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Saturday, April 25, 2020

श्रीदुर्गासप्तशती तृतीय अध्याय (काव्य रूपान्तर)

श्री दुर्गासप्तशती काव्यरूप
(तृतीय अध्याय)

ध्यान 

श्री जगदम्बा के अंगों में,
दिव्य तेज है, परम शान्ति है।
उदयकाल के अनगिन सूर्यों,
के समान अनुपम सुकान्ति है।।
लाल रेशमी साड़ी पहने,
तथा गले में मुण्डमाल है।
रक्त तथा चन्दन लेपन से,
दोनों स्तन तीक्ष्ण लाल हैं।।
कर-कमलों की मुद्राएं वर,
विद्या, जपमालिका, अभय हैं।
तीन नेत्र से शोभित मुख से,
भव के मिट जाते सब भय हैं।।
मस्तक पर चन्द्रमा सुशोभित,
साथ रत्नमय मुकुट विशाल।
कमलासन पर तुम्हीं विराजित,
तुम्हें भक्ति से करूँ प्रणाम।।

("ॐ" ऋषिरुवाच)

देख दैत्य सेना की हालत, चिक्षुर को अति क्रोध हुआ।
देवी के मंगल स्वरुप का, पर उसको ना बोध हुआ।।

मातु अम्बिका देवी पर चिक्षुर बाणों से वार करे।
जैसे बादल मेरुगिरी की चोटी पर जलधार करे।।

देवी ने उसके बाणों को अनायास ही काट दिया।
धनुष तथा ऊँचा ध्वज उसका, क्षण-भर में ही काट दिया।।

चिक्षुर के घोड़े व सारथि, वीरगती को प्राप्त हुए।
चिक्षुर के अंगों में देवी बाण-सरासन व्याप्त हुए।।

असुर भयंकर क्रोधित होकर ढाल और तलवार लिया।
सिंहराज के मस्तक पर उसने पुरजोर प्रहार किया।।

फिर देवी की वाम भुजा में बड़े वेग से वार किया।
टूट गई तलवार दैत्य की, क्षण में विफल प्रहार हुआ।।

नेत्र क्रोध से लाल हुए, हाथों में शूल उठाया था।
महाभगवती भद्रकालि पर उसने शूल चलाया था।।

प्रबल तेजमय शूल गगन में अति प्रचण्ड उद्भासित था।
नभ से गिरते हुए सूर्यमण्डल की भांति प्रकाशित था।।

देख शूल का वार, देवि ने अपना शूल चलाया था।
अनगिन टुकड़े हुए शूल के जिसको दैत्य पठाया था।।

किन्तु शूल था रुका नहीं, सम्मुख उसके अब कौन हुआ।
चिक्षुर टुकड़े-टुकड़े होकर क्षण भर में ही मौन हुआ।।

महिषासुर के सेनापति चिक्षुर की मृत्यु हुई तत्काल।
चामर हाथी पर आया था डोल रहा उसका भी काल।।

देवों का पीड़क देवी पर दुर्धर शक्ति प्रहार किया।
जगदम्बा ने देख शक्ति को तब भीषण हुंकार किया।।

उच्च नाद से आहत होकर विफल शक्ति का वार हुआ।
क्रोधित चामर शूल चलाया, पर वह भी बेकार हुआ।।

देवी के बाणों ने काट दिया था अरि का शूल प्रबल।
सिंहराज उछले हाथी पर, राक्षस सेना हुई विकल।।

देवी के वाहन ने खल से भीषण बाहूयुद्ध किया।
हाथी से धरती पर पहुंचे, इक दूजे को क्रुद्ध किया।।

चामर व देवी वाहन का युद्ध बड़ा ही भीषण था।
दोनों के भीषण गर्जन से गूँज रहा समरांगण था।।

तभी सिंह ने प्रबल वेग से नभ की ओर उछाल भरा।
पंजों से चामर का मस्तक अलग किया, धड़ वहीं गिरा।।

देवी माता के सम्मुख आया उदग्र बलवान था।
शिला और वृक्षों से निकला रण में उसका प्राण था।।

देवी के मुक्कों से आतंकित कराल विकराल हुआ।
दांतों व थप्पड़ से ही जीवन का अंतिम काल हुआ।।

उद्धत पर देवी ने अपनी प्रबल गदा का वार किया।
अंगों के हो गए चीथड़े, उसका भी संहार किया।।

भिन्दिपाल से बाष्कल मारा, बाणों का संधान किया।
ताम्र तथा अन्धक के तन से ऐसे विलगित प्राण किया।।

तीन नेत्र वाली देवी ने फिर त्रिशूल का वार किया।
उग्रवीर्य, उग्रास्य, महाहनु का जीवन संहार किया।।

अब विडाल सम्मुख था, देवी ने तलवार उठाया था।
उसके मस्तक पर प्रहार कर धड़ से काट गिराया था।।

दुर्धर व दुर्मुख को माता ने बाणों से बेध दिया।
एक साथ ही दोनों को यमलोकपुरी में भेज दिया।।

सेना का संहार देखकर महिषासुर भी विकल हुआ।
फिर भैंसे का रूप धरा, देवी-गण पर वह प्रबल हुआ।।

