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Wednesday, October 9, 2019

--- ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी ---

श्रीरामचरितमानस की उक्त पंक्ति को आधार बनाकर विधर्मियों ने भारतीय समाज के विरुद्ध जो षङयन्त्र रचा है,दुर्भाग्य से आज भी यह समाज को बांटने में सफल हो रहा है। बिना मूल भाव को समझे जब दुर्भावना से किसी पंक्ति की आधी-अधूरी व्याख्या की जाती है तो भोली-भाली जनता षड्यंत्रकारियों के जाल में फंस ही जाती है तथा समाज टूटने लगता है। मातृ शक्ति स्वरूपा नारी एवं ईश्वरीय तत्व के सबसे निकट रहने वाला सेवक समाज इसी का शिकार होकर समाज में उपेक्षित होकर रह गया। मेरा व्यक्तिगत मानना है कि जब लेखन किसी विशेष वर्ग की ओर अधिक झुकता है तो यह उस वर्ग को समाज से और अलग कर देता है। उदाहरण के लिए शम्बूक वध से सेवक वर्ग को जितनी उपेक्षा नहीं मिली उससे अधिक उनको विशेष सिद्ध करते हुए लेखों से मिल गई क्योंकि सेवक वर्ग के बारे में उक्त पंक्तियों की आवश्यकता से अधिक व्याख्याएं उपलब्ध हैं फिर भी यह वर्ग उपेक्षित है। ऐसा ही मुस्लिम वर्ग के बारे में भी है, स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात जितना राजनैतिक खेल उनके पक्ष में खेला गया उससे कहीं अधिक वे अशिक्षा, गरीबी और भूख से आज भी संघर्ष कर रहे हैं। यही उदाहरण मातृस्वरूपा नारी शक्ति पर भी सटीक है क्योंकि नारियों से सम्बंधित चाहे जितने नियम बन रहे हों किन्तु दिनों-दिन उनके प्रति अपराध की संख्या में भी वैसी ही वृद्धि हो रही है। वहीं इस देश का सबसे उपेक्षित सामान्य वर्ग, जिसके अधिकारों पर भी कोई विशेष चर्चा नहीं होती, जिसकी योग्यता ही उसकी एकमात्र आजीविका है, जिसके सामान्य अधिकारों एवं पर विभिन्न राजनैतिक कारणों से दबाव रहा, वही वर्ग आज आज भी समाज को जोड़े रखने हेतु निरन्तर प्रयासरत है तथा प्रत्येक क्षेत्र में राष्ट्र निर्माण में सबसे अधिक भागीदारी देता रहा है।

श्रीरामचरितमानस ग्रन्थावतार के सुन्दरकाण्ड में वर्णित अवधी भाषा में रचित उक्त पंक्ति को समाज को तोड़ने के लिए एक शस्त्र की तरह उपयोग किया जाता रहा है। गोस्वामी तुलसीदास जी की जैसी तपस्या एवं साधना थी, उसके अनुसार व्यक्ति उनके द्वारा रचित पंक्ति का अर्थ भर भी समझकर अपने जीवन में उतार ले तो उसका जीवन धन्य हो जाएगा इसके बावजूद धर्मविरोधी तत्वों द्वारा इसकी गलत व्याख्या होती रही जिसका प्रारम्भ ताड़ना शब्द के अर्थ से हुआ। पाठक वर्ग जब कोई साहित्य पढ़ता है तो संवादों को चरित्र के सन्दर्भ में देखता है। यदि संवाद नायक का है तो वह नायक का चरित्र प्रस्तुत करता है तथा यदि खलनायक का है तो वह खलनायक का चरित्र प्रस्तुत करता है। दोनों ही परिस्थितियों में लेखक की मूल भावना पृथक एवं तटस्थ रहती है। अतः उसे लेखक के व्यक्तिगत दृष्टिकोण से जोड़कर देखना कहीं से भी न्यायसंगत नहीं है। किन्तु "ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी" को मूल अर्थ लेखक में लेने पर भी वह अर्थ नहीं निकलता जो दुर्भावना से प्रचारित है। "ताड़ना" अवधी भाषा का शब्द है जिसे हिन्दी के "प्रताड़ना" शब्द के अर्थ से जोड़ते हुए चौपाई के मूल भाव को बदलने का षड़यत्र किया गया। ताड़ना एक अवधी शब्द है, जिसका अर्थ - पहचानना, परखना या देखरेख करना। सामान्य बोलचाल की भाषा में यदि यह कहा जाय कि "अमुक व्यक्ति किसी स्त्री को ताड़ रहा है" तो आप स्वयं ही समझें कि इसका अर्थ क्या निकालेंगे- प्रताड़ित करना या घूर के (बहुत ध्यान से) देखना।

