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Tuesday, February 25, 2020

सीता की खोज- लक्ष्य प्राप्ति के मार्ग एवं परिणाम

सीता की है खोज भला या खुद में खुद को पाना है।
जीवन का यह पूर्ण लक्ष्य या राहों में खो जाना है।।

सारे जीव प्रयत्नशील हैं सीता की सुधि लाने में।
कपिगण, वानर साथ लगे हैं, उसी लक्ष्य को पाने में।।

यक्ष प्रश्न है खड़ा सामने, लक्ष्य एक राहें विभिन्न हैं।
मार्ग अलग हो जाने से क्या, असर लक्ष्य का भिन्न-भिन्न है?।

यह जीवन का अनुपम चिन्तन, केवल इसको कथा न जानें।
पथ में चलते-चलते इसको, निज के अनुभव से पहचानें।।

इस समाज में विविध रंग हैं, रंगों में सन्तुलन अपार।
कोई छल से स्वार्थ मिटाए, करे कोई तप-बल स्वीकार।।

सीता मात्र चरित्र नहीं है, भक्ति मानकर करें प्रणाम।
तीन प्रकारों से पहचानें, इनको पाने के परिणाम।।

एक ओर सीता हर लाया, रावण छल की है पहचान।
दूजी ओर रीक्ष-कपि-वानर, तप-बल के प्रतीक हनुमान।।

छल से सीता हरण किया, पर प्राप्त भक्ति का पोर नही।
व्यग्र दशानन, पतनोन्मुख है, कहीं शान्ति का छोर नही।।

अनचाहा भय साथ न छोड़े, लगे हुए हैं पहरे कितने।
युद्ध करे स्वीकार दशानन, भले वीर मिट जाएं जितने।।

एक ओर है वानर सेना, जहां राम का प्रेम छलकता।
सबको है आदेश राम का, जिसमें जीवन लक्ष्य झलकता।।

ईश्वर कण-कण में हैं बसते, जानें सब, पर रहें अधूरे।
जिस दिन भक्ति जगे जीवन मे, लक्ष्य सभी हो जाएं पूरे।।

यही लिए संकल्प हृदय में, वानर सेना चली राह में।
पर्वत जंगल सभी लांघते, कदम नहीं रुकते प्रवाह में।

जीवन के नित संघर्षों से, प्राणी करे लक्ष्य संधान।
अग्नि में तप कर ही सोना, दुनिया में पाता सम्मान।।

जीवन में अगणित बाधाएं, हल भी सबके भिन्न-भिन्न हैं।
अब आगे लहराता सागर, पथिक विवश है, शक्ति निम्न है।।

जीवन में जब ऐसी बाधा, काम न आये कोई शिक्षा।
अब केवल दो ही विकल्प हैं, लौट चलें या करें प्रतीक्षा।।

पथिक लौट जाए जो मग में, खत्म आस, बस मिले निराशा।
धैर्य धरे जो करे प्रतीक्षा, उसे लक्ष्य मिलने की आशा।।

हनुमान जी जैसा तप-बल, जो भी मानव पाता है।
वही पार कर सकता सागर, लक्ष्य प्राप्त कर जाता है।।

लेकिन सागर तट पर बैठे, जीव लक्ष्य कैसे पाएं।
आखिर कब तक करें प्रतीक्षा, भक्ति निकट कैसे आये?।

यही द्वन्द है भवसागर का, भ्रम ऐसा छल वृत्ति प्रबल।
सच्चा साधक करे प्रतीक्षा, दुष्ट आचरण दिखे सबल।।

किन्तु सत्य तो चिर-विजयी है, भले देर कुछ हो जाये।
रावण सैन्य समेत पराजित, राम विजय-ध्वज लहराए।।

जैसे जैसे खल-प्रवृत्तियां, इस जीवन से जाती हैं।
वैसे-वैसे भक्ति हृदय में, झूम-झूम लहराती है।।

इसीलिए जब रावण का वध, धरती से हो जाता है।
भक्ति रूप सीता का दर्शन, हर इक वानर पाता है।।

