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Friday, August 9, 2019

सूखते प्राण, घटता जीवन

सृष्टि में के पांच तत्वों में जल का विशेष महत्व है। जल को जीवनी शक्ति से भरपूर माना गया है, यही कारण है कि पृथ्वी का तीन चौथाई भाग जल है। वैज्ञानिकों द्वारा विभिन्न ग्रहों पर जीवन की संभावना की खोज भी वहां उपस्थित जल की‍ मात्रा पर निर्भर करती है। यदि जल नहीं तो जीवन नहीं।

अरबों वर्षों से हमारी पृथ्वी अनेक जीवों एवं वनस्पतियों की उत्पत्ति एवं विनाश की साक्षी रही है, किन्तु प्रत्येक कालखण्ड में जल की मात्रा ज्यों की त्यों बनी रही जिससे यहाँ जीवन पनपता एवं फलता फूलता रहा। नदियों, तालाबों एवं कुओं के मीठे पानी का भण्डार अरबों वर्षों से पृथ्वी के सभी प्राणियों में जीवन का भण्डार देता रहा तथा इस कार्य में जल का प्राकृतिक चक्र निरन्तर मैदानी क्षेत्रों को पोषण देता रहा जो आज भी उसी गति से चल रहा है किन्तु विगत 30-40 वर्षों में मनुष्यों द्वारा अंधाधुंध विकास की दौड़ ने प्रकृति के इस अनुपम वरदान को इस हद तक प्रभावित किया है कि आज विश्व के अनेक स्थानों पर लोग बोतलबंद पानी पीने को विवश हैं। 
जल विभिन्न तत्वों को जोड़कर सामजिक एकता का सन्देश देता है। जल पर हम इस हद तक निर्भर हैं कि खाना पकाने की तो कल्पना भी जल के बिना संभव नहीं। आटा चूर्ण के रूप में बिखरा हुआ होता है जिन्हें जल ही एक सूत्र में गूंथकर रोटी का आधार देता है। किसी भी प्रकार की सब्जी को जब तक जल के साथ ठीक से न उबाला जाय तब तक स्वाद में एकरूपता संभव नहीं। घरों के निर्माण में प्रयुक्त सामग्री जैसे सीमेन्ट, बदरपुर इत्यादि भी जब तक जल के साथ नहीं गूंथे जाते तब तक उनमे ईंटों एवं पत्थरों को एक सूत्र में जोड़ने की शक्ति उत्पन्न नहीं होती। जब विकसित शहरों में वाहनों, चिमनियों तथा अन्य उपकरणों द्वारा छोड़े गए धुओं से साँसे घुटने लगती हैं तब हलकी सी बारिश ही उन प्राणघातक तत्वों को भूमि में दबाकर वातावरण कि निर्मल करती है। यही कारण है कि वर्तमान में अनेक शहरों में वायु प्रदूषण से राहत हेतु कृत्रिम बारिश का प्रबन्ध किया जाता है। ऐसे ही अनेक उदाहरण मिल जायेंगे जो जल पर सम्पूर्ण विश्व की निर्भरता को यथार्थ रूप में स्वीकार करते हैं।