उक्त चौपाई का सन्दर्भ भी देखें - जब श्रीराम वानर सेना सहित तीन दिनों तक समुद्र से मार्ग देने की याचना लिए प्रतीक्षा करते हैं तथा कोई उत्तर नहीं मिलता, तब वर्णन आता है कि -

"विनय न मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति।।"

तब समुद्र देव प्रकट होकर अपनी बात रखते हैं -
गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी।।
तव प्रेरित मायाँ उपजाए। सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए।।
ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी।।

"ढोल, गंवार ..." पंक्तियों पर विचार करने से पहले समुद्र द्वारा कथित "गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी" पर विचार करना आवश्यक हो जाता है क्योंकि यहाँ सृष्टि में उपस्थित तत्वों को जड़ कहा गया है जिसे समुद्र ने स्वीकार किया है। यहाँ जड़ शब्द अत्यन्त व्यापक अर्थ में प्रयोग किया गया है तथा केवल यहीं नहीं प्राणियों के सृजन में प्रयुक्त पंचतत्व भी जड़ तत्व को ही प्रदर्शित करते है। जीवित एवं मृत व्यक्ति में भी जड़ तत्वों के आधार पर कोई अन्तर नहीं किया जा सकता किन्तु जड़ शरीर में उपस्थित चेतना ही दोनों के अन्तर को स्पष्ट करती है। सृष्टि एवं ब्रह्म क्रमशः जड़ एवं चेतन तत्व हैं। विडम्बना यह है कि सृष्टि रुपी जड़ को जड़रूपी नेत्रों से स्पष्ट देखा जा सकता है किन्तु चेतन रुपी ब्रह्म को जड़ रुपी नेत्रों से देखना संभव नहीं है। इस प्रकार का वर्णन श्रीरामचरितमानस में अनेक बार प्रयुक्त हुआ है। अहिल्या भी पत्थर के रूप में जड़ स्वरुप का प्रतिनिधित्व करती है जो ईश्वरीय चेतना (श्रीराम) के स्पर्श मात्र से धन्य हो जाती है। केवट की भी व्यथा ऐसी ही है जो उसे जड़ रुपी नाव में चेतना के संचार का भय प्रदान करती है। वस्तुतः केवट के मन की व्यथा समाज के अधिकांश व्यक्तियों की भौतिकवादी व्यथा का ही सजीव निरूपण है। आर्थिक एवं भोगवादी समाज में सामान्य व्यक्ति अपनी भौतिक संपत्ति को सहेजकर रखने का प्रयास करता है तथा भौतिक सुखों को ही जीवन के रसों का पर्याय मानने लगता है। अध्यात्म रुपी जीवन को वह नीरस मानते हुए, बिना उसके मर्म को जाने उसकी कल्पना में शंका एवं संसय का भाव रखता है। इसी कारण केवट संशयग्रस्त होकर कहता है -

"छुअत सिला भइ नारि सुहाई। पाहन तें न काठ कठिनाई॥
तरनिउ मुनि घरिनी होइ जाई। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई।।"

अर्थात जड़ नेत्र केवल जड़ में ही अपना हित देख पाते हैं। किन्तु जैसे ही जड़रूपी मन में चेतना के संचार की अनुभूति होती है वैसे ही जीव आनंदमय हो जाता है। यही बात शबरी प्रसंग में भी द्रष्टव्य है जब वह स्वयं को जड़ के रूप में व्यक्त करते हुए करती है - "अधम जाति मैं जड़मति भारी।"

 जिस प्रकार सृष्टि में दो ही प्रकार के तत्व हैं - जड़ एवं चेतन, उसी प्रकार प्रकृति और पुरुष मिलकर ही समष्टि का निर्माण करते हैं। शिव का अर्धनारीश्वर रूप इन दोनों तत्वों में संतुलन को दर्शाता है। प्रकृति जड़ तत्व है तथा पुरुष चेतन तत्व है। चेतन तत्व हमें बहुधा स्पष्ट दिखाई नहीं देता किन्तु जड़ तत्व से ऊपर उठने पर हमें चेतन स्वरूप से साक्षात्कार हो जाता है। यदि नारी के सन्दर्भ में सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो महसूस होगा कि नारी जड़ तत्व को पूर्ण रूप से परिभाषित करती है। नारी प्रकृति तत्व है। प्रकृति तत्व अन्य जड़ तत्वों को उत्पन्न कर सकता है अतः सृजन की प्रक्रिया को धारण करने की क्षमता केवल नारी में ही सम्भव है। चेतना का जड़ के बिना कोई ठोस अनुभव नहीं कर सकता क्योंकि अनुभव इन्द्रियजन्य हो या इन्द्रियातीत, दोनों के अनुभव हेतु शरीर अर्थात जड़ तत्व को धारण करना अनिवार्य है। सूरदास के पद में निर्गुण ब्रह्म का अनुभव कुछ इस प्रकार है - "अबिगत गति कुछ कहत न आवै, ज्यों गूंगा मीठे फल को रस अंतरगत ही पावै।" परन्तु यहाँ भी गूंगा जड़ तत्व का प्रतीक है।
 
