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Tuesday, April 28, 2020

श्रीदुर्गासप्तशती चतुर्थ अध्याय (काव्य रूपान्तर)

श्री दुर्गासप्तशती काव्यरूप
(चतुर्थ अध्याय)

ध्यान

जिन्हें सिद्धियों की इच्छा है,
वे जिनका करते यशगान।
देव जिन्हें घेरे रहते हैं,
सारे जिनका करते ध्यान।।
दुर्गा देवी, नाम जया है,
आभा काले मेघ समान।
श्यामल-वर्णी शत्रू दल को,
क्षण में करती भीति प्रदान।।
मस्तक पर है चन्द्र सुशोभित,
कर में धारे चक्र, कृपाण।
धारण करती शंख त्रिशूल,
भय, विघ्नों से करती त्राण।।
तीन नेत्र वाली तेजोमय,
सिंहवाहिनी का यशगान।
लोक हुए परिपूर्ण तुम्ही से,
तेरा ही हम करते ध्यान।।

("ॐ" ऋषिरुवाच)

महिषासुर के संग दैत्य सेना के माँ ने प्राण हरे।
अनुपम कृपा हुई देवी की जग के सारे त्रास टरे।।

शीश झुकाकर इन्द्र, देवजन, करते थे देवी का ध्यान।
उत्तम वचनों द्वारा माँ की ममतामयी भक्ति का गान।।

देवी की सुन्दर आभा से मन में भक्ति भाव डोले।
सभी देवता हर्षित होकर देवी की स्तुति बोले।।

कण-कण में तेरा ही नाम, हे जगदम्बे, तुम्हें प्रणाम।।

सब देवों की शक्ति तुममें,
मिलकर संग निवास करे।
सारा जग है व्याप्त तुम्ही से,
सृष्टि तुम्हीं में वास करे।
देवों ऋषियों से हो पूजित, भक्ति भाव से तुम्हें प्रणाम।।

शेषनाग भी सहस्र मुखों से,
तेरी महिमा कह न पाएं।
बह्मा, विष्णु, महादेव भी,
श्रद्धापूर्वक तुमको गायें।
तेरे अनुपम बल प्रभाव को, गाने में लघु आठों याम।।

हे कल्याणी, तुम्ही सृष्टि का,
पालन, धारण करने वाली,
तुम ही निर्भय करती जग को,
सब तापों को हरने वाली।
हे अम्बे, हे महा-चण्डिके, तुम जीवों का अंतिम धाम।।

पुण्यात्माओं के घर लक्ष्मी,
बनी पापियों में दरिद्रता।
जिनका अन्तःकरण शुद्ध है,
उनमें बुद्धिस्वरूप स्थिता।
आदि-अन्त हो, तुम ही जीवन, पथ तुम ही, माँ तुम ही धाम।।

सत्पुरुषों में श्रद्धा बनकर,
भक्ति मार्ग का देती दान।
जो कुलीन जन हैं उनको,
लज्जा बनकर देती सम्मान।
जग का पालन करने वाली, दुर्गा देवी तुम्हें प्रणाम।।

तेरे इस अचिन्त्य रूप का,
किस प्रकार मन भजन करे?
असुरों का वध करने वाला,
घोर पराक्रम मनन करे।
जीवन की सीमाएं लघुतम, तुम वर्णनातीत अविराम।।

असुरों से जो युद्धभूमि में,
तूने प्रकट चरित्र किये।
सारे अद्भुत, अमर, अलौकिक,
तीनों लोक पवित्र किये।
शब्द-छन्द में कैसे गाये, जीवन बैठा जड़ता थाम।।

तुमसे ही उत्पत्ति जगत की,
आदिशक्ति हो, जननी हो।
रजगुण, तमगुण, सत्वगुणों की,
तुम ही धारण-करणी हो।
दोषमुक्त तेरे चरितों का, कोई ना जाने आयाम।।

श्रीहरि एवं महादेव भी,
तेरा पार न जान सके।
जो तू चाहे वो जग जाने,
और न कुछ पहचान सके।
तुम ही सबकी आश्रय हो मां, तुम्ही जन्म-मुक्ति तुम धाम।।

जगत तुम्हारा अंशभूत है,
सब तुममें ही बसे हुए।
आदिभूत अव्यक्त प्रकृति हो,
परा रूप में रसे हुए।
तुम ही यज्ञों का उच्चारण, तुम्हीं मन्त्र हो तुम ही गान।

यज्ञों में जिनके उच्चारण से,
से देवों को तृप्ति मिले।
वह स्वाहा तुम ही हो माता,
कैसे तेरी भक्ति मिले?
तुमसे ही पितरों की तृप्ति, तभी स्वधा है तेरा नाम।।

दोषरहित जीतेंद्रिय मुनिजन,
सार-तत्व अभ्यास करें।
अचिन्त्यरूपा महाव्रता,
जो मुक्ति हेतु प्रयास करें।
वही परा-विद्या तुम ही हो, नाम तेरा हर क्षण अविराम।।

