जिनकी माया के वशीभूत ,
सम्पूर्ण सृष्टि औ चन्द्र सूर्य ॥
जिनकी माया से जीव जहाँ।
भटके शरीर-अशरीर यहाँ ॥
उन हरि के चरणों मे वंदन।
अव्यक्त-व्यक्त के जो चन्दन ॥
जो नाम मात्र लेने भर से
कट जायें जग के भवबन्धन ॥
जो श्यामवर्ण ज्यों नीलकमल ।
जिनकी आँखें ज्यों लालकमल ॥
जो शयन क्षीरसागर मे करते ।
सर्व जगत का पालन करते ॥
मै तुच्छ जीव गुरु वंदन करता ।
हृदयातल से क्रंदन करता ॥
लोभ - मोह से मुझे उबारो ।
अब तो भवसागर से तारो ॥
जो कृपा होय तो नेत्र खुलें।
होवे प्रकाश तब प्रभू मिलें ॥
मै तमस रूप फिरता मारा ।
जीवन मे केवल अंधियारा ॥
अब तो मुझको अपना लो ना ।
मेरा स्वरूप दिखला दो ना ॥
- दीपक श्रीवास्तव
सम्पूर्ण सृष्टि औ चन्द्र सूर्य ॥
जिनकी माया से जीव जहाँ।
भटके शरीर-अशरीर यहाँ ॥
उन हरि के चरणों मे वंदन।
अव्यक्त-व्यक्त के जो चन्दन ॥
जो नाम मात्र लेने भर से
कट जायें जग के भवबन्धन ॥
जो श्यामवर्ण ज्यों नीलकमल ।
जिनकी आँखें ज्यों लालकमल ॥
जो शयन क्षीरसागर मे करते ।
सर्व जगत का पालन करते ॥
मै तुच्छ जीव गुरु वंदन करता ।
हृदयातल से क्रंदन करता ॥
लोभ - मोह से मुझे उबारो ।
अब तो भवसागर से तारो ॥
जो कृपा होय तो नेत्र खुलें।
होवे प्रकाश तब प्रभू मिलें ॥
मै तमस रूप फिरता मारा ।
जीवन मे केवल अंधियारा ॥
अब तो मुझको अपना लो ना ।
मेरा स्वरूप दिखला दो ना ॥
- दीपक श्रीवास्तव
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