मेरे विचार में गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा अवतरित उक्त पंक्तियाँ व्यक्ति को सामाजिक जीवन हेतु एक मजबूत आधार प्रदान करती हैं। "ढोल,गंवार, शूद्र, पशु, नारी" पर विशेष दृष्टि रखने की आवश्यकता क्यों है,इसे समझने के लिए इसके भाव तथा इसके कहने वाले का आशय समझना आवश्यक है। उक्त पंक्ति समुद्र द्वारा कथित है जो संसार में पदार्थ प्रवृत्ति अर्थात जड़ का प्रतिनिधित्व करती है। समुद्र ने अपनी जड़ता को स्वीकार किया है,जो समाज के लिए एक बड़ा सन्देश है। वर्तमान में लोग अपने मूल व्यक्तित्व पर इतने छद्म चेहरे लगाकर रहते हैं कि उन्हें अपने वास्तविक स्वरुप की भी विस्मृति हो जाती है। लंका में कुछ ऐसा ही दृश्य उस समय आता है जब हनुमान जी सीता माँ का पता लगाने पहुँचते हैं तथा दिन में पहुँचने पर लंका का दृश्य कुछ ऐसा है -

"तहाँ जाइ देखी बन सोभा। गुंजत चंचरीक मधु लोभा।।
नाना तरु फल फूल सुहाए। खग मृग बृंद देखि मन भाए।।"

इतना सुन्दर दृश्य देखकर भला किसे वास्तविक (पाप) रुप के दर्शन होते? किन्तु रात्रिकाल में लंका की यात्रा सत्य के दर्शन करा देती है। किन्तु यहाँ समुद्र द्वारा स्वयं के वास्तविक स्वरुप की स्वीकारोक्ति यही सन्देश देती है कि अपने स्वयं के रूप एवं गुण को यथा रूप में स्वीकारकर प्रभु के चरणों में भक्ति रखना ही जीवन के प्रति पूर्ण निष्ठा एवं गति है। ऐसा करके ही व्यक्ति प्रभु चरणों के प्रेम का अधिकारी हो सकता है। एक सन्देश यह भी मिलता है कि लक्ष्य प्राप्त करने हेतु जड़ प्रवृत्ति से याचना करने से बेहतर है कर्म करते हुए निरन्तर बढ़ते रहें अन्यथा समय अपनी गति में रहता है यथा "गए तीन दिन बीति" के अनुसार समय निकल जाता है और जीवन में पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता। सेतु बनाकर लंका पहुँचने का यही भाव है। ढोल,गंवार, शूद्र, पशु, नारी पर विशेष दृष्टि क्यों रखनी चाहिए इसे समझने हेतु प्रत्येक तत्व पर एक-एक करके दृष्टि डालना आवश्यक है।