यदि पंखों में ताकत हो तो, लक्ष्य शीघ्र मिल जाता है।
धैर्य धरा साधक भी इक दिन, अपनी मंजिल पाता है।।

सीता की है खोज भला या खुद में खुद को पाना है।
जीवन का यह पूर्ण लक्ष्य या राहों में खो जाना है।।

- दीपक श्रीवास्तव

Tuesday, February 18, 2020

हम तो केवल करते फेरे

बिना तुम्हारे कण ना डोले,
कण्ठ मेरे, पर तू ही बोले।
तुम्ही भाव, तुम ही स्वर मेरे,
हम तो केवल करते फेरे।।1।।

जहाँ दूर तक जाती दृष्टि,
सदा अधूरी रहती सृष्टि।
जहाँ पूर्ण जीवन में भक्ति,
तत्क्षण भव-बन्धन से मुक्ति।।2।।

यूँ तो जीव बहुत निर्बल है,
प्रश्न एक,पर बहुत प्रबल है।
जग में बड़े स्वार्थ-परमार्थ,
जीव कहाँ ढूंढे भावार्थ।।3।।

जो भी मन मानस हो जाये,
राम-नाम में ही खो जाए।
हरिहर मन,हरिहर हो बुद्धि,
होती परम-अर्थ की सिद्धि।।4।।

किन्तु देह जब तक जीवित है,
जीव, जगत में बड़ा भ्रमित है।
कहाँ स्वार्थ-परमार्थ संवारे,
किसको ढूंढे, किसे पुकारे।।5।।

नारद काम-क्रोध के जेता,
हरी नाम के अमर प्रणेता।
यदि परमार्थ हरी को अर्पित,
कहाँ स्वार्थ को करें समर्पित।।6।।

जीवन में हो हरि की आशा,
फिर मन में क्यों रहे दुराशा।
जब तक भ्रम का भार रहेगा,
थोड़ा-थोड़ा स्वार्थ रहेगा।।7।।

जब प्राणी दुविधा में भटके,
स्वार्थ अगर जीवन में अटके।
रक्खें हरि पर दृढ़ विश्वास,
दुनिया भर से कैसी आस?।8।।

लिए प्रणय की मधुर कामना,
हरि से नारद करें याचना।
कामदेव का रूप मनोहर,
गए नहीं नारद उनके घर।।9।।

छोड़ जगत नश्वर से आशा,
हरि में केवल हो विश्वासा।
हरि से बढ़कर नहीं हितैषी,
हरि हैं तो अकुलाहट कैसी।।10।।

नारद का व्रत भंग न होवै,
हरि का ऐसा कौतुक होवै।
भक्त कुपित हो कहाँ पधारें,
हरि का भगत हरी के द्वारे।।11।।

काम हरी का क्रोध हरी का,
जीवन मे अभिमान हरी का।
शब्द हरी, सम्मान हरी का,
जीवन का हर भाव हरी का।।12।।

भक्ति तभी फलती जीवन में,
हरी नाम जब तक तन-मन में।
आदि-अन्त तक यात्रा कितनी,
हरि की चरण धूल भर जितनी।।13।।

बिना तुम्हारे कण ना डोले,
कण्ठ मेरे पर तू ही बोले।
तुम्ही भाव, तुम ही स्वर मेरे,
हम तो केवल करते फेरे।।14।।

- दीपक श्रीवास्तव

Thursday, February 13, 2020

केवल राम-नाम ही जपना पर्याप्त नहीं है

राम-नाम ही जपना जीवन मे केवल पर्याप्त नहीं है।
जीवन है निष्फल जब तक तन-मन में मानस व्याप्त नहीं है।।

रामचरित के हर प्रसंग में जीवन दर्शन रमा हुआ है।
मन की धूल हटाकर देखो, जो बरसों से जमा हुआ है।।

खर-दूषण से युद्ध राम का, एक अलौकिक सत्व लिए है।
भ्रम पर ज्ञान सदा विजयी है, इसी सत्य का तत्व लिए है।

खर-दूषण चौदह हज़ार की सेना लेकर चले समर में।
अति बलवान, प्रबल मायावी, धूल उड़ाते दिवा प्रहर में।।

