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Wednesday, December 25, 2019

--- क्रिसमस पर विशेष ---

हमारा राष्ट्र पर्व -प्रधान है। वसुधैव कुटुम्बकम की महान भावना को हृदय में धारण किये हमने प्रत्येक मत, पंथ, सम्प्रदाय की भावनाओं को उचित सम्मान दिया है। हम कभी तलवारों के दम पर या आर्थिक प्रलोभन के आधार पर पंथ परिवर्तन के पक्षधर नहीं रहे। धर्म जीवन की गति है तथा यही  समाज मे मर्यादा एवं स्वतंत्रता में सामंजस्य बनाकर रखता है। अतः धर्मनिरपेक्ष होने का अर्थ स्वयं में पाशविक प्रवृत्तियों को अंगीकार करना है।

क्रिसमस समेत अनेक पर्वों पर परिवार एवं मित्रों के साथ खुशियां मनाना आज के एकाकी जीवन के लिए वरदान हो सकता है तथा इसे समाज को स्वीकार करना चाहिए। किन्तु बच्चों का मन अत्यन्त कोमल होता है तथा बचपन में पड़े संस्कार स्थायी होते हैं। अतः बच्चों के लिए सेंटा द्वारा उपहारों की कामना उनमें बचपन से ही लालची प्रवृत्तियों के विकसित होने की शुरुआत कर सकता है। यह बात छोटी भले ही प्रतीत होती हो, किंतु मुफ्त में कुछ भी पाने की प्रवृत्ति ही आगे चलकर समाज को बाजारवाद में उलझा देती है। इन्ही प्रलोभनों की आड़ में अनेक अयोग्य राजनेता मुफ्त सुविधाओं के प्रलोभन की आड़ में राजनीति के महत्वपूर्ण पदों पर आसीन हो जाते हैं जिसका दुष्परिणाम पूरे देश को भुगतना पड़ता है।

क्रिसमस ट्री की सजावट बहुत अच्छी लगती है किंतु इन कृत्रिम वृक्षों पर जगमगाती नकली लाइटों की सजावट से ऊर्जा की बर्बादी के साथ-साथ अनावश्यक प्लास्टिक कचरा इत्यादि इकट्ठा हो जाता है जो पर्यावरण की दृष्टि से अच्छा नहीं है। बड़े स्तर पर नित सजाए जाने वाले मॉल इत्यादि इसी का वृहद रूप हो सकते हैं जो चाहे कितने भी भव्य दिखें किन्तु वे  जीवन शैली में भौतिक दिखावे को ही बढ़ावा देते हैं और जब इनसे व्यक्ति बोर हो जाता है तब वह उन्हीं प्राकृतिक स्थानों की ओर मुड़कर देखता है जिन्हें वह विकास की अंधी दौड़ में पीछे छोड़ आया है। आइए जीवनदायी वृक्षों को क्रिसमस ट्री मानकर उनके जलाभिषेक द्वारा अपना एवं समाज का बेहतर भविष्य सुनिश्चित करें।

मेरा निवेदन है कि इस शुभ अवसर पर बच्चों को उनके नैतिक आदर्शों वाली यथार्थपरक कहानियों से जोड़ा जाए जिससे उनके अन्दर अच्छे-बुरे की समझ के साथ संघर्ष, परिश्रम का आदर्श विकसित हो सके जिससे वे बेहतर समाज के महत्वपूर्ण घटक बन सकें।

