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Wednesday, March 10, 2021

माँ गंगे

ॐ गंगाये नमः 
ॐ दिव्याये नमः 
ॐ शुद्धाये नमः 
ॐ पूर्णाये नमः 
ॐ सर्वाये नमः 

गंगे...... माँ गंगे...... 
पतितपावनी मोक्षदायिनी, पापनाशिनी गंगे ......  
गंगे...... माँ गंगे...... 

श्रीनारायण के पद-कमलों से तू प्रगटी पावन धार। 
विष्णुपदी कहलाई, तेरी पवित्रता है अपरम्पार। 
पर्वतराज हिमालय की तू बेटी जाने जग संसार। 
पापी-कामी-लोभी-दुर्जन, सबका तू करती उद्धार।।
गंगे...... माँ गंगे...... 

पाप सभी के धोती आई, थकी नहीं क्या अब तक तू ?
ममता तेरी बड़ी विकट है, आखिर नारी ही है तू। 
पुरखों-पितरों कितनों का उद्धार किया निज धारा से। 
लेकिन अपनी व्यथा न कहती,इस संसार असारा से।।
गंगे...... माँ गंगे...... 

- दीपक श्रीवास्तव

Saturday, January 23, 2021

श्रीदुर्गासप्तशती पंचम अध्याय (काव्य रूपान्तर)

श्री दुर्गासप्तशती काव्यरूप
(पंचम अध्याय)

(विनियोग मन्त्र)

ॐ अस्य श्रीउत्तरचरित्रस्य रूद्र ऋषिः, महासरस्वती देवता, अनुष्टुप् छन्दः, भीमा शक्तिः, भ्रामरी बीजम्, सूर्यस्तत्त्वम्, सामवेदः स्वरूपम्, महासरस्वतीप्रीत्यर्थे उत्तरचरित्रपाठे विनियोगः।

(ध्यान)
चक्र शंख मूसल को धारे,
घण्टा, हल व शूल तिहारे। 
कर कमलों में धनुष-बाण है,
दैत्य जनों के जीर्ण प्राण है।।

शरद-चन्द्र सी कान्ति दमकती,
सुर-नर-मुनि जन करते भक्ती। 
तीनों लोकों की आधार,
दैत्यों की तू नाशनहार।।

प्रगटी हो माँ गौरी तन से,
जपूँ निरन्तर निर्मल मन से। 
महासरस्वति नाम तिहारा,
सब तापों को हरने वाला।।

("ॐ क्लीं ऋषिरुवाच")

शुम्भ-निशुम्भ असुर थे भीषण, जिनसे सब आतंकित थे। 
जिनके बल के महागर्व से, तीनों लोक सशंकित थे।।

इन्द्रदेव को कर परास्त, तीनों लोकों का राज्य लिया। 
यज्ञभाग भी छीन लिए, ऐसे विशाल साम्राज्य किया।।

सूर्य, चन्द्रमा, यम, कुबेर, व वरुण देव का कार्य लिया। 
वायु, अग्नि के नित काजों का भी खुद ही अधिकार लिया।।

सारे सुरगण हुए पराजित, तथा घोर अपमान हुआ। 
अधिकारों से हीन हुए, विलगित अपना स्थान हुआ।।

सभी तिरस्कृत देवों ने देवी माँ का तब ध्यान किया। 
चिर-अपराजित देवी का, स्मरण किया, यशगान किया।।

जगदम्बा का किया स्मरण, जिनका देवों को वरदान। 
संकट में स्मरण मात्र से, तत्क्षण मिलता अभयदान।।


- दीपक श्रीवास्तव

Friday, July 31, 2020

ताकि जीवन हंसता-खेलता रहे

--- ताकि जीवन हंसता-खेलता रहे ---
(सर्वाधिकार सुरक्षित)

एक तालाब के किनारे एक छोटे से पौधे ने जन्म लिया। धीरे धीरे पौधा बढ़ते हुए एक पेड़ का आकार ले रहा था। एक ऐसा भी समय आया जब उस सघन एवं फलदार पेड़ की छांव में राहगीरों को बहुत सुकून मिलता था। एक बार कहीं से वृक्ष पर एक गिलोय(अमृता) की बेल चढ़ आई तथा अपने स्वभाव के अनुरूप उसमें पेड़ के औषधीय गुण भी विकसित होने लगे। अब तो पेड़ की ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी तथा लोग पेड़ पर चढ़ी गिलोय के औषधीय गुणों के लिए भी वहां आया करते। एक बार एक पक्षियों का जोड़ा आश्रय की तलाश में वहां से गुजर रहा था। पेड़ की सुंदरता देखकर पक्षी जोड़े ने वहीं अपना घोंसला बना लिया। पेड़ की खोहों में भी कुछ जीवों ने अपना घर बना लिया था। इस प्रकार पेड़ अपने-आप में एक भरा-पूरा संसार हो चुका था तथा विभिन्न लताओं, बेलों एवं जीवों की अनेक पीढ़ियां वहां पनपती एवं फलती रहीं।

एक बार पेड़ के तने पर अमरबेल की एक छोटी सी बेल लिपटती दिखाई दी। कुछ बेलें एवं जीव चाहते थे कि उसे नष्ट कर दिया जाय लेकिन सर्वसम्मति के अभाव में अमरबेल को वहां आश्रय मिल गया और उसने अपना विस्तार प्रारम्भ किया। धीरे-धीरे वह शाखों एवं पत्तियों तक पहुँचने लगी तथा पेड़ के एक हिस्से को पूरी तरह ढक लिया।  अमरबेल बहुत मजबूत हो चुकी थी जिससे दूसरी बेलों एवं जीवों का वहां रहना दूभर होने लगा था। अमरबेल के जाल पर चढ़कर अनेक शिकारी जीव पक्षियों के घोंसले तक पहुँच जाते थे। पेड़ का एक हिस्सा पूरी तरह अमरबेल के चंगुल में था। दूसरे हिस्से में अब भी जीवन पनप रहा था तथा उनमे से कुछ इसी भ्रम में थे कि उनका आश्रय सदा सुरक्षित रहेगा। लेकिन भ्रम में शिकार बेलों एवं जीवों में कभी एकमत नहीं हो सका और उनका ठिकाना सिकुड़ता गया। अब बचे-खुचे सभी जीव मिलकर अमरबेल को नष्ट करना चाहते थे किन्तु अब उनमें इतना सामर्थ्य नहीं था तथा धीरे-धीरे जीव बेघर हुए, लताएं सूख गईं। अमरबेल से बुरी तरह जकड़े पेड़ की साँसें घुट रही थीं जो अब अपने जीवन के अन्तिम दिन गिन रहा था।

हमारा राष्ट्र भी पेड़ की भाँति अनेक संस्कृतियों, विचारों, मान्यताओं एवं पीढ़ियों के लिए जीवनदायी आश्रय रहा है तथा हमने अमरबेल को पहचानने के बावजूद उसे पनपने का अवसर दिया है। पेड़ का दुर्भाग्यपूर्ण अन्त हुआ किन्तु अपने राष्ट्र में जीवन बना रहे, संस्कृतियां जीवित रहें इस हेतु अभी अवसर तो हैं किन्तु समय कम है। यदि हमने आज से भी सार्थक प्रयास प्रारम्भ किया तो यह जीवनदायी पेड़ सदा मुस्कुराता रहेगा।

- दीपक श्रीवास्तव 

Friday, July 24, 2020

जगत भिखारी बना दिया

जगत भिखारी बना दिया।

कर्मकाण्ड में उलझा-उलझा,
सुख-सम्पति की आस करे।
खाली झोली भर दे मौला,
पल-पल ये अरदास करे।
धर्म और मर्यादाओं का,
खूब तमाशा बना दिया।
जगत भिखारी बना दिया।

सकल पदारथ एहि जग माहीं,
हरि भीतर हैं बाहर नाहीं।
जानें सब पर माने नाहीं।
खुशियाँ सब बाहर से चाहीं।
अपना नाम दिखाने भर को,
साम-दाम सब लगा दिया।
जगत भिखारी बना दिया।

- दीपक श्रीवास्तव 

Sunday, May 3, 2020

फिर विलीन हो जाना है

उठा शून्य से भंगुर जीवन,
फिर जग में खोया यह तन-मन।
जाने क्यों ढूंढें अनन्त को,
जब तक है प्राणों का बन्धन।।

किसे प्रभावित करना है,
किस-किस को नाम जताना है।
ज्यों सागर में उठें बुलबुले,
फिर विलीन हो जाना है।।

सागर में लहरें अनन्त हैं,
सबका अपना छोर, अन्त है।
अनगिन हैं उठ रहे बुलबुले,
गति ऊपर को जहाँ अन्त है।।

सबकी स्थितियां विभिन्न हैं,
चंचल गति है, प्राण छिन्न हैं।
लहरों में हैं झूल रहा जग,
किन्तु भ्रमित है, सोच भिन्न है।।

ज्यों सागर जलराशि अथाह,
ढूंढे पर भी मिले न थाह।
वैसे कण-कण ब्रह्म समाहित,
निर्झर और अनन्त प्रवाह।।

धरती बांटी, सोच बंटे है,
इक दूजे को मार कटे हैं।
क्या-क्या पाना चाह रहे हैं,
साँसे भी न थाम सके हैं।।

साँसों की लय से है जीवन,
बाहर की है हवा लिए तन।
जाने ढूंढें किस अनन्त को,
शून्य नियति है, शून्य भरा मन।।

उठा शून्य से भंगुर जीवन,
फिर जग में खोया यह तन-मन।
जाने क्यों ढूंढें अनन्त को,
जब तक है प्राणों का बन्धन।।

- दीपक श्रीवास्तव 

Tuesday, April 28, 2020

श्रीदुर्गासप्तशती चतुर्थ अध्याय (काव्य रूपान्तर)

श्री दुर्गासप्तशती काव्यरूप
(चतुर्थ अध्याय)

ध्यान

जिन्हें सिद्धियों की इच्छा है,
वे जिनका करते यशगान।
देव जिन्हें घेरे रहते हैं,
सारे जिनका करते ध्यान।।
दुर्गा देवी, नाम जया है,
आभा काले मेघ समान।
श्यामल-वर्णी शत्रू दल को,
क्षण में करती भीति प्रदान।।
मस्तक पर है चन्द्र सुशोभित,
कर में धारे चक्र, कृपाण।
धारण करती शंख त्रिशूल,
भय, विघ्नों से करती त्राण।।
तीन नेत्र वाली तेजोमय,
सिंहवाहिनी का यशगान।
लोक हुए परिपूर्ण तुम्ही से,
तेरा ही हम करते ध्यान।।

("ॐ" ऋषिरुवाच)

महिषासुर के संग दैत्य सेना के माँ ने प्राण हरे।
अनुपम कृपा हुई देवी की जग के सारे त्रास टरे।।

शीश झुकाकर इन्द्र, देवजन, करते थे देवी का ध्यान।
उत्तम वचनों द्वारा माँ की ममतामयी भक्ति का गान।।

देवी की सुन्दर आभा से मन में भक्ति भाव डोले।
सभी देवता हर्षित होकर देवी की स्तुति बोले।।

कण-कण में तेरा ही नाम, हे जगदम्बे, तुम्हें प्रणाम।।

सब देवों की शक्ति तुममें,
मिलकर संग निवास करे।
सारा जग है व्याप्त तुम्ही से,
सृष्टि तुम्हीं में वास करे।
देवों ऋषियों से हो पूजित, भक्ति भाव से तुम्हें प्रणाम।।

शेषनाग भी सहस्र मुखों से,
तेरी महिमा कह न पाएं।
बह्मा, विष्णु, महादेव भी,
श्रद्धापूर्वक तुमको गायें।
तेरे अनुपम बल प्रभाव को, गाने में लघु आठों याम।।

हे कल्याणी, तुम्ही सृष्टि का,
पालन, धारण करने वाली,
तुम ही निर्भय करती जग को,
सब तापों को हरने वाली।
हे अम्बे, हे महा-चण्डिके, तुम जीवों का अंतिम धाम।।

पुण्यात्माओं के घर लक्ष्मी,
बनी पापियों में दरिद्रता।
जिनका अन्तःकरण शुद्ध है,
उनमें बुद्धिस्वरूप स्थिता।
आदि-अन्त हो, तुम ही जीवन, पथ तुम ही, माँ तुम ही धाम।।

सत्पुरुषों में श्रद्धा बनकर,
भक्ति मार्ग का देती दान।
जो कुलीन जन हैं उनको,
लज्जा बनकर देती सम्मान।
जग का पालन करने वाली, दुर्गा देवी तुम्हें प्रणाम।।

तेरे इस अचिन्त्य रूप का,
किस प्रकार मन भजन करे?
असुरों का वध करने वाला,
घोर पराक्रम मनन करे।
जीवन की सीमाएं लघुतम, तुम वर्णनातीत अविराम।।

असुरों से जो युद्धभूमि में,
तूने प्रकट चरित्र किये।
सारे अद्भुत, अमर, अलौकिक,
तीनों लोक पवित्र किये।
शब्द-छन्द में कैसे गाये, जीवन बैठा जड़ता थाम।।

तुमसे ही उत्पत्ति जगत की,
आदिशक्ति हो, जननी हो।
रजगुण, तमगुण, सत्वगुणों की,
तुम ही धारण-करणी हो।
दोषमुक्त तेरे चरितों का, कोई ना जाने आयाम।।

श्रीहरि एवं महादेव भी,
तेरा पार न जान सके।
जो तू चाहे वो जग जाने,
और न कुछ पहचान सके।
तुम ही सबकी आश्रय हो मां, तुम्ही जन्म-मुक्ति तुम धाम।।

जगत तुम्हारा अंशभूत है,
सब तुममें ही बसे हुए।
आदिभूत अव्यक्त प्रकृति हो,
परा रूप में रसे हुए।
तुम ही यज्ञों का उच्चारण, तुम्हीं मन्त्र हो तुम ही गान।