राम-लखन संग सीता माता पर्णकुटी में विहर रहे थे।
वन विहार की मीठी-तीखी स्मृतियों में विचर रहे थे।।

तभी कुटी पर देख शत्रु को, राम सरासन बाण धरें।
लक्ष्मण सीता संग खड़े थे, राम शत्रु के प्राण हरें।।

किन्तु प्रश्न है उठता फिर भी, शत्रु प्रबल, सेना तमाम है।
दो योद्धा हैं साथ किन्तु इस युद्धभूमि में सिर्फ राम हैं।।

यदि लक्ष्मण भी युध्द करें तो शीघ्र विजय मिल सकती है।
जीवन में पुरुषार्थ अगर हो, विजय दूर कब रहती है?।

यही भेद है राम और रावण में, इसको जानें हम।
दोनों में है ज्ञान किन्तु अंतर को भी पहचानें हम।।

राम ज्ञान, वैराग्य लखन हैं, भक्ति पुनीता सीता हैं।
जिसमें है वैराग्य उसी ने अहंकार को जीता है।।

मन मे यदि संशय हो जाये, बुद्धि भ्रमित हो जाती है।
तभी चित्त में मोह उपजता, यही द्वन्द शुरुआती है।।

मायावी सेना विशाल खर-दूषण भ्रम का रूप है।
परम धाम श्रीराम युद्ध में चेतन ज्ञान स्वरूप हैं।।

ज्ञान सदा ही भ्रमभंजक है, किन्तु दम्भ उपजा देता।
भक्ति नष्ट कर मानव जीवन, को यह बड़ी सजा देता।।

जब तक है वैराग्य मनुज में, तब तक भक्ति सुरक्षित है।
राम युद्ध में इसीलिए, सीता लक्ष्मण से रक्षित हैं।।

मायावी छल-बल की सेना, अट्टहास कर युद्ध करे।
ज्ञानरूप श्रीराम अकेले, कैसे इनको शुद्ध करें?।

तभी राम ने मायारूपी प्रबल बाण संधान किया।
युद्ध कर रहे हर सैनिक को अपना रूप प्रदान किया।।

यही राम का चिर स्वभाव, रामत्व सभी को देते हैं।
ज्ञानवान हो जाते प्राणी, सभी भ्रान्ति हर लेते हैं।।

मायावी दूषण की सेना, निज स्वरूप का ज्ञान नहीं।
दूजा सैनिक राम दिखे, लेकिन अपना अनुमान नहीं।।

यह समाज की है विडम्बना, बस औरों के दोष दिखें।
अपना मन कोई ना झांके, जिसमें अपने दोष दिखें।।

देख अगर लेते सैनिक, भूले भी अपना रूप कहीं।
सारे भ्रम मिट जाते मन के, मिलता अपना रूप वहीं।।

किन्तु यहां विपरीत दृश्य है, राम रूप पर वार चले।
शत्रु समझ अपने ही साथी अपनों को ही मार चले।।

इस प्रकार श्रीराम युध्द में, कर माया संहार चले।
भक्ति सुरक्षित है विराग से, जब भ्रम पर तलवार चले।।

किन्तु ज्ञान धारे रावण में, रंच मात्र वैराग्य नहीं।
इसीलिए आसक्ति प्रबल है, जीवन में सौभाग्य नहीं।।

राम-नाम ही जपना जीवन मे केवल पर्याप्त नहीं है।
जीवन है निष्फल जब तक तन-मन में मानस व्याप्त नहीं है।।

- दीपक श्रीवास्तव

Tuesday, February 11, 2020

चीख रहा कश्मीर

चीख रहा कश्मीर, बिलखता दर्द भरे जज्बातों में ।
सुलग रहा है देश, कहाँ भाईचारा है बातों में।।

था धरती का स्वर्ग, जहां इन्सान दिखाई देते थे।
रोम-रोम में प्रेम भरे, नित गीत सुनाई देते थे।।

बरसों से थीं जहां पीढियां, प्रेम भरे मृदु बन्धन में।
हाय, समय कैसा आया, सब भूले बिछड़े क्रन्दन में।।

