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Wednesday, December 25, 2019

--- क्रिसमस पर विशेष ---

हमारा राष्ट्र पर्व -प्रधान है। वसुधैव कुटुम्बकम की महान भावना को हृदय में धारण किये हमने प्रत्येक मत, पंथ, सम्प्रदाय की भावनाओं को उचित सम्मान दिया है। हम कभी तलवारों के दम पर या आर्थिक प्रलोभन के आधार पर पंथ परिवर्तन के पक्षधर नहीं रहे। धर्म जीवन की गति है तथा यही  समाज मे मर्यादा एवं स्वतंत्रता में सामंजस्य बनाकर रखता है। अतः धर्मनिरपेक्ष होने का अर्थ स्वयं में पाशविक प्रवृत्तियों को अंगीकार करना है।

क्रिसमस समेत अनेक पर्वों पर परिवार एवं मित्रों के साथ खुशियां मनाना आज के एकाकी जीवन के लिए वरदान हो सकता है तथा इसे समाज को स्वीकार करना चाहिए। किन्तु बच्चों का मन अत्यन्त कोमल होता है तथा बचपन में पड़े संस्कार स्थायी होते हैं। अतः बच्चों के लिए सेंटा द्वारा उपहारों की कामना उनमें बचपन से ही लालची प्रवृत्तियों के विकसित होने की शुरुआत कर सकता है। यह बात छोटी भले ही प्रतीत होती हो, किंतु मुफ्त में कुछ भी पाने की प्रवृत्ति ही आगे चलकर समाज को बाजारवाद में उलझा देती है। इन्ही प्रलोभनों की आड़ में अनेक अयोग्य राजनेता मुफ्त सुविधाओं के प्रलोभन की आड़ में राजनीति के महत्वपूर्ण पदों पर आसीन हो जाते हैं जिसका दुष्परिणाम पूरे देश को भुगतना पड़ता है।

क्रिसमस ट्री की सजावट बहुत अच्छी लगती है किंतु इन कृत्रिम वृक्षों पर जगमगाती नकली लाइटों की सजावट से ऊर्जा की बर्बादी के साथ-साथ अनावश्यक प्लास्टिक कचरा इत्यादि इकट्ठा हो जाता है जो पर्यावरण की दृष्टि से अच्छा नहीं है। बड़े स्तर पर नित सजाए जाने वाले मॉल इत्यादि इसी का वृहद रूप हो सकते हैं जो चाहे कितने भी भव्य दिखें किन्तु वे  जीवन शैली में भौतिक दिखावे को ही बढ़ावा देते हैं और जब इनसे व्यक्ति बोर हो जाता है तब वह उन्हीं प्राकृतिक स्थानों की ओर मुड़कर देखता है जिन्हें वह विकास की अंधी दौड़ में पीछे छोड़ आया है। आइए जीवनदायी वृक्षों को क्रिसमस ट्री मानकर उनके जलाभिषेक द्वारा अपना एवं समाज का बेहतर भविष्य सुनिश्चित करें।

मेरा निवेदन है कि इस शुभ अवसर पर बच्चों को उनके नैतिक आदर्शों वाली यथार्थपरक कहानियों से जोड़ा जाए जिससे उनके अन्दर अच्छे-बुरे की समझ के साथ संघर्ष, परिश्रम का आदर्श विकसित हो सके जिससे वे बेहतर समाज के महत्वपूर्ण घटक बन सकें।

- दीपक श्रीवास्तव



Sunday, December 22, 2019

--- राष्ट्र से ऊपर होती विद्वेष की राजनीति ---

यह निर्विवाद सत्य है कि प्रधानमन्त्री मोदी के सक्षम नेतृत्व में भारतवर्ष का कद वैश्विक पटल पर बढ़ा है। वर्तमान सरकार भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों एवं वसुधैव कुटुम्बकम की भावना को विश्व स्तर तक पहुंचाने में सफल रही है। एक ओर जहाँ केदारनाथ की गुफ़ा के माध्यम से स्वयं में स्थित होकर आध्यात्मिक रहस्यों को जानने की भारत की अभिन्न परम्परा "तपश्चर्या" से समूचा विश्व अवगत हुआ, वहीँ दूसरी ओर वसुधैव कुटुम्बकम की भावना को हृदय में धारण करते हुए विश्व-शान्ति का संदेश देने वाले इस राष्ट्र ने मानवता के शत्रु "आतंकवाद" को कमजोर करने में अग्रणी भूमिका निभाई है। स्वच्छता को एक जन-आन्दोलन का रूप देते हुए तथा आर्थिक रूप से शोषित एवं दुर्बल वर्ग के जीवन स्तर को उन्नत बनाते हुए समाज में उनके सम्मानपूर्वक जीवन हेतु वर्तमान सरकार ने अत्यन्त सराहनीय कार्य किया है। इसने किसी को भी झूठा प्रलोभन या मुफ़्तख़ोरी का जीवन देने का प्रयास नहीं किया बल्कि उन्हें आत्मनिर्भरता की ओर उन्मुख करने का प्रयास किया है। शायद इसी कारण सरकार अधिकांश जनता का विश्वास जीतने में सफल रही है। 

पड़ोसी देशों में धार्मिक भेदभाव से उत्पीड़ित अनेक परिवारों को सम्मानजनक जीवन एवं सामाजिक आधार देने के संकल्प से भारत सरकार "नागरिकता संशोधन बिल" लेकर आई है। दुर्भाग्य से इस विषय पर स्वस्थ परिचर्चा के स्थान पर हिंसक घटनाएं हो रही है जो वैश्विक स्तर पर भारतवर्ष की पहचान के प्रतिकूल हैं जबकि यह बिल पूरी तरह से भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों के अनुरूप है। शरणागति की रक्षा के बारे में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है - 

"सरनागत कहुँ जे तजहिं, निज अनहित अनुमानि।
ते नर पामर पापमय, तिन्हहि बिलोकत हानि।। 
अर्थात "जो मनुष्य अपने अहित का अनुमान करके शरण में आए हुए का त्याग कर देते हैं, वे पामर (क्षुद्र) हैं, पापमय हैं, उन्हें देखने में भी हानि है।" यह वानरों द्वारा विभीषण के प्रति सन्देह व्यक्त करने पर भगवान् श्रीराम के मुख से निकले वचनामृत हैं। 

अनेक लोगों का यह तर्क हो सकता है कि बड़ी संख्या में लोगों के यहाँ आने से राष्ट्र की अर्थव्यवस्था प्रभावित हो सकती है क्योंकि इससे राष्ट्र पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ बढ़ सकता है। किन्तु विधेयक में स्पष्ट रूप से वर्णित है कि इससे केवल उन्हें भारतीय नागरिकता प्रदान की जायेगी जो 31 दिसम्बर 2014 से पहले ही अपने देश में धार्मिक उत्पीड़न का शिकार होकर भारत में शरण ले चुके हैं तथा वर्तमान में अपने जीवन-यापन हेतु अवैध रूप से भारतीय संसाधनों पर निर्भर हैं। इसका सीधा अर्थ है कि इससे भारत को आर्थिक स्तर पर कोई हानि नहीं है। विभाजन की विभीषिका से पीड़ित अनेक परिवारों ने अपने जीवन में धार्मिक कट्टरता के कारण अपमान और मृत्यु का वह ताण्डव देखा है जिसके बारे में सुनकर ही एक सामान्य व्यक्ति अन्दर तक सिहर उठता है। ईश्वर द्वारा बनाई इस सृष्टि में मनुष्य एवं जानवरों के जीवन यापन हेतु जब स्वयं ईश्वर ने कोई भेदभाव नहीं किया तो ऐसी परिस्थिति में भूमि पर मात्र एक सीमा रेखा खींच देने से यदि एक व्यक्ति के लिए भी सम्मान से जीवन जीने का अधिकार छिनता है तो प्रकृति से प्रतिकूलता का इससे बड़ा उदाहरण नहीं हो सकता। 

धर्म जीवन का आधार है। दुर्भाग्य से वर्तमान में पूजा-पद्धति को ही धर्म का पर्याय मान लिया गया है। अब तक धर्मनिरपेक्षता शब्द का दुरुपयोग कुछ वर्गों का तुष्टीकरण करते हुए समाज के आधारभूत ढाँचे को बांटकर ध्वस्त करने में होता रहा है। जब तक समाज बंटा हुआ है तब तक शांति स्थापित नहीं हो सकती। रावण के शब्दों में "जब राम और रावण दोनों का अस्तित्व है, तब तक शांति नहीं हो सकती। शान्ति के लिए दोनों में से किसी एक को मरना होगा।" उसी प्रकार जब तक मत-भेद हैं, मनों में भिन्नता है तब तक भारतीय समाज में संघर्ष होता रहेगा। शान्ति के लिए इस भिन्नता को मिटाना ही होगा। 

शिक्षित समाज बुद्धि प्रधान होने के कारण आत्ममुग्धता में लीन है और विषयों की अनभिज्ञता के बावजूद सत्य से परे विभिन्न तर्क-कुतर्क प्रस्तुत करता है तथा मैं और मेरा परिवार तक सीमित रह गया है। उसमे अपने राष्ट्र के प्रति भावना विकसित नहीं हो पाती। अशिक्षित समाज पर रोजी-रोटी का संघर्ष इतना हावी है कि वह अपनी संख्या का अधिकाधिक विस्तार तो कर लेता है किन्तु उसकी संतानें समाज में एक स्तरीय जीवन कैसे जियें इसकी चिंता नहीं कर पाता। फलस्वरूप समाज में अराजकता, लूटपाट, हिंसा, महिला-उत्पीड़न जैसी घटनाओं में व्यापक विस्तार होता है। इसी का लाभ समाज के स्वार्थी तत्व उठाते हैं क्योंकि जब पेट की भूख संस्कारों पर हावी हो जाती हैं तब व्यक्ति अच्छे-बुरे में भेद करने में असमर्थ हो जाता है तथा थोड़े आर्थिक लाभ में ही उससे ऐसे कृत्य कराये जा सकते हैं जो राष्ट्रहित में संवेदनशील हो सकते हैं। आतंकवाद की दिशा में अग्रसर अधिकांश युवक भी कहीं न कहीं इन्ही परिस्थितियों के शिकार हैं। इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह हुआ है कि न सिर्फ आर्थिक बल्कि बौद्धिक आधार पर भी समाज में बहुत बड़ी खाई बन गई है। हम समाज में एक बौद्धिक वर्ग को अक्सर कहते हुए सुन सकते हैं कि अमुक वर्ग हमसे बात करने लायक नहीं है। यह बौद्धिक भिन्नता जब तक समाज में बनी हुई है तब तक राष्ट्र के विभिन्न रंगों के एक सूत्र में पिरोना संभव नहीं है। 

आज वर्तमान सरकार पर न सिर्फ धर्म, जाति, अर्थ बल्कि विभिन्न बौद्धिक स्तरों को भी एक साथ लेकर चलने की बड़ी चुनौती है जिस पर पूर्ववर्ती सरकारों ने कोई ध्यान नहीं दिया। किन्तु वर्तमान सरकार ने जिस प्रकार इसका संकल्प लिया है उससे यह सुनिश्चित है कि ये प्रगति की ओर मजबूती से बढ़े कदम हैं तथा लक्ष्य दूर नहीं है। 

- दीपक श्रीवास्तव 

तन-मन-मानस" द्वितीय श्रृंखला का आयोजन सम्पन्न

श्री अरविन्द आश्रम की पावन तपस्थली में आयोजित तन-मन-मानस की द्वितीय श्रृंखला के अन्तर्गत प्रमुख वक्ता दीपक श्रीवास्तव ने पुरुषार्थ एवं प्रारब्ध के मध्य सन्तुलन की तत्वपरक सामाजिक व्याख्या प्रस्तुत की। उन्होंने बताया कि मनुष्य के जीवन में पुरुषार्थ एवं प्रारब्ध सदैव एक दूसरे पर हावी होने का प्रयास करते रहते हैं। अक्सर मनुष्यों में किसी एक की प्रधानता पाई जाती है किन्तु श्रीरामचरितमानस दोनों में सन्तुलन स्थापित करने का महत्वपूर्ण सामाजिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। 

श्री दीपक श्रीवास्तव ने बताया कि बालि महायोद्धा था। वह घोर पुरुषार्थवादी तो था ही, साथ ही उसमे शक्ति का अहंकार भी था जिसके वशीभूत उसके कुछ कृत्य मानवता के विपरीत हो गए थे। चूंकि कर्मों के अनुसार व्यक्ति का प्रारब्ध सुनिश्चित होता है अतः श्रीराम ने एक वृक्ष की आड़ में खड़े होकर उसका वध किया था। कुछ लोगों के प्रश्न "श्रीराम ने बालि से युद्ध क्यों नहीं किया?" के उत्तर में उन्होंने बताया कि श्रीराम ईश्वर के सगुण रूप में उपस्थित हैं तथा ईश्वर स्वयं कभी युद्ध नहीं करता, वह तो व्यक्ति के कर्म की आड़ में न्याय करता है। यहाँ वृक्ष कर्म का प्रतिविम्ब है। अतः पुरुषार्थवादी बालि सबल होने के बावजूद अपने ही कर्मों द्वारा बने प्रारब्ध से बच नहीं पाता तथा इसी की आड़ में ईश्वर द्वारा न्याय कर दिया जाता है। अब बालि का प्रश्न होता है कि क्या उस पतितपावन परमेश्वर के साक्षात सगुण स्वरुप के दर्शन से भी मैं पापमुक्त नहीं हुआ?, उसी क्षण उसका मस्तक श्रीराम की गोद में होता है। 