शब्दस्वरूपा, सामवेद का,
मां तुम ही आधार हो।
यजुर्वेद, ऋग्वेद तथा,
उदगीथ पदों का सार हो,
छह ऐश्वर्य बसे हैं तुममें, त्रयी, भगवती, तुम्हें प्रणाम।।

जग उत्पत्ती, व पालन को,
तुमने वार्ता रूप लिया।
शास्त्रों को जग समझ सके,
मेधाशक्ति का रूप लिया।
जग की पीड़ा हरने वाली, कोटि-कोटि माँ तुम्हे प्रणाम।।
 
सारे जग के पीड़ाओं की,
तुम ही नाशनहार हो।  
दुर्गम भवसागर से प्राणी,
तव किरपा से पार हो।
दुर्गतिहारिणी दुर्गे देवी, सांस सांस तेरा ही धाम।।

कहीं तेरी आसक्ति नहीं है,
तुमसे बढ़कर भक्ति नहीं है।
मुख पर है मधुरिम मुस्कान,
तुम बिन कोई तृप्ति नहीं है।
शक्ति स्वरूपा तेरे गुण हैं,  आदि अनादि अनंत अनाम।।

जगदीश्वर के वक्षस्थल में,
लक्ष्मी बनकर बसती हो।
गौरी माता रूप धरे तुम,
शिवजी का मन हरती हो।
भक्ति मुक्ति को देने वाली,  अम्बे माता तुम्हें प्रणाम।।

निर्मल शीतल चंद्र रूप है,
कांति मनोहर रवि स्वरूप है।
विस्मय क्यों ना बोध हुआ,
महिषासुर को क्रोध हुआ।
कैसे खल ने किया प्रहार,  तेरी माया तू ही जान ।।

जब भी तुमको क्रोध हुआ,
उदय कॉल शशि बोध हुआ।
तनी भौंह विकराल हुआ,
मुखमण्डल भी लाल हुआ।
फिर भी अति कल्याणमयी हो, आदि-अन्त तक तेरा नाम।।

यम की जो क्रोधाग्नि दिखे जग,
जीवित कब रह सकता है?
तेरा मुख विकराल देखकर,
प्राण ठहर कब सकता है?
फिर भी महिषासुर जीवित था,  तव किरपा का ही परिणाम।।

हे परमात्मा स्वरुपे जननी,
तू प्रसन्न जग जीवन पाए।
क्षण भर को जो कुपित हुई तो,
कुल का सर्वनाश हो जाए।
कैसे तुझे प्रसन्न करूँ माँ,  पूजन विधि से हूं अनजान।।

तव महिमा कण भर न जाने,
जन्म भले कितने अनंत हों।
दैत्य दनुज की अतुलित सेना,
का क्षण भर में एक अंत हो।
सारा जग अनुभव से जाने, तव प्रकोप का चिर परिणाम।।

सदा अभ्युदय देने वाली,
जो पाए तव दृष्टि महान।
उनका धर्म शिथिल ना होवे,
सदा मिले धन-यश-सम्मान,
स्त्री-पुत्रों-भृत्यों के संग, जीवन धन्य होय अविराम।।

तेरी ही कृपा से प्राणी,
सदा धर्म अनुकूल रहे।
प्राणों से भी आगे जीवन,
तव चरणों की धूल रहे।
प्रेममयी भक्ति दे अम्बे, चाहे जो भी दे परिणाम।।

हे शुभ धर्म प्रदायिनि माते,
कर्म शुभाशुभ तुमसे आते। 
उन कर्मों के ही प्रभाव से,
प्राणी स्वर्गलोक को जाते। 
मनवांछित फल देने वाली, मेरी जन्म-मुक्ति ले थाम।।

जो तेरा स्मरण करे है,
उसके भय हर लेती हो। 
चिन्तन करने पर हे माते,
बुद्धि शुभाशुभ देती हो। 
दुःख-दरिद्रता हरने वाली, जड़-चेतन सब तेरा नाम।।

दैत्य भले ही पाप कमाएं,
वे भी स्वर्गलोक को जाएँ। 
उनके वध से जग सुख पाए,
इसीलिए तू शस्त्र उठाये। 
ममतामयि, करुणामयि माते, जड़-चेतन सब तेरे नाम।।

क्यों तू शस्त्र प्रहार करे जब,
दृष्टि भस्म कर सकती है। 
शस्त्र-वार से हो पवित्र,
रिपुदल की भी तो मुक्ति है। 
ऐसा जो उत्तम विचार, फिर भक्ति का क्या हो परिणाम।।

तव त्रिशूल की दीप्त प्रभा से,
चाहे जीवन लड़ियाँ टूटी। 
खड्ग के महा-तेजपुंज से,
असुरों की आँखें न फूटी। 
वे तेरा दर्शन कर पाए, मोहक छवि अनन्त अविराम।।