एक ओर बचपन की यारी एक ओर थी कौम खड़ी।
इंसा से हैवाँ की दूरी, नहीं रही कुछ खास बड़ी।।

आसमान में बिजली कौंधी, मस्जिद गूंजे नारों से।
महिलाओं को छोड़ भगो या शीश कटाओ वारों से।।

बचपन के संगी-साथी, जो प्राणों से भी प्यारे थे।
साथ पढ़े, संग-संग ही खेले, दुनिया से वे न्यारे थे।।

एक मित्र की आंखों में अब जाने कौन खुमारी थी।
खून भरे जज्बातों से हारी बचपन की यारी थी।।

नहीं रही वेदना हृदय में, रही मित्रता धारों पे।
कितने ही सिर गिरे भूमि पर, रक्त लगा तलवारों पे।।

अंगारे थे भरे नयन में, मानवता भी हारी थी।
मां बहनों की लाज लूटने की आई अब बारी थी।।

जिसने जीवन भर पिशाच के साथ निभाई यारी थी।
उसकी माता और बहन ने कीमत खूब चुकाई थी।।

जिसने भाई मान कलाई पर राखी भी बांधी थी।
आज उसी की देह नोचने प्रबल वासना जागी थी।।

अस्मत के हो रहे चीथड़े, तन-मन था चीत्कार रहा।
नाजुक अंगों से अंतड़ियों तक चाकू का वार रहा।।

बच्ची या कोई नवयुवती, सुनी किसी ने आह नही।
गर्भवती या वृद्धा थी, लेकिन कोई परवाह नहीं।।

हैवानों के मन-मस्तक में खून भरा था, शोला था।
अस्मत की नीलामी करके तलवारों पे तोला था।।

शिक्षक को करके छलनी शिष्यों की ही तलवारों ने।
गुरुमाता के साथ घिनौना कृत्य किया गद्दारों ने।

जिनके दम पर रोजी-रोटी गद्दारों की चलती थी।
उसी मालकिन पर कुदृष्टि थी, हवस-वासना पलती थी।।

शोषित-पीड़ित कहाँ दर्द बतलायें यह था प्रश्न बड़ा।
शासन और प्रशासन उनके लिए नहीं था रहा खड़ा।।

जनता का नेतृत्व विमुख हो करता कुछ मनमानी था।
न्यायालय की आस लगा पाना भी तो बेमानी था।।

बच्चों के उज्ज्वल भविष्य की उम्मीदें भी छोड़ चले।
बसा-बसाया घर अपना, अपनी दुनिया को छोड़ चले।।

जिनके अपने बड़े मकाँ थे, पड़े टेन्ट में रातों में।
खाने पीने की सुधि खोई, ऐसे दुःख हालातों में।।

दिल्ली में थी शरण मिली, उम्मीद जगाए बैठे हैं।
दिवस-महीने बरसों बीते, आस लगाए बैठे हैं।।

स्वर्ग भरा सुन्दर जग अपना, क्या वापस मिल पायेगा?
क्या लौटेंगे घर को अपने, दर्द कभी सिल पायेगा??

चीख रहा कश्मीर, बिलखता दर्द भरे जज्बातों में ।
सुलग रहा है देश, कहाँ भाईचारा है बातों में।।

- दीपक श्रीवास्तव

Monday, February 10, 2020

सन्तुलन ही जीवन एवं समाज का आधार है

श्री अरविन्द सोसाइटी द्वारा आयोजित तन-मन-मानस कार्यक्रम का अन्तिम सत्र सामाजिक जीवन की दृष्टि से अत्यन्त उपयोगी रहा। कार्यक्रम में प्रमुख वक्ता दीपक श्रीवास्तव ने बताया कि सृष्टि में सन्तुलन ही जीवन एवं समाज का आधार है। श्रीरामचरितमानस की रचना के समय भारतीय समाज वैष्णव एवं शैव में बंटा हुआ था। ऐसे समय में श्रीरामचरितमानस द्वारा श्री शिव को गुरु मानते हुए श्री विष्णु के  चरित्र का चिंतन सामाजिक सन्तुलन का सबसे बड़ा उदाहरण है।