- दीपक श्रीवास्तव



Sunday, December 22, 2019

--- राष्ट्र से ऊपर होती विद्वेष की राजनीति ---

यह निर्विवाद सत्य है कि प्रधानमन्त्री मोदी के सक्षम नेतृत्व में भारतवर्ष का कद वैश्विक पटल पर बढ़ा है। वर्तमान सरकार भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों एवं वसुधैव कुटुम्बकम की भावना को विश्व स्तर तक पहुंचाने में सफल रही है। एक ओर जहाँ केदारनाथ की गुफ़ा के माध्यम से स्वयं में स्थित होकर आध्यात्मिक रहस्यों को जानने की भारत की अभिन्न परम्परा "तपश्चर्या" से समूचा विश्व अवगत हुआ, वहीँ दूसरी ओर वसुधैव कुटुम्बकम की भावना को हृदय में धारण करते हुए विश्व-शान्ति का संदेश देने वाले इस राष्ट्र ने मानवता के शत्रु "आतंकवाद" को कमजोर करने में अग्रणी भूमिका निभाई है। स्वच्छता को एक जन-आन्दोलन का रूप देते हुए तथा आर्थिक रूप से शोषित एवं दुर्बल वर्ग के जीवन स्तर को उन्नत बनाते हुए समाज में उनके सम्मानपूर्वक जीवन हेतु वर्तमान सरकार ने अत्यन्त सराहनीय कार्य किया है। इसने किसी को भी झूठा प्रलोभन या मुफ़्तख़ोरी का जीवन देने का प्रयास नहीं किया बल्कि उन्हें आत्मनिर्भरता की ओर उन्मुख करने का प्रयास किया है। शायद इसी कारण सरकार अधिकांश जनता का विश्वास जीतने में सफल रही है। 

पड़ोसी देशों में धार्मिक भेदभाव से उत्पीड़ित अनेक परिवारों को सम्मानजनक जीवन एवं सामाजिक आधार देने के संकल्प से भारत सरकार "नागरिकता संशोधन बिल" लेकर आई है। दुर्भाग्य से इस विषय पर स्वस्थ परिचर्चा के स्थान पर हिंसक घटनाएं हो रही है जो वैश्विक स्तर पर भारतवर्ष की पहचान के प्रतिकूल हैं जबकि यह बिल पूरी तरह से भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों के अनुरूप है। शरणागति की रक्षा के बारे में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है - 

"सरनागत कहुँ जे तजहिं, निज अनहित अनुमानि।
ते नर पामर पापमय, तिन्हहि बिलोकत हानि।। 
अर्थात "जो मनुष्य अपने अहित का अनुमान करके शरण में आए हुए का त्याग कर देते हैं, वे पामर (क्षुद्र) हैं, पापमय हैं, उन्हें देखने में भी हानि है।" यह वानरों द्वारा विभीषण के प्रति सन्देह व्यक्त करने पर भगवान् श्रीराम के मुख से निकले वचनामृत हैं। 

अनेक लोगों का यह तर्क हो सकता है कि बड़ी संख्या में लोगों के यहाँ आने से राष्ट्र की अर्थव्यवस्था प्रभावित हो सकती है क्योंकि इससे राष्ट्र पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ बढ़ सकता है। किन्तु विधेयक में स्पष्ट रूप से वर्णित है कि इससे केवल उन्हें भारतीय नागरिकता प्रदान की जायेगी जो 31 दिसम्बर 2014 से पहले ही अपने देश में धार्मिक उत्पीड़न का शिकार होकर भारत में शरण ले चुके हैं तथा वर्तमान में अपने जीवन-यापन हेतु अवैध रूप से भारतीय संसाधनों पर निर्भर हैं। इसका सीधा अर्थ है कि इससे भारत को आर्थिक स्तर पर कोई हानि नहीं है। विभाजन की विभीषिका से पीड़ित अनेक परिवारों ने अपने जीवन में धार्मिक कट्टरता के कारण अपमान और मृत्यु का वह ताण्डव देखा है जिसके बारे में सुनकर ही एक सामान्य व्यक्ति अन्दर तक सिहर उठता है। ईश्वर द्वारा बनाई इस सृष्टि में मनुष्य एवं जानवरों के जीवन यापन हेतु जब स्वयं ईश्वर ने कोई भेदभाव नहीं किया तो ऐसी परिस्थिति में भूमि पर मात्र एक सीमा रेखा खींच देने से यदि एक व्यक्ति के लिए भी सम्मान से जीवन जीने का अधिकार छिनता है तो प्रकृति से प्रतिकूलता का इससे बड़ा उदाहरण नहीं हो सकता। 

