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Thursday, August 15, 2019

झंडा उंचा रहे हमारा: गौरव या अहंकार

हम सभी में बचपन से ही राष्ट्र के प्रति गौरव की अनुभूति है तथा हम राष्ट्रीय ध्वज देखते ही स्वाभाविक रूप से नतमस्तक हो जाते है। बचपन से ही “विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊँचा रहे हमारा” जैसे अनेक गीतों ने हमारे अन्दर राष्ट्रप्रेम की भावना का विस्तार किया है। किन्तु साथ ही यह प्रश्न भी उठता है कि क्या झंडे का ऊँचा होना वसुधैव कुटुम्बकम की भावना के विपरीत नहीं है? क्योंकि सम्पूर्ण वसुधा को परिवार मानने वाली संस्कृति यदि अपने झंडे को ऊँचा रखने के साथ विश्व विजय की कामना भी रखती है, चाहे वह सामरिक हो या बौद्धिक, तो भी यह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने जैसा है जो केवल अहंकार की तुष्टि ही कर सकता है।
हमने अपने देवी देवताओं को केवल एक नाम के बन्धन में नहीं पाया, माँ के 108 नाम, शिव के अनेक नाम, विष्णु सहस्रनाम, गणपति, सूर्य, चन्द्र, अग्नि सभी को अनेक नामों के साथ स्वीकार किया है, उसी प्रकार भारतवर्ष भी कभी एक नाम के बन्धन में नहीं रहा। सृष्टि तथा यह जीवन अनन्त है तथा इसमें इतने रंग तथा आयाम छुपे हुए हैं कि इसे सिर्फ एक नाम के बन्धन में बांधना अनंत को मुट्ठी में समेटने के आभासी प्रयास जैसा है।  

एक नाम होते ही अनन्त की एक आंशिक परिभाषा बन जाती है तथा यहीं से पहचान, अस्तित्व, प्रतीक इत्यादि का अन्तहीन संघर्ष प्रारम्भ हो जाता है। देश अर्थात पृथ्वी पर उपलब्ध भूमि का एक हिस्सा, उस हिस्से पर जीवन यापन करने वाली जनता एवं पशु-पक्षी एक राजनैतिक सत्ता के अधीन होते हैं, इस प्रकार एक राष्ट्र बनता है जिसके प्रतीक के रूप में एक कपड़े पर राष्ट्र की परिभाषा को व्यक्त करता एक चित्र तैयार होता है, जिसे एक सीधे डंडे में लगाकर झण्डे का नाम दे दिया जाता है। उसी झंडे को राष्ट्रीय प्रतीक मानकर सभी को नतमस्तक होना पड़ता है। भूमि के दूसरे हिस्से में रहने वाले अलग झंडे के नीचे आते हैं तथा दोनों झंडे के नीचे रहने वाले व्यक्तियों के मध्य एक वैचारिक एवं काल्पनिक रेखा खिंच जाती है जो भूमि पर नहीं, केवल हृदय में खींची जाती है। झंडे को ऊँचा रखने का संकल्प ऐसा कि कितना भी खून-खराबा हो जाय, चाहे लाखों मारे जायं, किन्तु झंडा उंचा ही रहे और अपनी लकीर बढ़ती रहे।

केवल भूमि हो नहीं, झण्डा विभिन्न संस्कृतियों, धर्मों, सम्प्रदायों, राजनैतिक पार्टियों और यहाँ तक कि कुछ परिवारों को भी प्रस्तुत करता है। उदाहरण के लिए भगवा ध्वज हिन्दू प्रतीक के रूप में पूजित है, तथा इसके रंग की अत्यन्त सुन्दर परिभाषा है, यह तेज एवं बलिदान का प्रतीक है, यही रंग उगते सूर्य का है तथा अग्नि का रंग भी यही है। अतः यह ध्वज एक विचारधारा का प्रतीक तो अवश्य हो सकता है किन्तु यह बहुआयामी, बहुरंगी एवं अनंत सृष्टि का केवल एक अंश ही हो सकता है। इसी प्रकार अनेक विचारधाराओं के प्रतीक ध्वज भी सृष्टि के अंशमात्र ही हैं। जिस प्रकार पांच उँगलियों के बिना हथेली की कल्पना संभव नहीं, तथा किसी एक उंगली को श्रेष्ठता की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता, उसी प्रकार अनेक मत, पंथ, समुदाय, सम्प्रदाय, देश, कालखण्ड इत्यादि मिलकर ही समष्टि का निर्माण करते हैं। इनमे श्रेष्ठता सिद्ध करने की होड़ केवल शीर्षस्थ प्रमुखों द्वारा अहं की तुष्टि का प्रदर्शनमात्र है।