शील तुम्हारा दुराचारियों 
का बर्ताव सुधारे ऐसा। 
जो अचिन्त्य है, अतुलनीय है,
रूप तेरा मनमोहक ऐसा। 
रिपुओं को भी क्षमादान देती हो तुमको कोटि प्रणाम।।

तेरा बल व महापराक्रम,
उन दैत्यों का नाश करे। 
जो देवों का प्रबल पराक्रम,
करके नष्ट दुःहास करें। 
तेरी तुलना सिर्फ तुम्हीं से, दिग-दिगन्त में आठों याम।।

हे वरदायिनि, अतीव सुन्दर,
महा-अलौकिक तेरा रूप। 
शत्रु-जगत को भय दिखलाता,
और कहाँ है ऐसा रूप। 
उर में कृपा, युद्ध में निष्ठुर, लोकों में बस तेरा काम।।

शत्रु-नाश करके हे माते,
तूने रक्षा की त्रिलोक की। 
युद्धभूमि में मार शत्रु को,
उन्हें राह दी स्वर्गलोक की। 
दैत्यों से भयमुक्त कर दिया, शक्तिस्वरूपा तुम्हें प्रणाम।।

हम बालक हैं, आप शूल से,
माता सदा हमें रक्षा दें।
महा-अम्बिके खड्ग-धनुष से,
घण्टे की ध्वनि रक्षा दें। 
मेरा चिन्तन-मनन आप हों, आप धर्म-कर्म व धाम।।

हे चण्डिके, पूर्व-पश्चिम व,
दक्षिण दिशि में रक्षा दें। 
हे ईश्वरी, त्रिशूल घुमाकर,
उत्तर में भी रक्षा दें। 
सुन्दर और भयंकर रूपों द्वारा रक्षा दें अविराम।।

हे अम्बिका आपके हाथों,
में जो शोभित शूल गदा। 
खड्ग आदि जो शस्त्र सुशोभित,
उनसे दुर्जन कौन बचा?
रक्षा सदा करें जगती की, याचक हम, विनती है काम।। 

इस प्रकार सारे देवों ने जगमाता की स्तुति की।
नंदन-वन के दिव्य पुष्प, चन्दन-सुगंध से भक्ति की।।

दीप्त धूप की दिव्य गंध अरु भक्ति प्रवाह अनन्त बहे। 
देवी ने होकर प्रसन्न , देवों से अनुपम शब्द कहे।।

हे देवों, तुम सबके मन में जो कुछ भी अभिलाषा है। 
बिना कोई संकोच कहो, मुझसे जो भी कुछ आशा है।।

सभी देवता बोले - माता ! सारी इच्छा पूर्ण हुई। 
दिव्य-दरश व महिषासुर वध से इच्छा सम्पूर्ण हुई।।

फिर भी माता महेश्वरी, वरदान अगर देना चाहें। 
हो जब भी स्मरण आपका, खुलें दरश की तब राहें।।

तेरे पावन दर्शन से, हम सब के संकट दूर रहें। 
तन-मन-चेतन सदा आपकी भक्ति से भरपूर रहें।।

हे प्रसन्नमुख मातु अम्बिके, जो नर तेरी भक्ति करे। 
इन चरितों के पाठों द्वारा सदा तेरी स्तुति करे।।

सदा उसे समृद्धि तथा यश-वैभव-धन का साथ रहे। 
इन पावन सत्कार्य हेतु, तेरा नित हम पर हाथ रहे।।

देवलोक व जगती के कल्याण हेतु यह यत्न किया। 
देवों ने माँ भद्रकालि देवी को यथा प्रसन्न किया।।

देवी कहकर यथा-अस्तु क्षण-भर में अंतर्ध्यान हुईं। 
देवों से प्रकटी देवी लोकों की पावन धाम हुईं।।

माता की यह अनुपम गाथा, पावन, पूज्य महान है। 
चर से अचर तथा जड़-चेतन यह सबकी पहचान है।।

देवों की उपकारी देवी, असुरों से जग तार दिया। 
शुम्भ-निशुम्भ तथा दैत्यों के वध से जग उद्धार किया।।

गौरी देवी के शरीर से जिस प्रकार वे प्रकट हुईं। 
भक्ति-भाव से सुनें सिद्धियाँ जिस गाथा से निकट हुईं।।

श्री मार्कण्डेय पुराण अन्तर्गत सावर्णिक मन्वन्तर में वर्णित देवी माहात्म्य का चतुर्थ अध्याय काव्य रूपान्तर समाप्त।

- दीपक श्रीवास्तव

Saturday, April 25, 2020

श्रीदुर्गासप्तशती तृतीय अध्याय (काव्य रूपान्तर)

श्री दुर्गासप्तशती काव्यरूप
(तृतीय अध्याय)