धर्म जीवन का आधार है। दुर्भाग्य से वर्तमान में पूजा-पद्धति को ही धर्म का पर्याय मान लिया गया है। अब तक धर्मनिरपेक्षता शब्द का दुरुपयोग कुछ वर्गों का तुष्टीकरण करते हुए समाज के आधारभूत ढाँचे को बांटकर ध्वस्त करने में होता रहा है। जब तक समाज बंटा हुआ है तब तक शांति स्थापित नहीं हो सकती। रावण के शब्दों में "जब राम और रावण दोनों का अस्तित्व है, तब तक शांति नहीं हो सकती। शान्ति के लिए दोनों में से किसी एक को मरना होगा।" उसी प्रकार जब तक मत-भेद हैं, मनों में भिन्नता है तब तक भारतीय समाज में संघर्ष होता रहेगा। शान्ति के लिए इस भिन्नता को मिटाना ही होगा। 

शिक्षित समाज बुद्धि प्रधान होने के कारण आत्ममुग्धता में लीन है और विषयों की अनभिज्ञता के बावजूद सत्य से परे विभिन्न तर्क-कुतर्क प्रस्तुत करता है तथा मैं और मेरा परिवार तक सीमित रह गया है। उसमे अपने राष्ट्र के प्रति भावना विकसित नहीं हो पाती। अशिक्षित समाज पर रोजी-रोटी का संघर्ष इतना हावी है कि वह अपनी संख्या का अधिकाधिक विस्तार तो कर लेता है किन्तु उसकी संतानें समाज में एक स्तरीय जीवन कैसे जियें इसकी चिंता नहीं कर पाता। फलस्वरूप समाज में अराजकता, लूटपाट, हिंसा, महिला-उत्पीड़न जैसी घटनाओं में व्यापक विस्तार होता है। इसी का लाभ समाज के स्वार्थी तत्व उठाते हैं क्योंकि जब पेट की भूख संस्कारों पर हावी हो जाती हैं तब व्यक्ति अच्छे-बुरे में भेद करने में असमर्थ हो जाता है तथा थोड़े आर्थिक लाभ में ही उससे ऐसे कृत्य कराये जा सकते हैं जो राष्ट्रहित में संवेदनशील हो सकते हैं। आतंकवाद की दिशा में अग्रसर अधिकांश युवक भी कहीं न कहीं इन्ही परिस्थितियों के शिकार हैं। इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह हुआ है कि न सिर्फ आर्थिक बल्कि बौद्धिक आधार पर भी समाज में बहुत बड़ी खाई बन गई है। हम समाज में एक बौद्धिक वर्ग को अक्सर कहते हुए सुन सकते हैं कि अमुक वर्ग हमसे बात करने लायक नहीं है। यह बौद्धिक भिन्नता जब तक समाज में बनी हुई है तब तक राष्ट्र के विभिन्न रंगों के एक सूत्र में पिरोना संभव नहीं है। 

आज वर्तमान सरकार पर न सिर्फ धर्म, जाति, अर्थ बल्कि विभिन्न बौद्धिक स्तरों को भी एक साथ लेकर चलने की बड़ी चुनौती है जिस पर पूर्ववर्ती सरकारों ने कोई ध्यान नहीं दिया। किन्तु वर्तमान सरकार ने जिस प्रकार इसका संकल्प लिया है उससे यह सुनिश्चित है कि ये प्रगति की ओर मजबूती से बढ़े कदम हैं तथा लक्ष्य दूर नहीं है। 

- दीपक श्रीवास्तव 

तन-मन-मानस" द्वितीय श्रृंखला का आयोजन सम्पन्न

श्री अरविन्द आश्रम की पावन तपस्थली में आयोजित तन-मन-मानस की द्वितीय श्रृंखला के अन्तर्गत प्रमुख वक्ता दीपक श्रीवास्तव ने पुरुषार्थ एवं प्रारब्ध के मध्य सन्तुलन की तत्वपरक सामाजिक व्याख्या प्रस्तुत की। उन्होंने बताया कि मनुष्य के जीवन में पुरुषार्थ एवं प्रारब्ध सदैव एक दूसरे पर हावी होने का प्रयास करते रहते हैं। अक्सर मनुष्यों में किसी एक की प्रधानता पाई जाती है किन्तु श्रीरामचरितमानस दोनों में सन्तुलन स्थापित करने का महत्वपूर्ण सामाजिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। 