उन्होंने मैना-पार्वती संवाद की व्याख्या करते हुए आगे बताया कि जब किसी सिद्धांत पर लोगों में मतभिन्नता होती है तब अक्सर तर्कपूर्ण बहस आधारहीन हो जाते हैं क्योंकि तर्क में पराजित व्यक्ति में मन में सिद्धांत से अधिक उनकी पराजय हावी रहती है तथा विजयी व्यक्ति के मन में विजय का अहंकार हावी होता है। यही कारण है कि घोर पुरुषार्थ की प्रतीक माता पार्वती, जिन्होंने अपने महान तप के आधार पर भगवान् शिव को पति रूप में प्राप्त किया था, ने मैना द्वारा शिवस्वरूप पर सन्देह के विरोध में कोई तर्क प्रस्तुत करने की बजाय प्रारब्ध का सहारा ही लिया जिससे मैना को पराजय का दंश नहीं झेलना पड़ा और न ही माता पार्वती में किसी प्रकार का अहंकार उत्पन्न हुआ। 

कार्यक्रम में अंकित चहल ने अपनी कविता से सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया। कुलश्रेष्ठ कैन्सर केयर चैरिटेबल ट्रस्ट के अध्यक्ष डॉ यतीन्द्र कुलश्रेष्ठ ने कहा कि समाज की वर्तमान स्थिति को देखते हुए श्री अरविन्द आश्रम की ओर से इस प्रकार के आध्यात्मिक कार्यक्रमों का आयोजन अति सुखद एवं समाज के हित में हैं। नव-सृजन समिति के अध्यक्ष श्री के सी श्रीवास्तव ने कहा कि दीपक श्रीवास्तव द्वारा श्रीरामचरितमानस की इस प्रकार की व्याख्या सामाजिक दृष्टि से अत्यंत आवश्यक है तथा इसमें लोगों की भागीदारी बढ़नी चाहिए। 

कार्यक्रम के अंत में अध्यक्षीय उद्बोधन में श्री अरुण नायक ने कहा कि श्री अरविन्द सोसाइटी समाज की आध्यात्मिक प्रगति में निरन्तर कई वर्षों कार्य कर रही है तथा भविष्य में भी ऐसे कार्यक्रमों हेतु कृतसंकल्प है। कार्यक्रम में शैली शर्मा, कवि अंकित चहल, कवि पंकज, डॉ यतीन्द्र कुलश्रेष्ठ, श्री के सी श्रीवास्तव, अंजलि समेत अनेक गणमान्य व्यक्ति उपस्थित रहे।

Thursday, November 28, 2019

राष्ट्रपिता

दुर्भाग्य से आज पुनः राजनीति गांधी जी पर केंद्रित हो गई है। राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के वशीभूत भले ही आज महात्मा गांधी राष्ट्रपिता के रूप में स्वीकार्य हुए हैं किंतु तथ्य यही है कि प्रत्येक व्यक्ति केवल एक सीमित कालखण्ड का हिस्सा भर ही है तथा राष्ट्र किसी भी व्यक्ति की जीवन की सीमाओं से बहुत ऊपर है।राष्ट्र केवल जमीन का टुकड़ा नहीं है बल्कि अनंत में विचरते अनेक भावनाओं का केन्द्र है जिसकी विशालता को केवल एक व्यक्ति के जीवन की सीमाओं से परिभाषित नहीं किया जा सकता। यहां सत्य की परिभाषा यदि हरिश्चन्द्र है तो मर्यादा के स्तंभ श्रीराम है, भक्ति एवं प्रेम की पराकाष्ठा यदि गोकुल की गोपियाँ हैं तो सेवा के चरमबिन्दु श्री हनुमानजी हैं। कहीं ज्ञान के अहंकार को ध्वस्त करती विदुषी गार्गी हैं तो सतीत्व के बल पर यमराज से पति के प्राण वापस लाने वाली सावित्री भी हैं, यदि दुधमुंहे बालक को पीठ से बांधकर राष्ट्र के लिए जीवन बलिदान करने वाली वीरांगना लक्ष्मीबाई हैं तो वहीं राष्ट्र की बलिबेदी पर पुत्रों को भी बलिदान करने का हौसला रखने वाले गुरु गोविंद सिंह हैं। ये सभी राष्ट्र की पहचान होते हुए भी कालखण्ड की सीमाओं से बंधे हुए हैं। राष्ट्र ऐसे ही अनेक गाथाओं का एकमात्र प्रत्यक्ष गवाह है। अतः केवल क्षणभंगुर जीवन धारण किये एक व्यक्ति को इसका पिता कहना आश्चर्यजनक है एवं राजनीतिक स्वार्थों के वशीभूत लगता है। व्यक्ति है तो उसके आदर्श भी हैं, उसका जीवन अनुकरणीय भी है एवं राष्ट्र के प्रति उसकी सेवा भी वंदनीय है किंतु चराचर अविनाशी संस्कृति एवं राष्ट्र का पिता कोई नश्वर देहधारी कैसे हो सकता है? यदि व्यक्ति है तो उसका मन एवं मस्तिष्क भी शरीर की सीमाओं से बंधा हुआ है अतः समाज में उसके समर्थक एवं विरोधी भी स्वाभाविक हैं और यदि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर एक दूसरे की मान्यताओं पर कीचड़ उछाला जा सकता है तो एक नश्वर देहधारी के बारे में विरोधी भाव अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अपमान नहीं है? जिस प्रकार सुख के साथ दुःख, जीवन के साथ मृत्यु, राजा के साथ रंक द्वारा समाज एवं जीवन मे संतुलन है उसी प्रकार समर्थन के साथ विरोध का संतुलन भी आवश्यक है अन्यथा समाज का एक पक्ष कुंठित हो जाएगा। जातिवादी व्यवस्था भी इसी असंतुलन एवं कुंठा का परिणाम है।

- दीपक श्रीवास्तव

Tuesday, November 12, 2019

पुस्तक समीक्षा: इंसान बिकता है

प्रश्नों में उलझा हुआ समाज जब कभी भी पीछे मुड़कर अपनी वर्तमान स्थिति की समीक्षा करता है, तो उसे मार्ग दिखलाने का कार्य पुरातन समाज को स्पष्ट रूप से उजागर करती निष्पक्ष लेखनी ही करती है जो उस समय इतिहास का आकार ले चुकी होती है। मनुष्य जन्म लेता है और जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों से गुजरता हुआ इस नश्वर संसार से चला जाता है, इसी प्रकार पीढ़ियों का क्रम चलता रहता है, किन्तु हर व्यक्ति के जीवन की घटनाएं उसकी भावी पीढ़ी को न सिर्फ प्रभावित करती हैं, बल्कि अपना मार्ग निर्धारित करने हेतु आवश्यक दिशा-निर्देश भी प्रदान करती हैं। यदि एक व्यक्ति के मन में कोई प्रश्न, दुविधा या उलझन है, तथा वह विभिन्न व्यक्तियों के समक्ष अपना प्रश्न रखता है, तो स्वाभाविक है कि हर व्यक्ति उसे अपनी-अपनी दृष्टि से हल बताएगा, किन्तु दुविधाग्रस्त व्यक्ति उचित निर्णय अपनी परिस्थिति के अनुसार ही ले सकता है क्योंकि प्रश्नों के हल भी कालखण्ड एवं परिस्थितियों पर निर्भर होते हैं। इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण गोस्वामी तुलसीकृत श्रीरामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में मिलता है, जब गरुड़ जी के चित्त में मोह उत्पन्न होता है और वे काकभुशुण्डि जी के पास जाते हैं। यदि काकभुशुण्डि जी उन्हें सीधे-सीधे हल बता देते तो यह उनकी व्यक्तिगत परिस्थितियों के अनुसार होता, जो गरुड़ जी के लिए अनुपयुक्त भी हो सकता था। अतः काकभुशुण्डि जी ने उन्हें केवल अपने जीवन का अनुभव सुनाया जिसके पश्चात गरुड़ जी अपना उपयुक्त हल प्राप्त करने में सफलता प्राप्त हुई।

श्री अंकित चहल की कृति "इंसान बिकता है"वर्तमान समाज की स्पष्ट छवि प्रस्तुत करती है जिसका प्रारम्भ ही वर्तमान राजनैतिक, कारपोरेट, एवं गलाकाट प्रतिस्पर्धा के बीच मनुष्य के मन में चल रही विवशता को भी उजागर करती है जिसके फलस्वरूप व्यक्ति सही-गलत में अन्तर नहीं कर पाता, यथा -
"जरा सी ख्वाहिशों में डूबकर इंसान बिकता है। 
"तरक्की खून रोती है, यहाँ ईमान बिकता है। "

रचनाकार ने अवसरवादी राजनेताओं के चुनावों के पहले और बाद के चरित्र का अत्यन्त प्रभावी एवं स्पष्ट चित्र खींचा है तथा इसके भी आगे जाकर उनके प्रतिद्वन्दियों के भी स्वाभाविक चरित्र को प्रस्तुत किया है - 
"सबूतों की करेंगे मांग चिल्लाकर वही सारे, अदालत से रिहा हैं जो सबूतों के अभावों में” 
तथा 
"असल में खेलने वाले सभी संसद में बैठे हैं।"  

समाज को प्रगतिगामी होने के लिए अपनी संस्कृति के मूल से जुड़ा होना आवश्यक है, रचनाकार के अंतर में इस पीड़ा के स्पष्ट दर्शन होते हैं तथा समाज को प्रगतिगामी मार्ग पर ले जाने हेतु वह हर छोटी-बड़ी बात को लिखना नहीं भूलता, यथा - "सुबह जल्दी उठो ये रतजगे अच्छे नहीं होते" ।
सैनिक संघर्षों से जूझकर निरन्तर सीमाओं पर डटे हुए रहते हैं। राष्ट्र सर्वोपरि है अतः उसकी सुरक्षा के आगे वे अपने जीवन की आहुति देने से भी नहीं हिचकते, इसीलिए राष्ट्र एवं राष्ट्रवासी सुरक्षित रहते हैं। यह एक साहित्यकार का सबसे बड़ा उत्तरदायित्व है कि ऐसे निश्छल शूरवीरों के संघर्षों से समाज को भलीभांति अवगत कराये जिससे समाज प्रेरणा लेकर चल सके एवं राष्ट्र निर्माण एवं प्रगति में निष्काम भाव से अपना योगदान दे सके। अंकित की कृति इस भाव को अत्यन्त प्रभावी एवं पूरे साहित्यिक सामर्थ्य के साथ पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करती है। 

यह सत्य है कि वर्तमान समय में प्रेम का अर्थ सामाजिक जीवन में केवल शारीरिक सुख तक ही सिमटता जा रहा है, सच्चे प्रेम के अनुभव से विगत कुछ दशकों में समाज में दूरी बढ़ी है। जहाँ प्रेम है वहां समाज जुड़ता है एवं विश्व हेतु अनुकरणीय उदाहरण रखता है किन्तु यह बात पीढ़ियों को याद रखनी चाहिए कि जब प्रेम निष्काम न रहकर केवल वासना तक सीमित रह जाता है तो समाज रोगी हो जाता है जिसका उपचार अत्यंत कठिन है तथा उत्पन्न समस्या अनेक युगों तक बनी रहती है और भयानक विष की भांति भावी पीढ़ियों को ग्रसती है जिसका स्पष्ट दृश्य रचनाकार ने अपने मुक्तक में रखा है - 
"बदन की प्यास बुझते ही ये रिश्ते तोड़ देते हैं। 
भयानक खौफ़ के फिर इसमें किस्से जोड़ देते हैं।"
इतना ही नहीं रचनाकार उक्त पाप से ग्रसित जीवन का बोझ ढोने वालों की पीड़ा का अनुभव भी अपने हृदय में करता है, अतः समाज से वह निवेदन करता है - "उजाले ढूंढती आँखों के गर तुम नूर हो जाते। किसी बेवा की सूनी मांग का सिन्दूर हो जाते।"

वर्तमान समाज में अनेक ऐसी प्रतिभाएं है जो उपयुक्त अवसर न मिलने के कारण या पारिवारिक एवं सामाजिक जिम्मेदारियों के बोझ में उलझकर रह जाती हैं तथा समाज उनसे लाभान्वित नहीं हो पाता। श्री अंकित ने इस ओर अत्यन्त मार्मिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है - 
"मेरी उम्मीद को हर बार ठोकर मार देता है। 
जो तूफ़ां है मेरे अंदर, मेरा घर मार देता है।"

"इंसान बिकता है" प्रेम की अभिव्यक्ति से भरपूर है। इसमें सूर, कबीर, तुलसी, मीरा के निच्छल प्रेम की अभिव्यक्ति भी है, तो बच्चों के बड़े होने एवं अपने पैरों पर खड़े होने के बाद अपने ही माता-पिता से बदलते प्रेम से स्वरुप का चित्र भी है। भौतिकता के भ्रम में संवेगों का उफ़ान भी है तो निश्छल प्रेम की परिणीति का पूर्ण विराम भी है -
"जब भी तेरा नाम लिखा है। 
मैंने पूर्ण विराम लिखा है। "

समाज के विविध रूप रंग हैं। कहीं उमंगे हैं कहीं अल्हड़ता है तो कहीं गंभीरता एवं जिम्मेदारियों का बोध भी है। कहीं बाल-मन है तो मां की ममता भी है। कहीं सामाजिक कुरीतियां हैं तो समाज निर्माण के प्रयास भी हैं। कहीं मन पर बुद्धि हावी है तो अंतश्चेतना का एहसास भी है। इतने विविध रंगों को एक पुस्तक में संजोकर, समेट कर लाने का जो महान कार्य अंकित चहल ने किया है वह अद्भुत है। पुस्तक की लेखन शैली अत्यंत सरल एवं सहज है जो साधारण जनमानस के हृदय में सीधे उतरने वाली है। मुझे आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि "इंसान बिकता है" के माध्यम से अंकित का यह प्रयास जन-जन के हृदय में सदा के लिए अपना स्थान बनाएगा तथा एक सुंदर समाज की परिकल्पना को साकार करने में यह एक महत्वपूर्ण योगदान साबित होगा।

