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Wednesday, May 8, 2019

देव-दर्शन या-आत्म दर्शन


--- देव-दर्शन या-आत्म दर्शन ---

हम सभी में ईश्वर का शाश्वत एवं चेतन स्वरूप सदा जाग्रत रहता है तथा हमें जागृत अथवा सुसुप्तावस्था में इसकी अनुभूति होती रहती है| अनेक बार हम इसे जानते हुए भी समझ नहीं पाते| जब हम जन्म लेकर इस धरती पर आते हैं तो हमारी कोई पहचान नहीं होती, केवल पांच तत्व से बना शरीर उसके साथ चेतना, इसके अलावा हमारे पास कुछ भी नहीं होता| यहां से हमारी बहुत ही यात्रा भौतिक यात्रा प्रारंभ होती है कथा सामाजिक बंधन भी प्रारंभ हो जाते हैं मौलिक स्वरूप से पृथक आनंद स्वरूप से पृथक शाश्वत स्वरूप से पृथक हम जीवन भर के लिए एक नाम से बंध जाते हैं तथा उसी नाम को स्थापित करने में सारी उम्र गुजार देते हैं| ईश्वर के अनंत स्वरूप को एक बंधन में बांधना क्या प्रकृति के विरुद्ध नहीं है? केवल नाम ही नहीं हम, सामाजिक, पारिवारिक एवं अन्य तानो-बानो के जाल में बंधे हुए संपूर्ण जीवन गुजारकर या व्यर्थ करते हुए संसार से मुक्त हो जाते हैं| शायद संसार का सबसे दुखद आश्चर्य यही है|

हम में से ज्यादातर को जीवन से या जीवन में क्या चाहिए एक सुखी परिवार, आवश्यकतानुसार या कुछ अधिक धन, भौतिक जरूरतों के सामान, कुछ मित्र तथा अनेक ऐसी वस्तु जिसको पाने के बाद हमें अपना जीवन सुखी प्रतीत होगा, किंतु वस्तुएं मिल जाने के बाद क्या हम इतने सुखी रह पाते हैं जो हमारी कल्पना में होता है? शायद नहीं! फिर हमने किस दिशा में प्रयास किया तथा हमारे प्रयास की दिशा क्या होनी चाहिए थी? यह शोध का विषय है|

अपनी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हम निरंतर प्रयास करते रहते हैं| यह प्रयास फलीभूत होता है तथा हमें कुछ समय की खुशी देता है इसके पश्चात मन अन्य आवश्यकताओं हेतु अपने आपको तैयार करता है, अनवरत यही प्रक्रिया चलती रहती है| मैं, मेरा परिवार, मेरा घर, मेरा समाज, मेरी संपत्ति, मेरा नाम इत्यादि में हमने अपने अनंत स्वरूप को बांध रखा है किन्तु हम प्रतिदिन इन बंधनों से मुक्त भी होते हैं| अपने निद्रावस्था की कल्पना करिए, बड़ी से बड़ी थकान हो किंतु नींद की उस अवस्था में, जिसमें हमें अपनी प्रत्येक प्रिय वस्तु संबंध इत्यादि से पूर्णतया मुक्ति होती है, हम अपने चेतन स्वरूप के साथ होते हैं, उसके बाद हमारे अंदर इतनी उर्जा का संचार होता है कि अब शरीर में कोई थकान नहीं रह जाती, इसका अनुभव हम सभी ने किया है| इसका अर्थ है स्वयं से मुलाकात अर्थात का अनंत प्रवाह| निद्रा में स्वप्न का होना भी हमारे परम आनंद के मार्ग में बाधक है अतः स्वप्न रहित होना ही सबसे सबसे बड़ा स्वप्न है|

निद्रा की अवस्था अचेतन अवस्था है| चेतना में भी अचेतन हो जाना समाधि की अवस्था है जो हमें हमारे अनंत स्वरूप से मिलाने की दिशा में सार्थक प्रयास है| हम किसी न किसी सामाजिक तथा धार्मिक मान्यता से भी बंधे हुए हैं| यदि हिंदू हैं तो पूजा तथा मंदिरों में ईश्वर के दर्शन, यदि मुस्लिम है तो मस्जिदों में नमाज, यदि ईसाई हैं तो चर्च में ईश्वर की उपासना, किंतु इन सभी पद्धतियों में एक समानता है - उपासना की इस प्रक्रिया में हम आंखों को बंद रखते हैं| यदि हम मंदिर में देव दर्शन के लिए गए हैं तो फिर आंखों को बंद करने की क्या आवश्यकता है यह आंखें बाहरी वस्तुओं को देखती है| आंखें बंद किए बिना हम बाहरी समाज से अलग नहीं हो सकते तथा स्वयं के अनंत स्वरूप से जुड़ नहीं सकते| कितने भी पवित्र देव स्थानों पर चले जाएं किंतु वहां जाकर आंखों से उस स्वरुप देखने की बजाए हम आंखें बंद करते हैं तथा स्वयं में एकाकार होने का प्रयास करते हैं जिसमें सतत सहयोग करती है वहां की पवित्र ऊर्जा| विचार करें कि इतनी लंबी यात्रा किसलिए? हमें हमसे मिलाने के लिए, यही जीवन का मूल मंत्र है, यही शाश्वत परंपरा है, यही जीवन का लक्ष्य है|

जीवन शून्य से शून्य तक की यात्रा है| अक्सर जीवन की आपाधापी में हम शून्य को छोड़कर अनंत की ओर उड़ान भरने का प्रयास करते हैं तथा अनेक विकारों से भर जाते हैं किंतु जीवन में भी उस शून्य का अनुभव होता है तो व्यक्ति सुख एवं दुख की सीमा से परे आनंद के सागर में गोता लगाने लगता है|”


- दीपक श्रीवास्तव

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