कार्यक्रम में सीता की खोज का उदाहरण लेकर जीवन लक्ष्य की प्राप्ति के तरीकों एवं उसके परिणाम की अद्भुत व्याख्या ने लोगों को अपने जीवन में झांकने को विवश कर दिया। एक ओर जहां सारे वानर सीता की खोज में निरन्तर लगे हुए हैं वहीं समुद्र उस बाधा का प्रतीक है जहां मनुष्य की अक्षमता उसे विवश कर देती है। अतः जीवन मे तप श्री हनुमान जी जैसा हो जो समुद्र रूपी बाधा को पार करने की क्षमता प्रदान करे अन्यथा श्रद्धा के साथ प्रतीक्षा करें। जब अज्ञान एवं भ्रम रूपी असुर मिट जाते हैं तब लक्ष्य रूपी सीता के दर्शन प्रत्येक प्रतीक्षारत व्यक्ति को प्राप्त होते हैं।

कार्यक्रम में दीपक श्रीवास्तव ने बताया कि विद्यार्थियों के जीवन मे श्री हनुमानजी के समुद्र यात्रा के माध्यम से तीन प्रकार के संघर्षों हैं जो मार्ग में मिलने वाली राक्षसियों का रूप हैं। तीनों का वध न करते हुए सुरसा का सम्मान, सिंहिका का वध एवं लंकिनी को मुठिका मारने के पीछे इन्ही संघर्षों से जूझने का आदर्श उदाहरण स्थापित है।

कार्यक्रम में लंका दहन की अर्धनारीश्वर शिवलीला के रूप में अलौकिक व्याख्या हुई तथा रावण के चरित्र द्वारा यह भी बताया गया कि मनुष्य में ज्ञान होने में बावजूद उसमें अहंकार का प्रारम्भ कैसे होता है जो उसे पतन की ओर ले जाता है। जीवन में अहंकार पर विजय प्राप्त करने के लिए रावण के चरित्र का चिन्तन आवश्यक है।

कार्यक्रम में श्रीमती मीना गुप्ता ने अपने मधुर कंठ से श्री राम स्तुति का गायन करके कार्यक्रम को अलौकिक ऊंचाई प्रदान की। 

दिल्ली से पधारी श्रीमती नीता सक्सेना ने सीता चरित्र के उदाहरण द्वारा वर्तमान समाज में नारियों के योगदान एवं उत्तरदायित्व पर महत्वपूर्ण बातें रखीं।

गाजियाबाद से पधारे भारतीय स्टेट बैंक के शाखा प्रबन्धक श्री दुष्यन्त सिंह ने कहा कि वर्तमान परिस्थितियों में इस प्रकार के कार्यक्रमों की समाज को अति आवश्यकता है तथा इसमें लोगों की भागीदारी बढ़नी चाहिए। 

कार्यक्रम के अन्त में श्री के सी श्रीवास्तव जी ने सभी अतिथियों का आभार व्यक्त किया। कार्यक्रम में शैली शर्मा समेत अनेक गणमान्य व्यक्ति उपस्थित रहे।

प्रमुख वक्ता दीपक श्रीवास्तव द्वारा शिव-विष्णु संतुलन की अद्भुत व्याख्या
https://youtu.be/WqpfC4tftmw

श्रीमती मीना गुप्ता द्वारा श्रीराम भक्ति में सराबोर अलौकिक गायन
https://youtu.be/0ds4xnGr6mA

श्रीमती नीता सक्सेना द्वारा स्त्रियों के सामाजिक दायित्व पर उद्बोधन
https://youtu.be/ZGjHZWsB3Ak

भारतीय स्टेट बैंक के शाखा प्रबंधक श्री दुष्यंत सिंह द्वारा तन-मन-मानस की सामाजिक उपयोगिता पर उद्बोधन
https://youtu.be/cMVbArD5Ax4

श्री के सी श्रीवास्तव द्वारा अतिथियों का सम्मान एवं आभार

  1. https://youtu.be/1GM88eZB4bg

Sunday, February 9, 2020

भारत का अपमान न भूलें

प्रबल भले हो जाएं अंधेरे,
दूर दूर ना दिखें सवेरे,
भारत का अपमान न भूलें,
निज का अनुसंधान न भूलें।

