Followers

Sunday, December 22, 2019

--- राष्ट्र से ऊपर होती विद्वेष की राजनीति ---

यह निर्विवाद सत्य है कि प्रधानमन्त्री मोदी के सक्षम नेतृत्व में भारतवर्ष का कद वैश्विक पटल पर बढ़ा है। वर्तमान सरकार भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों एवं वसुधैव कुटुम्बकम की भावना को विश्व स्तर तक पहुंचाने में सफल रही है। एक ओर जहाँ केदारनाथ की गुफ़ा के माध्यम से स्वयं में स्थित होकर आध्यात्मिक रहस्यों को जानने की भारत की अभिन्न परम्परा "तपश्चर्या" से समूचा विश्व अवगत हुआ, वहीँ दूसरी ओर वसुधैव कुटुम्बकम की भावना को हृदय में धारण करते हुए विश्व-शान्ति का संदेश देने वाले इस राष्ट्र ने मानवता के शत्रु "आतंकवाद" को कमजोर करने में अग्रणी भूमिका निभाई है। स्वच्छता को एक जन-आन्दोलन का रूप देते हुए तथा आर्थिक रूप से शोषित एवं दुर्बल वर्ग के जीवन स्तर को उन्नत बनाते हुए समाज में उनके सम्मानपूर्वक जीवन हेतु वर्तमान सरकार ने अत्यन्त सराहनीय कार्य किया है। इसने किसी को भी झूठा प्रलोभन या मुफ़्तख़ोरी का जीवन देने का प्रयास नहीं किया बल्कि उन्हें आत्मनिर्भरता की ओर उन्मुख करने का प्रयास किया है। शायद इसी कारण सरकार अधिकांश जनता का विश्वास जीतने में सफल रही है। 

पड़ोसी देशों में धार्मिक भेदभाव से उत्पीड़ित अनेक परिवारों को सम्मानजनक जीवन एवं सामाजिक आधार देने के संकल्प से भारत सरकार "नागरिकता संशोधन बिल" लेकर आई है। दुर्भाग्य से इस विषय पर स्वस्थ परिचर्चा के स्थान पर हिंसक घटनाएं हो रही है जो वैश्विक स्तर पर भारतवर्ष की पहचान के प्रतिकूल हैं जबकि यह बिल पूरी तरह से भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों के अनुरूप है। शरणागति की रक्षा के बारे में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है - 

"सरनागत कहुँ जे तजहिं, निज अनहित अनुमानि।
ते नर पामर पापमय, तिन्हहि बिलोकत हानि।। 
अर्थात "जो मनुष्य अपने अहित का अनुमान करके शरण में आए हुए का त्याग कर देते हैं, वे पामर (क्षुद्र) हैं, पापमय हैं, उन्हें देखने में भी हानि है।" यह वानरों द्वारा विभीषण के प्रति सन्देह व्यक्त करने पर भगवान् श्रीराम के मुख से निकले वचनामृत हैं। 

अनेक लोगों का यह तर्क हो सकता है कि बड़ी संख्या में लोगों के यहाँ आने से राष्ट्र की अर्थव्यवस्था प्रभावित हो सकती है क्योंकि इससे राष्ट्र पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ बढ़ सकता है। किन्तु विधेयक में स्पष्ट रूप से वर्णित है कि इससे केवल उन्हें भारतीय नागरिकता प्रदान की जायेगी जो 31 दिसम्बर 2014 से पहले ही अपने देश में धार्मिक उत्पीड़न का शिकार होकर भारत में शरण ले चुके हैं तथा वर्तमान में अपने जीवन-यापन हेतु अवैध रूप से भारतीय संसाधनों पर निर्भर हैं। इसका सीधा अर्थ है कि इससे भारत को आर्थिक स्तर पर कोई हानि नहीं है। विभाजन की विभीषिका से पीड़ित अनेक परिवारों ने अपने जीवन में धार्मिक कट्टरता के कारण अपमान और मृत्यु का वह ताण्डव देखा है जिसके बारे में सुनकर ही एक सामान्य व्यक्ति अन्दर तक सिहर उठता है। ईश्वर द्वारा बनाई इस सृष्टि में मनुष्य एवं जानवरों के जीवन यापन हेतु जब स्वयं ईश्वर ने कोई भेदभाव नहीं किया तो ऐसी परिस्थिति में भूमि पर मात्र एक सीमा रेखा खींच देने से यदि एक व्यक्ति के लिए भी सम्मान से जीवन जीने का अधिकार छिनता है तो प्रकृति से प्रतिकूलता का इससे बड़ा उदाहरण नहीं हो सकता। 