- दीपक श्रीवास्तव

Wednesday, October 9, 2019

--- ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी ---

श्रीरामचरितमानस की उक्त पंक्ति को आधार बनाकर विधर्मियों ने भारतीय समाज के विरुद्ध जो षङयन्त्र रचा है,दुर्भाग्य से आज भी यह समाज को बांटने में सफल हो रहा है। बिना मूल भाव को समझे जब दुर्भावना से किसी पंक्ति की आधी-अधूरी व्याख्या की जाती है तो भोली-भाली जनता षड्यंत्रकारियों के जाल में फंस ही जाती है तथा समाज टूटने लगता है। मातृ शक्ति स्वरूपा नारी एवं ईश्वरीय तत्व के सबसे निकट रहने वाला सेवक समाज इसी का शिकार होकर समाज में उपेक्षित होकर रह गया। मेरा व्यक्तिगत मानना है कि जब लेखन किसी विशेष वर्ग की ओर अधिक झुकता है तो यह उस वर्ग को समाज से और अलग कर देता है। उदाहरण के लिए शम्बूक वध से सेवक वर्ग को जितनी उपेक्षा नहीं मिली उससे अधिक उनको विशेष सिद्ध करते हुए लेखों से मिल गई क्योंकि सेवक वर्ग के बारे में उक्त पंक्तियों की आवश्यकता से अधिक व्याख्याएं उपलब्ध हैं फिर भी यह वर्ग उपेक्षित है। ऐसा ही मुस्लिम वर्ग के बारे में भी है, स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात जितना राजनैतिक खेल उनके पक्ष में खेला गया उससे कहीं अधिक वे अशिक्षा, गरीबी और भूख से आज भी संघर्ष कर रहे हैं। यही उदाहरण मातृस्वरूपा नारी शक्ति पर भी सटीक है क्योंकि नारियों से सम्बंधित चाहे जितने नियम बन रहे हों किन्तु दिनों-दिन उनके प्रति अपराध की संख्या में भी वैसी ही वृद्धि हो रही है। वहीं इस देश का सबसे उपेक्षित सामान्य वर्ग, जिसके अधिकारों पर भी कोई विशेष चर्चा नहीं होती, जिसकी योग्यता ही उसकी एकमात्र आजीविका है, जिसके सामान्य अधिकारों एवं पर विभिन्न राजनैतिक कारणों से दबाव रहा, वही वर्ग आज आज भी समाज को जोड़े रखने हेतु निरन्तर प्रयासरत है तथा प्रत्येक क्षेत्र में राष्ट्र निर्माण में सबसे अधिक भागीदारी देता रहा है।

श्रीरामचरितमानस ग्रन्थावतार के सुन्दरकाण्ड में वर्णित अवधी भाषा में रचित उक्त पंक्ति को समाज को तोड़ने के लिए एक शस्त्र की तरह उपयोग किया जाता रहा है। गोस्वामी तुलसीदास जी की जैसी तपस्या एवं साधना थी, उसके अनुसार व्यक्ति उनके द्वारा रचित पंक्ति का अर्थ भर भी समझकर अपने जीवन में उतार ले तो उसका जीवन धन्य हो जाएगा इसके बावजूद धर्मविरोधी तत्वों द्वारा इसकी गलत व्याख्या होती रही जिसका प्रारम्भ ताड़ना शब्द के अर्थ से हुआ। पाठक वर्ग जब कोई साहित्य पढ़ता है तो संवादों को चरित्र के सन्दर्भ में देखता है। यदि संवाद नायक का है तो वह नायक का चरित्र प्रस्तुत करता है तथा यदि खलनायक का है तो वह खलनायक का चरित्र प्रस्तुत करता है। दोनों ही परिस्थितियों में लेखक की मूल भावना पृथक एवं तटस्थ रहती है। अतः उसे लेखक के व्यक्तिगत दृष्टिकोण से जोड़कर देखना कहीं से भी न्यायसंगत नहीं है। किन्तु "ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी" को मूल अर्थ लेखक में लेने पर भी वह अर्थ नहीं निकलता जो दुर्भावना से प्रचारित है। "ताड़ना" अवधी भाषा का शब्द है जिसे हिन्दी के "प्रताड़ना" शब्द के अर्थ से जोड़ते हुए चौपाई के मूल भाव को बदलने का षड़यत्र किया गया। ताड़ना एक अवधी शब्द है, जिसका अर्थ - पहचानना, परखना या देखरेख करना। सामान्य बोलचाल की भाषा में यदि यह कहा जाय कि "अमुक व्यक्ति किसी स्त्री को ताड़ रहा है" तो आप स्वयं ही समझें कि इसका अर्थ क्या निकालेंगे- प्रताड़ित करना या घूर के (बहुत ध्यान से) देखना।

उक्त चौपाई का सन्दर्भ भी देखें - जब श्रीराम वानर सेना सहित तीन दिनों तक समुद्र से मार्ग देने की याचना लिए प्रतीक्षा करते हैं तथा कोई उत्तर नहीं मिलता, तब वर्णन आता है कि -

"विनय न मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति।।"

तब समुद्र देव प्रकट होकर अपनी बात रखते हैं -
गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी।।
तव प्रेरित मायाँ उपजाए। सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए।।
ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी।।

"ढोल, गंवार ..." पंक्तियों पर विचार करने से पहले समुद्र द्वारा कथित "गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी" पर विचार करना आवश्यक हो जाता है क्योंकि यहाँ सृष्टि में उपस्थित तत्वों को जड़ कहा गया है जिसे समुद्र ने स्वीकार किया है। यहाँ जड़ शब्द अत्यन्त व्यापक अर्थ में प्रयोग किया गया है तथा केवल यहीं नहीं प्राणियों के सृजन में प्रयुक्त पंचतत्व भी जड़ तत्व को ही प्रदर्शित करते है। जीवित एवं मृत व्यक्ति में भी जड़ तत्वों के आधार पर कोई अन्तर नहीं किया जा सकता किन्तु जड़ शरीर में उपस्थित चेतना ही दोनों के अन्तर को स्पष्ट करती है। सृष्टि एवं ब्रह्म क्रमशः जड़ एवं चेतन तत्व हैं। विडम्बना यह है कि सृष्टि रुपी जड़ को जड़रूपी नेत्रों से स्पष्ट देखा जा सकता है किन्तु चेतन रुपी ब्रह्म को जड़ रुपी नेत्रों से देखना संभव नहीं है। इस प्रकार का वर्णन श्रीरामचरितमानस में अनेक बार प्रयुक्त हुआ है। अहिल्या भी पत्थर के रूप में जड़ स्वरुप का प्रतिनिधित्व करती है जो ईश्वरीय चेतना (श्रीराम) के स्पर्श मात्र से धन्य हो जाती है। केवट की भी व्यथा ऐसी ही है जो उसे जड़ रुपी नाव में चेतना के संचार का भय प्रदान करती है। वस्तुतः केवट के मन की व्यथा समाज के अधिकांश व्यक्तियों की भौतिकवादी व्यथा का ही सजीव निरूपण है। आर्थिक एवं भोगवादी समाज में सामान्य व्यक्ति अपनी भौतिक संपत्ति को सहेजकर रखने का प्रयास करता है तथा भौतिक सुखों को ही जीवन के रसों का पर्याय मानने लगता है। अध्यात्म रुपी जीवन को वह नीरस मानते हुए, बिना उसके मर्म को जाने उसकी कल्पना में शंका एवं संसय का भाव रखता है। इसी कारण केवट संशयग्रस्त होकर कहता है -

"छुअत सिला भइ नारि सुहाई। पाहन तें न काठ कठिनाई॥
तरनिउ मुनि घरिनी होइ जाई। बाट परइ मोरि नाव उड़ाई।।"

अर्थात जड़ नेत्र केवल जड़ में ही अपना हित देख पाते हैं। किन्तु जैसे ही जड़रूपी मन में चेतना के संचार की अनुभूति होती है वैसे ही जीव आनंदमय हो जाता है। यही बात शबरी प्रसंग में भी द्रष्टव्य है जब वह स्वयं को जड़ के रूप में व्यक्त करते हुए करती है - "अधम जाति मैं जड़मति भारी।"

 जिस प्रकार सृष्टि में दो ही प्रकार के तत्व हैं - जड़ एवं चेतन, उसी प्रकार प्रकृति और पुरुष मिलकर ही समष्टि का निर्माण करते हैं। शिव का अर्धनारीश्वर रूप इन दोनों तत्वों में संतुलन को दर्शाता है। प्रकृति जड़ तत्व है तथा पुरुष चेतन तत्व है। चेतन तत्व हमें बहुधा स्पष्ट दिखाई नहीं देता किन्तु जड़ तत्व से ऊपर उठने पर हमें चेतन स्वरूप से साक्षात्कार हो जाता है। यदि नारी के सन्दर्भ में सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो महसूस होगा कि नारी जड़ तत्व को पूर्ण रूप से परिभाषित करती है। नारी प्रकृति तत्व है। प्रकृति तत्व अन्य जड़ तत्वों को उत्पन्न कर सकता है अतः सृजन की प्रक्रिया को धारण करने की क्षमता केवल नारी में ही सम्भव है। चेतना का जड़ के बिना कोई ठोस अनुभव नहीं कर सकता क्योंकि अनुभव इन्द्रियजन्य हो या इन्द्रियातीत, दोनों के अनुभव हेतु शरीर अर्थात जड़ तत्व को धारण करना अनिवार्य है। सूरदास के पद में निर्गुण ब्रह्म का अनुभव कुछ इस प्रकार है - "अबिगत गति कुछ कहत न आवै, ज्यों गूंगा मीठे फल को रस अंतरगत ही पावै।" परन्तु यहाँ भी गूंगा जड़ तत्व का प्रतीक है।
 
मेरे विचार में गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा अवतरित उक्त पंक्तियाँ व्यक्ति को सामाजिक जीवन हेतु एक मजबूत आधार प्रदान करती हैं। "ढोल,गंवार, शूद्र, पशु, नारी" पर विशेष दृष्टि रखने की आवश्यकता क्यों है,इसे समझने के लिए इसके भाव तथा इसके कहने वाले का आशय समझना आवश्यक है। उक्त पंक्ति समुद्र द्वारा कथित है जो संसार में पदार्थ प्रवृत्ति अर्थात जड़ का प्रतिनिधित्व करती है। समुद्र ने अपनी जड़ता को स्वीकार किया है,जो समाज के लिए एक बड़ा सन्देश है। वर्तमान में लोग अपने मूल व्यक्तित्व पर इतने छद्म चेहरे लगाकर रहते हैं कि उन्हें अपने वास्तविक स्वरुप की भी विस्मृति हो जाती है। लंका में कुछ ऐसा ही दृश्य उस समय आता है जब हनुमान जी सीता माँ का पता लगाने पहुँचते हैं तथा दिन में पहुँचने पर लंका का दृश्य कुछ ऐसा है -

"तहाँ जाइ देखी बन सोभा। गुंजत चंचरीक मधु लोभा।।
नाना तरु फल फूल सुहाए। खग मृग बृंद देखि मन भाए।।"

इतना सुन्दर दृश्य देखकर भला किसे वास्तविक (पाप) रुप के दर्शन होते? किन्तु रात्रिकाल में लंका की यात्रा सत्य के दर्शन करा देती है। किन्तु यहाँ समुद्र द्वारा स्वयं के वास्तविक स्वरुप की स्वीकारोक्ति यही सन्देश देती है कि अपने स्वयं के रूप एवं गुण को यथा रूप में स्वीकारकर प्रभु के चरणों में भक्ति रखना ही जीवन के प्रति पूर्ण निष्ठा एवं गति है। ऐसा करके ही व्यक्ति प्रभु चरणों के प्रेम का अधिकारी हो सकता है। एक सन्देश यह भी मिलता है कि लक्ष्य प्राप्त करने हेतु जड़ प्रवृत्ति से याचना करने से बेहतर है कर्म करते हुए निरन्तर बढ़ते रहें अन्यथा समय अपनी गति में रहता है यथा "गए तीन दिन बीति" के अनुसार समय निकल जाता है और जीवन में पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता। सेतु बनाकर लंका पहुँचने का यही भाव है। ढोल,गंवार, शूद्र, पशु, नारी पर विशेष दृष्टि क्यों रखनी चाहिए इसे समझने हेतु प्रत्येक तत्व पर एक-एक करके दृष्टि डालना आवश्यक है।