ध्यान 

श्री जगदम्बा के अंगों में,
दिव्य तेज है, परम शान्ति है।
उदयकाल के अनगिन सूर्यों,
के समान अनुपम सुकान्ति है।।
लाल रेशमी साड़ी पहने,
तथा गले में मुण्डमाल है।
रक्त तथा चन्दन लेपन से,
दोनों स्तन तीक्ष्ण लाल हैं।।
कर-कमलों की मुद्राएं वर,
विद्या, जपमालिका, अभय हैं।
तीन नेत्र से शोभित मुख से,
भव के मिट जाते सब भय हैं।।
मस्तक पर चन्द्रमा सुशोभित,
साथ रत्नमय मुकुट विशाल।
कमलासन पर तुम्हीं विराजित,
तुम्हें भक्ति से करूँ प्रणाम।।

("ॐ" ऋषिरुवाच)

देख दैत्य सेना की हालत, चिक्षुर को अति क्रोध हुआ।
देवी के मंगल स्वरुप का, पर उसको ना बोध हुआ।।

मातु अम्बिका देवी पर चिक्षुर बाणों से वार करे।
जैसे बादल मेरुगिरी की चोटी पर जलधार करे।।

देवी ने उसके बाणों को अनायास ही काट दिया।
धनुष तथा ऊँचा ध्वज उसका, क्षण-भर में ही काट दिया।।

चिक्षुर के घोड़े व सारथि, वीरगती को प्राप्त हुए।
चिक्षुर के अंगों में देवी बाण-सरासन व्याप्त हुए।।

असुर भयंकर क्रोधित होकर ढाल और तलवार लिया।
सिंहराज के मस्तक पर उसने पुरजोर प्रहार किया।।

फिर देवी की वाम भुजा में बड़े वेग से वार किया।
टूट गई तलवार दैत्य की, क्षण में विफल प्रहार हुआ।।

नेत्र क्रोध से लाल हुए, हाथों में शूल उठाया था।
महाभगवती भद्रकालि पर उसने शूल चलाया था।।

प्रबल तेजमय शूल गगन में अति प्रचण्ड उद्भासित था।
नभ से गिरते हुए सूर्यमण्डल की भांति प्रकाशित था।।

देख शूल का वार, देवि ने अपना शूल चलाया था।
अनगिन टुकड़े हुए शूल के जिसको दैत्य पठाया था।।

किन्तु शूल था रुका नहीं, सम्मुख उसके अब कौन हुआ।
चिक्षुर टुकड़े-टुकड़े होकर क्षण भर में ही मौन हुआ।।

महिषासुर के सेनापति चिक्षुर की मृत्यु हुई तत्काल।
चामर हाथी पर आया था डोल रहा उसका भी काल।।

देवों का पीड़क देवी पर दुर्धर शक्ति प्रहार किया।
जगदम्बा ने देख शक्ति को तब भीषण हुंकार किया।।

उच्च नाद से आहत होकर विफल शक्ति का वार हुआ।
क्रोधित चामर शूल चलाया, पर वह भी बेकार हुआ।।

देवी के बाणों ने काट दिया था अरि का शूल प्रबल।
सिंहराज उछले हाथी पर, राक्षस सेना हुई विकल।।

देवी के वाहन ने खल से भीषण बाहूयुद्ध किया।
हाथी से धरती पर पहुंचे, इक दूजे को क्रुद्ध किया।।

चामर व देवी वाहन का युद्ध बड़ा ही भीषण था।
दोनों के भीषण गर्जन से गूँज रहा समरांगण था।।

तभी सिंह ने प्रबल वेग से नभ की ओर उछाल भरा।
पंजों से चामर का मस्तक अलग किया, धड़ वहीं गिरा।।

देवी माता के सम्मुख आया उदग्र बलवान था।
शिला और वृक्षों से निकला रण में उसका प्राण था।।

देवी के मुक्कों से आतंकित कराल विकराल हुआ।
दांतों व थप्पड़ से ही जीवन का अंतिम काल हुआ।।

उद्धत पर देवी ने अपनी प्रबल गदा का वार किया।
अंगों के हो गए चीथड़े, उसका भी संहार किया।।

भिन्दिपाल से बाष्कल मारा, बाणों का संधान किया।
ताम्र तथा अन्धक के तन से ऐसे विलगित प्राण किया।।

तीन नेत्र वाली देवी ने फिर त्रिशूल का वार किया।
उग्रवीर्य, उग्रास्य, महाहनु का जीवन संहार किया।।

अब विडाल सम्मुख था, देवी ने तलवार उठाया था।
उसके मस्तक पर प्रहार कर धड़ से काट गिराया था।।

दुर्धर व दुर्मुख को माता ने बाणों से बेध दिया।
एक साथ ही दोनों को यमलोकपुरी में भेज दिया।।