यज्ञों में जिनके उच्चारण से,
से देवों को तृप्ति मिले।
वह स्वाहा तुम ही हो माता,
कैसे तेरी भक्ति मिले?
तुमसे ही पितरों की तृप्ति, तभी स्वधा है तेरा नाम।।

दोषरहित जीतेंद्रिय मुनिजन,
सार-तत्व अभ्यास करें।
अचिन्त्यरूपा महाव्रता,
जो मुक्ति हेतु प्रयास करें।
वही परा-विद्या तुम ही हो, नाम तेरा हर क्षण अविराम।।

शब्दस्वरूपा, सामवेद का,
मां तुम ही आधार हो।
यजुर्वेद, ऋग्वेद तथा,
उदगीथ पदों का सार हो,
छह ऐश्वर्य बसे हैं तुममें, त्रयी, भगवती, तुम्हें प्रणाम।।

जग उत्पत्ती, व पालन को,
तुमने वार्ता रूप लिया।
शास्त्रों को जग समझ सके,
मेधाशक्ति का रूप लिया।
जग की पीड़ा हरने वाली, कोटि-कोटि माँ तुम्हे प्रणाम।।
 
सारे जग के पीड़ाओं की,
तुम ही नाशनहार हो।  
दुर्गम भवसागर से प्राणी,
तव किरपा से पार हो।
दुर्गतिहारिणी दुर्गे देवी, सांस सांस तेरा ही धाम।।

कहीं तेरी आसक्ति नहीं है,
तुमसे बढ़कर भक्ति नहीं है।
मुख पर है मधुरिम मुस्कान,
तुम बिन कोई तृप्ति नहीं है।
शक्ति स्वरूपा तेरे गुण हैं,  आदि अनादि अनंत अनाम।।

जगदीश्वर के वक्षस्थल में,
लक्ष्मी बनकर बसती हो।
गौरी माता रूप धरे तुम,
शिवजी का मन हरती हो।
भक्ति मुक्ति को देने वाली,  अम्बे माता तुम्हें प्रणाम।।

निर्मल शीतल चंद्र रूप है,
कांति मनोहर रवि स्वरूप है।
विस्मय क्यों ना बोध हुआ,
महिषासुर को क्रोध हुआ।
कैसे खल ने किया प्रहार,  तेरी माया तू ही जान ।।

जब भी तुमको क्रोध हुआ,
उदय कॉल शशि बोध हुआ।
तनी भौंह विकराल हुआ,
मुखमण्डल भी लाल हुआ।
फिर भी अति कल्याणमयी हो, आदि-अन्त तक तेरा नाम।।

यम की जो क्रोधाग्नि दिखे जग,
जीवित कब रह सकता है?
तेरा मुख विकराल देखकर,
प्राण ठहर कब सकता है?
फिर भी महिषासुर जीवित था,  तव किरपा का ही परिणाम।।

हे परमात्मा स्वरुपे जननी,
तू प्रसन्न जग जीवन पाए।
क्षण भर को जो कुपित हुई तो,
कुल का सर्वनाश हो जाए।
कैसे तुझे प्रसन्न करूँ माँ,  पूजन विधि से हूं अनजान।।

तव महिमा कण भर न जाने,
जन्म भले कितने अनंत हों।
दैत्य दनुज की अतुलित सेना,
का क्षण भर में एक अंत हो।
सारा जग अनुभव से जाने, तव प्रकोप का चिर परिणाम।।

सदा अभ्युदय देने वाली,
जो पाए तव दृष्टि महान।
उनका धर्म शिथिल ना होवे,
सदा मिले धन-यश-सम्मान,
स्त्री-पुत्रों-भृत्यों के संग, जीवन धन्य होय अविराम।।

तेरी ही कृपा से प्राणी,
सदा धर्म अनुकूल रहे।
प्राणों से भी आगे जीवन,
तव चरणों की धूल रहे।
प्रेममयी भक्ति दे अम्बे, चाहे जो भी दे परिणाम।।

हे शुभ धर्म प्रदायिनि माते,
कर्म शुभाशुभ तुमसे आते। 
उन कर्मों के ही प्रभाव से,
प्राणी स्वर्गलोक को जाते। 
मनवांछित फल देने वाली, मेरी जन्म-मुक्ति ले थाम।।

जो तेरा स्मरण करे है,
उसके भय हर लेती हो। 
चिन्तन करने पर हे माते,
बुद्धि शुभाशुभ देती हो। 
दुःख-दरिद्रता हरने वाली, जड़-चेतन सब तेरा नाम।।

दैत्य भले ही पाप कमाएं,
वे भी स्वर्गलोक को जाएँ। 
उनके वध से जग सुख पाए,
इसीलिए तू शस्त्र उठाये। 
ममतामयि, करुणामयि माते, जड़-चेतन सब तेरे नाम।।

क्यों तू शस्त्र प्रहार करे जब,
दृष्टि भस्म कर सकती है। 
शस्त्र-वार से हो पवित्र,
रिपुदल की भी तो मुक्ति है। 
ऐसा जो उत्तम विचार, फिर भक्ति का क्या हो परिणाम।।

तव त्रिशूल की दीप्त प्रभा से,
चाहे जीवन लड़ियाँ टूटी। 
खड्ग के महा-तेजपुंज से,
असुरों की आँखें न फूटी। 
वे तेरा दर्शन कर पाए, मोहक छवि अनन्त अविराम।।

शील तुम्हारा दुराचारियों 
का बर्ताव सुधारे ऐसा। 
जो अचिन्त्य है, अतुलनीय है,
रूप तेरा मनमोहक ऐसा। 
रिपुओं को भी क्षमादान देती हो तुमको कोटि प्रणाम।।

तेरा बल व महापराक्रम,
उन दैत्यों का नाश करे। 
जो देवों का प्रबल पराक्रम,
करके नष्ट दुःहास करें। 
तेरी तुलना सिर्फ तुम्हीं से, दिग-दिगन्त में आठों याम।।

हे वरदायिनि, अतीव सुन्दर,
महा-अलौकिक तेरा रूप। 
शत्रु-जगत को भय दिखलाता,
और कहाँ है ऐसा रूप। 
उर में कृपा, युद्ध में निष्ठुर, लोकों में बस तेरा काम।।

शत्रु-नाश करके हे माते,
तूने रक्षा की त्रिलोक की। 
युद्धभूमि में मार शत्रु को,
उन्हें राह दी स्वर्गलोक की। 
दैत्यों से भयमुक्त कर दिया, शक्तिस्वरूपा तुम्हें प्रणाम।।

हम बालक हैं, आप शूल से,
माता सदा हमें रक्षा दें।
महा-अम्बिके खड्ग-धनुष से,
घण्टे की ध्वनि रक्षा दें। 
मेरा चिन्तन-मनन आप हों, आप धर्म-कर्म व धाम।।

हे चण्डिके, पूर्व-पश्चिम व,
दक्षिण दिशि में रक्षा दें। 
हे ईश्वरी, त्रिशूल घुमाकर,
उत्तर में भी रक्षा दें। 
सुन्दर और भयंकर रूपों द्वारा रक्षा दें अविराम।।

हे अम्बिका आपके हाथों,
में जो शोभित शूल गदा। 
खड्ग आदि जो शस्त्र सुशोभित,
उनसे दुर्जन कौन बचा?
रक्षा सदा करें जगती की, याचक हम, विनती है काम।। 

इस प्रकार सारे देवों ने जगमाता की स्तुति की।
नंदन-वन के दिव्य पुष्प, चन्दन-सुगंध से भक्ति की।।

दीप्त धूप की दिव्य गंध अरु भक्ति प्रवाह अनन्त बहे। 
देवी ने होकर प्रसन्न , देवों से अनुपम शब्द कहे।।

हे देवों, तुम सबके मन में जो कुछ भी अभिलाषा है। 
बिना कोई संकोच कहो, मुझसे जो भी कुछ आशा है।।

सभी देवता बोले - माता ! सारी इच्छा पूर्ण हुई। 
दिव्य-दरश व महिषासुर वध से इच्छा सम्पूर्ण हुई।।

फिर भी माता महेश्वरी, वरदान अगर देना चाहें। 
हो जब भी स्मरण आपका, खुलें दरश की तब राहें।।

तेरे पावन दर्शन से, हम सब के संकट दूर रहें। 
तन-मन-चेतन सदा आपकी भक्ति से भरपूर रहें।।

हे प्रसन्नमुख मातु अम्बिके, जो नर तेरी भक्ति करे। 
इन चरितों के पाठों द्वारा सदा तेरी स्तुति करे।।

सदा उसे समृद्धि तथा यश-वैभव-धन का साथ रहे। 
इन पावन सत्कार्य हेतु, तेरा नित हम पर हाथ रहे।।

देवलोक व जगती के कल्याण हेतु यह यत्न किया। 
देवों ने माँ भद्रकालि देवी को यथा प्रसन्न किया।।

देवी कहकर यथा-अस्तु क्षण-भर में अंतर्ध्यान हुईं। 
देवों से प्रकटी देवी लोकों की पावन धाम हुईं।।

माता की यह अनुपम गाथा, पावन, पूज्य महान है। 
चर से अचर तथा जड़-चेतन यह सबकी पहचान है।।

देवों की उपकारी देवी, असुरों से जग तार दिया। 
शुम्भ-निशुम्भ तथा दैत्यों के वध से जग उद्धार किया।।

गौरी देवी के शरीर से जिस प्रकार वे प्रकट हुईं। 
भक्ति-भाव से सुनें सिद्धियाँ जिस गाथा से निकट हुईं।।

श्री मार्कण्डेय पुराण अन्तर्गत सावर्णिक मन्वन्तर में वर्णित देवी माहात्म्य का चतुर्थ अध्याय काव्य रूपान्तर समाप्त।

- दीपक श्रीवास्तव

Saturday, April 25, 2020

श्रीदुर्गासप्तशती तृतीय अध्याय (काव्य रूपान्तर)

श्री दुर्गासप्तशती काव्यरूप
(तृतीय अध्याय)

ध्यान 

श्री जगदम्बा के अंगों में,
दिव्य तेज है, परम शान्ति है।
उदयकाल के अनगिन सूर्यों,
के समान अनुपम सुकान्ति है।।
लाल रेशमी साड़ी पहने,
तथा गले में मुण्डमाल है।
रक्त तथा चन्दन लेपन से,
दोनों स्तन तीक्ष्ण लाल हैं।।
कर-कमलों की मुद्राएं वर,
विद्या, जपमालिका, अभय हैं।
तीन नेत्र से शोभित मुख से,
भव के मिट जाते सब भय हैं।।
मस्तक पर चन्द्रमा सुशोभित,
साथ रत्नमय मुकुट विशाल।
कमलासन पर तुम्हीं विराजित,
तुम्हें भक्ति से करूँ प्रणाम।।

("ॐ" ऋषिरुवाच)

देख दैत्य सेना की हालत, चिक्षुर को अति क्रोध हुआ।
देवी के मंगल स्वरुप का, पर उसको ना बोध हुआ।।

मातु अम्बिका देवी पर चिक्षुर बाणों से वार करे।
जैसे बादल मेरुगिरी की चोटी पर जलधार करे।।

देवी ने उसके बाणों को अनायास ही काट दिया।
धनुष तथा ऊँचा ध्वज उसका, क्षण-भर में ही काट दिया।।

चिक्षुर के घोड़े व सारथि, वीरगती को प्राप्त हुए।
चिक्षुर के अंगों में देवी बाण-सरासन व्याप्त हुए।।

असुर भयंकर क्रोधित होकर ढाल और तलवार लिया।
सिंहराज के मस्तक पर उसने पुरजोर प्रहार किया।।

फिर देवी की वाम भुजा में बड़े वेग से वार किया।
टूट गई तलवार दैत्य की, क्षण में विफल प्रहार हुआ।।

नेत्र क्रोध से लाल हुए, हाथों में शूल उठाया था।
महाभगवती भद्रकालि पर उसने शूल चलाया था।।

प्रबल तेजमय शूल गगन में अति प्रचण्ड उद्भासित था।
नभ से गिरते हुए सूर्यमण्डल की भांति प्रकाशित था।।

देख शूल का वार, देवि ने अपना शूल चलाया था।
अनगिन टुकड़े हुए शूल के जिसको दैत्य पठाया था।।

किन्तु शूल था रुका नहीं, सम्मुख उसके अब कौन हुआ।
चिक्षुर टुकड़े-टुकड़े होकर क्षण भर में ही मौन हुआ।।

महिषासुर के सेनापति चिक्षुर की मृत्यु हुई तत्काल।
चामर हाथी पर आया था डोल रहा उसका भी काल।।

देवों का पीड़क देवी पर दुर्धर शक्ति प्रहार किया।
जगदम्बा ने देख शक्ति को तब भीषण हुंकार किया।।

उच्च नाद से आहत होकर विफल शक्ति का वार हुआ।
क्रोधित चामर शूल चलाया, पर वह भी बेकार हुआ।।

देवी के बाणों ने काट दिया था अरि का शूल प्रबल।
सिंहराज उछले हाथी पर, राक्षस सेना हुई विकल।।

देवी के वाहन ने खल से भीषण बाहूयुद्ध किया।
हाथी से धरती पर पहुंचे, इक दूजे को क्रुद्ध किया।।

चामर व देवी वाहन का युद्ध बड़ा ही भीषण था।
दोनों के भीषण गर्जन से गूँज रहा समरांगण था।।

तभी सिंह ने प्रबल वेग से नभ की ओर उछाल भरा।
पंजों से चामर का मस्तक अलग किया, धड़ वहीं गिरा।।

देवी माता के सम्मुख आया उदग्र बलवान था।
शिला और वृक्षों से निकला रण में उसका प्राण था।।

देवी के मुक्कों से आतंकित कराल विकराल हुआ।
दांतों व थप्पड़ से ही जीवन का अंतिम काल हुआ।।

उद्धत पर देवी ने अपनी प्रबल गदा का वार किया।
अंगों के हो गए चीथड़े, उसका भी संहार किया।।