देवी के अनगिनत गणों पर थूथन से फिर वार किया।
कभी खुरों से, कभी पूंछ से उसने प्रबल प्रहार किया।।

किन्हीं गणों को सींगों से उसने विदीर्ण कर डाला था।
सिंहनाद व् प्रबल वेग से उसने भय को पाला था।।

महिषासुर ने किन्हीं गणों को चक्कर देकर गिरा दिया।
कितनों पर निःश्वास वायु का झोंका उसने फिरा दिया।।

माता के अनगिनत गणों की सेना उससे आहत थी।
महिषासुर के वारों से लेकिन मिलती ना राहत थी।।

सिंहभवानी माता के वाहन पर प्रबल प्रहार हुआ।
जगदम्बा को क्रोध हुआ, जब सिंहराज पर वार हुआ।।

खुर से खोद रहा धरती को, लगता जैसे काल था।
सींगों से ऊँचे पर्वत भी फेंक रहा विकराल था।।

छुब्ध हुई धरती उसके चक्कर से फटने वाली थी।
लगता था कि आयु सभी जीवों की घटने वाली थी।।

महिषासुर की दुम से टकराकर सागर बेहाल हुआ।
चला डुबोने धरती को उसका स्वरुप विकराल हुआ।।

महादैत्य के सींगों से बादल टुकड़ों में बिखर गए।
साँसों की दुर्दम्य वायु से सारे पर्वत सिहर गए।।

नभ से गिरती पर्वतमालाओं से सारे भयक्रान्त थे।
प्रबल वायु के चक्रवात थे, जीवन के प्रति भ्रान्त थे।।

मातु चण्डिका ने महिषासुर का वध मन में पाला था।
पाश फेंककर महाअसुर को बन्धन में कर डाला था।।

महायुद्ध में बंध जाने पर महिष रूप को त्याग दिया।
तत्क्षण सिंह रूप में आकर उसने भीषण नाद किया।।

जगदम्बा माता ने ज्योंही उस पर खड्ग उठाया था।
पुरुष रूप में खड्ग धरे वह अपना रूप दिखाया था।।

देवी ने अविलम्ब दैत्य को बाणवृष्टि से बेध दिया।
ढाल और तलवार असुर का कई जगह से छेद दिया।।

महिषासुर भी बड़ा छली था, रूप बदलता जाता था।
अब विशाल गज रूप लिए वह युद्ध हेतु गुर्राता था।।

देवी के वाहन को खल ने सूंड उठाकर पकड़ लिया।
खींच-खींच कर गर्जन करता सिंहराज को जकड़ लिया।।

देवी ने तलवार उठाकर सूंड असुर का काट दिया।
महादैत्य भैंसा बन कर फिर अपना रूप विराट किया।।

हाहाकार मचा जग में, भूलोक अतल सब व्याकुल थे।
माता से थी आस बंधी जीवन रक्षा को आकुल थे।।

क्रोध भरी जगमातु चण्डिका ने उत्तम मधुपान किया।
नेत्र लाल कर अट्टहास का गर्जन स्वर में नाद किया।।

बल व महापराक्रम के मद में महिषासुर मत्त हुआ।
सींगों से चण्डी देवी पर तुंग फेंक उन्मत्त हुआ।।

देवी बाणों की वर्षा से पर्वत चकनाचूर हुआ।
बोल गए लड़खड़ा, देवि मुख लाल मधू से पूर हुआ।।

देवी बोलीं, मूढ़! ठहर जा, जब तक मै मधु पीती हूँ।
तब तक तू गर्जन कर ले फिर प्राण तेरा हर लेती हूँ।।

क्षण-भर जीवन शेष बचा है, अब तो मृत्यु सुनिश्चित है।
देवों का गर्जन तेरा वध हो जाने पर निश्चित है।।

यों कहकर देवी उछलीं, अब महादैत्य पर चढ़ी प्रबल।
चरणकमल से दबा, कण्ठ में शूल वार से किया विकल।।

महिषासुर दबकर भी बदले रूप निकलने वाला था।
पर जगजननी के प्रभाव से कब तक बचने वाला था।।

आधा तन ही निकल सका, तब तक देवी ने रोक दिया।
आधा होने पर भी खल ने पूरी ताकत झोंक दिया।।

देवी ने तलवार उठाई, भीषण जो लपलपा रही।
धार भयानक थी जो तीनों लोकों को कंपकंपा रही।।

महिषासुर पर वार किया, क्षण-भर में गर्दन काट दिया।
महादैत्य के भीषण तन को दो टुकड़ों में बांट दिया।।

दैत्यों की सेना में फिर तो भीषण हाहाकार हुआ।
भाग गई सेना, देवों का महास्वप्न साकार हुआ।।

देवों तथा महाऋषियों ने देवी का यशगान किया।
नृत्य अप्सराओं के गूंजे, गन्धर्वों ने गान किया।।

श्री मार्कण्डेय पुराण अन्तर्गत सावर्णिक मन्वन्तर में वर्णित देवी माहात्म्य का तृतीय अध्याय काव्य रूपान्तर समाप्त।

- दीपक श्रीवास्तव 

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