सेना का संहार देखकर महिषासुर भी विकल हुआ।
फिर भैंसे का रूप धरा, देवी-गण पर वह प्रबल हुआ।।

देवी के अनगिनत गणों पर थूथन से फिर वार किया।
कभी खुरों से, कभी पूंछ से उसने प्रबल प्रहार किया।।

किन्हीं गणों को सींगों से उसने विदीर्ण कर डाला था।
सिंहनाद व् प्रबल वेग से उसने भय को पाला था।।

महिषासुर ने किन्हीं गणों को चक्कर देकर गिरा दिया।
कितनों पर निःश्वास वायु का झोंका उसने फिरा दिया।।

माता के अनगिनत गणों की सेना उससे आहत थी।
महिषासुर के वारों से लेकिन मिलती ना राहत थी।।

सिंहभवानी माता के वाहन पर प्रबल प्रहार हुआ।
जगदम्बा को क्रोध हुआ, जब सिंहराज पर वार हुआ।।

खुर से खोद रहा धरती को, लगता जैसे काल था।
सींगों से ऊँचे पर्वत भी फेंक रहा विकराल था।।

छुब्ध हुई धरती उसके चक्कर से फटने वाली थी।
लगता था कि आयु सभी जीवों की घटने वाली थी।।

महिषासुर की दुम से टकराकर सागर बेहाल हुआ।
चला डुबोने धरती को उसका स्वरुप विकराल हुआ।।

महादैत्य के सींगों से बादल टुकड़ों में बिखर गए।
साँसों की दुर्दम्य वायु से सारे पर्वत सिहर गए।।

नभ से गिरती पर्वतमालाओं से सारे भयक्रान्त थे।
प्रबल वायु के चक्रवात थे, जीवन के प्रति भ्रान्त थे।।

मातु चण्डिका ने महिषासुर का वध मन में पाला था।
पाश फेंककर महाअसुर को बन्धन में कर डाला था।।

महायुद्ध में बंध जाने पर महिष रूप को त्याग दिया।
तत्क्षण सिंह रूप में आकर उसने भीषण नाद किया।।

जगदम्बा माता ने ज्योंही उस पर खड्ग उठाया था।
पुरुष रूप में खड्ग धरे वह अपना रूप दिखाया था।।

देवी ने अविलम्ब दैत्य को बाणवृष्टि से बेध दिया।
ढाल और तलवार असुर का कई जगह से छेद दिया।।

महिषासुर भी बड़ा छली था, रूप बदलता जाता था।
अब विशाल गज रूप लिए वह युद्ध हेतु गुर्राता था।।

देवी के वाहन को खल ने सूंड उठाकर पकड़ लिया।
खींच-खींच कर गर्जन करता सिंहराज को जकड़ लिया।।

देवी ने तलवार उठाकर सूंड असुर का काट दिया।
महादैत्य भैंसा बन कर फिर अपना रूप विराट किया।।

हाहाकार मचा जग में, भूलोक अतल सब व्याकुल थे।
माता से थी आस बंधी जीवन रक्षा को आकुल थे।।

क्रोध भरी जगमातु चण्डिका ने उत्तम मधुपान किया।
नेत्र लाल कर अट्टहास का गर्जन स्वर में नाद किया।।

बल व महापराक्रम के मद में महिषासुर मत्त हुआ।
सींगों से चण्डी देवी पर तुंग फेंक उन्मत्त हुआ।।

देवी बाणों की वर्षा से पर्वत चकनाचूर हुआ।
बोल गए लड़खड़ा, देवि मुख लाल मधू से पूर हुआ।।

देवी बोलीं, मूढ़! ठहर जा, जब तक मै मधु पीती हूँ।
तब तक तू गर्जन कर ले फिर प्राण तेरा हर लेती हूँ।।

क्षण-भर जीवन शेष बचा है, अब तो मृत्यु सुनिश्चित है।
देवों का गर्जन तेरा वध हो जाने पर निश्चित है।।

यों कहकर देवी उछलीं, अब महादैत्य पर चढ़ी प्रबल।
चरणकमल से दबा, कण्ठ में शूल वार से किया विकल।।

महिषासुर दबकर भी बदले रूप निकलने वाला था।
पर जगजननी के प्रभाव से कब तक बचने वाला था।।

आधा तन ही निकल सका, तब तक देवी ने रोक दिया।
आधा होने पर भी खल ने पूरी ताकत झोंक दिया।।

देवी ने तलवार उठाई, भीषण जो लपलपा रही।
धार भयानक थी जो तीनों लोकों को कंपकंपा रही।।

महिषासुर पर वार किया, क्षण-भर में गर्दन काट दिया।
महादैत्य के भीषण तन को दो टुकड़ों में बांट दिया।।

दैत्यों की सेना में फिर तो भीषण हाहाकार हुआ।
भाग गई सेना, देवों का महास्वप्न साकार हुआ।।

