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Tuesday, March 27, 2018

----शिवोहम----

आंखें आन्तरिक सुन्दरता देखने में सक्षम हैं क्योंकि व्यक्ति को तीन नेत्रों का वरदान प्राप्त है ।  शिव के त्रिनेत्र का भी यही स्वरूप है ।  तब तक पूर्णता नहीं है जब तक केवल बाह्य अथवा आंतरिक नेत्र खुले हैं ।  जब तक बाहर की दो आँखें बंद है तब तक भौतिकता का सुख नहीं और जब तक आंतरिक नेत्र बंद हैं तब तक शांति नहीं ।  इन दोनों का सन्तुलन ही आनंद है ।

सर्वजगत शिवरूप ही है ।  त्रिनेत्र, त्रिशूल, त्रिलोक उन्ही के हैं । 
शिवोहम का भाव मनुष्य को प्रत्येक विकार, सुख दुख , राग अनुराग इत्यादि से मुक्त करके उसकी आंतरिक सत्ता को स्वयं से जोड़ता है ।


-दीपक श्रीवास्तव

Saturday, March 24, 2018

तुम ही सब कुछ हो

बिना तुम्हारे कण न डोले ।
कंठ मेरे, पर तू ही बोले ॥
ज्ञान तुम्ही, तुम ही स्वर मेरे ।
हम तो केवल करते फेरे ॥

- दीपक श्रीवास्तव

Monday, March 12, 2018

-- अभिव्यक्ति की भाषा --

भले ही लिपियों में बद्ध भाषा अभिव्यक्ति की सशक्त माध्यम है किन्तु उसमे भी अधूरापन है ।  मौन की भाषा, एक हृदय से निकलकर दूसरे हृदय को तरंगायित कर सकने में सक्षम संगीत की भाषा, प्रकृति की भाषा, हमारे मन के अक्षरों को अपनी नन्ही आँखों से पढ़कर उसका उत्तर देती नन्हे शिशु की आत्मा की भाषा इन सबसे परे है । इन्ही का अनुभव करके  व्यक्ति जीवंत एवम् चेतन हो सकता है तथा स्वयं को पहचानने की प्रक्रिया प्रारंभ करता है ।

-दीपक श्रीवास्तव

Saturday, March 10, 2018

-- नारी: मर्यादा या स्वतंत्रता --


नारी किसी भी घर परिवार की ऐसी महत्वपूर्ण कड़ी है जिसमे नैसर्गिक रूप से मर्यादायें एवं संस्कृति तथा सभ्यता समाहित होती है । यदि घर की मान मर्यादा की बात भर भी हो तो मस्तिष्क में उभरने वाला प्रथम दृश्य ही घर की बहू-बेटियों का ही आता है जो सीधे सीधे इस ओर संकेत करता है कन्या घर की संस्कृति है, घर की परम्परा है, घर की पहचान है । वही पुरुष घर का आवरण है। जहाँ नारी मर्यादा है वही पुरुष स्वतंत्रता का प्रतीक है । मर्यादा तथा स्वतंत्रता के मध्य सन्तुलन ही एक सुन्दर एवम् प्रगतिशील समाज की रचना करने में सक्षम है ।
यदि हम विष्णु तथा शिव के स्वरूप को देखें तो वहाँ भी हमें यही संतुलन दिखाई देता है ।  विष्णु जहां मर्यादा के मापदंड स्थापित करते हैं वही शिव का शाश्वत स्वरूप उन्ही मापदंडों का उपहास करते दिखाई देते हैं । क्योंकि मर्यादायें परिस्थितियों की आवश्यकता के अनुसार निर्मित होती है ।  समय के साथ इनमें परिवर्तन आवश्यक होता है ।  समय की गति के साथ जब परम्परायें रूढ़ियां बनने लगें तब उनका विध्वंस आवश्यक हो जाता है । यही सन्तुलन की परकाष्ठा है ।
युगों युगों से समाज की रचना इसी सन्तुलन पर आधारित रही है । समय एवं परिस्थितियों के आधार पर नारी ने अपने कार्यक्षेत्र में परिवर्तन किया है तथा समाज की रक्षा की है चाहे वह शिक्षा के क्षेत्र में हो या युद्ध के क्षेत्र में, हर जगह उसने मर्यादा के नये मापदंड स्थापित किये हैं परन्तु दुर्भाग्य वश इनमें से कुछ परम्परायें रूढ़ियां बनी जिसके ध्वंस के लिये पुरुषों को आना पड़ा । 
नारी को ईश्वर ने ऐसा सुन्दर उपहार दिया है जिससे वह प्रत्येक स्थान पर सम्-विषम प्रकृति के लोगों को भी आसानी से स्वीकार कर पाती है तथा उनके मध्य भी सन्तुलन स्थापित करने में सक्षम है । यही कारण है कि नारी दो परिवारों को जोड़ने का कार्य अत्यन्त सफ़लता एवम् सहजता से कर लेती है ।  यही कारण है कि नारी हर युग में पूजित रही है, पूजित है तथा पूजित रहेगी ।  जो भी शक्ति इस सत्य को अस्वीकार करती है या उपहास करती है उसे नष्ट होने से विश्व की कोई भी शक्ति नही रोक सकती ।

-दीपक श्रीवास्तव 

Thursday, March 8, 2018

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष

---अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष ---

कुछ बातें बड़ी प्रचलित हैं जैसे समानता का अधिकार, पुरुषवादी विचारधारा, महिला दिवस इत्यादि इत्यादि ....

जब ईश्वर ने सृष्टि की रचना करते समय मनुष्य समेत अन्य जीवों के भी दो प्रमुख स्वरूपों में कोई भेद नही किया तो हमने आज के युग में इतना भेद कैसे उत्पन्न कर दिया ? 

यदि हम कहते हैं - समानता का अधिकार - इसी में परोक्ष रूप से हम मान लेते हैं कि कही कोई असमानता है जो वास्तव में है नही लेकिन यह हमारी छोटी एवम् कुंठित सोच को प्रदर्शित तो कर ही देता है ।  आज महिला दिवस मनाने की जरूरत क्यों पड़ रही है - क्योंकि हमने समाज, परिवार तथा देश की इस महत्वपूर्ण नींव को कमजोर मान लिया है तथा उसे सहारा देने, आगे बढ़ाने, सशक्तीकरण या समानता का अधिकार जैसे चमत्कारी शब्दों के माध्यम से अपनी मानसिक बीमारी को छिपाने प्रयास किया है।

नारी कमजोर नही है-कमजोर है हमारी सोच, बीमार है मानसिकता, भ्रष्ट है हमारा विवेक, भ्रमित है हमारा समाज ।  नारी के सम्मान की रक्षा से अधिक आज की जरूरत स्वयं के सम्मान की । जब व्यक्ति स्वयं का समुचित सम्मान करना सीख लेता है जिसमे शरीर, मन तथा आत्मा सबका सम्मान समाहित हो तो उसकी बुद्धि किसी भी परिस्थिति में विकृत नही हो सकती ।  ऐसी स्थिति में नारी, शिशु अथवा किसी भी अन्य सामजिक अंग के लिये अलग से किसी अधिकार अथवा देखरेख की आवश्यकता नही होगी तथा सामाजिक एवम् ढांचा भी सशक्त एवम् अखण्ड होगा । 

अतः अंत में यही कहूंगा कि पुरुष तथा स्त्री दोनों ही विशिष्ट हैं अतः दोनों को मिलकर ही सामाजिक एवम् पारिवारिक आधार को सबल बनाना है ।

- दीपक श्रीवास्तव