ढोल: जो लोग संगीत से सम्बद्ध है वे जानते हैं कि ढोल बजाने से पहले उसके स्वरों को अन्य वाद्ययन्त्र जैसे हारमोनियम, तानपूरे इत्यादि से मिलाना पड़ता है। अन्य वाद्ययंत्रों में स्वर नियत रहते है जैसे C# स्केल के "सा" स्वर हेतु यदि हारमोनियम के मध्य सप्तक का प्रथम काला बटन प्रयुक्त हो रहा है तो यह बटन सदा C# स्केल के "सा" हेतु ही प्रयुक्त होगा। किन्तु ढोल परिवार के वाद्ययंत्रों (ढोलक, तबला इत्यादि) को हारमोनियम के साथ संगत करने हेतु पहले तैयार करने की आवश्यकता पड़ती है अन्यथा स्वर एवं ताल में मेल होना संभव नहीं है। इतना ही नहीं, ढोल मौसम से भी प्रभावित हो जाता है। मुझे याद है एक बार कानपुर के गंगा महोत्सव में मेरे भजनों की प्रस्तुति हुई थी जहाँ तापमान 43 डिग्री सेल्सियस से अधिक था तथा वातावरण में आद्रता भी बहुत थी। अतः बार-बार तबले का स्वर उतर जाता था तथा संगीत बेसुरा हो जाता था। चूंकि कार्यक्रम लम्बा था अतः हमारे तबलावादक को लगभग प्रत्येक प्रस्तुति के पश्चात तबले के स्वर को मिलाने हेतु कसना पड़ता था। यदि ढोल का भलीभांति ताड़न (ध्यान रखना) न किया जाय तो उसके स्वर सदैव ही भटके हुए रहेंगे। समाज में अनेक ऐसे लोग होते हैं लक्ष्य की और उन्मुख होते हैं तथापि थोड़ा सा भटकाव ही उनके जीवन को अंधकारमय कर देता है, ऐसे लोग ढोल के समान होते हैं जिन्हे सही दिशा देने हेतु निरन्तर उन पर दृष्टि रखनी आवश्यक है अन्यथा वे समाज की दिशा नकारात्मक कर सकते हैं। एक अन्य उदाहरण के रूप में किशोर बच्चे भी ढोल के समान होते हैं जिनमे अनेक कारणों से भटकाव हो जाता है अतः किशोरों पर माता-पिता एवं गुरुजनों को अधिक ध्यान देने की आवश्यकता पड़ती है।

गंवार:
गंवार शब्द का सीधा अर्थ मूढ़, जड़, मूर्ख या अज्ञानी है। पराधीनता कालखण्ड में इसे गांव शब्द से जोड़कर ग्रामवासियों को बदनाम करने का कुत्सित कार्य किया गया इस कारण कुछ लोग गाँव में रहने वालों को स्वयं की अज्ञानता के कारण मूर्ख अर्थात गंवार कहने लगे। वर्तमान में अंग्रेजी के विलेजर्स शब्द को भी इसी अर्थ में देखने का षड्यंत्र किया जा रहा है। मानसिक विकार से ग्रसित कुछ लोग क्षेत्र विशेष में रहने वालों को भी मूर्ख का पर्यायवाची मानते हुए देखे जा सकते हैं जो  मानसिक अहंकार का परिचायक है। दिल्ली एवं पश्चिमी भारत के राज्यों में रहने वाले कुछ लोग इसी मानसिक बीमारी से ग्रसित हैं तथा बिहारी जैसे शब्दों का यही अर्थ  लगाते हैं। इसका एक कारण और भी है कि ऐसे व्यक्ति संस्कृति एवं सभ्यता में अन्तर कर पाने में समर्थ नहीं होते तथा अपनी भ्रान्त धारणाओं के आधार पर गलत परिभाषा का कुचक्र  रचते हैं। वास्तव में कोई भी राष्ट्र संस्कृति एवं सभ्यता के सन्तुलन से ही वैश्विक स्तर पर आगे बढ़ सकता है। एक ओर जहाँ सभ्यता राष्ट्र का शरीर है वहीं संस्कृति उसकी आत्मा है। जब हम हड़प्पा जैसी सभ्यताओं का अध्ययन करते हैं तो वहां के घरों की बनावट, नालियां, सीवर, औजारों इत्यादि के बारे में जानने का प्रयास  करते हैं किन्तु जब संस्कृति की बात होती है तो वहां के लोक-व्यवहार, लोक-परम्पराओं, लोक नृत्य-संगीत इत्यादि का अध्ययन होता है।