बीते दौर में जब गांवों में संयुक्त परिवार हुआ करते थे तब घरों में आंगन का एक विशेष स्थान था जिसमें एक हैंडपंप अवश्य होता था। हैंडपंप से निकाले गए जल को संपूर्ण परिवार हेतु खाना पकाने के लिए उपयोग किया जाता था। घर के पुरुष घर के बाहर कुएं अथवा नल के पानी का प्रयोग करके स्नान करते थे। घर का पानी आंगन में लगे नल के पास ही बने गड्ढे में चला जाता था, इस प्रकार घर का पानी घर के बाहर नहीं किया जाता था। यदि इसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो पता चलेगा इस प्रकार एक बूंद पानी की भी बर्बादी नहीं होती थी तथा पानी पुनः उपयोग हेतु धरती में चला जाता था तथा स्थानीय जल स्तर बना रहता था। मल-मूत्र भी या तो खेतों की उर्वरा शक्ति बनाने में प्रयुक्त हो जाते थे या बड़ी बड़ी नालियों के माध्यम से दूर मल-मूत्र की खाद के रूप में धरती की उर्वरक क्षमता बढ़ाने में प्रयुक्त हो जाते थे। अतः जीवनदायिनी नदियां भी सुरक्षित एवं शुद्ध बनी रहती थी। दुर्भाग्य से विकास की अंधी दौड़ में इन दोनों गतिविधियों पर पूर्ण विराम लगा दिया। शहरों में सीमेंट, कंकरीट इत्यादि के प्रयोग में विस्तार हुआ तथा आंगन की परंपरा ही समाप्त हो गई। उपयोग किया हुआ पानी सीवर के माध्यम से रासायनिक एवं अन्य जहरीले कचरों के साथ मिलकर नदियों तक पहुंचाया जाने लगा जिसका दोहरा नुकसान नदियों के प्रदूषित जल एवं लगातार गिरते भूजल स्तर के रूप में मिला।
इसके बावजूद वर्षा ऋतु ने धरती के गर्भ में जल स्तर को बनाए रखने का भरपूर प्रयास किया किंतु यहां भी शिक्षित वर्ग की अशिक्षित सोच ने आत्मघाती कृत्य किया। एक तो शहरों में वर्षा के जल को पुनः धरती के गर्भ में जाने की संभावनाओं पर विराम लगा दिया गया। इतना ही नहीं खेतों में प्रयुक्त रासायनिक खादों ने उर्वर भूमि पर कुछ इंच की पपड़ी तैयार कर दी जिसके कारण वर्षा का जल सीधे भूगर्भ में जाने की बजाए कीचड़ एवं गंदगी के रूप में अनेक बीमारियों का कारक बन गया। परिणाम स्वरूप हर वर्ष धरती की उर्वरता घटती रही तथा प्रतिवर्ष उस पपड़ी को पुनः उर्वर बनाने के लिए कृत्रिम संसाधनों के प्रयोग किए गए। रासायनिक खादों ने किसानों के मित्र कहे जाने वाले अनेक जीवो जैसे केंचुए इत्यादि के जीवन को ही नष्ट कर दिया जो खेतों की मिट्टी में बिल बनाकर या यूं कहें छोटे-छोटे छिद्रों के माध्यम से मिट्टी को भुरभुरा बनाने का कार्य किया करते थे जिससे खेत की मिट्टी द्वारा जल को अवशोषित करना आसान हो जाता था तथा पौधों की जड़ों को प्रचुर मात्रा में ऑक्सीजन भी मिल जाती थी। अतः फसलों की गुणवत्ता भी सुनिश्चित होती थी।

वर्तमान में सरकार द्वारा पर्यावरण संरक्षण हेतु अनेक उपाय किए जा रहे हैं तथा वृक्षारोपण का कार्य जोरों पर है, किंतु हमें इस सत्य से भी अवगत होना चाहिए गिरते भूजल के कारण यदि वृक्षों की जड़ें भूमि से आवश्यक जल न प्राप्त कर सकें तो वृक्ष सूख जाएंगे और पर्यावरण सांस लेने योग्य भी नहीं रह सकेगा। मनुष्य विभिन्न क्षेत्रों पर आधिपत्य हेतु लकीरें खींच सकता है, अपनी प्रभुता स्थापित करने हेतु युद्ध लड़ सकता है, जो सबसे अधिक शक्तिशाली है वह राज कर सकता है, किंतु इस सत्य को कभी झुठलाया नहीं जा सकता कि भूमि जितनी है उतनी ही रहेगी तथा उस भूमि पर जीवन हेतु जल की आवश्यकता विजयी एवं पराजित दोनों को है। संप्रदायों के नाम पर युद्ध संभव है, धर्म के नाम पर युद्ध संभव है, निरंतर अपनी प्रभुता स्थापित करने हेतु आबादी बढ़ाना संभव है। किन्तु मनुष्य का यह व्यवहार अपनी बढ़ने वाली आबादी तथा अपने बच्चों हेतु जीवन के लिए उपयोगी संसाधनों में कमी करता है। एक माता पिता के रूप में मनुष्य ही नहीं वरन जीव जगत के सभी प्राणी अपनी संतानों को बेहतर भविष्य देने हेतु कोई कदम उठाने से नहीं चूकते फिर भी इन स्वप्नों एवं प्रयासों की आड़ में प्राकृतिक संसाधनों कि सुरक्षा हमसे कैसे छूट गई, यह विचार करने योग्य है।

कहते हैं समय कभी वापस नहीं आता, किन्तु भूल सुधार की संभावना एक निश्चित समय तक बनी रहती है। अब भी समय है, जब हम प्रकृति के इस अनुपम वरदान को सुरक्षित एवं संरक्षित कर सकते हैं। प्राकृतिक वनों को संरक्षित करने से एवं जल की हर बूँद का सदुपयोग एवं उसका उपयोग धरती की कोख भरने में करने से आज भी स्वर्णिम स्थिति लौटाई जा सकती है। केवल सरकारी प्रयास इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए पर्याप्त नहीं हो सकते, बल्कि विश्व के प्रत्येक नागरिक को समवेत प्रयास करना होगा।


- दीपक श्रीवास्तव

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