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Thursday, April 2, 2020

श्रीदुर्गासप्तशती द्वितीय अध्याय (काव्य रूपान्तर)

श्री दुर्गासप्तशती काव्यरूप
(द्वितीय अध्याय)

विनियोग मन्त्र
ॐ मध्यम चरित्रस्य विष्णुर्ऋषिर्महालक्ष्मीर्देवता, उष्णिक् छन्दः शाकम्भरी शक्तिः, दुर्गा बीजं, वायुस्तत्त्वं, यजुर्वेदः स्वरूपं, श्री महालक्ष्मीप्रीत्यर्थं मध्यमचरित्रजपे विनियोगः॥

ध्यान
कमलासन पर तुम्ही विराजित,
महिषासुरमर्दिनी भवानी।
भक्ति महालक्ष्मी की मिलकर,
करें देवता, ऋषि,मुनि ज्ञानी।।
कर-कमलों में फरसा, घण्टा,
अक्षमाल, धनु, बज्र, कुण्डिका।
गदा, बाण, मधुपात्र दण्ड है,
खड्ग, ढाल व शूल, चक्र है।
पद्म, शंख अरु पाश धारती,
शक्ति स्वरूपा तेरी आरती।।

("ॐ ह्रीं" ऋषिरुवाच)

पूर्वकाल में देवासुर में, सौ वर्षों तक युद्ध हुआ।
असुरों का स्वामी महिषासुर, देवजनों से क्रुद्ध हुआ।।

समरांगण में देवजनों की, महायुद्ध में हार हुई।
महिषासुर अधिपति बन बैठा, इन्द्रदेव की हार हुई।।

ब्रह्मदेव के पास देवता, गए हार का दुःख लेकर।
जहाँ हरी-हर दोनों बैठे, पहुंचे वे विनती लेकर।।

महिषासुर का प्रबल पराक्रम, देवेश्वर को समझाया।
कैसे हुए पराजित सुरगण, दीनभाव से बतलाया।।

बोले महाविकट महिषासुर, अधिपति बनकर ऐंठा है।
सूर्य, इन्द्र व देवजनों का यज्ञभाग ले बैठा है।।

देवों का अधिकार गया, वे स्वर्गलोक से भागे हैं।
तथा मनुज की भांति विचरते, भू से आश्रय मांगे हैं।।

सारी घटना सत्य बताई, अब तेरे शरणागत हैं।
तुमसे ही बस आस बंधी है, हम तेरे ही साधक हैं।।

सुन देवों के करुण वचन, हरिहर को भीषण क्रोध हुआ।
भौंह तनी, मुख वक्र हुआ, दोनों को अनुपम रोष हुआ।।

चक्रपाणि श्रीहरि के मुख से, निकला तेज महाविकराल।
शिव समेत देवों के तन से, प्रबल तेज की निकली ज्वाल।।

तेजपुंज सब एक हुए, पर्वत सी ज्वाला बनी महान।
दिग-दिगन्त में व्याप्त हो गई, लौटाने देवों का मान।।

देवजनों से प्रगटी ज्वाला, कोटि सूर्य से भी विकराल,
फिर वह नारी रूप हुई, जैसे असुरों का भीषण काल।।

उनका अपना ही प्रकाश था, व्याप्त तीन लोकों में थी।
उन सी सुन्दर, धीर-वीरता, नहीं स्वप्नलोकों में थी।।

देवी का मुख प्रकट हुआ, शिवजी के अनुपम तेज से।
केश हुए उत्पन्न देवि के, मृत्युराज यमदेव से।।

जगदीश्वर के परम तेज से, माता के कर-कमल बने।
चन्द्रदेव से स्तन निर्मित, भू से देवि नितम्ब बने।।

इन्द्र तेज से कटिप्रदेश, ब्रह्मा से दोनों चरण हुए।
वरुणदेव से जंघा-पिण्डलि, ऊंगलीकारक सूर्य हुए।।

वसु से हाथों की उंगलियां, भौंहे सन्ध्यादेवी से।
दन्त प्रजापति की ज्वाला से, नयन बने थे अग्नी से।।

वायुतेज से कर्ण बने, देवी की नाक कुबेर से।
अतिकल्याणमयी माँ प्रकटीं, सब देवों के तेज से।।

देवी दर्शन पाकर सुरगण, मन में अति प्रसन्न हुए।
जो महिषासुर से पीड़ित थे, माँ को पाकर धन्य हुए।।

पिनाकधारी भोले शंकर, शूल दिए इक माता को।
जगदीश्वर ने चक्र दिया, देवी रूपा जग त्राता को।।

वरुण देव से शंख, अग्नि से मिली दिव्य इक शक्ति प्रबल,
वायुदेव ने धनुष तथा बाणों से उनको किया सबल।।