ढोल: जो लोग संगीत से सम्बद्ध है वे जानते हैं कि ढोल बजाने से पहले उसके स्वरों को अन्य वाद्ययन्त्र जैसे हारमोनियम, तानपूरे इत्यादि से मिलाना पड़ता है। अन्य वाद्ययंत्रों में स्वर नियत रहते है जैसे C# स्केल के "सा" स्वर हेतु यदि हारमोनियम के मध्य सप्तक का प्रथम काला बटन प्रयुक्त हो रहा है तो यह बटन सदा C# स्केल के "सा" हेतु ही प्रयुक्त होगा। किन्तु ढोल परिवार के वाद्ययंत्रों (ढोलक, तबला इत्यादि) को हारमोनियम के साथ संगत करने हेतु पहले तैयार करने की आवश्यकता पड़ती है अन्यथा स्वर एवं ताल में मेल होना संभव नहीं है। इतना ही नहीं, ढोल मौसम से भी प्रभावित हो जाता है। मुझे याद है एक बार कानपुर के गंगा महोत्सव में मेरे भजनों की प्रस्तुति हुई थी जहाँ तापमान 43 डिग्री सेल्सियस से अधिक था तथा वातावरण में आद्रता भी बहुत थी। अतः बार-बार तबले का स्वर उतर जाता था तथा संगीत बेसुरा हो जाता था। चूंकि कार्यक्रम लम्बा था अतः हमारे तबलावादक को लगभग प्रत्येक प्रस्तुति के पश्चात तबले के स्वर को मिलाने हेतु कसना पड़ता था। यदि ढोल का भलीभांति ताड़न (ध्यान रखना) न किया जाय तो उसके स्वर सदैव ही भटके हुए रहेंगे। समाज में अनेक ऐसे लोग होते हैं लक्ष्य की और उन्मुख होते हैं तथापि थोड़ा सा भटकाव ही उनके जीवन को अंधकारमय कर देता है, ऐसे लोग ढोल के समान होते हैं जिन्हे सही दिशा देने हेतु निरन्तर उन पर दृष्टि रखनी आवश्यक है अन्यथा वे समाज की दिशा नकारात्मक कर सकते हैं। एक अन्य उदाहरण के रूप में किशोर बच्चे भी ढोल के समान होते हैं जिनमे अनेक कारणों से भटकाव हो जाता है अतः किशोरों पर माता-पिता एवं गुरुजनों को अधिक ध्यान देने की आवश्यकता पड़ती है।

गंवार:
गंवार शब्द का सीधा अर्थ मूढ़, जड़, मूर्ख या अज्ञानी है। पराधीनता कालखण्ड में इसे गांव शब्द से जोड़कर ग्रामवासियों को बदनाम करने का कुत्सित कार्य किया गया इस कारण कुछ लोग गाँव में रहने वालों को स्वयं की अज्ञानता के कारण मूर्ख अर्थात गंवार कहने लगे। वर्तमान में अंग्रेजी के विलेजर्स शब्द को भी इसी अर्थ में देखने का षड्यंत्र किया जा रहा है। मानसिक विकार से ग्रसित कुछ लोग क्षेत्र विशेष में रहने वालों को भी मूर्ख का पर्यायवाची मानते हुए देखे जा सकते हैं जो  मानसिक अहंकार का परिचायक है। दिल्ली एवं पश्चिमी भारत के राज्यों में रहने वाले कुछ लोग इसी मानसिक बीमारी से ग्रसित हैं तथा बिहारी जैसे शब्दों का यही अर्थ  लगाते हैं। इसका एक कारण और भी है कि ऐसे व्यक्ति संस्कृति एवं सभ्यता में अन्तर कर पाने में समर्थ नहीं होते तथा अपनी भ्रान्त धारणाओं के आधार पर गलत परिभाषा का कुचक्र  रचते हैं। वास्तव में कोई भी राष्ट्र संस्कृति एवं सभ्यता के सन्तुलन से ही वैश्विक स्तर पर आगे बढ़ सकता है। एक ओर जहाँ सभ्यता राष्ट्र का शरीर है वहीं संस्कृति उसकी आत्मा है। जब हम हड़प्पा जैसी सभ्यताओं का अध्ययन करते हैं तो वहां के घरों की बनावट, नालियां, सीवर, औजारों इत्यादि के बारे में जानने का प्रयास  करते हैं किन्तु जब संस्कृति की बात होती है तो वहां के लोक-व्यवहार, लोक-परम्पराओं, लोक नृत्य-संगीत इत्यादि का अध्ययन होता है।

सभ्यताएं समय के साथ परिवर्तनशील होती हैं किन्तु संस्कृति स्थायी बनी रहती है। सभ्यताओं को आगे बढ़ने एवं अपना अस्तित्व बनाये रखने हेतु निरन्तर संस्कृति के सहारे की आवश्यकता होती है किन्तु संस्कृति सदैव ही अल्हड़ और स्वतन्त्र होती है। सभ्यताएं संस्कृति को जन्म नहीं दे सकती, किन्तु संस्कृतियों ने अनेक सभ्यताओं को जन्म दिया है तथा सींचा है। एक उदाहरण द्वारा यह और भी स्पष्ट हो जाएगा कि फ़िल्मी गीतों को यदि सभ्यता का पर्याय मानें तो लोकगीत संस्कृति के रूप में खड़े दिखाई देंगे। एक फ़िल्मी गीत को बनाने हेतु कठिन अभ्यास के साथ ही वाद्ययन्त्रों का तारतम्य, सुरों के विभिन्न प्रयोग एवं तकनीकी प्रयोगों की भी एक लम्बी श्रृंखला होती है। अनेक बार उन्हें विकसित करने हेतु लोकधुनों के साथ-साथ लोकगीतों के शब्दों का भी आधार लेना पड़ता है। "पिंजरे वाली मुनिया", "कांची रे कांची", "ससुराल गेंदाफूल" जैसे अनेक गीत इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। वहीं संस्कृति के पर्याय लोकगीतों को किसी फ़िल्मी सहारे की आवश्यकता नहीं पड़ती। उनकी मिठास नैसर्गिक होती है जिसमे बनावट का लेशमात्र भी नहीं होता। वे केवल हारमोनियम, ढोलक इत्यादि के साथ ही गाये जा सकते हैं, यदि वाद्ययन्त्र उपलब्ध नहीं हैं तो भी केवल तालियों या घुंघुरुओं के साथ ही वे अपनी नैसर्गिक सुन्दरता से सबको आनंदित कर देते हैं। जन्म-संस्कार, मुण्डन-संस्कार, विवाह के समय गाये जाने वाले लोकगीत इसी विरासत एवं संस्कृति के अभिन्न अंश हैं।

शेष अगले अंक में ...


- दीपक श्रीवास्तव

Thursday, October 3, 2019

मन में तुम्ही हो माता

मन में तुम्ही हो माता,
जीवन शक्ति प्रदाता।।

सब देवों की शक्ति तुममें,
मिलकर संग निवास करे। 
सारे जग में व्याप्त तुम्ही हो,
सृष्टि तुम्हीं में वास करे। 
तेरे अनुपम बल-प्रभाव की,
कोई थाह न पाता। 
जीवन शक्ति प्रदाता।।1।।

शेषनाग भी सहस्र मुखों से,
तेरे वर्णन में सकुचायें। 
बह्मा औ शिव महा-तपस्वी,
श्रद्धापूर्वक तुमको गायें। 
हे अम्बे, हे महा-चण्डिके,
तुम्ही दिवस तुम राता। 
जीवन शक्ति प्रदाता।।2।।

तुम घर-घर में लक्ष्मीरूपा,
तुम ही माँ दारिद्रस्वरूपा। 
तुम्ही प्राणियों की बुद्धि हो,
तुम्ही जगत में लज्जा-रूपा। 
हाथ जोड़कर नमन करूँ मैं,
पालक तुम्ही विधाता। 
जीवन शक्ति प्रदाता।।3।।

हे देवी, हे अचिन्त्यरूपा,
हे शक्ति, हे प्राण-स्वरूपा।
तुममें सत-रज-तम गुण बसते,
गुण विमुक्त तुम ज्योति-स्वरूपा। 
तेरे गुण गाने को माता,
जीवन कम पड़ जाता। 
जीवन शक्ति प्रदाता।।4।।

तुम्ही भक्ति हो, तुम्ही आसरा,
तुम अपरा माँ तुम्ही हो परा।
जगत तुम्हारा अंशभूत है,
माँ तुमसे ही गगन औ धरा। 
तुम स्वाहा जिससे हर प्राणी,
पल में तृप्ति पाता। 
जीवन शक्ति प्रदाता।।5।।

माता तुम ही महाव्रता हो,
तुम्ही जितेन्द्रिय महातपा हो।
पितरों की तृप्ति हो जाती,
इसीलिए तुम स्वधा कहाती।
मुनिजन-साधक तुमको ध्यावें,
मोक्ष-मुक्ति की दाता ।
जीवन शक्ति प्रदाता।।6।।

शब्दों का आधार तुम्हीं हो,
यजुर्-साम-ऋग्वेद तुम्ही हो।
तुम्हीं त्रयी हो तुम्ही भगवती,
तुम्ही वार्ता, तुम्ही सती हो।
तुम्ही ज्ञान माँ तुम ही विद्या,
कर्म तुम्ही फलदाता।
जीवन शक्ति प्रदाता।।7।।

समझ सके तत्वों का सार,
तुम वह मेधाशक्ति अपार।
भवसागर से पार उतारे,
उस नौका का तुम्ही अधार।
मोहमुक्त आसक्तिमुक्त हो,
तुम ही गौरी माता।
जीवन शक्ति प्रदाता।।8।।

मैं मूरख तुमसे अनजान,
घेरे हैं दुःख-दर्द तमाम।
तेरी महिमा कैसे गाउँ,
भरा हुआ मन में अज्ञान।
मुझको अपनी शरण लगा लो,
आदि-शक्ति हे माता।
जीवन शक्ति प्रदाता।।9।।

- दीपक श्रीवास्तव  

Wednesday, September 25, 2019

--- ॐ नमः शिवाय: भगवान् शिव जी की अलौकिक अनुभूति ---

इस वर्ष का सावन मेरे लिए अत्यन्त अलौकिक अनुभव लेकर आया था। सावन प्रारम्भ होने के प्रथम शनिवार को मन बेचैन था तथा बार-बार शिव जी के दर्शन की इच्छा हो रही थी। मुझे पता भी नहीं था कि सावन प्रारम्भ हो गया है। कई मित्रों से मैंने शिवजी के दर्शन हेतु साथ चलने का निवेदन किया परन्तु अधिकांश मित्र व्यस्त थे। मेरे इंजीनियरिंग कॉलेज के प्रिय मित्र सचिन ने साथ चलना स्वीकार किया। हम दोनों ने अपने बच्चों को लेकर रावण जन्मभूमि स्थित पुलत्स्य मुनि द्वारा स्थापित शिवलिंग के दर्शन किये। उस दिन शाम को मेरे मुख से शब्द तक ठीक से नहीं निकल रहे थे। अगले दिन संस्कार भारती के कार्यक्रम में जाना था जहाँ जाने के बावजूद कार्यक्रम में उपस्थित होने की इच्छा नहीं हुई। इसके स्थान पर श्री अरविन्द भवन में आदरणीय श्री अरुण नायक सर के साथ उनके केदारनाथ धाम की अलौकिक यात्रा पर घंटो बात हुई तथा ऐसा लग रहा था जैसे मैं स्वयं ही इस यात्रा में मानसिक रूप से उपस्थित हो गया हूँ।

सावन माह में बुधवार दिनांक २४ जुलाई को प्रातःकाल मन में एक अलौकिक अनुभूति हो रही थी तथा उसी अनुभूति के दौरान अंदर से शब्द फूट रहे थे। ईश्वर साक्षी हैं है ये शब्द बिना प्रयास के ही स्वतः स्फुटित हो रहे थे तथा तीन छंदों का सृजन हुआ। अगले दिन शिव-कृपा से चार छंदों का निर्माण हुआ तथा शिव-स्तुति बन गई किन्तु पूरे श्रावण मास में इसे गाने की धुन समझ नहीं आई। एक रविवार को इसकी पांच प्रतियों को श्री दूधेश्वर नाथ शिवलिंग तथा रावण जन्मभूमि स्थित पुलत्स्य मुनि द्वारा स्थापित शिवलिंग पर अर्पित करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि बिसरख स्थित शिवलिंग पर केवल एक लोटा जल चढाने के बाद इसका पाठ करने के बाद मुझे उस सुगन्ध की अनुभूति हुई जो वाराणसी स्थित श्री काशी विश्वनाथ मंदिर में सदा विद्यमान रहती है। आँखे खोलने पर वहां वही चढ़ाया हुआ जल था तथा और कुछ भी नहीं था परन्तु सुगन्ध विद्यमान थी।

सावन समाप्त होने के बाद प्रथम सोमवार को पूजा करने के दौरान स्वतः ही इसकी धुन निकल आई। मेरे जीवन में इस प्रकार का प्रथम अनुभव था। इस स्तुति को आपके समक्ष रख रहा हूँ कृपया भक्ति पूर्वक ग्रहण करें।

- दीपक श्रीवास्तव

https://www.youtube.com/watch?v=9ymPT8iVWTw

Saturday, September 14, 2019

आदि अंत कोउ जासु न पावा

आदि अंत कोउ जासु न पावा ।
मति अनुमानि निगम अस गावा ॥
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना ।
कर बिनु करम करइ बिधि नाना ॥
आनन रहित सकल रस भोगी ।
बिनु बानी बकता बड़ जोगी ॥
तनु बिनु परस नयन बिनु देखा ।
ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा ॥

श्रीराम का स्वरुप कैसा है? जो आदि- अन्त से रहित हैं तथा वेदों ने अपनी सीमित बुद्धि से अनुमान करके उनके स्वरुप को गाने का प्रयास किया है। सती के मन की भी यही जिज्ञासा थी, किन्तु समझने के प्रयास के पूरा एक जीवन निकल गया तत्पश्चात पुनः नए जीवन में घोर तप करने के पश्चात उन्होंने पुनः भगवान् शिव को पति रूप में प्राप्त किया तथा जहाँ कथा अधूरी रह गई थी वहीँ से पुनः प्रारम्भ हुई। यह भाव यह भी दर्शाता है कि अनेक योनियों में भटकने के बाद भी सत्संग निरन्तर चलता रहता है तथा किसी बाधा के आने के बावजूद उपयुक्त अवसर आने पर सत्संग उसी स्थान पुनः जीवात्मा की तृप्ति करने लगता है। “जगत प्रकाश्य प्रकाशक रामू” – श्रीराम मायाधीश हैं, उन्ही की माया से जीव, जड़, चेतन इत्यादि उत्पन्न होने हैं तथा उन्ही में समां जाते हैं। जीवात्मा एवं शरीर, विषयों का भोग करने वाली इन्द्रियां इत्यादि एक दुसरे के परस्पर सहयोग से संचालित हैं, तथा इनके मूल में जो अविरल प्रकाश एवं उर्जा का प्रवाह है वही श्रीराम का सूक्ष्म अंश है। राम जीवनी शक्ति हैं इसीलिए शरीर में चेतना है।