श्री दीपक श्रीवास्तव ने बताया कि बालि महायोद्धा था। वह घोर पुरुषार्थवादी तो था ही, साथ ही उसमे शक्ति का अहंकार भी था जिसके वशीभूत उसके कुछ कृत्य मानवता के विपरीत हो गए थे। चूंकि कर्मों के अनुसार व्यक्ति का प्रारब्ध सुनिश्चित होता है अतः श्रीराम ने एक वृक्ष की आड़ में खड़े होकर उसका वध किया था। कुछ लोगों के प्रश्न "श्रीराम ने बालि से युद्ध क्यों नहीं किया?" के उत्तर में उन्होंने बताया कि श्रीराम ईश्वर के सगुण रूप में उपस्थित हैं तथा ईश्वर स्वयं कभी युद्ध नहीं करता, वह तो व्यक्ति के कर्म की आड़ में न्याय करता है। यहाँ वृक्ष कर्म का प्रतिविम्ब है। अतः पुरुषार्थवादी बालि सबल होने के बावजूद अपने ही कर्मों द्वारा बने प्रारब्ध से बच नहीं पाता तथा इसी की आड़ में ईश्वर द्वारा न्याय कर दिया जाता है। अब बालि का प्रश्न होता है कि क्या उस पतितपावन परमेश्वर के साक्षात सगुण स्वरुप के दर्शन से भी मैं पापमुक्त नहीं हुआ?, उसी क्षण उसका मस्तक श्रीराम की गोद में होता है। 

उन्होंने मैना-पार्वती संवाद की व्याख्या करते हुए आगे बताया कि जब किसी सिद्धांत पर लोगों में मतभिन्नता होती है तब अक्सर तर्कपूर्ण बहस आधारहीन हो जाते हैं क्योंकि तर्क में पराजित व्यक्ति में मन में सिद्धांत से अधिक उनकी पराजय हावी रहती है तथा विजयी व्यक्ति के मन में विजय का अहंकार हावी होता है। यही कारण है कि घोर पुरुषार्थ की प्रतीक माता पार्वती, जिन्होंने अपने महान तप के आधार पर भगवान् शिव को पति रूप में प्राप्त किया था, ने मैना द्वारा शिवस्वरूप पर सन्देह के विरोध में कोई तर्क प्रस्तुत करने की बजाय प्रारब्ध का सहारा ही लिया जिससे मैना को पराजय का दंश नहीं झेलना पड़ा और न ही माता पार्वती में किसी प्रकार का अहंकार उत्पन्न हुआ। 

कार्यक्रम में अंकित चहल ने अपनी कविता से सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया। कुलश्रेष्ठ कैन्सर केयर चैरिटेबल ट्रस्ट के अध्यक्ष डॉ यतीन्द्र कुलश्रेष्ठ ने कहा कि समाज की वर्तमान स्थिति को देखते हुए श्री अरविन्द आश्रम की ओर से इस प्रकार के आध्यात्मिक कार्यक्रमों का आयोजन अति सुखद एवं समाज के हित में हैं। नव-सृजन समिति के अध्यक्ष श्री के सी श्रीवास्तव ने कहा कि दीपक श्रीवास्तव द्वारा श्रीरामचरितमानस की इस प्रकार की व्याख्या सामाजिक दृष्टि से अत्यंत आवश्यक है तथा इसमें लोगों की भागीदारी बढ़नी चाहिए। 

कार्यक्रम के अंत में अध्यक्षीय उद्बोधन में श्री अरुण नायक ने कहा कि श्री अरविन्द सोसाइटी समाज की आध्यात्मिक प्रगति में निरन्तर कई वर्षों कार्य कर रही है तथा भविष्य में भी ऐसे कार्यक्रमों हेतु कृतसंकल्प है। कार्यक्रम में शैली शर्मा, कवि अंकित चहल, कवि पंकज, डॉ यतीन्द्र कुलश्रेष्ठ, श्री के सी श्रीवास्तव, अंजलि समेत अनेक गणमान्य व्यक्ति उपस्थित रहे।