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Tuesday, April 28, 2020

श्रीदुर्गासप्तशती चतुर्थ अध्याय (काव्य रूपान्तर)

श्री दुर्गासप्तशती काव्यरूप
(चतुर्थ अध्याय)

ध्यान

जिन्हें सिद्धियों की इच्छा है,
वे जिनका करते यशगान।
देव जिन्हें घेरे रहते हैं,
सारे जिनका करते ध्यान।।
दुर्गा देवी, नाम जया है,
आभा काले मेघ समान।
श्यामल-वर्णी शत्रू दल को,
क्षण में करती भीति प्रदान।।
मस्तक पर है चन्द्र सुशोभित,
कर में धारे चक्र, कृपाण।
धारण करती शंख त्रिशूल,
भय, विघ्नों से करती त्राण।।
तीन नेत्र वाली तेजोमय,
सिंहवाहिनी का यशगान।
लोक हुए परिपूर्ण तुम्ही से,
तेरा ही हम करते ध्यान।।

("ॐ" ऋषिरुवाच)

महिषासुर के संग दैत्य सेना के माँ ने प्राण हरे।
अनुपम कृपा हुई देवी की जग के सारे त्रास टरे।।

शीश झुकाकर इन्द्र, देवजन, करते थे देवी का ध्यान।
उत्तम वचनों द्वारा माँ की ममतामयी भक्ति का गान।।

देवी की सुन्दर आभा से मन में भक्ति भाव डोले।
सभी देवता हर्षित होकर देवी की स्तुति बोले।।

कण-कण में तेरा ही नाम, हे जगदम्बे, तुम्हें प्रणाम।।

सब देवों की शक्ति तुममें,
मिलकर संग निवास करे।
सारा जग है व्याप्त तुम्ही से,
सृष्टि तुम्हीं में वास करे।
देवों ऋषियों से हो पूजित, भक्ति भाव से तुम्हें प्रणाम।।

शेषनाग भी सहस्र मुखों से,
तेरी महिमा कह न पाएं।
बह्मा, विष्णु, महादेव भी,
श्रद्धापूर्वक तुमको गायें।
तेरे अनुपम बल प्रभाव को, गाने में लघु आठों याम।।

हे कल्याणी, तुम्ही सृष्टि का,
पालन, धारण करने वाली,
तुम ही निर्भय करती जग को,
सब तापों को हरने वाली।
हे अम्बे, हे महा-चण्डिके, तुम जीवों का अंतिम धाम।।

पुण्यात्माओं के घर लक्ष्मी,
बनी पापियों में दरिद्रता।
जिनका अन्तःकरण शुद्ध है,
उनमें बुद्धिस्वरूप स्थिता।
आदि-अन्त हो, तुम ही जीवन, पथ तुम ही, माँ तुम ही धाम।।

सत्पुरुषों में श्रद्धा बनकर,
भक्ति मार्ग का देती दान।
जो कुलीन जन हैं उनको,
लज्जा बनकर देती सम्मान।
जग का पालन करने वाली, दुर्गा देवी तुम्हें प्रणाम।।

तेरे इस अचिन्त्य रूप का,
किस प्रकार मन भजन करे?
असुरों का वध करने वाला,
घोर पराक्रम मनन करे।
जीवन की सीमाएं लघुतम, तुम वर्णनातीत अविराम।।

असुरों से जो युद्धभूमि में,
तूने प्रकट चरित्र किये।
सारे अद्भुत, अमर, अलौकिक,
तीनों लोक पवित्र किये।
शब्द-छन्द में कैसे गाये, जीवन बैठा जड़ता थाम।।

तुमसे ही उत्पत्ति जगत की,
आदिशक्ति हो, जननी हो।
रजगुण, तमगुण, सत्वगुणों की,
तुम ही धारण-करणी हो।
दोषमुक्त तेरे चरितों का, कोई ना जाने आयाम।।

श्रीहरि एवं महादेव भी,
तेरा पार न जान सके।
जो तू चाहे वो जग जाने,
और न कुछ पहचान सके।
तुम ही सबकी आश्रय हो मां, तुम्ही जन्म-मुक्ति तुम धाम।।

जगत तुम्हारा अंशभूत है,
सब तुममें ही बसे हुए।
आदिभूत अव्यक्त प्रकृति हो,
परा रूप में रसे हुए।
तुम ही यज्ञों का उच्चारण, तुम्हीं मन्त्र हो तुम ही गान।

यज्ञों में जिनके उच्चारण से,
से देवों को तृप्ति मिले।
वह स्वाहा तुम ही हो माता,
कैसे तेरी भक्ति मिले?
तुमसे ही पितरों की तृप्ति, तभी स्वधा है तेरा नाम।।

