बिना तुम्हारे कण ना डोले,
कण्ठ मेरे, पर तू ही बोले।
तुम्ही भाव, तुम ही स्वर मेरे,
हम तो केवल करते फेरे।।1।।
जहाँ दूर तक जाती दृष्टि,
सदा अधूरी रहती सृष्टि।
जहाँ पूर्ण जीवन में भक्ति,
तत्क्षण भव-बन्धन से मुक्ति।।2।।
यूँ तो जीव बहुत निर्बल है,
प्रश्न एक,पर बहुत प्रबल है।
जग में बड़े स्वार्थ-परमार्थ,
जीव कहाँ ढूंढे भावार्थ।।3।।
जो भी मन मानस हो जाये,
राम-नाम में ही खो जाए।
हरिहर मन,हरिहर हो बुद्धि,
होती परम-अर्थ की सिद्धि।।4।।
किन्तु देह जब तक जीवित है,
जीव, जगत में बड़ा भ्रमित है।
कहाँ स्वार्थ-परमार्थ संवारे,
किसको ढूंढे, किसे पुकारे।।5।।
नारद काम-क्रोध के जेता,
हरी नाम के अमर प्रणेता।
यदि परमार्थ हरी को अर्पित,
कहाँ स्वार्थ को करें समर्पित।।6।।
जीवन में हो हरि की आशा,
फिर मन में क्यों रहे दुराशा।
जब तक भ्रम का भार रहेगा,
थोड़ा-थोड़ा स्वार्थ रहेगा।।7।।
जब प्राणी दुविधा में भटके,
स्वार्थ अगर जीवन में अटके।
रक्खें हरि पर दृढ़ विश्वास,
दुनिया भर से कैसी आस?।8।।
लिए प्रणय की मधुर कामना,
हरि से नारद करें याचना।
कामदेव का रूप मनोहर,
गए नहीं नारद उनके घर।।9।।
छोड़ जगत नश्वर से आशा,
हरि में केवल हो विश्वासा।
हरि से बढ़कर नहीं हितैषी,
हरि हैं तो अकुलाहट कैसी।।10।।
नारद का व्रत भंग न होवै,
हरि का ऐसा कौतुक होवै।
भक्त कुपित हो कहाँ पधारें,
हरि का भगत हरी के द्वारे।।11।।
काम हरी का क्रोध हरी का,
जीवन मे अभिमान हरी का।
शब्द हरी, सम्मान हरी का,
जीवन का हर भाव हरी का।।12।।
भक्ति तभी फलती जीवन में,
हरी नाम जब तक तन-मन में।
आदि-अन्त तक यात्रा कितनी,
हरि की चरण धूल भर जितनी।।13।।
बिना तुम्हारे कण ना डोले,
कण्ठ मेरे पर तू ही बोले।
तुम्ही भाव, तुम ही स्वर मेरे,
हम तो केवल करते फेरे।।14।।
- दीपक श्रीवास्तव
कण्ठ मेरे, पर तू ही बोले।
तुम्ही भाव, तुम ही स्वर मेरे,
हम तो केवल करते फेरे।।1।।
जहाँ दूर तक जाती दृष्टि,
सदा अधूरी रहती सृष्टि।
जहाँ पूर्ण जीवन में भक्ति,
तत्क्षण भव-बन्धन से मुक्ति।।2।।
यूँ तो जीव बहुत निर्बल है,
प्रश्न एक,पर बहुत प्रबल है।
जग में बड़े स्वार्थ-परमार्थ,
जीव कहाँ ढूंढे भावार्थ।।3।।
जो भी मन मानस हो जाये,
राम-नाम में ही खो जाए।
हरिहर मन,हरिहर हो बुद्धि,
होती परम-अर्थ की सिद्धि।।4।।
किन्तु देह जब तक जीवित है,
जीव, जगत में बड़ा भ्रमित है।
कहाँ स्वार्थ-परमार्थ संवारे,
किसको ढूंढे, किसे पुकारे।।5।।
नारद काम-क्रोध के जेता,
हरी नाम के अमर प्रणेता।
यदि परमार्थ हरी को अर्पित,
कहाँ स्वार्थ को करें समर्पित।।6।।
जीवन में हो हरि की आशा,
फिर मन में क्यों रहे दुराशा।
जब तक भ्रम का भार रहेगा,
थोड़ा-थोड़ा स्वार्थ रहेगा।।7।।
जब प्राणी दुविधा में भटके,
स्वार्थ अगर जीवन में अटके।
रक्खें हरि पर दृढ़ विश्वास,
दुनिया भर से कैसी आस?।8।।
लिए प्रणय की मधुर कामना,
हरि से नारद करें याचना।
कामदेव का रूप मनोहर,
गए नहीं नारद उनके घर।।9।।
छोड़ जगत नश्वर से आशा,
हरि में केवल हो विश्वासा।
हरि से बढ़कर नहीं हितैषी,
हरि हैं तो अकुलाहट कैसी।।10।।
नारद का व्रत भंग न होवै,
हरि का ऐसा कौतुक होवै।
भक्त कुपित हो कहाँ पधारें,
हरि का भगत हरी के द्वारे।।11।।
काम हरी का क्रोध हरी का,
जीवन मे अभिमान हरी का।
शब्द हरी, सम्मान हरी का,
जीवन का हर भाव हरी का।।12।।
भक्ति तभी फलती जीवन में,
हरी नाम जब तक तन-मन में।
आदि-अन्त तक यात्रा कितनी,
हरि की चरण धूल भर जितनी।।13।।
बिना तुम्हारे कण ना डोले,
कण्ठ मेरे पर तू ही बोले।
तुम्ही भाव, तुम ही स्वर मेरे,
हम तो केवल करते फेरे।।14।।
- दीपक श्रीवास्तव
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