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Tuesday, August 1, 2017

------शिव-विष्णु: सामाजिक मर्यादा-स्वातंत्र्य का सन्तुलन------

हमें अक्सर समाज में अनेक विरोधाभास दिखाई देते हैं | समान परम्पराओं को मानने वालों में भी सोच की भिन्नताएं | एक वर्ग सामाजिक परम्पराओं को जीवन का आधार मान लेता है, वहीँ दूसरा वर्ग इसे रूढ़िवादिता का स्वरुप मानते हुए सर्वथा अस्वीकार करता है तथा स्वतन्त्रता हेतु संघर्ष करता दिखाई देता है | किन्तु दोनों एक ही समाज के अभिन्न अंग हैं |
यही विरोधाभास भगवान विष्णु तथा शिव के स्वरुप एवं उनके क्रियाकलापों में दिखाई देता है | दोनों का वर्ण विपरीत है – एक श्याम है तो दूसरा गौर | एक सुन्दर वस्त्रों एवं आभूषणों से सुसज्जित है तो दूसरा वस्त्रों का विग्रह स्वीकार करता है | एक सामाजिक मर्यादाओं के मापदंड स्थापित करता है तो दूसरा अपने प्रत्येक क्रियाकलाप में इन मर्यादाओं का उपहास करता है | एक सामाजिक संरचना एवं नियमों को स्थापित करता है तो दूसरा इसके विपरीत स्वतन्त्रता का पक्षधर है | परन्तु दोनों तत्व एक ही ईश्वर के दो रूपों को प्रतिविम्बित करते हैं | दोनों स्वरुप एक दूसरे के पूरक तथा सर्वथा अभिन्न हैं | इन दोनों के बीच का सन्तुलन ही एक सुस्पष्ट, संस्कारी तथा प्रगतिशील समाज की रचना करने में सक्षम है |
सामाजिक संरचना में नियंत्रण के साथ-साथ स्वतन्त्रता की अभिव्यक्ति भी आवश्यक है अन्यथा उनका पालन करते करते परम्पराएं रूढ़ियाँ बन जाती हैं और समाज इनमे दम तोड़ने लगता है | स्वतंत्रता एवं नियंत्रण परस्पर विरोधी भले ही लगती हों लेकिन दोनो ही एक दूसरे से सर्वथा अभिन्न हैं | स्वतन्त्रता का अधिकार व्यक्ति का सहज स्वभाव है, किन्तु प्रत्येक व्यक्ति अपने आप में पूर्ण स्वतंत्र होते हुए भी सामाजिक संरचना का अभिन्न अंग है अतः समाज के संरक्षण हेतु व्यक्तियों की स्वतंत्रता पर नियंत्रण भी अति-आवश्यक है | नियंत्रण भी ऐसा हो कि मर्यादाओं के बन्धन में दम न टूटे | यहीं से सन्तुलन की प्रक्रिया आरम्भ होती है | जहाँ विष्णु मर्यादा के संरक्षक हैं वहीँ शिव स्वतन्त्रता के प्रतीक |
शिव समता के मूलक के रूप में दिखाई देते हैं | असुरों तथा देवताओं पर उनकी समान रूप से कृपादृष्टि दिखाई देती है वहीँ विष्णु देवताओं का पक्ष लेते दिखाई देते हैं | देवता आध्यात्मिक तो असुर भौतिक वृत्तियों के प्रतीक हैं | यही कारण है कि असुर भोग की ओर आकर्षित होते हैं | प्रत्येक भोगवादी व्यक्ति स्वेच्छाचार की छूट चाहता है और शिव के वाह्य स्वरुप को न समझ पाने के कारण शिव के स्वरुप को स्वतन्त्रता का पर्यायवाची मानने लगता है | यही कारण है कि शिव का स्वरुप समझे बिना अपने स्वयं के भ्रान्त धारणाओं के आधार पर उसके अन्दर शिव के प्रति सहज आकर्षण जागता है | बदलती जीवन शैली एवं सभ्यता के मशीनीकरण द्वारा संचालित होने के कारण अपने आप को इतना बंधा हुआ महसूस करता है कि भगवान् शिव का नग्न स्वरुप एवं उनके साथ जुड़े मादक पदार्थ उसे अपने जीवन के लिए स्वतन्त्रता का बोध कराने लगता है |
बाहरी रूप से मर्यादा के विरुद्ध दिखाई देना वाला शिव-स्वरुप उनके अनंत स्वरुप का परिचायक है | जब परम्पराएं एवं रूढ़ियाँ समाज की प्रगति की दिशा में अवरोध उत्पन्न करने लगें तो उनका विध्वंस आवश्यक हो जाता हैं | मर्यादाओं का निर्माण परिस्थितियों पर आधारित होता है अतः परिस्थितियों के परिवर्तन के आधार पर इनमे परिवर्तन भी आवश्यक है | मर्यादा के नाम पर जब समाज सत्य से भटकने लगता है, दिखावे को ही सत्य समझने लगता है तब शिव का शाश्वत स्वरुप उनका उपहास करता दिखाई देता है | उनकी नग्नता उनके अन्तर तथा वाह्य स्वरुप के बीच की समता को स्पष्ट करती है | जिन्हें इनमे मर्यादा का अभाव दिखता है वे वास्तविकता से दूर अपनी वासना को आवरण में ढके रखने का दुष्प्रचार कर रहे होते हैं | शिव स्वरुप में कोई भोग कामना नहीं है जिसे छिपाने हेतु आवरण की आवश्यकता हो | अतः प्रत्येक नग्न व्यक्ति शिव उपासक है यह आवश्यक नहीं | वहीँ सामाजिक लोक व्यवहार में आवरण एवं मर्यादाएं व्यक्ति को सुरक्षा तथा प्रगतिगामी दृष्टि देती हैं | यही विष्णु का स्वरुप है |
शिव और विष्णु वस्तुतः एक ही समाज के दो भिन्न पक्ष हैं जो एक दूसरे के पूरक हैं |


--दीपक श्रीवास्तव