दोषरहित जीतेंद्रिय मुनिजन,
सार-तत्व अभ्यास करें।
अचिन्त्यरूपा महाव्रता,
जो मुक्ति हेतु प्रयास करें।
वही परा-विद्या तुम ही हो, नाम तेरा हर क्षण अविराम।।

शब्दस्वरूपा, सामवेद का,
मां तुम ही आधार हो।
यजुर्वेद, ऋग्वेद तथा,
उदगीथ पदों का सार हो,
छह ऐश्वर्य बसे हैं तुममें, त्रयी, भगवती, तुम्हें प्रणाम।।

जग उत्पत्ती, व पालन को,
तुमने वार्ता रूप लिया।
शास्त्रों को जग समझ सके,
मेधाशक्ति का रूप लिया।
जग की पीड़ा हरने वाली, कोटि-कोटि माँ तुम्हे प्रणाम।।
 
सारे जग के पीड़ाओं की,
तुम ही नाशनहार हो।  
दुर्गम भवसागर से प्राणी,
तव किरपा से पार हो।
दुर्गतिहारिणी दुर्गे देवी, सांस सांस तेरा ही धाम।।

कहीं तेरी आसक्ति नहीं है,
तुमसे बढ़कर भक्ति नहीं है।
मुख पर है मधुरिम मुस्कान,
तुम बिन कोई तृप्ति नहीं है।
शक्ति स्वरूपा तेरे गुण हैं,  आदि अनादि अनंत अनाम।।

जगदीश्वर के वक्षस्थल में,
लक्ष्मी बनकर बसती हो।
गौरी माता रूप धरे तुम,
शिवजी का मन हरती हो।
भक्ति मुक्ति को देने वाली,  अम्बे माता तुम्हें प्रणाम।।

निर्मल शीतल चंद्र रूप है,
कांति मनोहर रवि स्वरूप है।
विस्मय क्यों ना बोध हुआ,
महिषासुर को क्रोध हुआ।
कैसे खल ने किया प्रहार,  तेरी माया तू ही जान ।।

जब भी तुमको क्रोध हुआ,
उदय कॉल शशि बोध हुआ।
तनी भौंह विकराल हुआ,
मुखमण्डल भी लाल हुआ।
फिर भी अति कल्याणमयी हो, आदि-अन्त तक तेरा नाम।।

यम की जो क्रोधाग्नि दिखे जग,
जीवित कब रह सकता है?
तेरा मुख विकराल देखकर,
प्राण ठहर कब सकता है?
फिर भी महिषासुर जीवित था,  तव किरपा का ही परिणाम।।

हे परमात्मा स्वरुपे जननी,
तू प्रसन्न जग जीवन पाए।
क्षण भर को जो कुपित हुई तो,
कुल का सर्वनाश हो जाए।
कैसे तुझे प्रसन्न करूँ माँ,  पूजन विधि से हूं अनजान।।

तव महिमा कण भर न जाने,
जन्म भले कितने अनंत हों।
दैत्य दनुज की अतुलित सेना,
का क्षण भर में एक अंत हो।
सारा जग अनुभव से जाने, तव प्रकोप का चिर परिणाम।।

सदा अभ्युदय देने वाली,
जो पाए तव दृष्टि महान।
उनका धर्म शिथिल ना होवे,
सदा मिले धन-यश-सम्मान,
स्त्री-पुत्रों-भृत्यों के संग, जीवन धन्य होय अविराम।।

तेरी ही कृपा से प्राणी,
सदा धर्म अनुकूल रहे।
प्राणों से भी आगे जीवन,
तव चरणों की धूल रहे।
प्रेममयी भक्ति दे अम्बे, चाहे जो भी दे परिणाम।।

हे शुभ धर्म प्रदायिनि माते,
कर्म शुभाशुभ तुमसे आते। 
उन कर्मों के ही प्रभाव से,
प्राणी स्वर्गलोक को जाते। 
मनवांछित फल देने वाली, मेरी जन्म-मुक्ति ले थाम।।

जो तेरा स्मरण करे है,
उसके भय हर लेती हो। 
चिन्तन करने पर हे माते,
बुद्धि शुभाशुभ देती हो। 
दुःख-दरिद्रता हरने वाली, जड़-चेतन सब तेरा नाम।।

दैत्य भले ही पाप कमाएं,
वे भी स्वर्गलोक को जाएँ। 
उनके वध से जग सुख पाए,
इसीलिए तू शस्त्र उठाये। 
ममतामयि, करुणामयि माते, जड़-चेतन सब तेरे नाम।।

क्यों तू शस्त्र प्रहार करे जब,
दृष्टि भस्म कर सकती है। 
शस्त्र-वार से हो पवित्र,
रिपुदल की भी तो मुक्ति है। 
ऐसा जो उत्तम विचार, फिर भक्ति का क्या हो परिणाम।।