देवों तथा महाऋषियों ने देवी का यशगान किया।
नृत्य अप्सराओं के गूंजे, गन्धर्वों ने गान किया।।

श्री मार्कण्डेय पुराण अन्तर्गत सावर्णिक मन्वन्तर में वर्णित देवी माहात्म्य का तृतीय अध्याय काव्य रूपान्तर समाप्त।

- दीपक श्रीवास्तव 

Thursday, April 2, 2020

श्रीदुर्गासप्तशती द्वितीय अध्याय (काव्य रूपान्तर)

श्री दुर्गासप्तशती काव्यरूप
(द्वितीय अध्याय)

विनियोग मन्त्र
ॐ मध्यम चरित्रस्य विष्णुर्ऋषिर्महालक्ष्मीर्देवता, उष्णिक् छन्दः शाकम्भरी शक्तिः, दुर्गा बीजं, वायुस्तत्त्वं, यजुर्वेदः स्वरूपं, श्री महालक्ष्मीप्रीत्यर्थं मध्यमचरित्रजपे विनियोगः॥

ध्यान
कमलासन पर तुम्ही विराजित,
महिषासुरमर्दिनी भवानी।
भक्ति महालक्ष्मी की मिलकर,
करें देवता, ऋषि,मुनि ज्ञानी।।
कर-कमलों में फरसा, घण्टा,
अक्षमाल, धनु, बज्र, कुण्डिका।
गदा, बाण, मधुपात्र दण्ड है,
खड्ग, ढाल व शूल, चक्र है।
पद्म, शंख अरु पाश धारती,
शक्ति स्वरूपा तेरी आरती।।

("ॐ ह्रीं" ऋषिरुवाच)

पूर्वकाल में देवासुर में, सौ वर्षों तक युद्ध हुआ।
असुरों का स्वामी महिषासुर, देवजनों से क्रुद्ध हुआ।।

समरांगण में देवजनों की, महायुद्ध में हार हुई।
महिषासुर अधिपति बन बैठा, इन्द्रदेव की हार हुई।।

ब्रह्मदेव के पास देवता, गए हार का दुःख लेकर।
जहाँ हरी-हर दोनों बैठे, पहुंचे वे विनती लेकर।।

महिषासुर का प्रबल पराक्रम, देवेश्वर को समझाया।
कैसे हुए पराजित सुरगण, दीनभाव से बतलाया।।

बोले महाविकट महिषासुर, अधिपति बनकर ऐंठा है।
सूर्य, इन्द्र व देवजनों का यज्ञभाग ले बैठा है।।

देवों का अधिकार गया, वे स्वर्गलोक से भागे हैं।
तथा मनुज की भांति विचरते, भू से आश्रय मांगे हैं।।

सारी घटना सत्य बताई, अब तेरे शरणागत हैं।
तुमसे ही बस आस बंधी है, हम तेरे ही साधक हैं।।

सुन देवों के करुण वचन, हरिहर को भीषण क्रोध हुआ।
भौंह तनी, मुख वक्र हुआ, दोनों को अनुपम रोष हुआ।।

चक्रपाणि श्रीहरि के मुख से, निकला तेज महाविकराल।
शिव समेत देवों के तन से, प्रबल तेज की निकली ज्वाल।।

तेजपुंज सब एक हुए, पर्वत सी ज्वाला बनी महान।
दिग-दिगन्त में व्याप्त हो गई, लौटाने देवों का मान।।

देवजनों से प्रगटी ज्वाला, कोटि सूर्य से भी विकराल,
फिर वह नारी रूप हुई, जैसे असुरों का भीषण काल।।

उनका अपना ही प्रकाश था, व्याप्त तीन लोकों में थी।
उन सी सुन्दर, धीर-वीरता, नहीं स्वप्नलोकों में थी।।

देवी का मुख प्रकट हुआ, शिवजी के अनुपम तेज से।
केश हुए उत्पन्न देवि के, मृत्युराज यमदेव से।।

जगदीश्वर के परम तेज से, माता के कर-कमल बने।
चन्द्रदेव से स्तन निर्मित, भू से देवि नितम्ब बने।।

इन्द्र तेज से कटिप्रदेश, ब्रह्मा से दोनों चरण हुए।
वरुणदेव से जंघा-पिण्डलि, ऊंगलीकारक सूर्य हुए।।

वसु से हाथों की उंगलियां, भौंहे सन्ध्यादेवी से।
दन्त प्रजापति की ज्वाला से, नयन बने थे अग्नी से।।

वायुतेज से कर्ण बने, देवी की नाक कुबेर से।
अतिकल्याणमयी माँ प्रकटीं, सब देवों के तेज से।।

देवी दर्शन पाकर सुरगण, मन में अति प्रसन्न हुए।
जो महिषासुर से पीड़ित थे, माँ को पाकर धन्य हुए।।

