही वाणी के बहुत योग्य वक्ता है। वह बिना ही शरीर (त्वचा) के स्पर्श करता है, बिना ही आँखों के देखता है और बिना ही नाक के सब गंधों को ग्रहण करता है (सूँघता है)। उस ब्रह्म की करनी सभी प्रकार से ऐसी अलौकिक है कि जिसकी महिमा कही नहीं जा सकती।“

वस्तुतः अद्वैत भाव यही दर्शाता है कि जीव एवं ब्रह्म का स्वरुप एक ही है, यह शरीर तो केवल भक्ति प्राप्ति का साधनमात्र है। किन्तु माया की विडम्बना देखिये कि जीव जिस योनि में है उसी शरीर को अपना स्वरुप मान लेता है ठीक उसी प्रकार जैसे वातानुकूलित कमरे में मनुष्य वास्तविक प्राकृतिक वातावरण से अनभिज्ञ रहता है और कमरे के वातावरण को ही सत्य समझकर सुख की अनुभूति करने का प्रयास करता है।

एक और महत्वपूर्ण बात ध्यान देने योग्य है कि हमारे देश में लगभग डेढ़ शताब्दी पहले देवी देवताओं के मानव रुपी चित्र उपलब्ध नहीं थे। सन 1848 में जन्मे त्रावणकोर के मशहूर चित्रकार राजा रवि वर्मा ने काफी घूमने के बाद इस बात को समझा कि धार्मिक ग्रंथों और महाकाव्यों में भारत की आत्मा बसी है। अतः उन्होंने फैसला लिया कि वे इन ग्रंथों के चरित्रों की पेंटिंग बनाएंगे। तत्पश्चात उन्होंने पौराणिक कथाओं और उनके पात्रों के जीवन को अपने कैनवास पर उतारा। आज हम मूर्तियों के रूप में, तस्वीरों, कैलेंडरों और पुस्तकों में देवी-देवताओं के जो चित्र देखते हैं वे वास्तव में राजा रवि वर्मा की कल्पनाशीलता की देन हैं।

शास्त्र रचना के दो महत्वपूर्ण बिंदु हैं – एक तो जन-मानस को ऐतिहासिक तथ्यों से अवगत कराना तथा घटनाओं के माध्यम से मनुष्यों के अन्दर उपस्थित प्रकाश की अनुभूति करा देना। गोस्वामी जी के राम ऐसे चरित्र हैं जो प्रत्येक जीव के अंतःकरण में प्रसारित हैं। वे सबमे प्रतिक्षण विराजमान हैं जिसका अनुभव होने के बाद भी जीव द्वारा उनके स्वरुप की विवेचना कर पाना संभव नहीं है। ठीक उसी प्रकार जैसे सूरदास जी कहा है – “अबिगत गति कछु कहत न आवै, ज्यों गूंगा मीठे फल को रस अन्तरगत ही पावै।“ किन्तु व्यक्ति के जीवन में तो हर क्षण काम, लोभ,मोह का चरित्र ही विस्तार लिए हुए है। अतः मन में होने के बावजूद श्रीराम जीव को दिखाई नहीं देते यथा “कस्तूरी कुंडलि बसे, मृग ढूंढें बन माहि। ऐसे घटि-घटि राम हैं, दुनिया देखे नाहि।“ जैसे ही मन में श्रीराम जाग्रत हो जाते हैं, वैसे ही उनका निर्गुण स्वरुप जीव को द्रष्टव्य हो जाता है।

- दीपक श्रीवास्तव

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