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Friday, April 9, 2010

प्रीत की मनुहार

आज मेरे इन दृगों को,
      एक बार निहार साथी |
अश्रुओं में है झलकती,
      प्रीत की मनुहार साथी ||

जो नहीं तुम निकट मेरे,
      वेदना से तप्त जीवन |
प्रीत-अमृत से संवारो,
      आज यह अभिशप्त जीवन ||

हैं ह्रदय के तार कम्पित,
      प्रीत के मृदु राग छेड़ो |
तन भिगोयें, मन भिगोयें,
      राग वो मल्हार छेड़ो ||

प्रीत की भाषा मनोहर,
      तुम नए कुछ छंद दे दो |
सिमट जाऊं मै तुम्ही में,
      आज ऐसे बंध दे दो ||


-- दीपक श्रीवास्तव

Thursday, February 11, 2010

लाल चुनर पहनाना

जाग उठी तरुणाई फिर से नव इतिहास बनाना,
प्यासी भारत माँ को है फिर लाल चुनर पहनाना।

वन-वन भटके राणा लेकर मातृभूमि का बाना,
मस्तक नहीं झुकाया चाहे पड़ा घास ही खाना।
आज समय की मांग यही है,
प्यास धरा की जाग रही है,
है स्वर्णिम इतिहास वही हमको फिर से दोहराना।
लाल चुनर पहनाना।।

इसी भूमि के लिए शिवाजी ने तलवार उठाया,
"हर-हर महादेव" का नारा फिर जग ने दोहराया,
बैरी की सीमा में जाकर,
अमर तिरंगा फिर लहराकर,
अपनी गौरव-गाथा का फिर से परचम फहराना।
लाल चुनर पहनाना।।

चूड़ी की झंकार, पिया की मेहंदी रास न आई,
हाथों में तलवारें लेकर लड़ी छबीली बाई,
केवल इतना ही है कहना,
इससे बड़ा न कोई गहना,
माँ लिए ही जीना माँ के लिए हमें मर जाना।
लाल चुनर पहनाना।।

--दीपक श्रीवास्तव

Tuesday, February 2, 2010

कर लो ध्येय मार्ग का वंदन

कर लो ध्येय मार्ग का वंदन,
मूक बधिर हो जाए क्रंदन।
नए जगत का हो अभिनन्दन,
नव जीवन भर-भर स्पंदन॥

जीवन में है बड़ी उदासी,
अश्रु दृगों में, खुशियाँ आसी।
अपना दुःख, अपनों की हांसी,
जगत अग्नि में प्राण चिता सी॥

हुआ जगत खुशियों का मेला,
अपनों के ही छल का ढेला।
देखो जीवन हुआ अकेला,
जगत खेल जब आई बेला।

भले आज हारे जीवन में
लेकिन कभी न हारे मन में।
बसे आज भी हैं हर मन में,
कभी सफल होंगे जीवन में॥

--दीपक श्रीवास्तव

Monday, February 1, 2010

तुम ही हो!!!

जिस पल में हो एहसास तेरा,

उस पल की आभा क्या कहना।

जिन गीतों में हो नाम तेरा,

उन गीतों का फिर क्या कहना॥



अंतर्मन में हो बसे हुए,

ये भाव नहीं ये तुम ही हो।

ये भाव न मुझसे शब्द हुए,

इन शब्दों में भी तुम ही हो।

जिनका उच्चारण नाम तेरा,

उन शब्दों का फिर क्या कहना।

जिन गीतों में हो नाम तेरा,

उन गीतों का फिर क्या कहना॥



भेष बदल छुप के आये,

आहट बोली ये तुम ही हो,

खुशियों के मेघ तभी छाये,

आँखें बोलीं ये तुम ही हो।

जिस जीवन में हो प्यार तेरा,

उस जीवन का फिर क्या कहना।

जिन गीतों में हो नाम तेरा,

उन गीतों का फिर क्या कहना॥


--दीपक श्रीवास्तव

Wednesday, January 27, 2010

फिर यह धरती बुला रही है

राणा की संतानों जागो, जागो वीर शिवा के लालों।

फिर यह धरती बुला रही है, जागो महाकाल के कालों॥

शत-शत आघातों को सहकर माता घायल आज पड़ी है,

विश्व गुरु, सोने की चिड़िया शत्रु सैन्य से आज घिरी है।

घिरी हुई है जौहर ज्वाला, घिरी हुई है गंगा धारा,

घिरा हुआ है आज हिमालय, और घिरा है मधुबन प्यारा,

देखो ना अंधियारा छाए, जागो ओ सूरज के लालों।

फिर यह धरती बुला रही है, जागो महाकाल के कालों॥

स्वप्न हमारे बंट सकते हैं, पर ममता कैसे बंट जाए?

दीपक एक तो बुझ सकता है, राष्ट्रज्वाल कैसे बुझ पाए??

भ्रमित हमें सब कर सकते हैं, मगर सत्य को कौन मिटाए?

छाती चीरी जा सकती है, प्यार मचलता कौन मिटाए??

माँ का प्यार न कभी भुलाना, जागो ओ भारत के बालों।

फिर यह धरती बुला रही है, जागो महाकाल के कालों॥

पाश्चात्य की चकाचौंध में चुंधिया गयी तुम्हारी आँखें,

अब तो अपनी आँखे खोलो, बुला रही है माँ की आहें।

बुला रहा है नाद त्राहि का, बुला रही है आहत वसुधा,

बुला रही है भगवत-गीता, और बुलाती प्यासी गंगा।

भारत माँ की प्यास बुझाने, आ जाओ अमृत के प्यालों।

फिर यह धरती बुला रही है, जागो महाकाल के कालों॥

--दीपक श्रीवास्तव