एक सामान्य नागरिक प्रत्येक राजसत्ता का सहयोग करता है, शासन बदलता रहता है, कार्यशैली बदलती रहती है, मानक बदलते रहते हैं किन्तु नागरिक प्रत्येक सत्ता को करों द्वारा सहयोग करता है तथा नेतृत्व को स्वीकार करते हुए मिलने वाली सुविधाओं से स्वयं को संतुष्ट करने का प्रयास करता है। सत्ता सुख भोगती है, नियम निर्धारित करती है, झण्डे के प्रभुत्व का क्षेत्रफल बढाने एवं स्थापित करने के लिए नागरिकों को बलिदान कर देती है, तथा इतिहास के पन्नों पर अपनी वीरगाथा लिख जाती है। इतिहास में झांकने पर पता चलेगा कि प्रत्येक वीरगाथा के साथ हजारों के रक्त से सनी हुई कहानी है जिनका नाम तक कोई नहीं जानता, और सत्ता इसी प्रकार रक्त की सीढ़ियां चढ़कर सुख भोगते हुए अपना अहंकार तुष्ट करती रही है।

जीवन का सत्य-दर्शन व्यक्ति को मोह एवं अहंकार से दूर ले जाता है। यह सत्य है कि श्रीराम के आदर्श हैं तथा एक सुन्दर, सुसंस्कृत समाज के निर्माण हेतु मर्यादा के मापदण्डों का होना अति आवश्यक है। श्रीराम का युद्ध सीमाओं की रक्षा हेतु नहीं था बल्कि समाज को अन्याय से मुक्त करने हेतु था, फिर भी एक भूमि के अधिपति होने के कारण उनका प्रत्येक कार्य अवध की धर्म-ध्वजा के विस्तार का कार्य करता है। मानवीय अवतार में इससे बच पाना अत्यन्त दुष्कर है, यही कारण हैं कि एक विचारधारा एवं एक भूमि सीमा का प्रतिनिधित्व करने के कारण वे सर्वस्वीकार्य नहीं हो पाते तथा कुछ असुर प्रजातियों द्वारा उनका विरोध स्वाभाविक लगता है, जो स्पष्ट करता है कि असुर भी एक सामाजिक एवं भौगोलिक क्षेत्र के अंश हैं, जो सृष्टि का अंश होने के बावजूद श्रीराम के क्षेत्र से परे हैं। वहीँ शिव अनादि एवं अनन्त हैं। वे न तो काल के बन्धन में हैं, न समय के, न मर्यादा के बन्धन में हैं। शिव पूर्ण हैं अतः प्रत्येक युग में उनका अस्तित्व चिर-विद्यमान है, यही कारण हैं कि उन्हें में नहीं बाँधा जा सकता तथा उन्हें प्रभूता स्थापित करने हेतु किसी ध्वज-पताका की आवश्यकता भी नहीं है। वे सच्चे अर्थों में वसुधैव-कुटुम्बकम को परिभाषित करते हैं। जब सम्पूर्ण वसुधा को परिवार के रूप में स्वीकार कर लिया तो झण्डे की आवश्यकता क्यों हैं? और यदि श्रेष्ठता सिद्धि हेतु झण्डा है तो फिर वसुधैव-कुटुम्बकम कैसे स्थापित हो सकता है?

- दीपक श्रीवास्तव 

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