देवराज से बज्र मिला, ऐरावत से घण्टा पाया।
काल दण्ड से दण्ड, वरुण से पाश, देवि ने अपनाया।।

दिव्य स्फटिक हार एक, माता को मिला प्रजापति से,
ब्रह्मदेव से मिला कमण्डल, सबने दिया स्वयं मति से।।

देवी के निज रोमकूप में, सूर्य देव ने तेज भरा।
कालदेव ने ढाल और तलवार देवि के हाथ धरा।।

क्षीर सिन्धु ने देवी को दो दिव्य वस्त्र उपहार दिए।
चूड़ामणि, दो कुण्डल, उज्जवल अर्धचन्द्र व हार दिए।।

तथा दिए केयूर, कड़े, हंसली नूपूर सुशोभित थी।
उँगलियों के लिए अंगूठी, जो रत्नों से शोभित थी।।

निर्मल फरसा, कवच, अस्त्र, विश्वकर्मा ने उपहार दिए।
कभी न कुम्हलाने वाले, कुछ कमल पुष्प के हार दिए।।

देवी को गिरिराज हिमालय, भांति-भांति के रत्न दिए।
दिव्य सवारी हेतु सिंह, माता को एक प्रचण्ड दिए।।
 
कोषाध्यक्ष कुबेर देव ने, शहद भरा इक पात्र दिया।
पृथ्वीधारक शेषनाग ने, नागमणी का हार दिया।।

देवों ने अपने-अपने कुछ अंश देवि को दान किये।
आभूषण व् अस्त्र-शस्त्र से माता का सम्मान किये।।

तब देवी ने नाद किया, गर्जन था अट्टाहास प्रबल।
तीनों लोकों में कम्पन, भू-लोक, अतल सब हुए विकल।।

बड़े जोर की प्रतिध्वनि गूंजी, हलचल उठी महाविकराल।
धरती डोली, पर्वत कांपे, सागर का भी आया काल।।

देवजनों ने प्रसन्नता से माता का जयघोष किया।
ऋषियों ने भी भक्ति-भाव से देवी का उदघोष किया।।

देख त्रिलोकी क्षोभग्रस्त, दैत्यों ने सेनाह्वान किया।
हाथों में हथियार कवच ले, युद्ध हेतु प्रस्थान किया।।

चकित हुआ महिषासुर, यह सब देख उसे भी क्रोध हुआ।
बोला क्या हो रहा यहाँ, क्यों ना अब तक यह बोध हुआ।।

सारे असुरों को लेकर वह सिंहनाद की ओर चला।
जहाँ मातु की अनुपम ज्वाला, उसी ओर वह दौड़ चला।।

देवी की दैदीप्य प्रभा से, तीनों लोक प्रकाशित थे।
धरती तथा गगनमण्डल सब उनसे ही आच्छादित थे।।

धरती दबती चली जा रही थी, चरणों के भार से।
नभमण्डल में रेखा खिंचती, मुकुट शिखर की धार से।।

सातों पातालों को छुब्ध किया धनु की टंकार ने।
सहस्त्र भुजाओं वाली माता, प्रगटीं जग को तारने।।

असुरों से अब युद्ध छिड़ा, अस्त्रों-शस्त्रों के वार प्रबल।
सभी दिशाएँ उद्भासित थीं, नभ-जल-थल सब हुए विकल।।

महिषासुर का सेनानायक, चिक्षुर अति विकराल था।
देवी के हाथों में डोल रहा उसका भी काल था।।

सेना चतुरंगिणी लिए, चामर भी वहां चला आया।
देवी को ललकार रहा, जैसे दिनकर पर लघु छाया।।

साठ हजार रथी आये, जिनका नायक उदग्र बलवान।
एक कोटि रथियों के संग महाहनु दैत्य दिखाता शान।।

महादैत्य असिलोमा जिसके रोयें तलवारों से थे।
पंचकोटि सैनिक थे जिसके, सारे पहुंचे रथ से थे।।

साठ लाख रथियों को लेकर बाष्कल भी पहुंचा रण में।
जहाँ देवि की भीषण ज्वाला, सृष्टि समाती थी कण में।।

परिवारित की सेना में, सैनिक, घोड़े व हाथी थे।
एक कोटि रथ महाभयानक युद्धभूमि के साथी थे।।

पांच अरब रथियों की सेना के संग डटा बिडाल था।
शक्ति स्वरूपा माता के हाथों में उसका काल था।।

महिषासुर भी सेना लेकर, युद्धभूमि में हुआ खड़ा।
रथ, हाथी व घोड़ों से वह समरांगण में हुआ अड़ा।।

तोमर, भिन्दिपाल, मूसल व परशु, खड्ग के वार हुए।
दैत्यों द्वारा माता पर पट्टिश व शक्ति प्रहार हुए।।