बढ़ती जाए भले वेदना,
उतनी होती सघन चेतना।
जब संकट मंडराता है,
राष्ट्रवाद गहराता है।
माना शत्रु प्रबल है लेकिन,
अपने बल का मान न भूलें।
भारत का अपमान न भूलें,
निज का अनुसंधान न भूलें।।1।।

भ्रमित सत्य बतलाने वालों,
कान खोल उदघोष सुनो।
जाग्रत राष्ट्रप्रेम में डूबी,
जनता का जयघोष सुनो।
प्रेम सुधा छलकाते-गाते,
धूर्तों की पहचान न भूलें।
भारत का अपमान न भूलें,
निज का अनुसंधान न भूलें।।2।।

एक पक्ष का भाईचारा,
भला कहाँ चल पाएगा।
राष्ट्र विभाजन करने वालों,
से क्या प्रेम निभाएगा?
अब पीड़ा भी बिलख रही है,
भारत माँ की आन न भूलें।
भारत का अपमान न भूलें,
निज का अनुसंधान न भूलें।।3।।

तलवारों के आगे जो जन,
अपना गर्व भुला बैठे।
भ्रम में आज उन्हीं के बच्चे,
अपना राष्ट्र जला बैठे।
शत्रु के गुण गाते-गाते,
पुरखों का अपमान न भूलें।
भारत का अपमान न भूलें,
निज का अनुसंधान न भूलें।।4।।

- दीपक श्रीवास्तव

Wednesday, February 5, 2020

जिसे नहीं हो आन राष्ट्र की

गंगा जमुनी रटने वालों ,
खून तुम्हारा पानी है।
जिसे नहीं हो आन राष्ट्र की,
वह जीवन बेमानी है।

जब लाखों निर्दोष कटे थे,
कहाँ तुम्हारा ज्ञान छिपा था?
भारत माँ पर जुल्म हुए जब,
कहाँ महान विचार छिपा था?
माँ-बहनों ने आन बचाने,
जौहर में निज प्राण दिए।
पर तुम जैसे गद्दारों ने,
हमें भ्रमित इतिहास दिए।
तेरी नस-नस में है बहती,
जहर भरी बेईमानी है।
जिसे नहीं हो आन राष्ट्र की,
वह जीवन बेमानी है।।1।।

जब मुगलों की तलवारों से,
हिन्दू थर-थर कांपे थे।
प्राणों की रक्षा करने में,
सिक्ख हमारे आगे थे।
शीश कटाया, उफ़ न बोला,
टुकड़े-टुकड़े हुआ शरीर।
दिल के टुकड़ों की बलि दे दी,
लेकिन झुक न सका जमीर।
तुमने उनकी हंसी उड़ाई,
हा! धिक्कार जवानी है।
जिसे नहीं हो आन राष्ट्र की,
वह जीवन बेमानी है।।2।।

बच्चों में भ्रम फैलाने को,
एक पक्ष का पाठ दिया।
गंगा-जमुनी रटते-रटते,
राष्ट्र हमारा बांट दिया।
खिलजी-बाबर-अकबर के नित,
गुण गाने वालों बोलो।
स्वतंत्रता की बलिबेदी पर,
इनके योगदान तोलो।
अगर नहीं संभले अब तक भी,
फिर तो मुंह की खानी है।
जिसे नहीं हो आन राष्ट्र की,
वह जीवन बेमानी है।।3।।

मेरे अमर सपूतों ने जो,
हमको राह दिखाई है।
इस जीवन को दिव्य बनाने,
की बारी अब आई है।
भारत माँ ने बहुत सहा है,
और नहीं सहने देंगे।
देह भले त्यागेंगे लेकिन,
शीश नहीं झुकने देंगे।
पहले देश तभी हम सब हैं,
अपने मन में ठानी है।
जिसे नहीं हो आन राष्ट्र की,
वह जीवन बेमानी है।।4।।

- दीपक श्रीवास्तव