भले ही लिपियों में बद्ध भाषा अभिव्यक्ति की सशक्त माध्यम है किन्तु उसमे भी अधूरापन है । मौन की भाषा, एक हृदय से निकलकर दूसरे हृदय को तरंगायित कर सकने में सक्षम संगीत की भाषा, प्रकृति की भाषा, हमारे मन के अक्षरों को अपनी नन्ही आँखों से पढ़कर उसका उत्तर देती नन्हे शिशु की आत्मा की भाषा इन सबसे परे है । इन्ही का अनुभव करके व्यक्ति जीवंत एवम् चेतन हो सकता है तथा स्वयं को पहचानने की प्रक्रिया प्रारंभ करता है ।
-दीपक श्रीवास्तव
-दीपक श्रीवास्तव
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