माया, मोह इत्यादि भ्रम श्रीराम कृपा से ही मिट सकता है किन्तु यह भ्रम बिना अनुभव के नहीं मिटता। महर्षि मार्कन्डेय के अनुभव में महाप्रलय के पश्चात भी श्रीराम सत्ता का जीवित पाया जाना, मानस उत्तरकाण्ड में काकभुशुण्डी जी द्वारा अनेक योनियों में भटकने के बाद श्रीराम का एक ही आनन्द एवं चैतन्य स्वरुप देखने से सिद्ध है कि श्रीराम कृपा एवं अनुभव द्वारा ही भ्रम के आर-पार देखने की दृष्टि विकसित हो सकती है एवं उनके स्वरुप के कणमात्र का अनुभव कर सकता है, केवल इतने से ही जीव की तृप्ति हो जाती है।

“वह (ब्रह्म) बिना ही पैर के चलता है, बिना ही कान के सुनता है, बिना ही हाथ के नाना प्रकार के काम करता है, बिना मुँह (जिव्हा) के ही सारे (छहों) रसों का आनंद लेता है और बिना ही वाणी के बहुत योग्य वक्ता है। वह बिना ही शरीर (त्वचा) के स्पर्श करता है, बिना ही आँखों के देखता है और बिना ही नाक के सब गंधों को ग्रहण करता है (सूँघता है)। उस ब्रह्म की करनी सभी प्रकार से ऐसी अलौकिक है कि जिसकी महिमा कही नहीं जा सकती।“

वस्तुतः अद्वैत भाव यही दर्शाता है कि जीव एवं ब्रह्म का स्वरुप एक ही है, यह शरीर तो केवल भक्ति प्राप्ति का साधनमात्र है। किन्तु माया की विडम्बना देखिये कि जीव जिस योनि में है उसी शरीर को अपना स्वरुप मान लेता है ठीक उसी प्रकार जैसे वातानुकूलित कमरे में मनुष्य वास्तविक प्राकृतिक वातावरण से अनभिज्ञ रहता है और कमरे के वातावरण को ही सत्य समझकर सुख की अनुभूति करने का प्रयास करता है।

एक और महत्वपूर्ण बात ध्यान देने योग्य है कि हमारे देश में लगभग डेढ़ शताब्दी पहले देवी देवताओं के मानव रुपी चित्र उपलब्ध नहीं थे। सन 1848 में जन्मे त्रावणकोर के मशहूर चित्रकार राजा रवि वर्मा ने काफी घूमने के बाद इस बात को समझा कि धार्मिक ग्रंथों और महाकाव्यों में भारत की आत्मा बसी है। अतः उन्होंने फैसला लिया कि वे इन ग्रंथों के चरित्रों की पेंटिंग बनाएंगे। तत्पश्चात उन्होंने पौराणिक कथाओं और उनके पात्रों के जीवन को अपने कैनवास पर उतारा। आज हम मूर्तियों के रूप में, तस्वीरों, कैलेंडरों और पुस्तकों में देवी-देवताओं के जो चित्र देखते हैं वे वास्तव में राजा रवि वर्मा की कल्पनाशीलता की देन हैं।

शास्त्र रचना के दो महत्वपूर्ण बिंदु हैं – एक तो जन-मानस को ऐतिहासिक तथ्यों से अवगत कराना तथा घटनाओं के माध्यम से मनुष्यों के अन्दर उपस्थित प्रकाश की अनुभूति करा देना। गोस्वामी जी के राम ऐसे चरित्र हैं जो प्रत्येक जीव के अंतःकरण में प्रसारित हैं। वे सबमे प्रतिक्षण विराजमान हैं जिसका अनुभव होने के बाद भी जीव द्वारा उनके स्वरुप की विवेचना कर पाना संभव नहीं है। ठीक उसी प्रकार जैसे सूरदास जी कहा है – “अबिगत गति कछु कहत न आवै, ज्यों गूंगा मीठे फल को रस अन्तरगत ही पावै।“ किन्तु व्यक्ति के जीवन में तो हर क्षण काम, लोभ,मोह का चरित्र ही विस्तार लिए हुए है। अतः मन में होने के बावजूद श्रीराम जीव को दिखाई नहीं देते यथा “कस्तूरी कुंडलि बसे, मृग ढूंढें बन माहि। ऐसे घटि-घटि राम हैं, दुनिया देखे नाहि।“ जैसे ही मन में श्रीराम जाग्रत हो जाते हैं, वैसे ही उनका निर्गुण स्वरुप जीव को द्रष्टव्य हो जाता है।

- दीपक श्रीवास्तव

Friday, September 13, 2019

--- जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई ---

जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥
जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई॥

यहाँ गोस्वामी जी ने स्वप्नावस्था में सिर कटने की कल्पना का अनूठा प्रयोग किया है। स्वप्न व्यक्ति की अचेतन अवस्था है तथापि इस अवस्था में होने वाले सुख एवं दुःख दोनों से ही हमारा मुक्त होना निश्चित है। इस प्रयोग में सिर कटने अर्थात दुःख का दृश्य है जिसे कोई भी जीव अपने जीवन में नहीं चाहता। हरि की माया से उत्पन्न भ्रम में सुख तो सभी चाहते हैं किन्तु दुःख नहीं चाहते, यदि स्वप्न में रत्नों से भरा कलश मिल जाय तो व्यक्ति को जागने की इच्छा तक नहीं होती, इसीलिए यहाँ गोस्वामीजी से भ्रम द्वारा उत्पन्न दुःख की बात की है। श्रीराम कृपा से तो दुःख एवं सुख दोनों के पार देखने की दृष्टि उत्पन्न हो जाती है तथा जीवन आनन्दमय हो जाता है। किन्तु निद्रा एक विशेष अवस्था है जिसे प्रतिदिन प्राप्त करना आवश्यक है इस सम्बन्ध में एक विचार प्रस्तुत है:

हम में से ज्यादातर को जीवन से या जीवन में क्या चाहिए- एक सुखी परिवार, आवश्यकतानुसार या कुछ अधिक धन, भौतिक जरूरतों के सामान, कुछ मित्र तथा अनेक ऐसी वस्तुएं, जिसको पाने से हम अपने सुखी जीवन की कल्पना करते हैं, किंतु इच्छित वस्तुएं मिल जाने के बाद भी क्या हम उतने ही सुखी रह पाते हैं जो हमारी कल्पना में होता है? शायद नहीं! फिर हमारे प्रयास की दिशा क्या होनी चाहिए, यह मंथन का विषय है।

अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हम निरंतर प्रयास करते हैं। प्रयास फलीभूत भी होता है तथा हमें कुछ समय की खुशी अवश्य देता है। इसके पश्चात मन अन्य आवश्यकताओं हेतु अपने आपको तैयार करता है, यही प्रक्रिया अनवरत चलती रहती है। मैं, मेरा परिवार, मेरा घर, मेरा समाज, मेरी संपत्ति, मेरा नाम इत्यादि में हमने अपने अनंत स्वरूप को बांध रखा है किन्तु हम प्रतिदिन इन बंधनों से मुक्त भी होते हैं। अपने निद्रावस्था की कल्पना करिए, बड़ी से बड़ी थकान हो किंतु निद्रा की अवस्था में, हमें अपनी प्रत्येक प्रिय वस्तु, संबंध, सामाजिक स्तर, धन-बल इत्यादि से पूर्णतया मुक्ति होती है। इतना ही नहीं, जब निद्रा की अचेतन अवस्था में हम अपने चेतन स्वरूप के साथ होते हैं, तब हमारे अंदर इतनी उर्जा का संचार होता है कि शरीर में कोई थकान नहीं रह जाती, एवं मन शारीरिक एवं मानसिक थकान से मुक्त हो जाता है। यह अनुभव हम सभी ने किया है, जिसका सीधा अर्थ है- अचेतन अवस्था में स्वयं से मुलाकात अर्थात उर्जा का अनंत प्रवाह। निद्रा में स्वप्न का होना भी हमारे परम-आनंद के मार्ग में बाधक है अतः स्वप्न रहित होना ही सबसे सबसे बड़ा स्वप्न है। 

निद्रा अचेतन अवस्था में मनुष्य को उसके अनंत स्वरुप से साक्षात्कार कराती है, किन्तु जाग्रत होने पर उसे स्वयं से साक्षात्कार की विस्मृति हो जाती है फिन्तु फिर भी वह स्वयं के अन्दर नवीन उर्जा संचार का अनुभव कर लेता है। चेतनावस्था में सामाजिक तानों-बानों से पृथक होकर स्वयं से एकाकार हो जाना ही समाधि की अवस्था है जो हमें अपने अनंत स्वरूप से मिलाने की दिशा में सार्थक प्रयास है। श्रीराम कृपा बिना चेतनावस्था में स्वयं से एकाकार होने की कोई संभावना नहीं बनती। लोकभाषा में एक कहावत है – “जेकर बनरिया, उहै नचावै” अतः जिसकी माया अर्थात जिसने भ्रम दिया, वही इस भ्रम से दूर करे, परन्तु भ्रम से मुक्ति सहज नहीं है, उसके लिए निरन्तर कर्म करना पड़ता है। ठीक वैसे ही जैसे एक कक्षा में अनेक विद्यार्थी हैं, गुरु सभी के लिए एक ही हैं किन्तु अंक योग्यता एवं परिश्रम के आधार पर तय होते हैं। वही दूसरी ओर योग्यता होने पर भी यदि विद्यालय न जाएँ तथा गुरुकृपा न हो तो जीवन में ज्ञान प्राप्ति की संभावनाएं नगण्य हो जाती हैं उसी प्रकार भ्रम से मुक्ति हेतु रघुनाथ कृपा ही एकमात्र विकल्प है।


- दीपक श्रीवास्तव

Thursday, September 12, 2019

एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई

एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥
जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥

यहाँ विधि का प्रयोग अत्यन्त अनूठा है। विधि ब्रह्मा जी का नाम है तथापि यहाँ विधि-हरि-हर, तीनों का अलौकिक संगम द्रष्टव्य है। अमृत वर्षा करने वाले है हर, रसपान करने वाली माता पार्वती और अमृत हरि चरित्र है। विधि ने सृष्टि को जना, जीव ने पलकें खोली, अब उत्तरदायित्व हरि पर है। सारी सृष्टि अपनी प्रथम स्वांस से अंतिम स्वांस तक हरि के आश्रित है।

“बिना तुम्हारे कण न डोले, कंठ मेरे पर तू ही बोले।
तुम्ही स्वांस तुम ही स्वर मेरे, हम तो केवल करते फेरे।।“

इसको द्वैत अथवा अद्वैत किसी भी भाव में देखें तो अर्थ समान है। दोनों ही प्रकार से चाहे हरि बाहर से या अन्दर से उन्ही का एकमात्र अवलंबन जीव को है। रश्मिरथी में दिनकर जी हरि स्वरुप को कुछ यूँ लिखा है –
यह देख गगन मुझमे लय है,
यह देख पवन मुझमे लय है।
मुझमे विलीन संसार सकल,
मुझमे विलीन झंकार सकल।
सब जन्म मुझी से पाते हैं।।
फिर लौट मुझी में आते हैं।।

माता को प्रभु ने इसी स्वरुप के दर्शन अपने मुख में करा दिए थे। - ब्रह्माण्ड निकाया, निर्मित माया। किन्तु ममता की मारी माता अपनी दुविधा नहीं छुपा पाती हैं और कहती हैं कि अस्तुति तोरी, केहि विधि करूँ अनंता फिर अपनी याचना प्रकट कर देती हैं – कीजै शिशुलीला अति प्रियशीला। अब मायानिधान मुस्काते हुए शिशुरूप में आ जाते हैं और माता की स्मृति को मिटा देते हैं।

यहाँ प्रश्न उठता है कि यदपि यह असत्य है – यह लिखने के पीछे क्या कारण हो सकता है- इसके पीछे का भाव हो सकता है- “सकल पदारथ एही जग माही, कर्महीन नर पावत नाही।“ एक प्रकरण आया है कि त्रेतायुग में जब असुरों के अत्याचारों से पूरी धरती थर्रा उठी, सभी देवता, गन्धर्व, नर-नाग, किन्नर, पशु-पक्षी आर्तनाद करने लगे तब भगवान् ने सभी को भयमुक्त करने के उद्देश्य से कहा कि मैं अतिशीघ्र समाज को इस संकट से उबारने नर रूप में अवतार लूँगा।

इस प्रकार ईश्वर की कृपा तो प्राप्त हो गई किन्तु जीव की भूमिका क्या होनी चाहिए? ईश्वर की कृपा का फल बिना सतत कर्म के प्राप्त नहीं हो सकता अतः कर्म तो करना ही है अन्यथा जीवन दुखों से भर जाएगा। “ईश्वर अंस जीव अविनासी” – जीव तो ईश्वर का अंश ही है अतः जिस प्रकार शरीर में पोषक तत्वों की पूर्ति हेतु भोजन का सामने होना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि हाथ, मुंह, दांत, जिह्वा, पेट, आंत इत्यादि सभी को समवेत प्रयास करना पड़ता है, उसी प्रकार ईश्वर के संकल्प को सार्थक करने हेतु सभी जीवों द्वारा समवेत कर्म आवश्यक है। ईश्वर तो सर्व-समर्थ हैं, तथापि जीवों के जीवन के जब तक कर्म की वृत्ति न हो तब तक सिर्फ कृपा प्राप्त होने से प्राप्त लक्ष्य अस्थायी रह जाता है। इसी उद्देश्य से सभी देवता, गन्धर्व इत्यादि वानर रूप में कर्म हेतु धरती पर आ जाते हैं।