पिनाकधारी भोले शंकर, शूल दिए इक माता को।
जगदीश्वर ने चक्र दिया, देवी रूपा जग त्राता को।।

वरुण देव से शंख, अग्नि से मिली दिव्य इक शक्ति प्रबल,
वायुदेव ने धनुष तथा बाणों से उनको किया सबल।।

देवराज से बज्र मिला, ऐरावत से घण्टा पाया।
काल दण्ड से दण्ड, वरुण से पाश, देवि ने अपनाया।।

दिव्य स्फटिक हार एक, माता को मिला प्रजापति से,
ब्रह्मदेव से मिला कमण्डल, सबने दिया स्वयं मति से।।

देवी के निज रोमकूप में, सूर्य देव ने तेज भरा।
कालदेव ने ढाल और तलवार देवि के हाथ धरा।।

क्षीर सिन्धु ने देवी को दो दिव्य वस्त्र उपहार दिए।
चूड़ामणि, दो कुण्डल, उज्जवल अर्धचन्द्र व हार दिए।।

तथा दिए केयूर, कड़े, हंसली नूपूर सुशोभित थी।
उँगलियों के लिए अंगूठी, जो रत्नों से शोभित थी।।

निर्मल फरसा, कवच, अस्त्र, विश्वकर्मा ने उपहार दिए।
कभी न कुम्हलाने वाले, कुछ कमल पुष्प के हार दिए।।

देवी को गिरिराज हिमालय, भांति-भांति के रत्न दिए।
दिव्य सवारी हेतु सिंह, माता को एक प्रचण्ड दिए।।
 
कोषाध्यक्ष कुबेर देव ने, शहद भरा इक पात्र दिया।
पृथ्वीधारक शेषनाग ने, नागमणी का हार दिया।।

देवों ने अपने-अपने कुछ अंश देवि को दान किये।
आभूषण व् अस्त्र-शस्त्र से माता का सम्मान किये।।

तब देवी ने नाद किया, गर्जन था अट्टाहास प्रबल।
तीनों लोकों में कम्पन, भू-लोक, अतल सब हुए विकल।।

बड़े जोर की प्रतिध्वनि गूंजी, हलचल उठी महाविकराल।
धरती डोली, पर्वत कांपे, सागर का भी आया काल।।

देवजनों ने प्रसन्नता से माता का जयघोष किया।
ऋषियों ने भी भक्ति-भाव से देवी का उदघोष किया।।

देख त्रिलोकी क्षोभग्रस्त, दैत्यों ने सेनाह्वान किया।
हाथों में हथियार कवच ले, युद्ध हेतु प्रस्थान किया।।

चकित हुआ महिषासुर, यह सब देख उसे भी क्रोध हुआ।
बोला क्या हो रहा यहाँ, क्यों ना अब तक यह बोध हुआ।।

सारे असुरों को लेकर वह सिंहनाद की ओर चला।
जहाँ मातु की अनुपम ज्वाला, उसी ओर वह दौड़ चला।।

देवी की दैदीप्य प्रभा से, तीनों लोक प्रकाशित थे।
धरती तथा गगनमण्डल सब उनसे ही आच्छादित थे।।

धरती दबती चली जा रही थी, चरणों के भार से।
नभमण्डल में रेखा खिंचती, मुकुट शिखर की धार से।।

सातों पातालों को छुब्ध किया धनु की टंकार ने।
सहस्त्र भुजाओं वाली माता, प्रगटीं जग को तारने।।

असुरों से अब युद्ध छिड़ा, अस्त्रों-शस्त्रों के वार प्रबल।
सभी दिशाएँ उद्भासित थीं, नभ-जल-थल सब हुए विकल।।

महिषासुर का सेनानायक, चिक्षुर अति विकराल था।
देवी के हाथों में डोल रहा उसका भी काल था।।

सेना चतुरंगिणी लिए, चामर भी वहां चला आया।
देवी को ललकार रहा, जैसे दिनकर पर लघु छाया।।

साठ हजार रथी आये, जिनका नायक उदग्र बलवान।
एक कोटि रथियों के संग महाहनु दैत्य दिखाता शान।।

महादैत्य असिलोमा जिसके रोयें तलवारों से थे।
पंचकोटि सैनिक थे जिसके, सारे पहुंचे रथ से थे।।

साठ लाख रथियों को लेकर बाष्कल भी पहुंचा रण में।
जहाँ देवि की भीषण ज्वाला, सृष्टि समाती थी कण में।।

परिवारित की सेना में, सैनिक, घोड़े व हाथी थे।
एक कोटि रथ महाभयानक युद्धभूमि के साथी थे।।

पांच अरब रथियों की सेना के संग डटा बिडाल था।
शक्ति स्वरूपा माता के हाथों में उसका काल था।।

महिषासुर भी सेना लेकर, युद्धभूमि में हुआ खड़ा।
रथ, हाथी व घोड़ों से वह समरांगण में हुआ अड़ा।।