सभ्यताएं समय के साथ परिवर्तनशील होती हैं किन्तु संस्कृति स्थायी बनी रहती है। सभ्यताओं को आगे बढ़ने एवं अपना अस्तित्व बनाये रखने हेतु निरन्तर संस्कृति के सहारे की आवश्यकता होती है किन्तु संस्कृति सदैव ही अल्हड़ और स्वतन्त्र होती है। सभ्यताएं संस्कृति को जन्म नहीं दे सकती, किन्तु संस्कृतियों ने अनेक सभ्यताओं को जन्म दिया है तथा सींचा है। एक उदाहरण द्वारा यह और भी स्पष्ट हो जाएगा कि फ़िल्मी गीतों को यदि सभ्यता का पर्याय मानें तो लोकगीत संस्कृति के रूप में खड़े दिखाई देंगे। एक फ़िल्मी गीत को बनाने हेतु कठिन अभ्यास के साथ ही वाद्ययन्त्रों का तारतम्य, सुरों के विभिन्न प्रयोग एवं तकनीकी प्रयोगों की भी एक लम्बी श्रृंखला होती है। अनेक बार उन्हें विकसित करने हेतु लोकधुनों के साथ-साथ लोकगीतों के शब्दों का भी आधार लेना पड़ता है। "पिंजरे वाली मुनिया", "कांची रे कांची", "ससुराल गेंदाफूल" जैसे अनेक गीत इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। वहीं संस्कृति के पर्याय लोकगीतों को किसी फ़िल्मी सहारे की आवश्यकता नहीं पड़ती। उनकी मिठास नैसर्गिक होती है जिसमे बनावट का लेशमात्र भी नहीं होता। वे केवल हारमोनियम, ढोलक इत्यादि के साथ ही गाये जा सकते हैं, यदि वाद्ययन्त्र उपलब्ध नहीं हैं तो भी केवल तालियों या घुंघुरुओं के साथ ही वे अपनी नैसर्गिक सुन्दरता से सबको आनंदित कर देते हैं। जन्म-संस्कार, मुण्डन-संस्कार, विवाह के समय गाये जाने वाले लोकगीत इसी विरासत एवं संस्कृति के अभिन्न अंश हैं।

शेष अगले अंक में ...


- दीपक श्रीवास्तव

Thursday, October 3, 2019

मन में तुम्ही हो माता

मन में तुम्ही हो माता,
जीवन शक्ति प्रदाता।।

सब देवों की शक्ति तुममें,
मिलकर संग निवास करे। 
सारे जग में व्याप्त तुम्ही हो,
सृष्टि तुम्हीं में वास करे। 
तेरे अनुपम बल-प्रभाव की,
कोई थाह न पाता। 
जीवन शक्ति प्रदाता।।1।।

शेषनाग भी सहस्र मुखों से,
तेरे वर्णन में सकुचायें। 
बह्मा औ शिव महा-तपस्वी,
श्रद्धापूर्वक तुमको गायें। 
हे अम्बे, हे महा-चण्डिके,
तुम्ही दिवस तुम राता। 
जीवन शक्ति प्रदाता।।2।।

तुम घर-घर में लक्ष्मीरूपा,
तुम ही माँ दारिद्रस्वरूपा। 
तुम्ही प्राणियों की बुद्धि हो,
तुम्ही जगत में लज्जा-रूपा। 
हाथ जोड़कर नमन करूँ मैं,
पालक तुम्ही विधाता। 
जीवन शक्ति प्रदाता।।3।।

हे देवी, हे अचिन्त्यरूपा,
हे शक्ति, हे प्राण-स्वरूपा।
तुममें सत-रज-तम गुण बसते,
गुण विमुक्त तुम ज्योति-स्वरूपा। 
तेरे गुण गाने को माता,
जीवन कम पड़ जाता। 
जीवन शक्ति प्रदाता।।4।।

तुम्ही भक्ति हो, तुम्ही आसरा,
तुम अपरा माँ तुम्ही हो परा।
जगत तुम्हारा अंशभूत है,
माँ तुमसे ही गगन औ धरा। 
तुम स्वाहा जिससे हर प्राणी,
पल में तृप्ति पाता। 
जीवन शक्ति प्रदाता।।5।।

माता तुम ही महाव्रता हो,
तुम्ही जितेन्द्रिय महातपा हो।
पितरों की तृप्ति हो जाती,
इसीलिए तुम स्वधा कहाती।
मुनिजन-साधक तुमको ध्यावें,
मोक्ष-मुक्ति की दाता ।
जीवन शक्ति प्रदाता।।6।।

शब्दों का आधार तुम्हीं हो,
यजुर्-साम-ऋग्वेद तुम्ही हो।
तुम्हीं त्रयी हो तुम्ही भगवती,
तुम्ही वार्ता, तुम्ही सती हो।
तुम्ही ज्ञान माँ तुम ही विद्या,
कर्म तुम्ही फलदाता।
जीवन शक्ति प्रदाता।।7।।

समझ सके तत्वों का सार,
तुम वह मेधाशक्ति अपार।
भवसागर से पार उतारे,
उस नौका का तुम्ही अधार।
मोहमुक्त आसक्तिमुक्त हो,
तुम ही गौरी माता।
जीवन शक्ति प्रदाता।।8।।

मैं मूरख तुमसे अनजान,
घेरे हैं दुःख-दर्द तमाम।
तेरी महिमा कैसे गाउँ,
भरा हुआ मन में अज्ञान।
मुझको अपनी शरण लगा लो,
आदि-शक्ति हे माता।
जीवन शक्ति प्रदाता।।9।।

- दीपक श्रीवास्तव