माया छलती है तथा भ्रम में रखती है, ज्ञान इसी भ्रम के आर-पार देखने की दृष्टि विकसित करता है। सपने सर काटे कोई में इसी ओर संकेत दिया गया है, कि वास्तव में ईश्वर का चैतन्य स्वरुप होने के कारण जीव को कोई कष्ट नहीं हो सकता किन्तु माया जीव को भ्रम में रखती है जिसके कारण उसे कष्ट की प्रतीति अर्थात भ्रम होता है। इसके पार दृष्टि विकसित हो जाने पर द्वैत का स्वरुप अद्वैत हो जाता है, और सुख-दुःख की सीमा को पार करके आनन्द के सागर में गोते लगाने लगता है।

- दीपक श्रीवास्तव

Monday, September 9, 2019

--- सीता की खोज: वर्तमान सन्दर्भ में ---

जब तक जीवन है तब तक अपूर्णता है, पूर्णता ही मुक्ति है जो ईश्वर कृपा बिना संभव नहीं। कृपा कैसे प्राप्त हो, यह एक अलग विषय है किन्तु प्रत्येक जीव अपने अनुसार इसके लिए प्रयास करता है। त्रेतायुग में जब असुरों के अत्याचारों से पूरी धरती थर्रा उठी, सभी देवता, गन्धर्व, नर-नाग, किन्नर, पशु-पक्षी आर्तनाद करने लगे तब भगवान् ने सभी को भयमुक्त करने के उद्देश्य से कहा कि मैं अतिशीघ्र समाज को इस संकट से उबारने नर रूप में अवतार लूँगा।

इस प्रकार ईश्वर की कृपा तो प्राप्त हो गई किन्तु जीव की भूमिका क्या होनी चाहिए? ईश्वर की कृपा का फल बिना सतत कर्म के प्राप्त नहीं हो सकता अतः कर्म तो करना ही है। “ईश्वर अंस जीव अविनासी” – जीव तो ईश्वर का अंश ही है अतः जिस प्रकार शरीर में पोषक तत्वों की पूर्ति हेतु भोजन का सामने होना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि हाथ, मुंह, दांत, जिह्वा, पेट, आंत इत्यादि सभी को समवेत प्रयास करना पड़ता है, उसी प्रकार ईश्वर के संकल्प को सार्थक करने हेतु सभी जीवों द्वारा समवेत कर्म आवश्यक है। ईश्वर तो सर्व-समर्थ हैं, तथापि जीवों के जीवन के जब तक कर्म की वृत्ति न हो तब तक सिर्फ कृपा प्राप्त होने से प्राप्त लक्ष्य अस्थायी रह जाता है। इसी उद्देश्य से सभी देवता, गन्धर्व इत्यादि वानर रूप में कर्म हेतु धरती पर आ जाते हैं।

जीवन लक्ष्य क्या केवल असुरों के आतंक से मुक्त होना ही है? नहीं! ईश्वर तो कण-कण में हैं तथापि यदि जीव निर्भय हो भी जाता है तो भी उसका जीवन पूर्ण नहीं होता। श्रीरामचरितमानस में इसी ओर गोस्वामीजी ने एक विचारणीय बिन्दु रखा है कि प्रत्येक जीव सीता की खोज में भटक रहा है। रावण को भी सीता चाहिए, वानर, भालू इत्यादि भी सीता तक पहुँचने हेतु निरन्तर प्रयत्नशील हैं किन्तु दोनों की वृत्तियों में अन्तर है। यहाँ सीता को भक्ति अथवा जीवन लक्ष्य के अर्थ में देखें तो यहाँ एक अलग ही स्वरुप दिखाई देता है।

जहाँ भगवान् राम की कृपा है, वहां तो सभी वानर भालू एवं अन्य जीव निरन्तर सीता की खोज में प्रयत्नशील हैं, वे दिन-रात नहीं देखते, मार्ग की दुर्गमता की चिंता नहीं करते, राम की कृपा साथ है अतः वे निरन्तर लक्ष्य हेतु गतिशील हैं। वहीँ दूसरी ओर जहाँ वासनात्मक एवं छल की प्रवृत्ति हैं, वहां सीता का छल द्वारा अपहरण स्वाभाविक लगता है किन्तु परिणाम क्या है – रावण द्वारा छल एवं बलपूर्वक सीता हरण के बाद भी रावण बेचैन है, प्रतिक्षण सीता के खोने का भय उसे अनेक प्रकार से अशान्त कर रहा है जिसके लिए उसे अनेक सुरक्षाकर्मियों के सहारे की आवश्यकता पड़ती है जो एक-एक करके समाप्त हो जाते हैं तथा सीता बंधनमुक्त हो जाती हैं। वहीँ दूसरी ओर संघर्ष करते-करते वानरी सेना एक ऐसे स्थान पर पहुँचती है जहाँ सागर की विशाल लहरें उनकी क्षमताओं को चुनौती दे रही हैं तथा यहीं उन्हें अपनी अक्षमता का अनुभव होता है। जिसके जीवन में जितना तप है, उसकी उतनी ही क्षमता है। सागर को परास्त करने के लिए श्री हनुमानजी जितना धैर्य, संयम और बल चाहिए, जिसकी अनुकूलता प्राप्त करने हेतु अक्सर जीवों के प्रयास कम पड़ जाते हैं। ऐसी स्थिति में जीवों का कर्तव्य क्या है-वहां से हार मानकर लौट जाना या श्रद्धा से भगवान् के नाम का निरन्तर स्मरण करते हुए प्रतीक्षा करना। शबरी, अहिल्या इत्यादि अनेक उदाहरण हैं जो समाज को बताते हैं कि धैर्यपूर्वक निरन्तर प्रभु स्मरण एवं कर्म से प्रतीक्षाएँ पूर्ण होती हैं। अतः वानर सेना दूसरा विकल्प चुनती है तथा प्रभुनाम स्मरण के साथ धैर्यपूर्वक प्रतीक्षारत हो जाती है जब तक क्षमतावान श्रीहनुमानजी लौट नहीं आते। परिणामस्वरूप रावण अर्थात वासनात्मक वृत्तियों के नाश के पश्चात भक्तिस्वरूपा लक्ष्य अर्थात माता सीता से दर्शन एवं कृपा से सभी वानर एवं भालू कृतकृत्य होते हैं तथा लक्ष्य की प्राप्ति होती है।

अतः जीवन में यदि लक्ष्य दुर्गम भी है तो भी निरन्तर प्रयास एवं धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा फलीभूत होती है।

- दीपक श्रीवास्तव

Thursday, August 15, 2019

झंडा उंचा रहे हमारा: गौरव या अहंकार

हम सभी में बचपन से ही राष्ट्र के प्रति गौरव की अनुभूति है तथा हम राष्ट्रीय ध्वज देखते ही स्वाभाविक रूप से नतमस्तक हो जाते है। बचपन से ही “विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊँचा रहे हमारा” जैसे अनेक गीतों ने हमारे अन्दर राष्ट्रप्रेम की भावना का विस्तार किया है। किन्तु साथ ही यह प्रश्न भी उठता है कि क्या झंडे का ऊँचा होना वसुधैव कुटुम्बकम की भावना के विपरीत नहीं है? क्योंकि सम्पूर्ण वसुधा को परिवार मानने वाली संस्कृति यदि अपने झंडे को ऊँचा रखने के साथ विश्व विजय की कामना भी रखती है, चाहे वह सामरिक हो या बौद्धिक, तो भी यह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने जैसा है जो केवल अहंकार की तुष्टि ही कर सकता है।
हमने अपने देवी देवताओं को केवल एक नाम के बन्धन में नहीं पाया, माँ के 108 नाम, शिव के अनेक नाम, विष्णु सहस्रनाम, गणपति, सूर्य, चन्द्र, अग्नि सभी को अनेक नामों के साथ स्वीकार किया है, उसी प्रकार भारतवर्ष भी कभी एक नाम के बन्धन में नहीं रहा। सृष्टि तथा यह जीवन अनन्त है तथा इसमें इतने रंग तथा आयाम छुपे हुए हैं कि इसे सिर्फ एक नाम के बन्धन में बांधना अनंत को मुट्ठी में समेटने के आभासी प्रयास जैसा है।  

एक नाम होते ही अनन्त की एक आंशिक परिभाषा बन जाती है तथा यहीं से पहचान, अस्तित्व, प्रतीक इत्यादि का अन्तहीन संघर्ष प्रारम्भ हो जाता है। देश अर्थात पृथ्वी पर उपलब्ध भूमि का एक हिस्सा, उस हिस्से पर जीवन यापन करने वाली जनता एवं पशु-पक्षी एक राजनैतिक सत्ता के अधीन होते हैं, इस प्रकार एक राष्ट्र बनता है जिसके प्रतीक के रूप में एक कपड़े पर राष्ट्र की परिभाषा को व्यक्त करता एक चित्र तैयार होता है, जिसे एक सीधे डंडे में लगाकर झण्डे का नाम दे दिया जाता है। उसी झंडे को राष्ट्रीय प्रतीक मानकर सभी को नतमस्तक होना पड़ता है। भूमि के दूसरे हिस्से में रहने वाले अलग झंडे के नीचे आते हैं तथा दोनों झंडे के नीचे रहने वाले व्यक्तियों के मध्य एक वैचारिक एवं काल्पनिक रेखा खिंच जाती है जो भूमि पर नहीं, केवल हृदय में खींची जाती है। झंडे को ऊँचा रखने का संकल्प ऐसा कि कितना भी खून-खराबा हो जाय, चाहे लाखों मारे जायं, किन्तु झंडा उंचा ही रहे और अपनी लकीर बढ़ती रहे।

केवल भूमि हो नहीं, झण्डा विभिन्न संस्कृतियों, धर्मों, सम्प्रदायों, राजनैतिक पार्टियों और यहाँ तक कि कुछ परिवारों को भी प्रस्तुत करता है। उदाहरण के लिए भगवा ध्वज हिन्दू प्रतीक के रूप में पूजित है, तथा इसके रंग की अत्यन्त सुन्दर परिभाषा है, यह तेज एवं बलिदान का प्रतीक है, यही रंग उगते सूर्य का है तथा अग्नि का रंग भी यही है। अतः यह ध्वज एक विचारधारा का प्रतीक तो अवश्य हो सकता है किन्तु यह बहुआयामी, बहुरंगी एवं अनंत सृष्टि का केवल एक अंश ही हो सकता है। इसी प्रकार अनेक विचारधाराओं के प्रतीक ध्वज भी सृष्टि के अंशमात्र ही हैं। जिस प्रकार पांच उँगलियों के बिना हथेली की कल्पना संभव नहीं, तथा किसी एक उंगली को श्रेष्ठता की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता, उसी प्रकार अनेक मत, पंथ, समुदाय, सम्प्रदाय, देश, कालखण्ड इत्यादि मिलकर ही समष्टि का निर्माण करते हैं। इनमे श्रेष्ठता सिद्ध करने की होड़ केवल शीर्षस्थ प्रमुखों द्वारा अहं की तुष्टि का प्रदर्शनमात्र है।

एक सामान्य नागरिक प्रत्येक राजसत्ता का सहयोग करता है, शासन बदलता रहता है, कार्यशैली बदलती रहती है, मानक बदलते रहते हैं किन्तु नागरिक प्रत्येक सत्ता को करों द्वारा सहयोग करता है तथा नेतृत्व को स्वीकार करते हुए मिलने वाली सुविधाओं से स्वयं को संतुष्ट करने का प्रयास करता है। सत्ता सुख भोगती है, नियम निर्धारित करती है, झण्डे के प्रभुत्व का क्षेत्रफल बढाने एवं स्थापित करने के लिए नागरिकों को बलिदान कर देती है, तथा इतिहास के पन्नों पर अपनी वीरगाथा लिख जाती है। इतिहास में झांकने पर पता चलेगा कि प्रत्येक वीरगाथा के साथ हजारों के रक्त से सनी हुई कहानी है जिनका नाम तक कोई नहीं जानता, और सत्ता इसी प्रकार रक्त की सीढ़ियां चढ़कर सुख भोगते हुए अपना अहंकार तुष्ट करती रही है।

जीवन का सत्य-दर्शन व्यक्ति को मोह एवं अहंकार से दूर ले जाता है। यह सत्य है कि श्रीराम के आदर्श हैं तथा एक सुन्दर, सुसंस्कृत समाज के निर्माण हेतु मर्यादा के मापदण्डों का होना अति आवश्यक है। श्रीराम का युद्ध सीमाओं की रक्षा हेतु नहीं था बल्कि समाज को अन्याय से मुक्त करने हेतु था, फिर भी एक भूमि के अधिपति होने के कारण उनका प्रत्येक कार्य अवध की धर्म-ध्वजा के विस्तार का कार्य करता है। मानवीय अवतार में इससे बच पाना अत्यन्त दुष्कर है, यही कारण हैं कि एक विचारधारा एवं एक भूमि सीमा का प्रतिनिधित्व करने के कारण वे सर्वस्वीकार्य नहीं हो पाते तथा कुछ असुर प्रजातियों द्वारा उनका विरोध स्वाभाविक लगता है, जो स्पष्ट करता है कि असुर भी एक सामाजिक एवं भौगोलिक क्षेत्र के अंश हैं, जो सृष्टि का अंश होने के बावजूद श्रीराम के क्षेत्र से परे हैं। वहीँ शिव अनादि एवं अनन्त हैं। वे न तो काल के बन्धन में हैं, न समय के, न मर्यादा के बन्धन में हैं। शिव पूर्ण हैं अतः प्रत्येक युग में उनका अस्तित्व चिर-विद्यमान है, यही कारण हैं कि उन्हें में नहीं बाँधा जा सकता तथा उन्हें प्रभूता स्थापित करने हेतु किसी ध्वज-पताका की आवश्यकता भी नहीं है। वे सच्चे अर्थों में वसुधैव-कुटुम्बकम को परिभाषित करते हैं। जब सम्पूर्ण वसुधा को परिवार के रूप में स्वीकार कर लिया तो झण्डे की आवश्यकता क्यों हैं? और यदि श्रेष्ठता सिद्धि हेतु झण्डा है तो फिर वसुधैव-कुटुम्बकम कैसे स्थापित हो सकता है?

