Followers

Monday, May 29, 2017

सन्त - असंत अन्तर

अन्तर सन्त असंतन कैसे ।
कमल जोंक के गुण हों जैसे ॥
दोनों ही दुख देना जानें ।
पर दुख मे अन्तर पहचानें ॥

मिले असंत तभी दुख होये ।
दुख पायें चेतनता खोये ॥
सन्त मिलें मानवता जागे ।
पीड़ा दूर दूर तक भागे ।

संतों से बिछुड़न दुख देता ।
सारी खुशियों को हर लेता ॥
लाभ -हानि सब अपनी करनी ।
कीर्ति-अकीर्ति इन्हीं की भरनी ॥

गुण-अवगुण जन सारे जानें ।
जो भाये उसको ही मानें ॥

- दीपक श्रीवास्तव 

Thursday, May 25, 2017

दुष्ट आचरण

जो केवल देखें परदोष ।
सज्जन अनहित जिनका कोष ॥
बिना प्रयोजन जो प्रतिकूल ।
पर अनहित ही जिनका मूल ॥
जो हरियश के राहु समान ।
सच्चे मन से उन्हें प्रणाम ॥

जैसे मक्खी घी में गिरकर ।
नष्ट करे निज जीवन तजकर ॥
दुष्ट बिगाड़े ऐसे काम ।
भले होय निज काम तमाम ॥

क्रोध करें जैसे यमराज ।
नाश ताप ही जिनका काज ॥
कैसे उनकी करूँ बुराई ।
जिनकी निद्रा जगत भलाई ॥

जैसे फसल नाश कर ओले ।
गल जाते जैसे हों भोले ॥
नाश हेतु जो माया जोड़ ।
देते निज शरीर तक छोड़ ॥

दुर्जन इतने बदलें भेष ।
ज्यों हज़ार मुख वाले शेष ॥
हित जिनको कण भर न भाता ।
वज्र वचन ही जिन्हें सुहाता ॥

सहस्र मुख में भरकर रोष ।
वर्णन करते जो परदोष ॥
उन्हें समझकर शेष समान ।
करता बारम्बार प्रणाम ॥

- दीपक श्रीवास्तव 

Tuesday, May 23, 2017

सन्त नमन

विधि हरि हर कवियों की वाणी ।
जिनके वर्णन मे सकुचानी ॥
किस प्रकार मैं करूँ अकिंचन ।
संतों की महिमा का चिंतन ॥

जिनका मन हरि का वरदान ।
शत्रु - मित्र सब एक समान ॥
जैसे शुभ हाथों मे फूल ।
जो समता के अनुपम मूल ॥

सन्त सरल, जग के हितकारी ।
सकल सृष्टि जिनकी आभारी ॥
सच्चे मन से करूँ प्रणाम ।
सन्त कृपा से मिलते राम ॥

- दीपक श्रीवास्तव 

Friday, May 19, 2017

सत्संग प्रप्ति

जीवन भर नर यत्न करे तो ।
बुद्धि कीर्ति समृद्धि वरे वो ॥
पाये सद्गति और विभूती ।
ये सब सत्संगति की ज्योती ॥

सत्संगति आनन्द धाम है ।
जो केवल कल्याण नाम है ॥
सारे साधन फूलों जैसे ।
सत्संगति फल मिले न कैसे ॥

सत्संगति से दुष्ट सुधरते ।
मन मे अवगुण नहीं ठहरते ॥
साधु कुसंगति में पड़ जायें ।
तब भी अवगुण ना अपनायें ॥

- दीपक श्रीवास्तव 

Friday, May 5, 2017

सत्संगति

सत्संगति मे अति आनन्द ।
शब्द नहीं क्या लिखूं छन्द ॥
जो अविरल निर्मल प्रयाग ।
विषयों की जिससे बुझे आग ॥

राम कथा है गंगधार सी ।
ज्ञानदायिनी की पुकार सी ॥
विधि - निषेध कर्मों की बानी ।
यमुनाजी की पुण्य कहानी ॥

जहाँ शिव-हरी कथा निरन्तर ।
भर देती अंतस के अन्तर ॥
जहाँ धर्म मे दृढ़ विश्वास ।
हरि का प्रतिक्षण हो आभास ॥

शुभ कर्मों से बना समाज ।
हरि का ही स्वर, हरि ही साज ॥
सत्संगति अत्यन्त सहज है ।
इससे बड़ा न कोई ध्वज है ॥

महा अलौकिक अति रमणीय ।
शुभ - फलदायी निर्वचनीय ॥
सत्संगति की सुनो कहानी ।
यह श्री हरि की अमृत बानी ॥