धर्म जीवन का आधार है। दुर्भाग्य से वर्तमान में पूजा-पद्धति को ही धर्म का पर्याय मान लिया गया है। अब तक धर्मनिरपेक्षता शब्द का दुरुपयोग कुछ वर्गों का तुष्टीकरण करते हुए समाज के आधारभूत ढाँचे को बांटकर ध्वस्त करने में होता रहा है। जब तक समाज बंटा हुआ है तब तक शांति स्थापित नहीं हो सकती। रावण के शब्दों में "जब राम और रावण दोनों का अस्तित्व है, तब तक शांति नहीं हो सकती। शान्ति के लिए दोनों में से किसी एक को मरना होगा।" उसी प्रकार जब तक मत-भेद हैं, मनों में भिन्नता है तब तक भारतीय समाज में संघर्ष होता रहेगा। शान्ति के लिए इस भिन्नता को मिटाना ही होगा। 

शिक्षित समाज बुद्धि प्रधान होने के कारण आत्ममुग्धता में लीन है और विषयों की अनभिज्ञता के बावजूद सत्य से परे विभिन्न तर्क-कुतर्क प्रस्तुत करता है तथा मैं और मेरा परिवार तक सीमित रह गया है। उसमे अपने राष्ट्र के प्रति भावना विकसित नहीं हो पाती। अशिक्षित समाज पर रोजी-रोटी का संघर्ष इतना हावी है कि वह अपनी संख्या का अधिकाधिक विस्तार तो कर लेता है किन्तु उसकी संतानें समाज में एक स्तरीय जीवन कैसे जियें इसकी चिंता नहीं कर पाता। फलस्वरूप समाज में अराजकता, लूटपाट, हिंसा, महिला-उत्पीड़न जैसी घटनाओं में व्यापक विस्तार होता है। इसी का लाभ समाज के स्वार्थी तत्व उठाते हैं क्योंकि जब पेट की भूख संस्कारों पर हावी हो जाती हैं तब व्यक्ति अच्छे-बुरे में भेद करने में असमर्थ हो जाता है तथा थोड़े आर्थिक लाभ में ही उससे ऐसे कृत्य कराये जा सकते हैं जो राष्ट्रहित में संवेदनशील हो सकते हैं। आतंकवाद की दिशा में अग्रसर अधिकांश युवक भी कहीं न कहीं इन्ही परिस्थितियों के शिकार हैं। इसका सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह हुआ है कि न सिर्फ आर्थिक बल्कि बौद्धिक आधार पर भी समाज में बहुत बड़ी खाई बन गई है। हम समाज में एक बौद्धिक वर्ग को अक्सर कहते हुए सुन सकते हैं कि अमुक वर्ग हमसे बात करने लायक नहीं है। यह बौद्धिक भिन्नता जब तक समाज में बनी हुई है तब तक राष्ट्र के विभिन्न रंगों के एक सूत्र में पिरोना संभव नहीं है। 

आज वर्तमान सरकार पर न सिर्फ धर्म, जाति, अर्थ बल्कि विभिन्न बौद्धिक स्तरों को भी एक साथ लेकर चलने की बड़ी चुनौती है जिस पर पूर्ववर्ती सरकारों ने कोई ध्यान नहीं दिया। किन्तु वर्तमान सरकार ने जिस प्रकार इसका संकल्प लिया है उससे यह सुनिश्चित है कि ये प्रगति की ओर मजबूती से बढ़े कदम हैं तथा लक्ष्य दूर नहीं है। 

- दीपक श्रीवास्तव 

No comments: