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Monday, April 23, 2018

मालवीयन पारिवारिक मिलन - प्रथम भाग

तप से जीवन, जीवन में कर्म, कर्म से पुरुषार्थ, पुरुषार्थ से सेवा तथा सेवा में आनन्द| यदि इसके सजीव स्वरुप को एक सम्पूर्ण समाज के रूप में देखना हो तो मालवीयन जगत के अतिरिक्त दूसरा विकल्प नहीं हो सकता | इसे दिनांक 22 अप्रैल 2018 को दिल्ली में आयोजित मालवीयन पारिवारिक मिलन के दौरान मैंने प्रत्यक्ष अनुभव किया| 1971 से लेकर 2018 तक के  पुरातन विद्यार्थियों का यह महामिलन कई मायनों में अद्भुत था| इनमे से कई ऐसी महान विभूतियाँ सम्मिलित रहीं जिन्होंने राष्ट्रीय एवं अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर पर देश का मान-सम्मान बढ़ाया है जिनकी परछाइयाँ मात्र ही अनगिनत परिवारों को विभिन्न माध्यमों से जीवन की लौ देने का कार्य कर रही हैं चाहे वह रोजगार के माध्यम से हो या सेवा के माध्यम से|
आज के दौर में जहाँ दिखावे में मनुष्य अपना मौलिक स्वरुप ही खोता जा रहा है, वहाँ शीर्ष पर बैठे व्यक्तियों की सहजता एवं सरलता आश्चर्यचकित करने वाली है| आदरणीय ए. पी. मिश्रा सर, वी. सी. सर, श्री गोपाल मिश्रा सर, श्री धर्मेन्द्र श्रीवास्तव सर, श्री नितेश गौतम जी, हिमांशु मिश्रा सर, प्रतीक राजवंशी सर, श्री राजेश श्रीवास्तव सर, श्री अखिलेश सर जैसी अनेक विभूतियाँ वहाँ उपस्थित थीं, जिनको देखकर लगता ही नहीं कि हम कलयुग में जी रहे हैं| परमात्मा भी प्रत्येक दौर में सन्तुलन बनाकर रखता है, ठीक उसी प्रकार जहाँ व्यक्ति ह्रदय में नफरत लिए एक आभासी दौर में प्रतिदिन जीवन के साथ संघर्ष कर रहा है वहीँ मालवीया एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत कर रहा है जिसकी आज के समाज को सर्वाधिक आवश्यकता है|  दिनकर जी की पंक्तियाँ याद आती हैं -
"पग पग पर हिंसा की ज्वाला, चारों ओर गरल है ।
मन को बांध शांति का पालन, करना नहीं सरल है ।
तब भी जो नरवीर असिव्रत दारुण पाल सकेंगे ।
वसुधा को विष के विवर्त से वही निकाल सकेंगे ॥"
आज हमारा देश अत्यन्त विषम परिस्थितियों के दौर से गुजर रहा है जिसमे विभिन्न दीवारें खड़ी हो गयी हैं जहाँ नहीं हैं वहाँ भी बांटने का कुत्सित प्रयास किया जा रहा हैं | इन विषम परिस्थितियों में प्रेम के मौलिक स्वरुप पर अनेक आवरण एवं भ्रामक परिभाषाये गढ़ दी गई हैं किन्तु अत्यन्त गर्व से यह बात कहता हूँ कि मैं उस मालवीयन परिवार का हिस्सा हूँ जहाँ प्रत्येक सदस्य की आँखों में इन परिभाषाओं के आर-पार देखने की क्षमता है तथा वैश्विक पटल पर हम एक परिवार के रूप में सुन्दर एकीकृत समाज की रचना के अग्रणी हो सकते हैं|
कल इस पारिवारिक मिलन में मेरी प्रथम उपस्थिति थी, और वहाँ पहला कदम रखते ही मुझे यह भान हो गया था, कि लगभग तेरह वर्षों से मैं इन अमृत की बूंदों से कितना दूर था| इस कई अग्रजों, अनुजों से गले मिलने का सुख प्राप्त हुआ और असीम आनन्द की प्राप्ति हुई |
आपसे बहुत सी बातें और करनी हैं किन्तु यह लेख लम्बा हो गया है तथा समय का बढ़ता काँटा ऑफिस जाने का इशारा कर रहा है| कल मै वहाँ के कुछ अनुभव भी साझा करूँगा|

