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Thursday, May 25, 2017

दुष्ट आचरण

जो केवल देखें परदोष ।
सज्जन अनहित जिनका कोष ॥
बिना प्रयोजन जो प्रतिकूल ।
पर अनहित ही जिनका मूल ॥
जो हरियश के राहु समान ।
सच्चे मन से उन्हें प्रणाम ॥

जैसे मक्खी घी में गिरकर ।
नष्ट करे निज जीवन तजकर ॥
दुष्ट बिगाड़े ऐसे काम ।
भले होय निज काम तमाम ॥

क्रोध करें जैसे यमराज ।
नाश ताप ही जिनका काज ॥
कैसे उनकी करूँ बुराई ।
जिनकी निद्रा जगत भलाई ॥

जैसे फसल नाश कर ओले ।
गल जाते जैसे हों भोले ॥
नाश हेतु जो माया जोड़ ।
देते निज शरीर तक छोड़ ॥

दुर्जन इतने बदलें भेष ।
ज्यों हज़ार मुख वाले शेष ॥
हित जिनको कण भर न भाता ।
वज्र वचन ही जिन्हें सुहाता ॥

सहस्र मुख में भरकर रोष ।
वर्णन करते जो परदोष ॥
उन्हें समझकर शेष समान ।
करता बारम्बार प्रणाम ॥

- दीपक श्रीवास्तव 

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