- दीपक श्रीवास्तव 

Friday, August 9, 2019

सूखते प्राण, घटता जीवन

सृष्टि में के पांच तत्वों में जल का विशेष महत्व है। जल को जीवनी शक्ति से भरपूर माना गया है, यही कारण है कि पृथ्वी का तीन चौथाई भाग जल है। वैज्ञानिकों द्वारा विभिन्न ग्रहों पर जीवन की संभावना की खोज भी वहां उपस्थित जल की‍ मात्रा पर निर्भर करती है। यदि जल नहीं तो जीवन नहीं।

अरबों वर्षों से हमारी पृथ्वी अनेक जीवों एवं वनस्पतियों की उत्पत्ति एवं विनाश की साक्षी रही है, किन्तु प्रत्येक कालखण्ड में जल की मात्रा ज्यों की त्यों बनी रही जिससे यहाँ जीवन पनपता एवं फलता फूलता रहा। नदियों, तालाबों एवं कुओं के मीठे पानी का भण्डार अरबों वर्षों से पृथ्वी के सभी प्राणियों में जीवन का भण्डार देता रहा तथा इस कार्य में जल का प्राकृतिक चक्र निरन्तर मैदानी क्षेत्रों को पोषण देता रहा जो आज भी उसी गति से चल रहा है किन्तु विगत 30-40 वर्षों में मनुष्यों द्वारा अंधाधुंध विकास की दौड़ ने प्रकृति के इस अनुपम वरदान को इस हद तक प्रभावित किया है कि आज विश्व के अनेक स्थानों पर लोग बोतलबंद पानी पीने को विवश हैं। 
जल विभिन्न तत्वों को जोड़कर सामजिक एकता का सन्देश देता है। जल पर हम इस हद तक निर्भर हैं कि खाना पकाने की तो कल्पना भी जल के बिना संभव नहीं। आटा चूर्ण के रूप में बिखरा हुआ होता है जिन्हें जल ही एक सूत्र में गूंथकर रोटी का आधार देता है। किसी भी प्रकार की सब्जी को जब तक जल के साथ ठीक से न उबाला जाय तब तक स्वाद में एकरूपता संभव नहीं। घरों के निर्माण में प्रयुक्त सामग्री जैसे सीमेन्ट, बदरपुर इत्यादि भी जब तक जल के साथ नहीं गूंथे जाते तब तक उनमे ईंटों एवं पत्थरों को एक सूत्र में जोड़ने की शक्ति उत्पन्न नहीं होती। जब विकसित शहरों में वाहनों, चिमनियों तथा अन्य उपकरणों द्वारा छोड़े गए धुओं से साँसे घुटने लगती हैं तब हलकी सी बारिश ही उन प्राणघातक तत्वों को भूमि में दबाकर वातावरण कि निर्मल करती है। यही कारण है कि वर्तमान में अनेक शहरों में वायु प्रदूषण से राहत हेतु कृत्रिम बारिश का प्रबन्ध किया जाता है। ऐसे ही अनेक उदाहरण मिल जायेंगे जो जल पर सम्पूर्ण विश्व की निर्भरता को यथार्थ रूप में स्वीकार करते हैं।

बीते दौर में जब गांवों में संयुक्त परिवार हुआ करते थे तब घरों में आंगन का एक विशेष स्थान था जिसमें एक हैंडपंप अवश्य होता था। हैंडपंप से निकाले गए जल को संपूर्ण परिवार हेतु खाना पकाने के लिए उपयोग किया जाता था। घर के पुरुष घर के बाहर कुएं अथवा नल के पानी का प्रयोग करके स्नान करते थे। घर का पानी आंगन में लगे नल के पास ही बने गड्ढे में चला जाता था, इस प्रकार घर का पानी घर के बाहर नहीं किया जाता था। यदि इसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो पता चलेगा इस प्रकार एक बूंद पानी की भी बर्बादी नहीं होती थी तथा पानी पुनः उपयोग हेतु धरती में चला जाता था तथा स्थानीय जल स्तर बना रहता था। मल-मूत्र भी या तो खेतों की उर्वरा शक्ति बनाने में प्रयुक्त हो जाते थे या बड़ी बड़ी नालियों के माध्यम से दूर मल-मूत्र की खाद के रूप में धरती की उर्वरक क्षमता बढ़ाने में प्रयुक्त हो जाते थे। अतः जीवनदायिनी नदियां भी सुरक्षित एवं शुद्ध बनी रहती थी। दुर्भाग्य से विकास की अंधी दौड़ में इन दोनों गतिविधियों पर पूर्ण विराम लगा दिया। शहरों में सीमेंट, कंकरीट इत्यादि के प्रयोग में विस्तार हुआ तथा आंगन की परंपरा ही समाप्त हो गई। उपयोग किया हुआ पानी सीवर के माध्यम से रासायनिक एवं अन्य जहरीले कचरों के साथ मिलकर नदियों तक पहुंचाया जाने लगा जिसका दोहरा नुकसान नदियों के प्रदूषित जल एवं लगातार गिरते भूजल स्तर के रूप में मिला।
इसके बावजूद वर्षा ऋतु ने धरती के गर्भ में जल स्तर को बनाए रखने का भरपूर प्रयास किया किंतु यहां भी शिक्षित वर्ग की अशिक्षित सोच ने आत्मघाती कृत्य किया। एक तो शहरों में वर्षा के जल को पुनः धरती के गर्भ में जाने की संभावनाओं पर विराम लगा दिया गया। इतना ही नहीं खेतों में प्रयुक्त रासायनिक खादों ने उर्वर भूमि पर कुछ इंच की पपड़ी तैयार कर दी जिसके कारण वर्षा का जल सीधे भूगर्भ में जाने की बजाए कीचड़ एवं गंदगी के रूप में अनेक बीमारियों का कारक बन गया। परिणाम स्वरूप हर वर्ष धरती की उर्वरता घटती रही तथा प्रतिवर्ष उस पपड़ी को पुनः उर्वर बनाने के लिए कृत्रिम संसाधनों के प्रयोग किए गए। रासायनिक खादों ने किसानों के मित्र कहे जाने वाले अनेक जीवो जैसे केंचुए इत्यादि के जीवन को ही नष्ट कर दिया जो खेतों की मिट्टी में बिल बनाकर या यूं कहें छोटे-छोटे छिद्रों के माध्यम से मिट्टी को भुरभुरा बनाने का कार्य किया करते थे जिससे खेत की मिट्टी द्वारा जल को अवशोषित करना आसान हो जाता था तथा पौधों की जड़ों को प्रचुर मात्रा में ऑक्सीजन भी मिल जाती थी। अतः फसलों की गुणवत्ता भी सुनिश्चित होती थी।

वर्तमान में सरकार द्वारा पर्यावरण संरक्षण हेतु अनेक उपाय किए जा रहे हैं तथा वृक्षारोपण का कार्य जोरों पर है, किंतु हमें इस सत्य से भी अवगत होना चाहिए गिरते भूजल के कारण यदि वृक्षों की जड़ें भूमि से आवश्यक जल न प्राप्त कर सकें तो वृक्ष सूख जाएंगे और पर्यावरण सांस लेने योग्य भी नहीं रह सकेगा। मनुष्य विभिन्न क्षेत्रों पर आधिपत्य हेतु लकीरें खींच सकता है, अपनी प्रभुता स्थापित करने हेतु युद्ध लड़ सकता है, जो सबसे अधिक शक्तिशाली है वह राज कर सकता है, किंतु इस सत्य को कभी झुठलाया नहीं जा सकता कि भूमि जितनी है उतनी ही रहेगी तथा उस भूमि पर जीवन हेतु जल की आवश्यकता विजयी एवं पराजित दोनों को है। संप्रदायों के नाम पर युद्ध संभव है, धर्म के नाम पर युद्ध संभव है, निरंतर अपनी प्रभुता स्थापित करने हेतु आबादी बढ़ाना संभव है। किन्तु मनुष्य का यह व्यवहार अपनी बढ़ने वाली आबादी तथा अपने बच्चों हेतु जीवन के लिए उपयोगी संसाधनों में कमी करता है। एक माता पिता के रूप में मनुष्य ही नहीं वरन जीव जगत के सभी प्राणी अपनी संतानों को बेहतर भविष्य देने हेतु कोई कदम उठाने से नहीं चूकते फिर भी इन स्वप्नों एवं प्रयासों की आड़ में प्राकृतिक संसाधनों कि सुरक्षा हमसे कैसे छूट गई, यह विचार करने योग्य है।

कहते हैं समय कभी वापस नहीं आता, किन्तु भूल सुधार की संभावना एक निश्चित समय तक बनी रहती है। अब भी समय है, जब हम प्रकृति के इस अनुपम वरदान को सुरक्षित एवं संरक्षित कर सकते हैं। प्राकृतिक वनों को संरक्षित करने से एवं जल की हर बूँद का सदुपयोग एवं उसका उपयोग धरती की कोख भरने में करने से आज भी स्वर्णिम स्थिति लौटाई जा सकती है। केवल सरकारी प्रयास इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए पर्याप्त नहीं हो सकते, बल्कि विश्व के प्रत्येक नागरिक को समवेत प्रयास करना होगा।


- दीपक श्रीवास्तव

Wednesday, July 24, 2019

ॐ नमः शिवाय

हे आदि अंत, हे पूर्ण काम।
हे अविनाशी तुमको प्रणाम।।

हे सर्व व्याप्त निर्वाणरूप,
हे जड़-चेतन, हे छांव धूप।
हे गुण-अवगुण से चिर विमुक्त,
हे निर्विकल्प, हे चिर प्रयुक्त।
तुम शून्य तुम्ही हो कोटि गगन,
तुमसे तुममें यह सृष्टि मगन।
हे ज्योतिपुंज, हे सृष्टिधाम,
हे अविनाशी तुमको प्रणाम।।1।।

हे मृत्युंजय, हे निराकार,
हे ज्ञानरूप, हे ओमकार।
हे प्रेममूल, हे गुणागार,
हे दिग-दिगंत, हे चिर अपार।
हे गुण-विमुक्त, हे गुण-दयाल,
हे आदि-अन्त हे महाकाल,
हे पूर्णयोग, हे सत्यकाम,
हे अविनाशी तुमको प्रणाम।।2।।

हे जीवमात्र के प्राण-बिंदु,
हे गौर-वर्ण, हे शीलसिंधु।
हे धारण करते शशि अपूर्ण।
हे ध्यान मग्न हे सृष्टि पूर्ण,
हे धारण करते सर्प माल
है पावन गंगा केशभाल।
हे निर्विकार, हे ज्योति धाम,
हे अविनाशी तुमको प्रणाम।।3।।

हे चिर-प्रसन्न रहने वाले,
हे कालकूट पीने वाले।
सुन्दर भौंहें, नैना विशाल,
कानन कुंडल, गल मुण्डमाल।
हे पशुपति, हे गति, हे सकर्म,
हे धारण करते व्याघ्र चर्म।
हे सुख-राशी, हे योग-नाम,
हे अविनाशी तुमको प्रणाम।।4।।

हे कोटिसूर्य, हे शक्तिमूर्ति,
हे त्रिपुरवीर, हे भक्तिमूर्ति।
हे अगम-अगोचर, हे प्रचंड,
हे जन्ममुक्त, हे चिर-अखंड।
तव दिव्य हस्त में शुभ त्रिशूल,
हो जन्म-मृत्यु के तुम्ही मूल।
हे उमापती, हे कोटिनाम,
हे अविनाशी तुमको प्रणाम।।5।।

हे कालमुक्त कल्याणनाम,
हे जीव-जगत के मोक्षधाम।
हे भस्मअंग, हे भूतनाथ,
है सकल सृष्टि तुमसे सनाथ।
हे लोभ-मोह से चिर-विमुक्त,
हे प्रेम-ज्ञान से सदा युक्त।
हे सोमनाथ, हे कोटिकाम,
हे अविनाशी तुमको प्रणाम।।6।।

हे भव-भंजक, हे सुखराशी,
आनंदधाम, हे दुःखनाशी।
मै मूढमति ना सका जान,
घेरे मुझको दुःख-दर्द-काम।
न जप जानूं, न योग करूँ,
किस विधि मैं तेरा ध्यान धरुं।
बस एक सहारा एक नाम,
हे अविनाशी तुमको प्रणाम।।7।।