- दीपक श्रीवास्तव

Sunday, April 22, 2018

जैसे चुनरिया लहरे धानी - भारतीय किसान

आज आपके सामने एक बहुत पुराना आंचलिक गीत प्रस्तुत है जो भारतीय संस्कृति की महत्वपूर्ण कड़ी भारतीय किसान के जीवन का सजीव दृश्य प्रस्तुत करता है ।  गीत के रचनाकार का नाम तो नहीं पता किंतु लोकभाषा में रचित यह गीत जन जन के मन का संगीत है ।  इसे एक कार्यक्रम के दौरान मैंने लाइव प्रस्तुत किया है ।

https://youtu.be/3KWem0rwtx4

- दीपक श्रीवास्तव 

Monday, April 9, 2018

--- क्या भूलूँ क्या याद करूँ ---

 डा. हरिवंश राय बच्चन जी की यह कालजयी कृति प्रस्तुत है ।  इस गीत की संगीत रचना में मैंने चंचल प्रकृति के राग खमाज की हल्की सी छाया का प्रयोग किया है ।  इसे सुनें और अपने हृदय में महसूस करें ।

- दीपक श्रीवास्तव

https://youtu.be/HDexlSCZkg8

Thursday, April 5, 2018

--- बुद्धिजीवी या अधजल गगरी ---

आपकी दृष्टि में बुद्धिजीवी वर्ग में कौन आते हैं ।  मैंने अपने अनुभव से यही समझा है कि जो अपने अधकचरे ज्ञान के बलबूते पर स्वयं को सबसे बेहतर सिद्ध करने का प्रयास करे वही आज के दौर का तथाकथित बुद्धिजीवी है । 

यदि आज यदि हम सभ्यता एवं संस्कृति से निरन्तर दूर होते जा रहे हैं तो उसके पीछे इन तथाकथित बुद्धिजीवियो के योगदान को नकारा नहीं जा सकता ।  ये उसी वर्ग से हैं जो राम, कृष्ण, शिव जैसे संस्कृति के आधारस्तम्भों पर शायद पूरे दिन बहस कर सकते हैं किंतु हमारे पौराणिक ग्रंथ इनके बारे में क्या कहते हैं इन्हें तनिक भी भान नहीं होता क्योंकि हम पुस्तकों से दूर होते जा रहे हैं ।  घरों में श्रीरामचरितमानस अवश्य उपस्थित रहता हैं किंतु उसकी उपस्थिति केवल भौतिक रूप से ही होती है । 

ज्ञान का न होना लज्जा की बात नहीं है । लेकिन अधकचरा ज्ञान केवल स्वयं के लिये ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण राष्ट्र के लिये आत्मघाती होता है । इसका सबसे निराशाजनक पहलू यह है कि यदि संस्कृति से सम्बंधित परिचर्चा हो रही हो तो वहां या तो ऐसे विद्वान उपस्थित होते हैं जिन्होंने संस्कृति को अंतरमन में आत्मसात किया है या ऐसी जनता है जिनमें साक्षरता अत्यंत कम है ।  बुद्धिजीवी वर्ग ऐसे स्थानों पर या तो नहीं जाते या केवल उपस्थिति दर्ज कराने हेतु कुछ समय के लिये दिखाई दे जाते हैं ।

सूरसागर के अनुसार गोपियां ज्ञानी नहीं थीं अतः बिना अपनी बुद्धि का प्रयोग किये श्रीकृष्ण की भक्ति को ही जीवन का आधार मानती थीं उन्हें उधव के ज्ञान में भले ही रुचि नहीं थी किंतु उनका सम्मान किया किंतु अपना आधार श्रीकृष्ण को ही माना । यह सार्थकता की ओर की गति थी ।  किंतु आज राजनीति की गलाकाट प्रतियोगिता ने इतने भ्रम पैदा किये हैं कि देश में अराजकता धीरे धीरे पांव पसार रही है ।  जो जनता भोली भाली है उसे बहला फुसला कर अपने स्वार्थ के लिये उपयोग करते हैं और जनता श्रीकृष्ण की तरह उनपर भरोसा कर लेती है जबकि उनमें कृष्ण का चरित्र लेशमात्र भी नहीं है ।  इस प्रकार राजनैतिक समीकरण बदल जाते हैं और बुद्धिजीवी वर्ग केवल सही-ग़लत की चर्चा में ही उलझकर रह जाता है ।