पाते जो सुनते निष्काम ।
धर्म अर्थ मोक्ष व काम ॥

- दीपक श्रीवास्तव 

Thursday, May 4, 2017

सन्त गुण

धरती पर पर्वत जल उपवन ।
भीतर खनिजों की है खन खन ॥
ऐसा ही संतों का जीवन ।
राम नाम मे रमा रहे मन ॥
रामचरित मणियों की ज्योती ।
सारे दोषों को हर लेती ॥
गुरु पद कमल, नयन हैं अमृत ।
जिनका जीवन पुण्यों का कृत ॥
ग्रहण करूँ चरणामृत अंजन ।
रचता रामचरित दुख भंजन ॥
सर्व गुणों की जो हैं खान ।
गुरुवर को मेरा प्रणाम ॥

संतों की महिमा विचित्र है ।
ज्यों कपास का शुभ चरित्र है ॥
नीरस जिसकी डोडी होती ।
विषयासक्ति न कण भर होती ॥
जिसका भाल सदा उज्ज्वलतम ।
संतों का ऐसा निर्मल मन ॥
ज्यों कपास मे रेशे होते ।
संतों में गुण वैसे होते ॥
सहे कष्ट परछिद्र छिपाते ।
परदोषों को सन्त छिपाते ॥

- दीपक श्रीवास्तव 

Wednesday, May 3, 2017

गुरु महिमा वन्दना

मानव तन में श्री हरि आये ।
जग मे गुरु वे ही कहलाये ॥
जिनके वचनों मे तत्व छिपा ।
अव्यक्त-व्यक्त का सत्व छिपा ॥
जो गुण-दोषों से रहें परे ।
जीवन रस से जो रहें भरे ॥
जिनके पद जीवन का प्रकाश ।
जो अन्धकार का करें नाश ॥
जो पाप कर्म को चूर करें ।
मन की मलीनता दूर करें ॥
ऐसे गुरु चरणों मे वन्दन।
जो प्रेम-ज्ञान के हैं चन्दन ॥

- दीपक श्रीवास्तव 

Tuesday, May 2, 2017

राम-धाम

जिस हृदय सदा सियराम बसे ।
जिस देह राम सिन्दूर लसे ॥
हनुमत की प्रभुता है विचित्र ।
है रोम-रोम मे राम चित्र ॥
जो चिर विशुद्ध विज्ञान नाम ।
उन राम-धाम को है प्रणाम ॥

- दीपक श्रीवास्तव 

सर्व देव वंदना

भाव शब्द रस छँदन वंदन।
अक्षर शोभे जैसे चन्दन ॥
अर्थ अनेक छुपे निष्काम
सबको बारम्बार प्रणाम ॥

जिनके कर मे कलम सुशोभित ।
गुप्त किन्तु कण कण मे बोधित ॥
शब्दाक्षर से करूँ प्रणाम ।
जय जय चित्रगुप्त भगवान ॥

जय सरस्वती हँसवाहिनी ।
नमो नमो हे ज्ञानदायिनी ॥
तेरी ही किरपा से माते ।
तुच्छ जीव मन्त्र रच पाते ॥

जय गणेश जय जय गणनायक ।
विघ्नहरण जय , जयति विनायक ॥
मातृशक्ति जय आदिशक्ति जय ।
कृपा हुई तव, हुआ भक्तिमय ॥

जिनकी कृपा बिना मानव तन
देख न पाये अपना ही मन ॥
भूत प्रेत भस्म शमशान ।
जिनसे जुड़ पायें सम्मान ।
जो अनादि शाश्वत अविराम ॥
उन चरणों मे कोटि प्रणाम ।

 -दीपक श्रीवास्तव 

Monday, May 1, 2017

हरि गुरु वंदना

जिनकी माया के वशीभूत ,
सम्पूर्ण सृष्टि औ चन्द्र सूर्य ॥
जिनकी माया से जीव जहाँ।
 भटके शरीर-अशरीर यहाँ ॥
उन हरि के चरणों मे वंदन।
अव्यक्त-व्यक्त के जो चन्दन ॥
जो नाम मात्र लेने भर से
कट जायें जग के भवबन्धन ॥
जो श्यामवर्ण ज्यों नीलकमल ।
जिनकी आँखें ज्यों लालकमल ॥
जो शयन क्षीरसागर मे करते ।
सर्व जगत का पालन करते ॥

मै तुच्छ जीव गुरु वंदन करता ।
हृदयातल से क्रंदन करता ॥
लोभ - मोह से मुझे उबारो ।
अब तो भवसागर से तारो ॥
जो कृपा होय तो नेत्र खुलें।
होवे प्रकाश तब प्रभू मिलें ॥
मै तमस रूप फिरता मारा ।
जीवन मे केवल अंधियारा ॥
अब तो मुझको अपना लो ना ।
मेरा स्वरूप दिखला दो ना ॥

- दीपक श्रीवास्तव