भिन्दिपाल से बाष्कल मारा, बाणों का संधान किया।
ताम्र तथा अन्धक के तन से ऐसे विलगित प्राण किया।।

तीन नेत्र वाली देवी ने फिर त्रिशूल का वार किया।
उग्रवीर्य, उग्रास्य, महाहनु का जीवन संहार किया।।

अब विडाल सम्मुख था, देवी ने तलवार उठाया था।
उसके मस्तक पर प्रहार कर धड़ से काट गिराया था।।

दुर्धर व दुर्मुख को माता ने बाणों से बेध दिया।
एक साथ ही दोनों को यमलोकपुरी में भेज दिया।।

सेना का संहार देखकर महिषासुर भी विकल हुआ।
फिर भैंसे का रूप धरा, देवी-गण पर वह प्रबल हुआ।।

देवी के अनगिनत गणों पर थूथन से फिर वार किया।
कभी खुरों से, कभी पूंछ से उसने प्रबल प्रहार किया।।

किन्हीं गणों को सींगों से उसने विदीर्ण कर डाला था।
सिंहनाद व् प्रबल वेग से उसने भय को पाला था।।

महिषासुर ने किन्हीं गणों को चक्कर देकर गिरा दिया।
कितनों पर निःश्वास वायु का झोंका उसने फिरा दिया।।

माता के अनगिनत गणों की सेना उससे आहत थी।
महिषासुर के वारों से लेकिन मिलती ना राहत थी।।

सिंहभवानी माता के वाहन पर प्रबल प्रहार हुआ।
जगदम्बा को क्रोध हुआ, जब सिंहराज पर वार हुआ।।

खुर से खोद रहा धरती को, लगता जैसे काल था।
सींगों से ऊँचे पर्वत भी फेंक रहा विकराल था।।

छुब्ध हुई धरती उसके चक्कर से फटने वाली थी।
लगता था कि आयु सभी जीवों की घटने वाली थी।।

महिषासुर की दुम से टकराकर सागर बेहाल हुआ।
चला डुबोने धरती को उसका स्वरुप विकराल हुआ।।

महादैत्य के सींगों से बादल टुकड़ों में बिखर गए।
साँसों की दुर्दम्य वायु से सारे पर्वत सिहर गए।।

नभ से गिरती पर्वतमालाओं से सारे भयक्रान्त थे।
प्रबल वायु के चक्रवात थे, जीवन के प्रति भ्रान्त थे।।

मातु चण्डिका ने महिषासुर का वध मन में पाला था।
पाश फेंककर महाअसुर को बन्धन में कर डाला था।।

महायुद्ध में बंध जाने पर महिष रूप को त्याग दिया।
तत्क्षण सिंह रूप में आकर उसने भीषण नाद किया।।

जगदम्बा माता ने ज्योंही उस पर खड्ग उठाया था।
पुरुष रूप में खड्ग धरे वह अपना रूप दिखाया था।।

देवी ने अविलम्ब दैत्य को बाणवृष्टि से बेध दिया।
ढाल और तलवार असुर का कई जगह से छेद दिया।।

महिषासुर भी बड़ा छली था, रूप बदलता जाता था।
अब विशाल गज रूप लिए वह युद्ध हेतु गुर्राता था।।

देवी के वाहन को खल ने सूंड उठाकर पकड़ लिया।
खींच-खींच कर गर्जन करता सिंहराज को जकड़ लिया।।

देवी ने तलवार उठाकर सूंड असुर का काट दिया।
महादैत्य भैंसा बन कर फिर अपना रूप विराट किया।।

हाहाकार मचा जग में, भूलोक अतल सब व्याकुल थे।
माता से थी आस बंधी जीवन रक्षा को आकुल थे।।

क्रोध भरी जगमातु चण्डिका ने उत्तम मधुपान किया।
नेत्र लाल कर अट्टहास का गर्जन स्वर में नाद किया।।

बल व महापराक्रम के मद में महिषासुर मत्त हुआ।
सींगों से चण्डी देवी पर तुंग फेंक उन्मत्त हुआ।।

देवी बाणों की वर्षा से पर्वत चकनाचूर हुआ।
बोल गए लड़खड़ा, देवि मुख लाल मधू से पूर हुआ।।

देवी बोलीं, मूढ़! ठहर जा, जब तक मै मधु पीती हूँ।
तब तक तू गर्जन कर ले फिर प्राण तेरा हर लेती हूँ।।

क्षण-भर जीवन शेष बचा है, अब तो मृत्यु सुनिश्चित है।
देवों का गर्जन तेरा वध हो जाने पर निश्चित है।।

यों कहकर देवी उछलीं, अब महादैत्य पर चढ़ी प्रबल।
चरणकमल से दबा, कण्ठ में शूल वार से किया विकल।।

महिषासुर दबकर भी बदले रूप निकलने वाला था।
पर जगजननी के प्रभाव से कब तक बचने वाला था।।

आधा तन ही निकल सका, तब तक देवी ने रोक दिया।
आधा होने पर भी खल ने पूरी ताकत झोंक दिया।।

देवी ने तलवार उठाई, भीषण जो लपलपा रही।
धार भयानक थी जो तीनों लोकों को कंपकंपा रही।।

महिषासुर पर वार किया, क्षण-भर में गर्दन काट दिया।
महादैत्य के भीषण तन को दो टुकड़ों में बांट दिया।।

दैत्यों की सेना में फिर तो भीषण हाहाकार हुआ।
भाग गई सेना, देवों का महास्वप्न साकार हुआ।।

देवों तथा महाऋषियों ने देवी का यशगान किया।
नृत्य अप्सराओं के गूंजे, गन्धर्वों ने गान किया।।

श्री मार्कण्डेय पुराण अन्तर्गत सावर्णिक मन्वन्तर में वर्णित देवी माहात्म्य का तृतीय अध्याय काव्य रूपान्तर समाप्त।

- दीपक श्रीवास्तव 

Thursday, April 2, 2020

श्रीदुर्गासप्तशती द्वितीय अध्याय (काव्य रूपान्तर)

श्री दुर्गासप्तशती काव्यरूप
(द्वितीय अध्याय)

विनियोग मन्त्र
ॐ मध्यम चरित्रस्य विष्णुर्ऋषिर्महालक्ष्मीर्देवता, उष्णिक् छन्दः शाकम्भरी शक्तिः, दुर्गा बीजं, वायुस्तत्त्वं, यजुर्वेदः स्वरूपं, श्री महालक्ष्मीप्रीत्यर्थं मध्यमचरित्रजपे विनियोगः॥

ध्यान
कमलासन पर तुम्ही विराजित,
महिषासुरमर्दिनी भवानी।
भक्ति महालक्ष्मी की मिलकर,
करें देवता, ऋषि,मुनि ज्ञानी।।
कर-कमलों में फरसा, घण्टा,
अक्षमाल, धनु, बज्र, कुण्डिका।
गदा, बाण, मधुपात्र दण्ड है,
खड्ग, ढाल व शूल, चक्र है।
पद्म, शंख अरु पाश धारती,
शक्ति स्वरूपा तेरी आरती।।

("ॐ ह्रीं" ऋषिरुवाच)

पूर्वकाल में देवासुर में, सौ वर्षों तक युद्ध हुआ।
असुरों का स्वामी महिषासुर, देवजनों से क्रुद्ध हुआ।।

समरांगण में देवजनों की, महायुद्ध में हार हुई।
महिषासुर अधिपति बन बैठा, इन्द्रदेव की हार हुई।।

ब्रह्मदेव के पास देवता, गए हार का दुःख लेकर।
जहाँ हरी-हर दोनों बैठे, पहुंचे वे विनती लेकर।।

महिषासुर का प्रबल पराक्रम, देवेश्वर को समझाया।
कैसे हुए पराजित सुरगण, दीनभाव से बतलाया।।

बोले महाविकट महिषासुर, अधिपति बनकर ऐंठा है।
सूर्य, इन्द्र व देवजनों का यज्ञभाग ले बैठा है।।

देवों का अधिकार गया, वे स्वर्गलोक से भागे हैं।
तथा मनुज की भांति विचरते, भू से आश्रय मांगे हैं।।

सारी घटना सत्य बताई, अब तेरे शरणागत हैं।
तुमसे ही बस आस बंधी है, हम तेरे ही साधक हैं।।

सुन देवों के करुण वचन, हरिहर को भीषण क्रोध हुआ।
भौंह तनी, मुख वक्र हुआ, दोनों को अनुपम रोष हुआ।।

चक्रपाणि श्रीहरि के मुख से, निकला तेज महाविकराल।
शिव समेत देवों के तन से, प्रबल तेज की निकली ज्वाल।।

तेजपुंज सब एक हुए, पर्वत सी ज्वाला बनी महान।
दिग-दिगन्त में व्याप्त हो गई, लौटाने देवों का मान।।

देवजनों से प्रगटी ज्वाला, कोटि सूर्य से भी विकराल,
फिर वह नारी रूप हुई, जैसे असुरों का भीषण काल।।

उनका अपना ही प्रकाश था, व्याप्त तीन लोकों में थी।
उन सी सुन्दर, धीर-वीरता, नहीं स्वप्नलोकों में थी।।

देवी का मुख प्रकट हुआ, शिवजी के अनुपम तेज से।
केश हुए उत्पन्न देवि के, मृत्युराज यमदेव से।।

जगदीश्वर के परम तेज से, माता के कर-कमल बने।
चन्द्रदेव से स्तन निर्मित, भू से देवि नितम्ब बने।।

इन्द्र तेज से कटिप्रदेश, ब्रह्मा से दोनों चरण हुए।
वरुणदेव से जंघा-पिण्डलि, ऊंगलीकारक सूर्य हुए।।

वसु से हाथों की उंगलियां, भौंहे सन्ध्यादेवी से।
दन्त प्रजापति की ज्वाला से, नयन बने थे अग्नी से।।

वायुतेज से कर्ण बने, देवी की नाक कुबेर से।
अतिकल्याणमयी माँ प्रकटीं, सब देवों के तेज से।।

देवी दर्शन पाकर सुरगण, मन में अति प्रसन्न हुए।
जो महिषासुर से पीड़ित थे, माँ को पाकर धन्य हुए।।

पिनाकधारी भोले शंकर, शूल दिए इक माता को।
जगदीश्वर ने चक्र दिया, देवी रूपा जग त्राता को।।

वरुण देव से शंख, अग्नि से मिली दिव्य इक शक्ति प्रबल,
वायुदेव ने धनुष तथा बाणों से उनको किया सबल।।

देवराज से बज्र मिला, ऐरावत से घण्टा पाया।
काल दण्ड से दण्ड, वरुण से पाश, देवि ने अपनाया।।

दिव्य स्फटिक हार एक, माता को मिला प्रजापति से,
ब्रह्मदेव से मिला कमण्डल, सबने दिया स्वयं मति से।।

देवी के निज रोमकूप में, सूर्य देव ने तेज भरा।
कालदेव ने ढाल और तलवार देवि के हाथ धरा।।

क्षीर सिन्धु ने देवी को दो दिव्य वस्त्र उपहार दिए।
चूड़ामणि, दो कुण्डल, उज्जवल अर्धचन्द्र व हार दिए।।

तथा दिए केयूर, कड़े, हंसली नूपूर सुशोभित थी।
उँगलियों के लिए अंगूठी, जो रत्नों से शोभित थी।।

निर्मल फरसा, कवच, अस्त्र, विश्वकर्मा ने उपहार दिए।
कभी न कुम्हलाने वाले, कुछ कमल पुष्प के हार दिए।।

देवी को गिरिराज हिमालय, भांति-भांति के रत्न दिए।
दिव्य सवारी हेतु सिंह, माता को एक प्रचण्ड दिए।।
 
कोषाध्यक्ष कुबेर देव ने, शहद भरा इक पात्र दिया।
पृथ्वीधारक शेषनाग ने, नागमणी का हार दिया।।

देवों ने अपने-अपने कुछ अंश देवि को दान किये।
आभूषण व् अस्त्र-शस्त्र से माता का सम्मान किये।।

तब देवी ने नाद किया, गर्जन था अट्टाहास प्रबल।
तीनों लोकों में कम्पन, भू-लोक, अतल सब हुए विकल।।

बड़े जोर की प्रतिध्वनि गूंजी, हलचल उठी महाविकराल।
धरती डोली, पर्वत कांपे, सागर का भी आया काल।।

देवजनों ने प्रसन्नता से माता का जयघोष किया।
ऋषियों ने भी भक्ति-भाव से देवी का उदघोष किया।।

देख त्रिलोकी क्षोभग्रस्त, दैत्यों ने सेनाह्वान किया।
हाथों में हथियार कवच ले, युद्ध हेतु प्रस्थान किया।।

चकित हुआ महिषासुर, यह सब देख उसे भी क्रोध हुआ।
बोला क्या हो रहा यहाँ, क्यों ना अब तक यह बोध हुआ।।

सारे असुरों को लेकर वह सिंहनाद की ओर चला।
जहाँ मातु की अनुपम ज्वाला, उसी ओर वह दौड़ चला।।

देवी की दैदीप्य प्रभा से, तीनों लोक प्रकाशित थे।
धरती तथा गगनमण्डल सब उनसे ही आच्छादित थे।।

धरती दबती चली जा रही थी, चरणों के भार से।
नभमण्डल में रेखा खिंचती, मुकुट शिखर की धार से।।

सातों पातालों को छुब्ध किया धनु की टंकार ने।
सहस्त्र भुजाओं वाली माता, प्रगटीं जग को तारने।।

असुरों से अब युद्ध छिड़ा, अस्त्रों-शस्त्रों के वार प्रबल।
सभी दिशाएँ उद्भासित थीं, नभ-जल-थल सब हुए विकल।।

महिषासुर का सेनानायक, चिक्षुर अति विकराल था।
देवी के हाथों में डोल रहा उसका भी काल था।।

सेना चतुरंगिणी लिए, चामर भी वहां चला आया।
देवी को ललकार रहा, जैसे दिनकर पर लघु छाया।।

साठ हजार रथी आये, जिनका नायक उदग्र बलवान।
एक कोटि रथियों के संग महाहनु दैत्य दिखाता शान।।

महादैत्य असिलोमा जिसके रोयें तलवारों से थे।
पंचकोटि सैनिक थे जिसके, सारे पहुंचे रथ से थे।।

साठ लाख रथियों को लेकर बाष्कल भी पहुंचा रण में।
जहाँ देवि की भीषण ज्वाला, सृष्टि समाती थी कण में।।

परिवारित की सेना में, सैनिक, घोड़े व हाथी थे।
एक कोटि रथ महाभयानक युद्धभूमि के साथी थे।।

पांच अरब रथियों की सेना के संग डटा बिडाल था।
शक्ति स्वरूपा माता के हाथों में उसका काल था।।

महिषासुर भी सेना लेकर, युद्धभूमि में हुआ खड़ा।
रथ, हाथी व घोड़ों से वह समरांगण में हुआ अड़ा।।

तोमर, भिन्दिपाल, मूसल व परशु, खड्ग के वार हुए।
दैत्यों द्वारा माता पर पट्टिश व शक्ति प्रहार हुए।।

 कुछ असुरों ने पाश चलाया, कुछ ने शक्ति प्रहार किया।
शक्ति स्वरूपा जननी पर तलवारों से भी वार किया।।

क्रोध किया तब देवी ने, माया का अद्भुत खेल रचा।
उनके अस्त्रों-शस्त्रों से सब शस्त्र कटे कुछ नहीं बचा।।

देवी के मुख पर थकान का रंचमात्र भी चिन्ह न था।
देव, ऋषि सब स्तुति करते, भाव किसी का भिन्न न था।।

महाभगवती असुरों पर आयुध की वर्षा करती थीं।
सिंहवाहिनी माता रण में काल समान विचरती थीं।।

सिंह विचरता था रण में गर्दन के बाल हिलाता था।
लगता था जैसे वन में वह दावानल फैलाता था।।

मातु अम्बिका देवी के गण, रण में भीषण विकट हुए ।
जो निःश्वास मातु ने छोड़े, उनसे ही वे प्रकट हुए।।

हाथों में वे परशु खड्ग, व भिंदीपाल पकड़ते थे।
अस्त्र-शस्त्र व् पट्टिश से असुरों को खूब रगड़ते थे।।

उनमें माँ की शक्ति समाई, शत्रु नाश कर जाते थे।
विजय शंख व नाद-नगाड़े, रण में खूब बजाते थे।।

युद्धभूमि में युद्ध नहीं, संग्राम महोत्सव फलता था।
शंखनाद के संग मृदंग, असुरों के दल को खलता था।।

देवी ने त्रिशूल, गदा व खड्ग, शक्ति व फरसा से।
कई महादैत्यों को मारा अस्त्र-शस्त्र की वर्षा से।।

फिर घंटे का नाद किया, जो भीषण महाभयंकर था।
मूर्च्छित होकर मरे दैत्य, यह प्रलय नहीं प्रलयंकर था।।

बहुतेरों को बाँध पाश से, धरती पर ही दिया घसीट।
दो-दो टुकड़ों में विभक्त कुछ लेकिन सत्य न देखें ढीठ।।

बहुतों को थी गदा लगी, वे रण में सोये जाते थे।
मूसल से आहत होकर कुछ रक्त वमन कर जाते थे।

कुछ की छाती फटी शूल से, पृथ्वी पर वे ढेर हुए।
बाणवृष्टि से कमर कटी व पृथक देह से पैर हुए।।

दैत्य देवपीड़क गण जो बाजों की तरह झपटते थे।
बाँह छिन्न, तन जीर्ण हुए, मस्तक भी क्षण में कटते थे।।

महादैत्य कुछ जाँघे कट जाने से भू पर गिरे मिले।
कितनों के आधे शरीर तो ढूंढे पर भी नहीं मिले।।

देवी ने कुछ असुरों का तन आधा करके चीर दिया।
एक बांह, इक नेत्र बचा व एक पैर का पीर दिया।।

कितनों के सर कटे हुए लेकिन तन से उठ जाते थे।
हथियारों को हाथ लिए वे युद्ध हेतु मंडराते थे।।

कुछ कबन्ध समरांगण में बाजों की लय पर नाच रहे।
माता के हाथों से अपना काल स्वयं ही बांच रहे।।

ऋष्टि, खड्ग व शक्ति लिए सिरहीन धड़ों का रेला था।
युद्ध नहीं देवी ने उनके साथ प्रलय को खेला था।।

ठहरो कहके महादैत्य देवी को थे ललकार रहे।
माता के सब अस्त्र-शस्त्र मिल असुरों को संहार रहे।।

चलना-फिरना हुआ असम्भव, बस लाशें ही लाशें थीं।
हाथी, घोड़े व असुरों के शव की फैली बासें थीं।।

रक्तपात ऐसा था रण में, नदी खून की बहती थी।
क्षण में नष्ट आसुरी सेना, भार भूमि ही सहती थी।।

जैसे घास-काठ की ढेरी, अग्नि भस्म कर जाती है।
वैसे माँ की विजय पताका, दिग-दिगन्त लहराती है।।

सिंह हिलाकर निज अयाल, भीषणतम गर्जन करता था।
मानो असुरों के तन से चुनकर प्राणों को हरता था।।

देवी ने निज गण समेत असुरों से ऐसा युद्ध किया।
तुष्ट हुए सब देव-ऋषि गण, धरती को भी मुक्त किया।।

श्री मार्कण्डेय पुराण अन्तर्गत सावर्णिक मन्वन्तर में वर्णित देवी माहात्म्य का द्वितीय अध्याय काव्य रूपान्तर समाप्त।

- दीपक श्रीवास्तव 

Thursday, March 26, 2020

श्रीदुर्गासप्तशती प्रथम अध्याय (काव्य रूपान्तर)

श्री दुर्गासप्तशती काव्यरूप
(प्रथम अध्याय)

विनियोग मन्त्र
ॐ प्रथमचरित्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, महाकाली देवता, गायत्री छन्दः, नंदा शक्तिः, रक्तदन्तिका बीजम྄ अग्निस्तत्त्वम྄, ऋग्वेदः स्वरूपम྄, श्रीमहाकालीप्रीत्यर्थे प्रथम चरित्र जपे विनियोगः।

ध्यान
श्री हरि थे जब शयनसेज पर,
मधु-कैटभ से त्रासित धरणी।
ब्रह्मदेव ने ध्यान किया था,
तेरा ही माँ, हे शुभ-करणी।।
तूने दस हाथों में माता,
खड्ग,चक्र, मस्तक हैं धारे,
गदा,बाण, अरु शूल, भुशुण्डी,
परिघ, धनुष हैं शंख तिहारे।।
तीन नेत्र वाली ज्योतिर्मय,
अंगों में अनुपम सुकान्ति है,
दिव्य तेरे आभूषण माता,
नीलमणी सी परम-शान्ति है।।
हे दशमुख दस चरणों वाली,
मम वन्दन स्वीकार करो।।
ध्यान धरूँ तेरा ही माता,
सारे जग के त्रास हरो।।

ॐ नमश्चण्डिकायै:

सूर्य पुत्र सावर्णि जगत में, जो अष्टम मनु कहलाये।
भक्ति-भाव से सुनें सभी जन, वे जग में कैसे आये।।

कृपा महामाया की पाकर, मन्वन्तर के नाथ हुए।
जिसे प्राप्त पद-धूलि देवि की, वे भवसागर पार हुए।।

स्वारोचिष मन्वन्तर में, इक राजा परम प्रतापी थे।
चैत्र वंश में प्रकट हुए, था नाम सुरथ, अति न्यायी थे।।

जीवन में था धर्म, प्रजा की सेवा पुत्रों के समान।
कोलाविध्वंसी क्षत्रिय लेकिन, उनके शत्रु हुए बलवान।।

दोनों युद्धभूमि में आये, हुआ महाभीषण संग्राम।
राजा सुरथ परास्त हुए, यद्यपि सेना थी अति-बलवान ।।

कीर्ति गई, अधिकार गया, तब राजा अपने नगर चले।
किन्तु शत्रु पीछा न छोड़े, इधर चले या उधर चले।।

राजा का बल क्षीण हुआ, तब मन्त्री दुष्ट प्रभावी थे।
सेना और खजाने को, हथिया लेने को हावी थे।।

भारी मन से सुरथ एक दिन, जनता से मुंह मोड़ चले।
अपने घोड़े पर सवार हो, वे जंगल की ओर चले।।

वहां विप्रवर मेधा मुनि का आश्रम एक पवित्र मिला।
जहाँ शान्ति अनुपम थी,हर इक हिंसक हिंसामुक्त मिला।।

मुनि के शिष्य जहाँ बहुतेरे, वन को शोभामान करें।
पशु-पक्षी,मृग-सिंह,सभी मिलकर भू का सम्मान करें।।

मुनि ने पावन आश्रम में, नृप का अनुपम सत्कार किया।
राजा ने कुछ कालखण्ड तक, वन में वहीँ विहार किया।।

किन्तु जीव जब तक जग में है, तब तक चिन्तामुक्त नहीं।
मोहपाश में बंधी चेतना, जो भीतर थी सुप्त कहीं।।

ममता जाग उठी थी मन में, प्रबल वेदना जागी थी।
उस यश-वैभव की चिन्ता थी, जो जीवन से भागी थी।।

कैसी होगी प्रजा हमारी, क्या सुख भी वैसा होगा?
पुरखों ने जिनकी सेवा की, वह जीवन कैसा होगा??

दुष्ट भृत्यगण अब भी क्या, उनकी रक्षा करते होंगे?
कैसा होगा राजधर्म, क्या उचित न्याय होते होंगे??

शूरवीर गजराज हमारे, जाने अब कैसे होंगे।
जाने कैसे कष्ट निरन्तर, पल-पल भोग रहे होंगे।।

जो जन मेरे कृपापात्र थे, पीछे-पीछे चलते थे।
धन-भोजन के लिए सदा जो, मुझको देखा करते थे।।

प्रजालाभ के लिए कष्ट से संचित धन का क्या होगा?
राजकोष के खाली होने से जनता का क्या होगा??

राजा सुरथ विचारमग्न थे, मस्तक पर चिन्ता रेखा।
तभी विप्रवर के आश्रम में, व्यक्ति एक आता देखा।।

व्यक्ति शोक से ग्रस्त और अनमना दिखाई देता था।
उसके मौन प्रभामण्डल में, कष्ट सुनाई देता था।।

प्रेम उमड़ आया राजा में, परिचय की इच्छा जागी।
उसकी पीड़ा, दर्द जानने की कुछ अभिलाषा जागी।।

राजा ने अति प्रेम-भाव से कहा, सखे! तुम कौन हो?
किस कुल से हो, कैसे आये, क्यों इतने तुम मौन हो??

राजा को अति श्रद्धा से पहले उसने सम्मान दिया।
शीश झुकाकर, हाथ जोड़कर, उसने उन्हें प्रणाम किया।।

फिर बोला, हे राजश्रेष्ठ, मैं धनिक वर्ग से आता हूँ।
वैश्य जाति में जन्म लिया, तन से समाधि कहलाता हूँ।।

किसी समय मेरे जीवन में, सुख की कलियाँ खिलती थीं।
स्त्री-पुत्र सभी थे घर में, सारी खुशियां पलती थीं।।

पुत्रों के उज्जवल भविष्य के लिए किया था धन-संचित।
पर कुटुम्ब से निर्वासित हूँ, होकर अब सबसे वंचित।।

जो मेरा विश्वासपात्र था, उसने ही खंजर भोंका।
मेरे  स्वजनों ने ही मुझको, पीड़ा और दिया धोखा।।

भारी मन, दुःख लिए ह्रदय में, मैं इस ओर चला आया।
पर कुटुम्ब का मोह अभी तक, मन से छोड़ नहीं पाया।।

हूँ अनभिज्ञ, दशा स्वजनों की, मेरे बिन कैसी होगी?
होंगे सब आनन्दमग्न या विपदा आन पड़ी होगी।।

क्या उनको जीवन में अब तक सदाचार भाते होंगे।
अथवा लोभी बन जीवन में दुराचार लाते होंगे।।

राजा ने पूछा समाधि से, स्नेह भरा क्यों बन्धन है?
क्यों उनकी चिन्ता है, जिनके कारण ही यह क्रन्दन है।।

क्षण-भर को वह मौन रहा, फिर बोला, राजन! ठीक कहा।
माना मैं निर्वासित हूँ, कुछ भी अब मेरा नहीं रहा।।

किन्तु करूँ क्या, पागल मन निष्ठुरता धारण नहीं करे।
जिसने पति का प्रेम भुलाया, उससे होता नहीं परे।।

धन लालच में जो सुत अपने पिता प्रेम को भूल चुके।
स्नेह भरा मन ऐसे निष्ठुर पुत्रों को न भूल सके।।

चित्त मोह से भरा हुआ, मन भारी होता जाता है।
जिनमे प्रेम नहीं उनके ही लिए सदा अकुलाता है।।

ये कैसी दुविधा जीवन की, इसका ज्ञान नहीं आता।
पीड़ा में हूँ विवश, किन्तु मैं उत्तर जान नहीं पाता।।

वैश्य और नृप दोनों की ही पीड़ा एक सरीखी थी।
दोनों प्रश्न लिए थे, मुनि से हल की आशा दीखी थी।।

दोनों मिलकर साथ चले जिस ओर महामुनि बैठे थे।
मुख पर अनुपम तेज व्याप्त था, ध्यान लगाए बैठे थे।।

दोनों बैठे रहे वहीँ, फिर मुनिवर ने आँखें खोलीं।
राजा ने अति विनय-भाव से प्रश्नों की खोली झोली।।

राजा बोले, हे मुनिवर! मेरे मन में कुछ संशय है।
चित्त मेरे आधीन नहीं है, अनजाना सा कुछ भय है।।

इसीलिए यह बात मेरे मन को अति पीड़ा देती है।
भले विमुख हूँ किन्तु प्रजा की पीर सुनाई देती है।।

हुआ पराजित, राज्य मेरा, मेरे हाथों से चला गया।
किन्तु विप्रवर अपनी ममता से ही हूँ मैं छला गया।।

यद्यपि मेरा राज्य नहीं अब, मुझको इसका भान है।
किन्तु किसी अज्ञानी जैसा दुःख में डूबा प्राण हैं।।

वैश्य मेरे जो साथ विराजित, वह भी तो अपमानित है।
स्त्री, पुत्रों और सेवकों द्वारा ही निष्कासित है।।

स्वजनों ने है त्याग दिया, लेकिन मन में है स्नेह प्रचुर।
दोनों दुःख में डूबे हैं, लेकिन मन में ममता भरपूर।।

यद्यपि जिनमें दोष हमें प्रत्यक्ष दिखाई देता है।
क्यों आकर्षण इतना उनकी ओर दिखाई देता है।।

हम दोनों ही समझदार हैं, फिर यह मोह भला क्यों है?
क्यों विवेक से हीन बुद्धि है, मन यह मूढ़ भला क्यों है??

ऋषि बोले, हे महाभाग! सारे जीवों को ज्ञान है ।
सभी पृथक हैं किन्तु सभी जीवों को अपना भान है।।

कुछ प्राणी देखते दिवस में, कई यामिनी द्रष्टा हैं।
कुछ ऐसे भी प्राणी जग में, जो दोनों में द्रष्टा हैं।।

यद्यपि मानव समझदार है, पशु-पक्षी भी ऐसे हैं।
जैसी रचना है खग-मृग की, ठीक मनुज भी वैसे हैं।।

जैसी बुद्धि मनुष्यों में है, जीवों की भी वैसी है।
भूख-प्यास व अन्य क्रियाएं सबमें एक सरीखी हैं।।

जैसे पक्षी स्वयं भूख से पीड़ित चाहे कितने हों।
सर्वप्रथम वे दाने देते, बच्चे चाहे जितने हों।।

जितनी भी हो समझ मनुज में, किन्तु लोभ की आशा है।
उपकारों के बदले में ही, पुत्रों की अभिलाषा है।।

यद्यपि सभी समझते इसको, फिर भी मोह प्रभावी है।
महाभगवती के प्रभाव से, सब पर माया हावी है।।

जन्म-मृत्यु की अविरल चक्की, जिनके बल से चलती है।
उन्ही महामाया की माया, सारे जग को छलती है।।

सब पर मोह प्रभावी, कोई भी इससे है पृथक नहीं।
यही योगनिद्रारूपा हैं, जगदीश्वर की अंश यही।।

सारा जग है मोहित इनसे, कोई भी है बचा नहीं।
विधि ने ऐसा मोहमुक्त, ज्ञानी भी अब तक रचा नहीं।।

वही महामाया देवी जो, क्षण में सृष्टि रचती हैं।
वही मुक्त जीवों को बन्धन से क्षण-भर में करती हैं।।

वे ही बन्धन, परा वही हैं, वे ही विद्या रूप हैं।
वे ईश्वर की अधीश्वरी हैं, चिर-सनातनी रूप हैं।।

राजा ने पूछा मुनिवर से, ये शुभ-देवी कौन हैं?
जिन्हें महामाया कहते हैं, मातृस्वरूपा कौन हैं??

कैसे आविर्भाव हुआ, जग में उनका क्या रूप है?
जीव-जगत में क्या प्रभाव है, कैसा पुण्य स्वरुप है??

तुम स्वाहा, माँ तुम्ही स्वधा हो,
वषट्कार हो तुम्हीं क्षुधा हो।
तुम्ही तृप्ति हो, तुम ही स्वर हो,
जीवनदात्री तुम्हीं सुधा हो।।

प्रणवाक्षर में तुम अकार हो,
तुम्ही मात्रा, तुम उकार हो।
बिन्दु तुम्ही, अव्यक्त रूप हो,
तीन रूप में तुम मकार हो।।

तुम संध्या, सावित्री, जननी,
तुम्ही सृष्टि की धारण करनी।
तुम जग-जननी, पालन करनी,
कल्प-अन्त में जीवन हरनी।।

सृष्टि जन्म की बारी आई,
तब तुम सृष्टिरूप कहलाई।
जग के पालन-भरण हेतु माँ,
स्थितिरूपा शक्ति कहाई।
कल्पकाल में अन्त समय में,
तुम संहाररूप बन आई।।

महासुरी हो, महास्मृति हो,
महामोहरूपा हो, गति हो।
तुमसे ही गुण होते जग में,
तुम ही सबकी सहज प्रकृति हो।।

तुम्ही भयंकर कालरात्रि हो,
महादेवि तुम महारात्रि हो।
महान-मेधा, महान-विद्या,
महान-माया, मोहरात्रि हो।।

तुम श्री ह्रीं हो, तुम्ही ईश्वरी,
तुम्हीं बुद्धि, हे जगद-ईश्वरी।
खड्ग-शूल को धारण करती,
अचिन्त्यरूपे, परम-ईश्वरी।।

लज्जा,पुष्टि, तुष्टि तुम्हीं हो,
तुम्हीं शान्ति हो, क्षमा तुम्ही हो।
गदा-चक्र को धरने वाली,
घोर-रूप हो, सौम्य तुम्हीं हो।।

धनुष-शंख को धारण करती,
जनती, भरती, जीवन हरती।
बाण, भुशुण्डी,परिध लिए माँ,
तुम जड़ में चेतनता भरती।।

जग में जो सुन्दर कहलाते,
तुमसे ही सुन्दरता पाते।
तुम सबमे हो, किन्तु परे हो,
तुममें ही माँ सभी समाते।।

शक्ति तुम्हीं हो, भक्ति तुम्हीं हो,
भाव तुम्ही, सद्भाव तुम्ही हो।
तेरा वन्दन-पूजन क्या हो?
जन्म तुम्हीं हो मुक्ति तुम्ही हो।।

जो इस जग की सृष्टी करते।
पालन करते, जीवन हरते।
तेरी ही माया से श्रीहरि,
निद्रा की तन्द्रा में रहते।।

यहाँ कौन समरथ है माता,
जो तेरी स्तुति कर पाता।
तुम ही हरि-हर और जगत के,
देह और मन की हो दाता।।

जग में तुम सी शक्ति नहीं है,
तुमसे बढ़कर भक्ति नहीं है।
तुम प्रभाव हो तुम्ही प्रशंसा,
तुमसे बढ़कर मुक्ति नहीं है।।

वन्दन को स्वीकार करो माँ,
मधु-कैटभ से त्रास हरो माँ।
इन्हे मोह के भ्रम में कर दो,
जगती के संत्रास हरो माँ।।

सृष्टि पर उपकार करो माँ,
जगदीश्वर की नींद हरो माँ।
वे मधु-कैटभ का वध कर दें,
उनको ऐसी बुद्धि दो माँ।।

इस प्रकार योगनिद्रा की, ब्रह्माजी ने स्तुति की।
अधिष्ठात्रि तमगुण देवी ने, जगदीश्वर की जाग्रति की।।

ब्रह्माजी के सम्मुख निकलीं, प्रभु के मुख, वक्षस्थल से।
जगदीश्वर की बांह, नासिका, नेत्र, और हृदयस्थल से।।

जग से स्वामी नाथ जनार्दन, शय्या से फिर जाग उठे।
मुक्त हुए निद्रा से भगवन, ज्यों सागर से आग उठे।।

फिर दोनों असुरों को देखा, जो बलवान महाभट थे।
ब्रह्मादेव का भक्षण करने, को आतुर मधु-कैटभ थे।।

श्रीहरि ने दोनों असुरों से, केवल बाहूयुद्ध किया।
पांच हजार बरस तक दोनों को यूँ ही उन्मत्त किया।।

मधु-कैटभ हरि से बोले, हे महावीर हम सन्न हैं।
कोई भी वरदान मांग लो, तुमसे आज प्रसन्न हैं।।

हरि बोले, हे महादैत्य! मुझको केवल यह वर दे दो।
मेरे हाथों मृत्यु तुम्हारी, हो बस यही वचन दे दो।।

और नहीं कोई इच्छा है, जन्म जीव जब पाता है।
होती उसकी मृत्यु सुनिश्चित, यही सत्य रह जाता है।।

माया के धोखे में आकर, असुरों ने जल ही देखा।
फिर बोले जलमुक्त जगह जो, वहीं हमारा हो लेखा।।

दोनों ने स्वीकार किया, अब भाग्य रेख कुछ वक्र चले।
दोनों मस्तक हरि जंघा पर, हरि का अब तो चक्र चले।।

जगदीश्वर ने दोनों असुरों का ऐसे संहार किया।
मायादेवी के प्रभाव से, भू का हल्का भार किया।।

श्री मार्कण्डेय पुराण अन्तर्गत सावर्णिक मन्वन्तर में वर्णित देवी माहात्म्य का प्रथम अध्याय काव्य रूपान्तर समाप्त।

- दीपक श्रीवास्तव 

Wednesday, March 25, 2020

अर्पित हूँ , परिणाम न जानूं

तुम स्वाहा, माँ तुम्ही स्वधा हो,
वषट्कार हो तुम्हीं क्षुधा हो।
तुम्ही तृप्ति हो, तुम ही स्वर हो,
जीवनदात्री तुम्हीं सुधा हो।।

प्रणवाक्षर में तुम अकार हो,
तुम्ही मात्रा, तुम उकार हो।
बिन्दु तुम्ही, अव्यक्त रूप हो,
तीन रूप में तुम मकार हो।।

तुम संध्या, सावित्री, जननी,
तुम्ही सृष्टि की धारण करनी।
तुम जग-जननी, पालन करनी,
कल्प-अन्त में जीवन हरनी।।

सृष्टि जन्म की बारी आई,
तब तुम सृष्टिरूप कहलाई।
जग के पालन-भरण हेतु माँ,
स्थितिरूपा शक्ति कहाई।
कल्पकाल में अन्त समय में,
तुम संहाररूप बन आई।।

महासुरी हो, महास्मृति हो,
महामोहरूपा हो, गति हो।
तुमसे ही गुण होते जग में,
तुम ही सबकी सहज प्रकृति हो।।

तुम्ही भयंकर कालरात्रि हो,
महादेवि तुम महारात्रि हो।
महान-मेधा, महान-विद्या,
महान-माया, मोहरात्रि हो।।

तुम श्री ह्रीं हो, तुम्ही ईश्वरी,
तुम्हीं बुद्धि, हे जगद-ईश्वरी।
खड्ग-शूल को धारण करती,
अचिन्त्यरूपे, परम-ईश्वरी।।

लज्जा,पुष्टि, तुष्टि तुम्हीं हो,
तुम्हीं शान्ति हो, क्षमा तुम्ही हो।
गदा-चक्र को धरने वाली,
घोर-रूप हो, सौम्य तुम्हीं हो।।

धनुष-शंख को धारण करती,
जनती, भरती, जीवन हरती।
बाण, भुशुण्डी,परिध लिए माँ,
तुम जड़ में चेतनता भरती।।

जग में जो सुन्दर कहलाते,
तुमसे ही सुन्दरता पाते।
तुम सबमे हो, किन्तु परे हो,
तुममें ही माँ सभी समाते।।

शक्ति तुम्हीं हो, भक्ति तुम्हीं हो,
भाव तुम्ही, सद्भाव तुम्ही हो।
तेरा वन्दन-पूजन क्या हो?
जन्म तुम्हीं हो मुक्ति तुम्ही हो।।

मैं मूरख हूँ, ध्यान न जानूं,
अपनी ही पहचान न जानूं।
जो भी हूँ, पर बालक तेरा,
अर्पित हूँ , परिणाम न जानूं।।

- दीपक श्रीवास्तव 

Tuesday, February 25, 2020

सीता की खोज- लक्ष्य प्राप्ति के मार्ग एवं परिणाम

सीता की है खोज भला या खुद में खुद को पाना है।
जीवन का यह पूर्ण लक्ष्य या राहों में खो जाना है।।

सारे जीव प्रयत्नशील हैं सीता की सुधि लाने में।
कपिगण, वानर साथ लगे हैं, उसी लक्ष्य को पाने में।।

यक्ष प्रश्न है खड़ा सामने, लक्ष्य एक राहें विभिन्न हैं।
मार्ग अलग हो जाने से क्या, असर लक्ष्य का भिन्न-भिन्न है?।

यह जीवन का अनुपम चिन्तन, केवल इसको कथा न जानें।
पथ में चलते-चलते इसको, निज के अनुभव से पहचानें।।

इस समाज में विविध रंग हैं, रंगों में सन्तुलन अपार।
कोई छल से स्वार्थ मिटाए, करे कोई तप-बल स्वीकार।।

सीता मात्र चरित्र नहीं है, भक्ति मानकर करें प्रणाम।
तीन प्रकारों से पहचानें, इनको पाने के परिणाम।।

एक ओर सीता हर लाया, रावण छल की है पहचान।
दूजी ओर रीक्ष-कपि-वानर, तप-बल के प्रतीक हनुमान।।

छल से सीता हरण किया, पर प्राप्त भक्ति का पोर नही।
व्यग्र दशानन, पतनोन्मुख है, कहीं शान्ति का छोर नही।।

अनचाहा भय साथ न छोड़े, लगे हुए हैं पहरे कितने।
युद्ध करे स्वीकार दशानन, भले वीर मिट जाएं जितने।।

एक ओर है वानर सेना, जहां राम का प्रेम छलकता।
सबको है आदेश राम का, जिसमें जीवन लक्ष्य झलकता।।

ईश्वर कण-कण में हैं बसते, जानें सब, पर रहें अधूरे।
जिस दिन भक्ति जगे जीवन मे, लक्ष्य सभी हो जाएं पूरे।।

यही लिए संकल्प हृदय में, वानर सेना चली राह में।
पर्वत जंगल सभी लांघते, कदम नहीं रुकते प्रवाह में।

जीवन के नित संघर्षों से, प्राणी करे लक्ष्य संधान।
अग्नि में तप कर ही सोना, दुनिया में पाता सम्मान।।

जीवन में अगणित बाधाएं, हल भी सबके भिन्न-भिन्न हैं।
अब आगे लहराता सागर, पथिक विवश है, शक्ति निम्न है।।

जीवन में जब ऐसी बाधा, काम न आये कोई शिक्षा।
अब केवल दो ही विकल्प हैं, लौट चलें या करें प्रतीक्षा।।

पथिक लौट जाए जो मग में, खत्म आस, बस मिले निराशा।
धैर्य धरे जो करे प्रतीक्षा, उसे लक्ष्य मिलने की आशा।।

हनुमान जी जैसा तप-बल, जो भी मानव पाता है।
वही पार कर सकता सागर, लक्ष्य प्राप्त कर जाता है।।

लेकिन सागर तट पर बैठे, जीव लक्ष्य कैसे पाएं।
आखिर कब तक करें प्रतीक्षा, भक्ति निकट कैसे आये?।

यही द्वन्द है भवसागर का, भ्रम ऐसा छल वृत्ति प्रबल।
सच्चा साधक करे प्रतीक्षा, दुष्ट आचरण दिखे सबल।।

किन्तु सत्य तो चिर-विजयी है, भले देर कुछ हो जाये।
रावण सैन्य समेत पराजित, राम विजय-ध्वज लहराए।।

जैसे जैसे खल-प्रवृत्तियां, इस जीवन से जाती हैं।
वैसे-वैसे भक्ति हृदय में, झूम-झूम लहराती है।।

इसीलिए जब रावण का वध, धरती से हो जाता है।
भक्ति रूप सीता का दर्शन, हर इक वानर पाता है।।

यदि पंखों में ताकत हो तो, लक्ष्य शीघ्र मिल जाता है।
धैर्य धरा साधक भी इक दिन, अपनी मंजिल पाता है।।

सीता की है खोज भला या खुद में खुद को पाना है।
जीवन का यह पूर्ण लक्ष्य या राहों में खो जाना है।।

- दीपक श्रीवास्तव

Tuesday, February 18, 2020

हम तो केवल करते फेरे

बिना तुम्हारे कण ना डोले,
कण्ठ मेरे, पर तू ही बोले।
तुम्ही भाव, तुम ही स्वर मेरे,
हम तो केवल करते फेरे।।1।।

जहाँ दूर तक जाती दृष्टि,
सदा अधूरी रहती सृष्टि।
जहाँ पूर्ण जीवन में भक्ति,
तत्क्षण भव-बन्धन से मुक्ति।।2।।

यूँ तो जीव बहुत निर्बल है,
प्रश्न एक,पर बहुत प्रबल है।
जग में बड़े स्वार्थ-परमार्थ,
जीव कहाँ ढूंढे भावार्थ।।3।।

जो भी मन मानस हो जाये,
राम-नाम में ही खो जाए।
हरिहर मन,हरिहर हो बुद्धि,
होती परम-अर्थ की सिद्धि।।4।।

किन्तु देह जब तक जीवित है,
जीव, जगत में बड़ा भ्रमित है।
कहाँ स्वार्थ-परमार्थ संवारे,
किसको ढूंढे, किसे पुकारे।।5।।

नारद काम-क्रोध के जेता,
हरी नाम के अमर प्रणेता।
यदि परमार्थ हरी को अर्पित,
कहाँ स्वार्थ को करें समर्पित।।6।।

जीवन में हो हरि की आशा,
फिर मन में क्यों रहे दुराशा।
जब तक भ्रम का भार रहेगा,
थोड़ा-थोड़ा स्वार्थ रहेगा।।7।।

जब प्राणी दुविधा में भटके,
स्वार्थ अगर जीवन में अटके।
रक्खें हरि पर दृढ़ विश्वास,
दुनिया भर से कैसी आस?।8।।

लिए प्रणय की मधुर कामना,
हरि से नारद करें याचना।
कामदेव का रूप मनोहर,
गए नहीं नारद उनके घर।।9।।

छोड़ जगत नश्वर से आशा,
हरि में केवल हो विश्वासा।
हरि से बढ़कर नहीं हितैषी,
हरि हैं तो अकुलाहट कैसी।।10।।

नारद का व्रत भंग न होवै,
हरि का ऐसा कौतुक होवै।
भक्त कुपित हो कहाँ पधारें,
हरि का भगत हरी के द्वारे।।11।।

काम हरी का क्रोध हरी का,
जीवन मे अभिमान हरी का।
शब्द हरी, सम्मान हरी का,
जीवन का हर भाव हरी का।।12।।

भक्ति तभी फलती जीवन में,
हरी नाम जब तक तन-मन में।
आदि-अन्त तक यात्रा कितनी,
हरि की चरण धूल भर जितनी।।13।।

बिना तुम्हारे कण ना डोले,
कण्ठ मेरे पर तू ही बोले।
तुम्ही भाव, तुम ही स्वर मेरे,
हम तो केवल करते फेरे।।14।।

- दीपक श्रीवास्तव

Thursday, February 13, 2020

केवल राम-नाम ही जपना पर्याप्त नहीं है

राम-नाम ही जपना जीवन मे केवल पर्याप्त नहीं है।
जीवन है निष्फल जब तक तन-मन में मानस व्याप्त नहीं है।।

रामचरित के हर प्रसंग में जीवन दर्शन रमा हुआ है।
मन की धूल हटाकर देखो, जो बरसों से जमा हुआ है।।

खर-दूषण से युद्ध राम का, एक अलौकिक सत्व लिए है।
भ्रम पर ज्ञान सदा विजयी है, इसी सत्य का तत्व लिए है।

खर-दूषण चौदह हज़ार की सेना लेकर चले समर में।
अति बलवान, प्रबल मायावी, धूल उड़ाते दिवा प्रहर में।।

राम-लखन संग सीता माता पर्णकुटी में विहर रहे थे।
वन विहार की मीठी-तीखी स्मृतियों में विचर रहे थे।।

तभी कुटी पर देख शत्रु को, राम सरासन बाण धरें।
लक्ष्मण सीता संग खड़े थे, राम शत्रु के प्राण हरें।।

किन्तु प्रश्न है उठता फिर भी, शत्रु प्रबल, सेना तमाम है।
दो योद्धा हैं साथ किन्तु इस युद्धभूमि में सिर्फ राम हैं।।

यदि लक्ष्मण भी युध्द करें तो शीघ्र विजय मिल सकती है।
जीवन में पुरुषार्थ अगर हो, विजय दूर कब रहती है?।

यही भेद है राम और रावण में, इसको जानें हम।
दोनों में है ज्ञान किन्तु अंतर को भी पहचानें हम।।

राम ज्ञान, वैराग्य लखन हैं, भक्ति पुनीता सीता हैं।
जिसमें है वैराग्य उसी ने अहंकार को जीता है।।

मन मे यदि संशय हो जाये, बुद्धि भ्रमित हो जाती है।
तभी चित्त में मोह उपजता, यही द्वन्द शुरुआती है।।

मायावी सेना विशाल खर-दूषण भ्रम का रूप है।
परम धाम श्रीराम युद्ध में चेतन ज्ञान स्वरूप हैं।।

ज्ञान सदा ही भ्रमभंजक है, किन्तु दम्भ उपजा देता।
भक्ति नष्ट कर मानव जीवन, को यह बड़ी सजा देता।।

जब तक है वैराग्य मनुज में, तब तक भक्ति सुरक्षित है।
राम युद्ध में इसीलिए, सीता लक्ष्मण से रक्षित हैं।।

मायावी छल-बल की सेना, अट्टहास कर युद्ध करे।
ज्ञानरूप श्रीराम अकेले, कैसे इनको शुद्ध करें?।

तभी राम ने मायारूपी प्रबल बाण संधान किया।
युद्ध कर रहे हर सैनिक को अपना रूप प्रदान किया।।

यही राम का चिर स्वभाव, रामत्व सभी को देते हैं।
ज्ञानवान हो जाते प्राणी, सभी भ्रान्ति हर लेते हैं।।

मायावी दूषण की सेना, निज स्वरूप का ज्ञान नहीं।
दूजा सैनिक राम दिखे, लेकिन अपना अनुमान नहीं।।

यह समाज की है विडम्बना, बस औरों के दोष दिखें।
अपना मन कोई ना झांके, जिसमें अपने दोष दिखें।।

देख अगर लेते सैनिक, भूले भी अपना रूप कहीं।
सारे भ्रम मिट जाते मन के, मिलता अपना रूप वहीं।।

किन्तु यहां विपरीत दृश्य है, राम रूप पर वार चले।
शत्रु समझ अपने ही साथी अपनों को ही मार चले।।

इस प्रकार श्रीराम युध्द में, कर माया संहार चले।
भक्ति सुरक्षित है विराग से, जब भ्रम पर तलवार चले।।

किन्तु ज्ञान धारे रावण में, रंच मात्र वैराग्य नहीं।
इसीलिए आसक्ति प्रबल है, जीवन में सौभाग्य नहीं।।

राम-नाम ही जपना जीवन मे केवल पर्याप्त नहीं है।
जीवन है निष्फल जब तक तन-मन में मानस व्याप्त नहीं है।।

- दीपक श्रीवास्तव

Tuesday, February 11, 2020

चीख रहा कश्मीर

चीख रहा कश्मीर, बिलखता दर्द भरे जज्बातों में ।
सुलग रहा है देश, कहाँ भाईचारा है बातों में।।

था धरती का स्वर्ग, जहां इन्सान दिखाई देते थे।
रोम-रोम में प्रेम भरे, नित गीत सुनाई देते थे।।

बरसों से थीं जहां पीढियां, प्रेम भरे मृदु बन्धन में।
हाय, समय कैसा आया, सब भूले बिछड़े क्रन्दन में।।

एक ओर बचपन की यारी एक ओर थी कौम खड़ी।
इंसा से हैवाँ की दूरी, नहीं रही कुछ खास बड़ी।।

आसमान में बिजली कौंधी, मस्जिद गूंजे नारों से।
महिलाओं को छोड़ भगो या शीश कटाओ वारों से।।

बचपन के संगी-साथी, जो प्राणों से भी प्यारे थे।
साथ पढ़े, संग-संग ही खेले, दुनिया से वे न्यारे थे।।

एक मित्र की आंखों में अब जाने कौन खुमारी थी।
खून भरे जज्बातों से हारी बचपन की यारी थी।।

नहीं रही वेदना हृदय में, रही मित्रता धारों पे।
कितने ही सिर गिरे भूमि पर, रक्त लगा तलवारों पे।।

अंगारे थे भरे नयन में, मानवता भी हारी थी।
मां बहनों की लाज लूटने की आई अब बारी थी।।

जिसने जीवन भर पिशाच के साथ निभाई यारी थी।
उसकी माता और बहन ने कीमत खूब चुकाई थी।।

जिसने भाई मान कलाई पर राखी भी बांधी थी।
आज उसी की देह नोचने प्रबल वासना जागी थी।।

अस्मत के हो रहे चीथड़े, तन-मन था चीत्कार रहा।
नाजुक अंगों से अंतड़ियों तक चाकू का वार रहा।।

बच्ची या कोई नवयुवती, सुनी किसी ने आह नही।
गर्भवती या वृद्धा थी, लेकिन कोई परवाह नहीं।।

हैवानों के मन-मस्तक में खून भरा था, शोला था।
अस्मत की नीलामी करके तलवारों पे तोला था।।

शिक्षक को करके छलनी शिष्यों की ही तलवारों ने।
गुरुमाता के साथ घिनौना कृत्य किया गद्दारों ने।

जिनके दम पर रोजी-रोटी गद्दारों की चलती थी।
उसी मालकिन पर कुदृष्टि थी, हवस-वासना पलती थी।।

शोषित-पीड़ित कहाँ दर्द बतलायें यह था प्रश्न बड़ा।
शासन और प्रशासन उनके लिए नहीं था रहा खड़ा।।

जनता का नेतृत्व विमुख हो करता कुछ मनमानी था।
न्यायालय की आस लगा पाना भी तो बेमानी था।।

बच्चों के उज्ज्वल भविष्य की उम्मीदें भी छोड़ चले।
बसा-बसाया घर अपना, अपनी दुनिया को छोड़ चले।।

जिनके अपने बड़े मकाँ थे, पड़े टेन्ट में रातों में।
खाने पीने की सुधि खोई, ऐसे दुःख हालातों में।।

दिल्ली में थी शरण मिली, उम्मीद जगाए बैठे हैं।
दिवस-महीने बरसों बीते, आस लगाए बैठे हैं।।

स्वर्ग भरा सुन्दर जग अपना, क्या वापस मिल पायेगा?
क्या लौटेंगे घर को अपने, दर्द कभी सिल पायेगा??

चीख रहा कश्मीर, बिलखता दर्द भरे जज्बातों में ।
सुलग रहा है देश, कहाँ भाईचारा है बातों में।।

- दीपक श्रीवास्तव

Monday, February 10, 2020

सन्तुलन ही जीवन एवं समाज का आधार है

श्री अरविन्द सोसाइटी द्वारा आयोजित तन-मन-मानस कार्यक्रम का अन्तिम सत्र सामाजिक जीवन की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी रहा। कार्यक्रम में प्रमुख वक्ता दीपक श्रीवास्तव ने बताया कि सृष्टि में सन्तुलन ही जीवन एवं समाज का आधार है। श्रीरामचरितमानस की रचना के समय भारतीय समाज वैष्णव एवं शैव में बंटा हुआ था। ऐसे समय में श्रीरामचरितमानस द्वारा श्री शिव को गुरु मानते हुए श्री विष्णु के  चरित्र का चिंतन सामाजिक सन्तुलन का सबसे बड़ा उदाहरण है।

कार्यक्रम में सीता की खोज का उदाहरण लेकर जीवन लक्ष्य की प्राप्ति के तरीकों एवं उसके परिणाम की अद्भुत व्याख्या ने लोगों को अपने जीवन में झांकने को विवश कर दिया। एक ओर जहां सारे वानर सीता की खोज में निरन्तर लगे हुए हैं वहीं समुद्र उस बाधा का प्रतीक है जहां मनुष्य की अक्षमता उसे विवश कर देती है। अतः जीवन मे तप श्री हनुमान जी जैसा हो जो समुद्र रूपी बाधा को पार करने की क्षमता प्रदान करे अन्यथा श्रद्धा के साथ प्रतीक्षा करें। जब अज्ञान एवं भ्रम रूपी असुर मिट जाते हैं तब लक्ष्य रूपी सीता के दर्शन प्रत्येक प्रतीक्षारत व्यक्ति को प्राप्त होते हैं।

कार्यक्रम में दीपक श्रीवास्तव ने बताया कि विद्यार्थियों के जीवन मे श्री हनुमानजी के समुद्र यात्रा के माध्यम से तीन प्रकार के संघर्षों हैं जो मार्ग में मिलने वाली राक्षसियों का रूप हैं। तीनों का वध न करते हुए सुरसा का सम्मान, सिंहिका का वध एवं लंकिनी को मुठिका मारने के पीछे इन्ही संघर्षों से जूझने का आदर्श उदाहरण स्थापित है।

कार्यक्रम में लंका दहन की अर्धनारीश्वर शिवलीला के रूप में अलौकिक व्याख्या हुई तथा रावण के चरित्र द्वारा यह भी बताया गया कि मनुष्य में ज्ञान होने में बावजूद उसमें अहंकार का प्रारम्भ कैसे होता है जो उसे पतन की ओर ले जाता है। जीवन में अहंकार पर विजय प्राप्त करने के लिए रावण के चरित्र का चिन्तन आवश्यक है।

कार्यक्रम में श्रीमती मीना गुप्ता ने अपने मधुर कंठ से श्री राम स्तुति का गायन करके कार्यक्रम को अलौकिक ऊंचाई प्रदान की। 

दिल्ली से पधारी श्रीमती नीता सक्सेना ने सीता चरित्र के उदाहरण द्वारा वर्तमान समाज में नारियों के योगदान एवं उत्तरदायित्व पर महत्वपूर्ण बातें रखीं।

गाजियाबाद से पधारे भारतीय स्टेट बैंक के शाखा प्रबन्धक श्री दुष्यन्त सिंह ने कहा कि वर्तमान परिस्थितियों में इस प्रकार के कार्यक्रमों की समाज को अति आवश्यकता है तथा इसमें लोगों की भागीदारी बढ़नी चाहिए। 

कार्यक्रम के अन्त में श्री के सी श्रीवास्तव जी ने सभी अतिथियों का आभार व्यक्त किया। कार्यक्रम में शैली शर्मा समेत अनेक गणमान्य व्यक्ति उपस्थित रहे।

प्रमुख वक्ता दीपक श्रीवास्तव द्वारा शिव-विष्णु संतुलन की अद्भुत व्याख्या
https://youtu.be/WqpfC4tftmw

श्रीमती मीना गुप्ता द्वारा श्रीराम भक्ति में सराबोर अलौकिक गायन
https://youtu.be/0ds4xnGr6mA

श्रीमती नीता सक्सेना द्वारा स्त्रियों के सामाजिक दायित्व पर उद्बोधन
https://youtu.be/ZGjHZWsB3Ak

भारतीय स्टेट बैंक के शाखा प्रबंधक श्री दुष्यंत सिंह द्वारा तन-मन-मानस की सामाजिक उपयोगिता पर उद्बोधन
https://youtu.be/cMVbArD5Ax4

श्री के सी श्रीवास्तव द्वारा अतिथियों का सम्मान एवं आभार

  1. https://youtu.be/1GM88eZB4bg

Sunday, February 9, 2020

भारत का अपमान न भूलें

प्रबल भले हो जाएं अंधेरे,
दूर दूर ना दिखें सवेरे,
भारत का अपमान न भूलें,
निज का अनुसंधान न भूलें।

बढ़ती जाए भले वेदना,
उतनी होती सघन चेतना।
जब संकट मंडराता है,
राष्ट्रवाद गहराता है।
माना शत्रु प्रबल है लेकिन,
अपने बल का मान न भूलें।
भारत का अपमान न भूलें,
निज का अनुसंधान न भूलें।।1।।

भ्रमित सत्य बतलाने वालों,
कान खोल उदघोष सुनो।
जाग्रत राष्ट्रप्रेम में डूबी,
जनता का जयघोष सुनो।
प्रेम सुधा छलकाते-गाते,
धूर्तों की पहचान न भूलें।
भारत का अपमान न भूलें,
निज का अनुसंधान न भूलें।।2।।

एक पक्ष का भाईचारा,
भला कहाँ चल पाएगा।
राष्ट्र विभाजन करने वालों,
से क्या प्रेम निभाएगा?
अब पीड़ा भी बिलख रही है,
भारत माँ की आन न भूलें।
भारत का अपमान न भूलें,
निज का अनुसंधान न भूलें।।3।।

तलवारों के आगे जो जन,
अपना गर्व भुला बैठे।
भ्रम में आज उन्हीं के बच्चे,
अपना राष्ट्र जला बैठे।
शत्रु के गुण गाते-गाते,
पुरखों का अपमान न भूलें।
भारत का अपमान न भूलें,
निज का अनुसंधान न भूलें।।4।।

- दीपक श्रीवास्तव

Wednesday, February 5, 2020

जिसे नहीं हो आन राष्ट्र की

गंगा जमुनी रटने वालों ,
खून तुम्हारा पानी है।
जिसे नहीं हो आन राष्ट्र की,
वह जीवन बेमानी है।

जब लाखों निर्दोष कटे थे,
कहाँ तुम्हारा ज्ञान छिपा था?
भारत माँ पर जुल्म हुए जब,
कहाँ महान विचार छिपा था?
माँ-बहनों ने आन बचाने,
जौहर में निज प्राण दिए।
पर तुम जैसे गद्दारों ने,
हमें भ्रमित इतिहास दिए।
तेरी नस-नस में है बहती,
जहर भरी बेईमानी है।
जिसे नहीं हो आन राष्ट्र की,
वह जीवन बेमानी है।।1।।

जब मुगलों की तलवारों से,
हिन्दू थर-थर कांपे थे।
प्राणों की रक्षा करने में,
सिक्ख हमारे आगे थे।
शीश कटाया, उफ़ न बोला,
टुकड़े-टुकड़े हुआ शरीर।
दिल के टुकड़ों की बलि दे दी,
लेकिन झुक न सका जमीर।
तुमने उनकी हंसी उड़ाई,
हा! धिक्कार जवानी है।
जिसे नहीं हो आन राष्ट्र की,
वह जीवन बेमानी है।।2।।

बच्चों में भ्रम फैलाने को,
एक पक्ष का पाठ दिया।
गंगा-जमुनी रटते-रटते,
राष्ट्र हमारा बांट दिया।
खिलजी-बाबर-अकबर के नित,
गुण गाने वालों बोलो।
स्वतंत्रता की बलिबेदी पर,
इनके योगदान तोलो।
अगर नहीं संभले अब तक भी,
फिर तो मुंह की खानी है।
जिसे नहीं हो आन राष्ट्र की,
वह जीवन बेमानी है।।3।।

मेरे अमर सपूतों ने जो,
हमको राह दिखाई है।
इस जीवन को दिव्य बनाने,
की बारी अब आई है।
भारत माँ ने बहुत सहा है,
और नहीं सहने देंगे।
देह भले त्यागेंगे लेकिन,
शीश नहीं झुकने देंगे।
पहले देश तभी हम सब हैं,
अपने मन में ठानी है।
जिसे नहीं हो आन राष्ट्र की,
वह जीवन बेमानी है।।4।।

- दीपक श्रीवास्तव

Saturday, January 11, 2020

Tanhaji: The Unsung Warrior: गढ़ आला पण सिंह गेला

मेरी बचपन की शिक्षा सरस्वती शिशु मन्दिर में हुई है जहाँ इतिहास के रूप में हमने कक्षा द्वितीय में "रामायण", तृतीय में "महाभारत", चतुर्थ में "गौरव गाथा" तथा पंचम में "इतिहास गा रहा है" का अध्ययन किया है। अतः महान योद्धा तानाजी मालसुरे का नाम मेरे लिए अपरिचित नहीं है। कक्षा चतुर्थ में पढ़ा हुआ छत्रपति शिवाजी के वाक्य "गढ़ आला पण सिंह गेला" आज भी जेहन में ताजा है। आज तानाजी मालसुरे द्वारा सिंहगढ़ विजय पर आधारित फिल्म देखकर महसूस हुआ कि अपने आत्मसम्मान तथा अपनी संस्कृति के गौरव को व्यक्त करती फिल्मों का निर्माण वर्तमान समाज के लिए अति आवश्यक है। मैं फिल्म के निर्माता-निर्देशक एवं कलाकारों का हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ जिनके माध्यम से हमारे गौरवशाली अतीत का वह पृष्ठ हमारे समक्ष सामने आया है जिन पर समय की धूल चढ़ रही थी। 

किलेदार तानाजीराव मालसुरे, छत्रपति शिवाजी के अभिन्न मित्र थे तथा जीवनपर्यन्त उनके साथ लगभग प्रत्येक युद्ध में सम्मिलित रहे थे। एक बार शिवाजी के साथ वे औरंगजेब से मिलने आगरा गये थे तब औरंगजेब ने शिवाजी और तानाजी को छल से बंदी बना लिया था। ऐसी विकट परिस्थिति में शिवाजी और तानाजी ने मिठाई के पिटारे में छिपकर वहां से भाग गए थे। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार जब माता जीजाबाई लालमहल से कोंडाना किले की ओर देख रहीं थीं, तब शिवाजी ने उनके मन की बात पूछी तो माता जीजाबाई ने कहा था कि इस किले पर लगा हरा झण्डा मेरे मन को व्यथित कर रहा है। कोंडाणा का किला रणनीतिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण था। अगले ही दिन शिवाजी ने अपने प्रमुख योद्धाओं को बुलाकर पूछा था कि कोंडाना किला जीतने के लिए कौन जायेगा? तानाजी के अतिरिक्त किसी भी अन्य योद्धा में इस कार्य को करने का साहस नहीं हुआ तथा तानाजी ने चुनौती स्वीकार की और केवल 342 सैनिकों की टुकड़ी के साथ 5000 मुग़ल सैनिकों से युद्ध करते हुए मराठा गौरव का परचम किले पर फहरा दिया था किन्तु तानाजी गंभीर रूप से घायल होकर वीरगति को प्राप्त हुए। जब छत्रपति शिवाजी को यह सूचना मिली तो वे बहुत आहत हुये.और उन्होंने कहा था कि "गढ़ आला, पण सिंह गेला".अर्थात -"गढ़(किला) तो जीत लिया, किन्तु अपना सिंह खो दिया"

यद्यपि फिल्म में थोड़ी-बहुत रचनात्मक स्वतंत्रता ली गई है किन्तु कथानक एवं विचारों का प्रवाह हिन्दू समाज की गौरव-गाथा का एहसास कराने में सफल रहा है। फिल्म में स्वराज एवं भगवा शब्द का अनेक बार प्रयोग किया गया है जो भले ही वर्तमान राजनैतिक परिस्थितियों में एक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता दिखाई देता हो किन्तु उसके पीछे अपने सांस्कृतिक गौरव का सम्मान एवं उसकी रक्षा हेतु किसी भी हद तक गुजरने का जो सन्देश मिलता है, वह अद्वितीय है। मुगलों के अधीन हिन्दू समाज के कुछ लोगों का जब कहते  है कि "जी तो रहे ही हैं" पर तानाजी का कहना है - "यह कौन सा जीना है जब आपको अपनी माता, बहन और बेटियों को घरों में कैद करके रखना पड़ता है, आप अपने मंदिरों में ठीक से पूजा नहीं कर सकते, यहाँ तक कि अपने लोगों की मृत्यु पर खुलकर श्रीराम का नाम नहीं ले सकते, और खुलकर हर-हर-महादेव का नारा नहीं लगा सकते।" यह केवल संवाद नहीं है बल्कि समाज को अपनी संस्कृति एवं आत्मसम्मान की रक्षा हेतु प्रेरणा देता है। जिस समय तानाजी कोंडाणा के किले पर आक्रमण हेतु गए थे, उस समय उनके पुत्र रायबा के विवाह की तैयारियां चल रही थीं, किन्तु उन्होंने पुत्र के विवाह से अधिक छत्रपति शिवाजी के पूर्ण स्वराज्य को अधिक महत्त्व दिया यहाँ तक कि अपना जीवन भी समर्पित कर दिया।

फिल्म में युद्ध के दृश्य ठीक वैसे ही फिल्माए गए हैं जैसा इतिहास में वर्णित है। तानाजी को अपने सैनिकों के साथ किले पश्चिमी भाग से एक घनी अंधेरी रात को घोरपड़ की मदद से खड़ी चट्टान को पार करने में सफलता मिली थी। घोरपड़ को किसी भी ऊर्ध्व सतह पर खड़ा किया जा सकता है तथा इसके साथ बंधी रस्सी अपने साथ कई पुरुषों का भार उठा सकती है। इसी योजना से तानाजी अपने सैनिकों के साथ चुपचाप किले पर चढ़ गए तथा कोंडाणा का कल्याण द्वार खोलने के बाद मुग़लों पर हमला करने में सफल रहे। तानाजी मालुसरे जी ने बड़े वीरता से युद्ध करते हुए किले को मुगलों से स्वतंत्र कराया।  युद्ध के दौरान  जब ताना जी की ढाल टूट गई तो उन्होंने अपने सिर के फेटे (पगड़ी) को अपने एक हाथ पर बांधकर तलवारों के वार अपने उसी हाथ पर झेला तथा दूसरे हाथ से वे तलवार चलाते रहे और अंततः उदयभान राठौड़ का वध करते हुए किला जीतने में सफल हुए। वर्तमान में यह किला सिंहगढ़ के नाम से जाना जाता है।