- दीपक श्रीवास्तव

Wednesday, April 4, 2018

--- राम राम भाई साहब ! ! ---



आज बाज़ार से लौटकर घर आ रहा था तभी पीछे से एक बहुत पुरानी जानी पहचानी सी आवाज़ सुनाई पड़ी - राम राम भाई साहब! !  मैं चौंक गया क्योंकि इस प्रकार की मिठास ली हुई राम राम अरसे बाद सुन रहा था ।  आवाज एक मुस्लिम नाई की थी जिसके सैलून में मैं अपने प्रारम्भिक संघर्ष दिनों में जाया करता था ।  दुआ सलाम के साथ साथ उसने यह भी बताया कि वह मेरे गाये हुए भजनों को भी सुनता है तथा अपने परिवार को भी उनसे जोड़कर रखता है । 

राम के नाम पर हिंसा, गाली गलौच, या अन्य कुकृत्य करने वालों से पूछना चाहता हूं कि क्या कभी राम को समझने की कोशिश भी की है या बस किसी ने भड़काया और सस्ती लोकप्रियता के चक्कर में दूसरों को कोसना शुरू कर दिया चाहे वह जाति के नाम पर हो या धर्म के नाम पर ।

गंदी और ओछी राजनीति का अंत अब बहुत जरूरी है क्योंकि अब हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं ।  कभी वायु प्रदूषण, कभी जल प्रदूषण तो कभी मानसिक प्रदूषण ।  क्या यही जीवन हमारे और हमारे बच्चों के भाग्य में है । बोतलों का पानी पियो, मास्क लगाकर बाहर निकलो और कुछ भी बोलने पर जान का खतरा ।  क्या स्वस्थ और सुसंस्कृत समाज की रचना हमारे द्वारा हो रही है ।  शायद हमें ऐसे ही जीने की आदत पड़ती जा रही है ।

- दीपक श्रीवास्तव

Sunday, April 1, 2018

--- ज्ञान भाषा एवं अभिव्यक्ति ---

भाषा सिर्फ माध्यम है । वहीं ज्ञान का स्थान बहुत उच्च है ।  ज्ञान का विलोम अज्ञान है ।  पाठ्य पुस्तकों में उपलब्ध जानकारियां अभ्यास द्वारा साधी जा सकती हैं किंतु वह विद्या है ज्ञान नहीं ।  भारतीय वेदांत में इसावास्योपनिषद के अनुसार विद्या के विपरीत अविद्या तत्व है ।  ज्ञान अनुभव की चीज है ।  उसकी अभिव्यक्ति हेतु विभिन्न माध्यम हो सकते है जिनमें भाषा भी है लिपि भी है, श्रव्य भी है, द्रश्य भी है, मौन भी है, विरोध भी है, सहयोग भी है, रंजना भी है, अभिव्यंजना भी है ।

जो हमारी प्रमुख भाषा है हमारा मस्तिष्क भी उसी को जानता समझता है अतः अभिव्यक्ति सहज हो जाती है किंतु किसी अन्य भाषा में की जाने वाली अभिव्यक्ति हेतु भले ही जबान सहज हो किंतु मस्तिष्क को उसे ग्रहण करने के लिये अपनी मूल भाषा में अनुवाद करना पड़ता है फिर उसका उत्तर देता है तत्पश्चात मस्तिष्क उसे सम्वादित भाषा में अनुवाद करता है तब जाकर हम अपने कंठ से उस भाषा में बात कर पाते हैं ।  यही कारण है कि अन्य किसी भी भाषा में हमारी सहजता प्रभावित होती है चाहे हमारे लिये अंग्रेजी या अमेरिकी अथवा अन्य किसी भी देश के नागरिकों के लिये हिन्दी ।

- दीपक श्रीवास्तव