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Thursday, November 28, 2019

राष्ट्रपिता

दुर्भाग्य से आज पुनः राजनीति गांधी जी पर केंद्रित हो गई है। राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के वशीभूत भले ही आज महात्मा गांधी राष्ट्रपिता के रूप में स्वीकार्य हुए हैं किंतु तथ्य यही है कि प्रत्येक व्यक्ति केवल एक सीमित कालखण्ड का हिस्सा भर ही है तथा राष्ट्र किसी भी व्यक्ति की जीवन की सीमाओं से बहुत ऊपर है।राष्ट्र केवल जमीन का टुकड़ा नहीं है बल्कि अनंत में विचरते अनेक भावनाओं का केन्द्र है जिसकी विशालता को केवल एक व्यक्ति के जीवन की सीमाओं से परिभाषित नहीं किया जा सकता। यहां सत्य की परिभाषा यदि हरिश्चन्द्र है तो मर्यादा के स्तंभ श्रीराम है, भक्ति एवं प्रेम की पराकाष्ठा यदि गोकुल की गोपियाँ हैं तो सेवा के चरमबिन्दु श्री हनुमानजी हैं। कहीं ज्ञान के अहंकार को ध्वस्त करती विदुषी गार्गी हैं तो सतीत्व के बल पर यमराज से पति के प्राण वापस लाने वाली सावित्री भी हैं, यदि दुधमुंहे बालक को पीठ से बांधकर राष्ट्र के लिए जीवन बलिदान करने वाली वीरांगना लक्ष्मीबाई हैं तो वहीं राष्ट्र की बलिबेदी पर पुत्रों को भी बलिदान करने का हौसला रखने वाले गुरु गोविंद सिंह हैं। ये सभी राष्ट्र की पहचान होते हुए भी कालखण्ड की सीमाओं से बंधे हुए हैं। राष्ट्र ऐसे ही अनेक गाथाओं का एकमात्र प्रत्यक्ष गवाह है। अतः केवल क्षणभंगुर जीवन धारण किये एक व्यक्ति को इसका पिता कहना आश्चर्यजनक है एवं राजनीतिक स्वार्थों के वशीभूत लगता है। व्यक्ति है तो उसके आदर्श भी हैं, उसका जीवन अनुकरणीय भी है एवं राष्ट्र के प्रति उसकी सेवा भी वंदनीय है किंतु चराचर अविनाशी संस्कृति एवं राष्ट्र का पिता कोई नश्वर देहधारी कैसे हो सकता है? यदि व्यक्ति है तो उसका मन एवं मस्तिष्क भी शरीर की सीमाओं से बंधा हुआ है अतः समाज में उसके समर्थक एवं विरोधी भी स्वाभाविक हैं और यदि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर एक दूसरे की मान्यताओं पर कीचड़ उछाला जा सकता है तो एक नश्वर देहधारी के बारे में विरोधी भाव अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अपमान नहीं है? जिस प्रकार सुख के साथ दुःख, जीवन के साथ मृत्यु, राजा के साथ रंक द्वारा समाज एवं जीवन मे संतुलन है उसी प्रकार समर्थन के साथ विरोध का संतुलन भी आवश्यक है अन्यथा समाज का एक पक्ष कुंठित हो जाएगा। जातिवादी व्यवस्था भी इसी असंतुलन एवं कुंठा का परिणाम है।

- दीपक श्रीवास्तव

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