विगत कुछ वर्षों से फिल्म निर्माताओं पर केवल एक विशेष विचारधारा से जुड़ी फ़िल्में ही परोसने के आरोप लगते रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में तानाजी जैसे महान योद्धा पर फिल्म का बनना भारतीय समाज को अपने महान गौरव की से पुनः जोड़ने की दिशा में अत्यन्त सराहनीय एवं अनुकरणीय प्रयास है। मैं फील निर्माताओं से निवेदन करना चाहूंगा कि वे गार्गी, मान्धाता, आरुणि, भामाशाह, पण्डित रामसिंह कूका जैसे चरित्रों को भी अपनी रचनात्मक क्षमता के अनुसार पुनर्जीवित करें। 

- दीपक श्रीवास्तव


Wednesday, January 1, 2020

--- पड़ोसन (1968) - एक मुस्लिम निर्माता द्वारा हिन्दू समाज के उच्च आदर्शों को स्थापित करती पूर्ण मनोरंजक फिल्म ---

एक समय था जब बॉलीवुड में बनने वाली फ़िल्में समाज में उच्च एवं यथार्थवादी आदर्शों को स्थापित करती थीं। किसी भी फिल्म में धर्म-सम्प्रदाय अथवा पूजा-पद्धति के आधार पर जनता को गुमराह करने का प्रयास नहीं किया जाता था। इतना ही नहीं, ऐतिहासिक तथ्यों को प्रस्तुत करने में भी फिल्म निर्माता संवेदनशील होते थे तथा वे समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी समझते थे। आज ऐसी ही एक फिल्म के बारे में बाते करेंगे जिसे एक मुस्लिम निर्माता ने बनाया था किन्तु इसने हिन्दू धर्म की पवित्रता एवं आदर्शों को समेटे हुए मनोरंजन के क्षेत्र में एक ऐसा इतिहास रच दिया कि हास्य मनोरंजन के क्षेत्र में इसके आसपास कोई फिल्म दिखाई नहीं देती। 

सन 1968 में बनी फिल्म "पड़ोसन" के निर्माता महमूद थे जो उस समय बॉलीवुड में एक बेहतरीन हास्य अभिनेता के रूप प्रतिष्ठित हो चुके थे। वे एक उच्चस्तरीय निर्माता भी थे जो भारतीय समाज को पोलियो जैसी कठिन बीमारी के प्रति जागरूक करने के लिए "कुंवारा बाप" जैसी संजीदा फिल्म बना चुके थे। "पड़ोसन" फिल्म के माध्यम से उन्होंने भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक ऐसी अमिट लकीर खींच दी जो बॉलीवुड के अस्तित्व के बने रहने तक जगमगाती रहेगी। 

पड़ोसन फिल्म में मामा जी के रूप में ओम प्रकाश जी ठाकुरों के सामाजिक किरदार को बखूबी से स्थापित करते हैं। उनके घर में एक सोफा है जिसके एक ओर सिंह का मुख बना हुआ है। वे स्वयं सिंह के मुख की और बैठना पसंद करते हैं तथा किसी भी आगंतुक को दूसरी ओर बैठना पड़ता है। विद्यापति का किरदार निभा रहे किशोर कुमार से यह कहना "इधर शेर का मुंह है, यहाँ केवल ठाकुर बैठते हैं" समाज में ठाकुरों के उत्तरदायित्व को भली प्रकार प्रस्तुत करता है। इस कथन को और भी बल मिलता है जब भोला द्वारा आत्महत्या का नाटक किये जाने पर मामा जी का कथन है, "ठाकुरों की कौम तो शान से वतन के लिए जान देती है, मोहब्बत में कमजोर होकर जान देना ठाकुरों का काम नहीं।"

भटकाव मानव जीवन का स्वभाव है तथा कई बार व्यक्ति अपनी बुद्धि द्वारा प्रेरित अहंकार के वशीभूत गलत दिशा की ओर प्रेरित हो जाता है ऐसे में अपने से छोटे व्यक्ति से भी यदि जीवन की सच्ची सीख मिल जाय तो उसे हृदय से स्वीकार करना ही सच्चे मनुष्य का लक्षण है। मामाजी भी इसी के वशीभूत अपनी पत्नी के होने के बावजूद दूसरे विवाह का संकल्प लेते हैं। उनके भांजे भोला का किरदार निभा रहे सुनील दत्त, जो वर्णाश्रम की चार अवस्थाओं का अध्ययन करते दिखाई देते हैं, अपने मामा को छोड़कर मामी के पास चले जाते हैं जो यह सन्देश देता है कि अहंकार के वशीभूत ग़लत मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति यदि सक्षम भी है तो भी उसका साथ देना उचित नहीं है। हालांकि इससे भी मामाजी का भटकाव ज्यों का त्यों बना रहता है। जब भोला के मित्र उनसे यह बताते हैं कि जिस लड़की से वे अपने रिश्ते हेतु प्रयास कर रहे हैं उससे उनके भांजे के रिश्ते की बात चल रही थी, इसे सुनकर मामाजी का शर्म से पानी-पानी हो जाना साबित करता है कि भटकाव के बावजूद समाज में आदर्शों के प्रतिमान कितने ऊँचे हैं। 

"पड़ोसन" फिल्म भगवान् राम द्वारा स्थापित आदर्शों को न सिर्फ मजबूती से जनता के समक्ष रखती है, बल्कि उनकी प्रभुता एवं अस्तित्व को पूरे मन से अंगीकार करती है। जब भोला अपने मित्रों के कहने पर फिल्म की नायिका बिंदु को थप्पड़ लगाने के उद्देश्य से जाता है तब बिंदु का अपने संगीत गुरु से यह कहना कि जब रावण ने सीता का हरण किया तब भगवान् श्रीराम ने क्या किया?" अधर्म होते देखने पर समाज को उसके विरुद्ध सचेत होकर उचित कदम उठाने की ओर प्रेरित करता है। इतना ही नहीं, जब भोला फिल्म के आखिरी दृश्यों में आत्महत्या करने का नाटक करता है, तब गुरु का कथन "भोले, ले राम का नाम" श्रीराम की प्रभुता की स्वीकारोक्ति है। यहाँ भोला का कथन "गुरु, मैं तो अपनी बिन्दु का नाम लूँगा।" स्पष्ट सन्देश देता है कि प्रेम में व्यक्ति अपने प्रियतम में ही ईश्वर का साक्षात् स्वरुप देखने लगता है। यहाँ गुरु का एक अन्य महत्वपूर्ण कथन है, "बिंदु रे, मैंने सुना है कि सच्चे प्रेम से मृतकों के भी प्राण लौटाए जा सकते हैं" तथा अंत में "बिंदु, तू सावित्री है जिसने यमराज से भी भोले के प्राण वापस लौटा लिए।" न केवल समाज में प्रेम के महत्त्व को मजबूती से समाज के समक्ष रखती है, बल्कि सावित्री के सतीत्व के तेज को भी स्मरण कराती है। 

फिल्म में किसी भी स्थान पर किसी प्रकार के आभासी दृश्य अथवा चमत्कार का प्रयोग नहीं किया गया है। फिल्म का स्पष्ट सन्देश है कि बिना परिश्रम योग्यता की कल्पना भी सम्भव नहीं है। भोला को गुरु द्वारा संगीत विद्या की शिक्षा "उद्यमेन हि सिद्ध्यन्ते" कहावत का ही सजीव रूपान्तर है जिसमे परिश्रम एवं संकल्प की कमी एवं व्यग्रता की अधिकता होने के कारण भोला असफल हो जाता है। हालांकि फिल्म ने पुरुषों एवं स्त्रियों के मित्रता को भी स्वाभाविक रूप से व्यक्त किया है जिसमें मित्रता के लिए पुरुष किस हद तक जा सकते हैं तथा एक महिला किस प्रकार अपना शक अपनी सहेली के समक्ष रखती है। इतना ही नहीं, फिल्म में कृष्ण और अर्जुन के नाटक के दृश्य में व्यक्ति को अपने सदा अपने आत्मसम्मान की रक्षा करने का महत्वपूर्ण सन्देश भी मिलता है जब भोला अपनी प्रियतमा बिंदु से थप्पड़ खाकर अपने मित्रों के पास पहुँचता है और गुरु द्वारा उसे अपने आत्मसम्मान की रक्षा हेतु बिंदु को उससे भी जोरदार थप्पड़ लगाने का आदेश मिलता है। 

फिल्म का संगीत अत्यन्त उच्च स्तर का है। यूँ तो भारतीय संगीत 7 शुद्ध तथा 5 विकृत स्वरों द्वारा निर्मित है किन्तु "एक चतुर नार" गीत से बड़ा उदाहरण नहीं हो सकता जो यह साबित करता है कि संगीत वास्तव में मन की भाषा है तथा इसकी सशक्त अभिव्यक्ति केवल संगीत पाठ्यक्रमों में वर्णित सरगम, तराना और आलाप पर ही निर्भर नहीं हैं। किशोर कुमार द्वारा हिन्दी वर्णमाला के स्वरों का सरगम के रूप में ऐतिहासिक प्रयोग इसका सहज उदाहरण है। शिष्या एवं गुरु का सम्बन्ध पुत्री एवं पिता के समान है। यदि किसी भी पक्ष द्वारा इस सम्बन्ध को कोई अन्य रूप दिया जाने का प्रयास किया जाय तो यह सामाजिक दृष्टि से अनुचित है।  नायिका के गुरु द्वारा अपनी शिष्या के प्रति आसक्ति इसी और इशारा करती है कि व्यक्ति चाहे जितना भी योग्य हो किन्तु यदि वह अपनी गरिमा बनाकर नहीं रखा है तो समाज में उसे सम्मान नहीं मिलता। 

इससे स्पष्ट है कि फ़िल्में समाज के लिए कितना महत्वपूर्ण आदर्श रहने में सक्षम हैं। न जाने कैसे फिल्म के निर्माता व्यवसायीकरण की आड़ में विशेष भावना से प्रेरित फिल्मों का निर्माण करने लगे और गलत आदर्शों को भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर परोसने लगे। इतना ही नहीं, उन्होंने ऐतिहासिक तथ्यों को भी तोड़-मरोड़ कर जनता को भ्रमित करने का प्रयास किया। भारतीय संस्कृति के आदर्श-स्तम्भ कब कार्टून एवं सुपरहीरो चरित्र बन गए यह पता ही नहीं चला। वर्तमान में भी ऐसी फिल्मे बनाये जाने की आवश्यकता है जो मुनाफा की दृष्टि से ऊपर उठ सकें तथा वर्तमान पीढ़ी को समाज निर्माण हेतु आवश्यक प्रेरणा प्रदान कर सकें। 

- दीपक श्रीवास्तव 


Wednesday, December 25, 2019

--- क्रिसमस पर विशेष ---

हमारा राष्ट्र पर्व -प्रधान है। वसुधैव कुटुम्बकम की महान भावना को हृदय में धारण किये हमने प्रत्येक मत, पंथ, सम्प्रदाय की भावनाओं को उचित सम्मान दिया है। हम कभी तलवारों के दम पर या आर्थिक प्रलोभन के आधार पर पंथ परिवर्तन के पक्षधर नहीं रहे। धर्म जीवन की गति है तथा यही  समाज मे मर्यादा एवं स्वतंत्रता में सामंजस्य बनाकर रखता है। अतः धर्मनिरपेक्ष होने का अर्थ स्वयं में पाशविक प्रवृत्तियों को अंगीकार करना है।

क्रिसमस समेत अनेक पर्वों पर परिवार एवं मित्रों के साथ खुशियां मनाना आज के एकाकी जीवन के लिए वरदान हो सकता है तथा इसे समाज को स्वीकार करना चाहिए। किन्तु बच्चों का मन अत्यन्त कोमल होता है तथा बचपन में पड़े संस्कार स्थायी होते हैं। अतः बच्चों के लिए सेंटा द्वारा उपहारों की कामना उनमें बचपन से ही लालची प्रवृत्तियों के विकसित होने की शुरुआत कर सकता है। यह बात छोटी भले ही प्रतीत होती हो, किंतु मुफ्त में कुछ भी पाने की प्रवृत्ति ही आगे चलकर समाज को बाजारवाद में उलझा देती है। इन्ही प्रलोभनों की आड़ में अनेक अयोग्य राजनेता मुफ्त सुविधाओं के प्रलोभन की आड़ में राजनीति के महत्वपूर्ण पदों पर आसीन हो जाते हैं जिसका दुष्परिणाम पूरे देश को भुगतना पड़ता है।

क्रिसमस ट्री की सजावट बहुत अच्छी लगती है किंतु इन कृत्रिम वृक्षों पर जगमगाती नकली लाइटों की सजावट से ऊर्जा की बर्बादी के साथ-साथ अनावश्यक प्लास्टिक कचरा इत्यादि इकट्ठा हो जाता है जो पर्यावरण की दृष्टि से अच्छा नहीं है। बड़े स्तर पर नित सजाए जाने वाले मॉल इत्यादि इसी का वृहद रूप हो सकते हैं जो चाहे कितने भी भव्य दिखें किन्तु वे  जीवन शैली में भौतिक दिखावे को ही बढ़ावा देते हैं और जब इनसे व्यक्ति बोर हो जाता है तब वह उन्हीं प्राकृतिक स्थानों की ओर मुड़कर देखता है जिन्हें वह विकास की अंधी दौड़ में पीछे छोड़ आया है। आइए जीवनदायी वृक्षों को क्रिसमस ट्री मानकर उनके जलाभिषेक द्वारा अपना एवं समाज का बेहतर भविष्य सुनिश्चित करें।

मेरा निवेदन है कि इस शुभ अवसर पर बच्चों को उनके नैतिक आदर्शों वाली यथार्थपरक कहानियों से जोड़ा जाए जिससे उनके अन्दर अच्छे-बुरे की समझ के साथ संघर्ष, परिश्रम का आदर्श विकसित हो सके जिससे वे बेहतर समाज के महत्वपूर्ण घटक बन सकें।

- दीपक श्रीवास्तव