- दीपक श्रीवास्तव

Thursday, July 11, 2019

--- जल ही जीवन ---

जल ही जीवन, जल ही जीवन।
इस अमृत से चेतन तन मन॥

जल बिन रक्त नसों में कैसे?
जल बिन वायु जियेगी कैसे?
जल बिन तन में जीवन कैसे?
जल बिन वृक्ष जिएंगे कैसे?
जल बिन कैसा भादो सावन?
जल ही जीवन, जल ही जीवन॥

चूर्ण मिले जल से जग खाए,
चूर्ण मिले जल से छत पाए।
जल तन की ऊष्मा पिघलाए।
जल ही मनके ताप मिटाए।
गौरव मान प्रतिष्ठा का धन,
जल ही जीवन, जल ही जीवन॥

तीर्थ जहां पर नदियां कल कल,
पावन करती तन मन पल पल।
सूखी नदियां ताल तलैया,
सूखी वृक्षों की मृदु छैया।
फिर से इनको दे दें जीवन,
जल ही जीवन, जल ही जीवन॥

- दीपक श्रीवास्तव

Wednesday, May 8, 2019

देव-दर्शन या-आत्म दर्शन


--- देव-दर्शन या-आत्म दर्शन ---

हम सभी में ईश्वर का शाश्वत एवं चेतन स्वरूप सदा जाग्रत रहता है तथा हमें जागृत अथवा सुसुप्तावस्था में इसकी अनुभूति होती रहती है| अनेक बार हम इसे जानते हुए भी समझ नहीं पाते| जब हम जन्म लेकर इस धरती पर आते हैं तो हमारी कोई पहचान नहीं होती, केवल पांच तत्व से बना शरीर उसके साथ चेतना, इसके अलावा हमारे पास कुछ भी नहीं होता| यहां से हमारी बहुत ही यात्रा भौतिक यात्रा प्रारंभ होती है कथा सामाजिक बंधन भी प्रारंभ हो जाते हैं मौलिक स्वरूप से पृथक आनंद स्वरूप से पृथक शाश्वत स्वरूप से पृथक हम जीवन भर के लिए एक नाम से बंध जाते हैं तथा उसी नाम को स्थापित करने में सारी उम्र गुजार देते हैं| ईश्वर के अनंत स्वरूप को एक बंधन में बांधना क्या प्रकृति के विरुद्ध नहीं है? केवल नाम ही नहीं हम, सामाजिक, पारिवारिक एवं अन्य तानो-बानो के जाल में बंधे हुए संपूर्ण जीवन गुजारकर या व्यर्थ करते हुए संसार से मुक्त हो जाते हैं| शायद संसार का सबसे दुखद आश्चर्य यही है|

हम में से ज्यादातर को जीवन से या जीवन में क्या चाहिए एक सुखी परिवार, आवश्यकतानुसार या कुछ अधिक धन, भौतिक जरूरतों के सामान, कुछ मित्र तथा अनेक ऐसी वस्तु जिसको पाने के बाद हमें अपना जीवन सुखी प्रतीत होगा, किंतु वस्तुएं मिल जाने के बाद क्या हम इतने सुखी रह पाते हैं जो हमारी कल्पना में होता है? शायद नहीं! फिर हमने किस दिशा में प्रयास किया तथा हमारे प्रयास की दिशा क्या होनी चाहिए थी? यह शोध का विषय है|

अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हम निरंतर प्रयास करते रहते हैं| यह प्रयास फलीभूत होता है तथा हमें कुछ समय की खुशी देता है इसके पश्चात मन अन्य आवश्यकताओं हेतु अपने आपको तैयार करता है, अनवरत यही प्रक्रिया चलती रहती है| मैं, मेरा परिवार, मेरा घर, मेरा समाज, मेरी संपत्ति, मेरा नाम इत्यादि में हमने अपने अनंत स्वरूप को बांध रखा है किन्तु हम प्रतिदिन इन बंधनों से मुक्त भी होते हैं| अपने निद्रावस्था की कल्पना करिए, बड़ी से बड़ी थकान हो किंतु नींद की उस अवस्था में, जिसमें हमें अपनी प्रत्येक प्रिय वस्तु संबंध इत्यादि से पूर्णतया मुक्ति होती है, हम अपने चेतन स्वरूप के साथ होते हैं, उसके बाद हमारे अंदर इतनी उर्जा का संचार होता है कि अब शरीर में कोई थकान नहीं रह जाती, इसका अनुभव हम सभी ने किया है| इसका अर्थ है स्वयं से मुलाकात अर्थात का अनंत प्रवाह| निद्रा में स्वप्न का होना भी हमारे परम आनंद के मार्ग में बाधक है अतः स्वप्न रहित होना ही सबसे सबसे बड़ा स्वप्न है|

निद्रा की अवस्था अचेतन अवस्था है| चेतना में भी अचेतन हो जाना समाधि की अवस्था है जो हमें हमारे अनंत स्वरूप से मिलाने की दिशा में सार्थक प्रयास है| हम किसी न किसी सामाजिक तथा धार्मिक मान्यता से भी बंधे हुए हैं| यदि हिंदू हैं तो पूजा तथा मंदिरों में ईश्वर के दर्शन, यदि मुस्लिम है तो मस्जिदों में नमाज, यदि ईसाई हैं तो चर्च में ईश्वर की उपासना, किंतु इन सभी पद्धतियों में एक समानता है - उपासना की इस प्रक्रिया में हम आंखों को बंद रखते हैं| यदि हम मंदिर में देव दर्शन के लिए गए हैं तो फिर आंखों को बंद करने की क्या आवश्यकता है यह आंखें बाहरी वस्तुओं को देखती है| आंखें बंद किए बिना हम बाहरी समाज से अलग नहीं हो सकते तथा स्वयं के अनंत स्वरूप से जुड़ नहीं सकते| कितने भी पवित्र देव स्थानों पर चले जाएं किंतु वहां जाकर आंखों से उस स्वरुप देखने की बजाए हम आंखें बंद करते हैं तथा स्वयं में एकाकार होने का प्रयास करते हैं जिसमें सतत सहयोग करती है वहां की पवित्र ऊर्जा| विचार करें कि इतनी लंबी यात्रा किसलिए? हमें हमसे मिलाने के लिए, यही जीवन का मूल मंत्र है, यही शाश्वत परंपरा है, यही जीवन का लक्ष्य है|

जीवन शून्य से शून्य तक की यात्रा है| अक्सर जीवन की आपाधापी में हम शून्य को छोड़कर अनंत की ओर उड़ान भरने का प्रयास करते हैं तथा अनेक विकारों से भर जाते हैं किंतु जीवन में भी उस शून्य का अनुभव होता है तो व्यक्ति सुख एवं दुख की सीमा से परे आनंद के सागर में गोता लगाने लगता है|”


- दीपक श्रीवास्तव

Thursday, May 2, 2019

स्वयं से मुलाकात: एक प्रयोग

स्वयं से मुलाकात: एक प्रयोग

लंबे समय से चल रही पारिवारिक एवं सामाजिक व्यस्तताओं के कारण अक्सर हमें स्वयं से मिलने का अवसर नहीं मिल पाता तथा हम अनेक उपलब्धियों की चाह में निरंतर प्रयास करते रहते हैं तथा उन्हीं उपलब्धियों के माध्यम से स्वयं को सुखी बनाने की दिशा में बढ़ते हैं जो कमोवेश आर्थिक सम्पन्नता की दिशा में प्रगति तक ही सीमित रह जाता है| आर्थिक उपलब्धियां मिल जाती हैं किन्तु क्या हमें वही सुख-शांति प्राप्त होती है जिसकी मन सदा से कल्पना करता आया है? हम जानते हैं कि आराम-तलब जिंदगी पाना आज कोई बड़ी बात नहीं है तो हमें वास्तव में क्या चहिये इसे समझने के लिए मैंने स्वयं पर एक प्रयोग किया|
एक अवकाश के दिन मेरा परिवार विद्यालय गया हुआ था तब मैंने घर के सभी दरवाजे बंद कर दिए तथा खिड़कियों पर पर्दे लगा दिए, इनवर्टर बंद कर दिए तथा बिजली की में लाइन काट दी| ऐसा इसलिए था कि घर में किसी प्रकार की ध्वनि न सुनाई दे चाहे वह फ्रिज, पंखा इत्यादि की ही क्यों न हो| वातावरण में अत्यंत गर्मी थी महत्तम तापमान लगभग 43 डिग्री सेल्सियस था ऐसी स्थिति में 9 बजे तक स्नानादि से निवृत्त होने के पश्चात मैंने हल्का नाश्ता लिया तथा प्रयोग प्रारम्भ किया|
वर्तमान में देश चुनावी परिस्थितियों के दौर से गुजर रहा है अतः देश को लेकर मेरे मन में भी अनेक प्रकार के विचार थे अतः जो विचार उभरे उन्हें उभरने दिया| यदि हमारे मन में कोई विचार होता है या कोई परिस्थिति होती है तथा उसके भिन्न पक्ष उपलब्ध हों तो व्यक्ति किसी न किसी पक्ष की ओर आंशिक अथवा पूर्ण रूप से झुकाव होता ही है| मैंने महसूस किया के हमारे देश की राजनीतिक परिस्थितियों में भी मेरा एक पक्ष है परंतु प्रयोग के दौरान निष्पक्ष होकर अपने विचारों को नियंत्रित करने का प्रयास किया तथा कुछ समय बाद मै राजनैतिक विचारों से मुक्त था|
व्यक्ति के जीवन में परिवार तथा भविष्य की बड़ी चिंता रहती है जो उसे जीवन रूपी महासागर के आनंद में स्वतंत्र होकर गोता लगाने नहीं देती| अक्सर हम जीवन में जब आगे बढ़ने की सोचते हैं तथा अपने लक्ष्य की एक कल्पना होती है जहाँ तक पहुँचने का मार्ग हमें तय करना होता है| मार्ग में आने वाली बाधाओं से संघर्ष करना पड़ता है किंतु आगे बढ़ने की यह ललक जब गला काट प्रतिस्पर्धा में बदल जाती है तथा हम अपनी स्थिति की तुलना दूसरों से करने लगते हैं या यों कहें कि जो दूसरों के पास है वह मेरे पास भी हो ऐसे विचार जब मन में आते हैं तो व्यक्ति के लक्ष्य तक पहुंचने का मार्ग नकारात्मक रूप ले लेता है, हमारे देश में, विशेष तौर पर युवा वर्ग इसी का शिकार है| मेरा जीवन तथा मेरी आयु दोनों ही अभी प्रगतिशील पथ पर हैं अतः अकेले होने पर यह विचार भी स्वाभाविक था तथा अनेक बातें मन में उभर रही थीं, मैंने उन विचारों को उभरने दिया तथा उनका हल निकालने की बजाए अथवा परिणाम सोचने की बजाय मैंने उस सोच को ही नियंत्रित करने का प्रयास किया जो बहुत कठिन था किंतु कुछ समय बाद इसमें सफलता मिली|
अब मेरे मन में एक विशेष प्रकार की शांति थी जिसमें कुछ समय तक तो मेरे परिवार के सदस्यों का नाम सम्मिलित रहा| माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी-बेटी इन सबकी कल्पनाएं भी रहीं किंतु धीरे धीरे मैं वैचारिक रूप से  उनसे भी मुक्त हो रहा था| अब मुझे केवल मेरे रुचियाँ जैसे साहित्य-संगीत ही ध्यान में आ रही थीं, किंतु कुछ भी नया पढ़ना प्रयोग के उद्देश्य के विपरीत हो जाता, अतः साहित्य की ओर मैं गया ही नहीं| जब भी मेरा मन प्रसन्न होता है या दुखी होता है तो मन कुछ न कुछ गुनगुनाता है अतः बहुत सारे गीत मेरे मन में आ रहे थे जिन्हें मैं गुनगुना रहा था तथा उसका आनंद भी मिला किन्तु जीवन में पहली बार ऐसा हुआ जिन गीतों को गुनगुनाते गुनगुनाते बहुत समय गुजारा है मैं उनसे भी मुक्त हो रहा था| कुछ समय बाद मेरा मन इस आनंद से भी मुक्त हो गया| अब मेरे मन में कुछ कुछ छोटे-मोटे विचार जरूर आ रहे थे परंतु उनसे मुक्त होने में अधिक समय नहीं लगा|
अब मैं पूरी तरह अपने साथ था मन में कोई विचार नहीं, कोई इच्छा नहीं बस एक अलग एवं अलौकिक अनुभूति की ऐसी अनुभूति थी जिसको शब्दों में लिखना मेरे लिए सम्भव नहीं है, बस केवल अपने अन्दर उर्जा के संचार एवं अत्यधिक आनन्द का अनुभव कर रहा था| आपको जानकर आश्चर्य होगा होगा कि लगभग 43 डिग्री तापमान में लगभग 7 घंटे तक बिना पंखे, कूलर अथवा अन्य सुविधाओं के बावजूद मुझे इनके न होने का एहसास भी नहीं हुआ तथा मुझे पानी की जरुरत भी महसूस नहीं हुई|  जीवन में प्रथम बार मैंने इस आनंद का अनुभव किया| दो वर्ष पूर्व जब मैंने पारायण पत्रिका का संपादन किया था तब कुछ पंक्तियां लिखी थी जो मेरे मन में कैसे उठी वह तो नहीं पता किंतु उनका मतलब मैंने इस प्रयोग के दौरान महसूस किया| पंक्तियाँ थीं –
“जीवन शून्य से शून्य तक की यात्रा है| अक्सर जीवन की आपाधापी में हम शून्य को छोड़कर अनंत की ओर उड़ान भरने का प्रयास करते हैं तथा अनेक विकारों से भर जाते हैं किंतु जीवन में भी उस शून्य का अनुभव होता है तो व्यक्ति सुख एवं दुख की सीमा से परे आनंद के सागर में गोता लगाने लगता है|”

- दीपक श्रीवास्तव