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Wednesday, January 27, 2010

फिर यह धरती बुला रही है

राणा की संतानों जागो, जागो वीर शिवा के लालों।

फिर यह धरती बुला रही है, जागो महाकाल के कालों॥

शत-शत आघातों को सहकर माता घायल आज पड़ी है,

विश्व गुरु, सोने की चिड़िया शत्रु सैन्य से आज घिरी है।

घिरी हुई है जौहर ज्वाला, घिरी हुई है गंगा धारा,

घिरा हुआ है आज हिमालय, और घिरा है मधुबन प्यारा,

देखो ना अंधियारा छाए, जागो ओ सूरज के लालों।

फिर यह धरती बुला रही है, जागो महाकाल के कालों॥

स्वप्न हमारे बंट सकते हैं, पर ममता कैसे बंट जाए?

दीपक एक तो बुझ सकता है, राष्ट्रज्वाल कैसे बुझ पाए??

भ्रमित हमें सब कर सकते हैं, मगर सत्य को कौन मिटाए?

छाती चीरी जा सकती है, प्यार मचलता कौन मिटाए??

माँ का प्यार न कभी भुलाना, जागो ओ भारत के बालों।

फिर यह धरती बुला रही है, जागो महाकाल के कालों॥

पाश्चात्य की चकाचौंध में चुंधिया गयी तुम्हारी आँखें,

अब तो अपनी आँखे खोलो, बुला रही है माँ की आहें।

बुला रहा है नाद त्राहि का, बुला रही है आहत वसुधा,

बुला रही है भगवत-गीता, और बुलाती प्यासी गंगा।

भारत माँ की प्यास बुझाने, आ जाओ अमृत के प्यालों।

फिर यह धरती बुला रही है, जागो महाकाल के कालों॥

--दीपक श्रीवास्तव