 कुछ असुरों ने पाश चलाया, कुछ ने शक्ति प्रहार किया।
शक्ति स्वरूपा जननी पर तलवारों से भी वार किया।।

क्रोध किया तब देवी ने, माया का अद्भुत खेल रचा।
उनके अस्त्रों-शस्त्रों से सब शस्त्र कटे कुछ नहीं बचा।।

देवी के मुख पर थकान का रंचमात्र भी चिन्ह न था।
देव, ऋषि सब स्तुति करते, भाव किसी का भिन्न न था।।

महाभगवती असुरों पर आयुध की वर्षा करती थीं।
सिंहवाहिनी माता रण में काल समान विचरती थीं।।

सिंह विचरता था रण में गर्दन के बाल हिलाता था।
लगता था जैसे वन में वह दावानल फैलाता था।।

मातु अम्बिका देवी के गण, रण में भीषण विकट हुए ।
जो निःश्वास मातु ने छोड़े, उनसे ही वे प्रकट हुए।।

हाथों में वे परशु खड्ग, व भिंदीपाल पकड़ते थे।
अस्त्र-शस्त्र व् पट्टिश से असुरों को खूब रगड़ते थे।।

उनमें माँ की शक्ति समाई, शत्रु नाश कर जाते थे।
विजय शंख व नाद-नगाड़े, रण में खूब बजाते थे।।

युद्धभूमि में युद्ध नहीं, संग्राम महोत्सव फलता था।
शंखनाद के संग मृदंग, असुरों के दल को खलता था।।

देवी ने त्रिशूल, गदा व खड्ग, शक्ति व फरसा से।
कई महादैत्यों को मारा अस्त्र-शस्त्र की वर्षा से।।

फिर घंटे का नाद किया, जो भीषण महाभयंकर था।
मूर्च्छित होकर मरे दैत्य, यह प्रलय नहीं प्रलयंकर था।।

बहुतेरों को बाँध पाश से, धरती पर ही दिया घसीट।
दो-दो टुकड़ों में विभक्त कुछ लेकिन सत्य न देखें ढीठ।।

बहुतों को थी गदा लगी, वे रण में सोये जाते थे।
मूसल से आहत होकर कुछ रक्त वमन कर जाते थे।

कुछ की छाती फटी शूल से, पृथ्वी पर वे ढेर हुए।
बाणवृष्टि से कमर कटी व पृथक देह से पैर हुए।।

दैत्य देवपीड़क गण जो बाजों की तरह झपटते थे।
बाँह छिन्न, तन जीर्ण हुए, मस्तक भी क्षण में कटते थे।।

महादैत्य कुछ जाँघे कट जाने से भू पर गिरे मिले।
कितनों के आधे शरीर तो ढूंढे पर भी नहीं मिले।।

देवी ने कुछ असुरों का तन आधा करके चीर दिया।
एक बांह, इक नेत्र बचा व एक पैर का पीर दिया।।

कितनों के सर कटे हुए लेकिन तन से उठ जाते थे।
हथियारों को हाथ लिए वे युद्ध हेतु मंडराते थे।।

कुछ कबन्ध समरांगण में बाजों की लय पर नाच रहे।
माता के हाथों से अपना काल स्वयं ही बांच रहे।।

ऋष्टि, खड्ग व शक्ति लिए सिरहीन धड़ों का रेला था।
युद्ध नहीं देवी ने उनके साथ प्रलय को खेला था।।

ठहरो कहके महादैत्य देवी को थे ललकार रहे।
माता के सब अस्त्र-शस्त्र मिल असुरों को संहार रहे।।

चलना-फिरना हुआ असम्भव, बस लाशें ही लाशें थीं।
हाथी, घोड़े व असुरों के शव की फैली बासें थीं।।

रक्तपात ऐसा था रण में, नदी खून की बहती थी।
क्षण में नष्ट आसुरी सेना, भार भूमि ही सहती थी।।

जैसे घास-काठ की ढेरी, अग्नि भस्म कर जाती है।
वैसे माँ की विजय पताका, दिग-दिगन्त लहराती है।।

सिंह हिलाकर निज अयाल, भीषणतम गर्जन करता था।
मानो असुरों के तन से चुनकर प्राणों को हरता था।।

देवी ने निज गण समेत असुरों से ऐसा युद्ध किया।
तुष्ट हुए सब देव-ऋषि गण, धरती को भी मुक्त किया।।

श्री मार्कण्डेय पुराण अन्तर्गत सावर्णिक मन्वन्तर में वर्णित देवी माहात्म्य का द्वितीय अध्याय काव्य रूपान्तर समाप्त।

- दीपक श्रीवास्तव 

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