तव त्रिशूल की दीप्त प्रभा से,
चाहे जीवन लड़ियाँ टूटी। 
खड्ग के महा-तेजपुंज से,
असुरों की आँखें न फूटी। 
वे तेरा दर्शन कर पाए, मोहक छवि अनन्त अविराम।।

शील तुम्हारा दुराचारियों 
का बर्ताव सुधारे ऐसा। 
जो अचिन्त्य है, अतुलनीय है,
रूप तेरा मनमोहक ऐसा। 
रिपुओं को भी क्षमादान देती हो तुमको कोटि प्रणाम।।

तेरा बल व महापराक्रम,
उन दैत्यों का नाश करे। 
जो देवों का प्रबल पराक्रम,
करके नष्ट दुःहास करें। 
तेरी तुलना सिर्फ तुम्हीं से, दिग-दिगन्त में आठों याम।।

हे वरदायिनि, अतीव सुन्दर,
महा-अलौकिक तेरा रूप। 
शत्रु-जगत को भय दिखलाता,
और कहाँ है ऐसा रूप। 
उर में कृपा, युद्ध में निष्ठुर, लोकों में बस तेरा काम।।

शत्रु-नाश करके हे माते,
तूने रक्षा की त्रिलोक की। 
युद्धभूमि में मार शत्रु को,
उन्हें राह दी स्वर्गलोक की। 
दैत्यों से भयमुक्त कर दिया, शक्तिस्वरूपा तुम्हें प्रणाम।।

हम बालक हैं, आप शूल से,
माता सदा हमें रक्षा दें।
महा-अम्बिके खड्ग-धनुष से,
घण्टे की ध्वनि रक्षा दें। 
मेरा चिन्तन-मनन आप हों, आप धर्म-कर्म व धाम।।

हे चण्डिके, पूर्व-पश्चिम व,
दक्षिण दिशि में रक्षा दें। 
हे ईश्वरी, त्रिशूल घुमाकर,
उत्तर में भी रक्षा दें। 
सुन्दर और भयंकर रूपों द्वारा रक्षा दें अविराम।।

हे अम्बिका आपके हाथों,
में जो शोभित शूल गदा। 
खड्ग आदि जो शस्त्र सुशोभित,
उनसे दुर्जन कौन बचा?
रक्षा सदा करें जगती की, याचक हम, विनती है काम।। 

इस प्रकार सारे देवों ने जगमाता की स्तुति की।
नंदन-वन के दिव्य पुष्प, चन्दन-सुगंध से भक्ति की।।

दीप्त धूप की दिव्य गंध अरु भक्ति प्रवाह अनन्त बहे। 
देवी ने होकर प्रसन्न , देवों से अनुपम शब्द कहे।।

हे देवों, तुम सबके मन में जो कुछ भी अभिलाषा है। 
बिना कोई संकोच कहो, मुझसे जो भी कुछ आशा है।।

सभी देवता बोले - माता ! सारी इच्छा पूर्ण हुई। 
दिव्य-दरश व महिषासुर वध से इच्छा सम्पूर्ण हुई।।

फिर भी माता महेश्वरी, वरदान अगर देना चाहें। 
हो जब भी स्मरण आपका, खुलें दरश की तब राहें।।

तेरे पावन दर्शन से, हम सब के संकट दूर रहें। 
तन-मन-चेतन सदा आपकी भक्ति से भरपूर रहें।।

हे प्रसन्नमुख मातु अम्बिके, जो नर तेरी भक्ति करे। 
इन चरितों के पाठों द्वारा सदा तेरी स्तुति करे।।

सदा उसे समृद्धि तथा यश-वैभव-धन का साथ रहे। 
इन पावन सत्कार्य हेतु, तेरा नित हम पर हाथ रहे।।

देवलोक व जगती के कल्याण हेतु यह यत्न किया। 
देवों ने माँ भद्रकालि देवी को यथा प्रसन्न किया।।

देवी कहकर यथा-अस्तु क्षण-भर में अंतर्ध्यान हुईं। 
देवों से प्रकटी देवी लोकों की पावन धाम हुईं।।

माता की यह अनुपम गाथा, पावन, पूज्य महान है। 
चर से अचर तथा जड़-चेतन यह सबकी पहचान है।।

देवों की उपकारी देवी, असुरों से जग तार दिया। 
शुम्भ-निशुम्भ तथा दैत्यों के वध से जग उद्धार किया।।

गौरी देवी के शरीर से जिस प्रकार वे प्रकट हुईं। 
भक्ति-भाव से सुनें सिद्धियाँ जिस गाथा से निकट हुईं।।

श्री मार्कण्डेय पुराण अन्तर्गत सावर्णिक मन्वन्तर में वर्णित देवी माहात्म्य का चतुर्थ अध्याय काव्य रूपान्तर समाप्त।

- दीपक श्रीवास्तव

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