तोमर, भिन्दिपाल, मूसल व परशु, खड्ग के वार हुए।
दैत्यों द्वारा माता पर पट्टिश व शक्ति प्रहार हुए।।

 कुछ असुरों ने पाश चलाया, कुछ ने शक्ति प्रहार किया।
शक्ति स्वरूपा जननी पर तलवारों से भी वार किया।।

क्रोध किया तब देवी ने, माया का अद्भुत खेल रचा।
उनके अस्त्रों-शस्त्रों से सब शस्त्र कटे कुछ नहीं बचा।।

देवी के मुख पर थकान का रंचमात्र भी चिन्ह न था।
देव, ऋषि सब स्तुति करते, भाव किसी का भिन्न न था।।

महाभगवती असुरों पर आयुध की वर्षा करती थीं।
सिंहवाहिनी माता रण में काल समान विचरती थीं।।

सिंह विचरता था रण में गर्दन के बाल हिलाता था।
लगता था जैसे वन में वह दावानल फैलाता था।।

मातु अम्बिका देवी के गण, रण में भीषण विकट हुए ।
जो निःश्वास मातु ने छोड़े, उनसे ही वे प्रकट हुए।।

हाथों में वे परशु खड्ग, व भिंदीपाल पकड़ते थे।
अस्त्र-शस्त्र व् पट्टिश से असुरों को खूब रगड़ते थे।।

उनमें माँ की शक्ति समाई, शत्रु नाश कर जाते थे।
विजय शंख व नाद-नगाड़े, रण में खूब बजाते थे।।

युद्धभूमि में युद्ध नहीं, संग्राम महोत्सव फलता था।
शंखनाद के संग मृदंग, असुरों के दल को खलता था।।

देवी ने त्रिशूल, गदा व खड्ग, शक्ति व फरसा से।
कई महादैत्यों को मारा अस्त्र-शस्त्र की वर्षा से।।

फिर घंटे का नाद किया, जो भीषण महाभयंकर था।
मूर्च्छित होकर मरे दैत्य, यह प्रलय नहीं प्रलयंकर था।।

बहुतेरों को बाँध पाश से, धरती पर ही दिया घसीट।
दो-दो टुकड़ों में विभक्त कुछ लेकिन सत्य न देखें ढीठ।।

बहुतों को थी गदा लगी, वे रण में सोये जाते थे।
मूसल से आहत होकर कुछ रक्त वमन कर जाते थे।

कुछ की छाती फटी शूल से, पृथ्वी पर वे ढेर हुए।
बाणवृष्टि से कमर कटी व पृथक देह से पैर हुए।।

दैत्य देवपीड़क गण जो बाजों की तरह झपटते थे।
बाँह छिन्न, तन जीर्ण हुए, मस्तक भी क्षण में कटते थे।।

महादैत्य कुछ जाँघे कट जाने से भू पर गिरे मिले।
कितनों के आधे शरीर तो ढूंढे पर भी नहीं मिले।।

देवी ने कुछ असुरों का तन आधा करके चीर दिया।
एक बांह, इक नेत्र बचा व एक पैर का पीर दिया।।

कितनों के सर कटे हुए लेकिन तन से उठ जाते थे।
हथियारों को हाथ लिए वे युद्ध हेतु मंडराते थे।।

कुछ कबन्ध समरांगण में बाजों की लय पर नाच रहे।
माता के हाथों से अपना काल स्वयं ही बांच रहे।।

ऋष्टि, खड्ग व शक्ति लिए सिरहीन धड़ों का रेला था।
युद्ध नहीं देवी ने उनके साथ प्रलय को खेला था।।

ठहरो कहके महादैत्य देवी को थे ललकार रहे।
माता के सब अस्त्र-शस्त्र मिल असुरों को संहार रहे।।

चलना-फिरना हुआ असम्भव, बस लाशें ही लाशें थीं।
हाथी, घोड़े व असुरों के शव की फैली बासें थीं।।

रक्तपात ऐसा था रण में, नदी खून की बहती थी।
क्षण में नष्ट आसुरी सेना, भार भूमि ही सहती थी।।

जैसे घास-काठ की ढेरी, अग्नि भस्म कर जाती है।
वैसे माँ की विजय पताका, दिग-दिगन्त लहराती है।।

सिंह हिलाकर निज अयाल, भीषणतम गर्जन करता था।
मानो असुरों के तन से चुनकर प्राणों को हरता था।।

देवी ने निज गण समेत असुरों से ऐसा युद्ध किया।
तुष्ट हुए सब देव-ऋषि गण, धरती को भी मुक्त किया।।

श्री मार्कण्डेय पुराण अन्तर्गत सावर्णिक मन्वन्तर में वर्णित देवी माहात्म्य का द्वितीय अध्याय काव्य रूपान्तर समाप्त।

- दीपक श्रीवास्तव