तुम स्वाहा, माँ तुम्ही स्वधा हो,
वषट्कार हो तुम्हीं क्षुधा हो।
तुम्ही तृप्ति हो, तुम ही स्वर हो,
जीवनदात्री तुम्हीं सुधा हो।।
प्रणवाक्षर में तुम अकार हो,
तुम्ही मात्रा, तुम उकार हो।
बिन्दु तुम्ही, अव्यक्त रूप हो,
तीन रूप में तुम मकार हो।।
तुम संध्या, सावित्री, जननी,
तुम्ही सृष्टि की धारण करनी।
तुम जग-जननी, पालन करनी,
कल्प-अन्त में जीवन हरनी।।
सृष्टि जन्म की बारी आई,
तब तुम सृष्टिरूप कहलाई।
जग के पालन-भरण हेतु माँ,
स्थितिरूपा शक्ति कहाई।
कल्पकाल में अन्त समय में,
तुम संहाररूप बन आई।।
महासुरी हो, महास्मृति हो,
महामोहरूपा हो, गति हो।
तुमसे ही गुण होते जग में,
तुम ही सबकी सहज प्रकृति हो।।
तुम्ही भयंकर कालरात्रि हो,
महादेवि तुम महारात्रि हो।
महान-मेधा, महान-विद्या,
महान-माया, मोहरात्रि हो।।
तुम श्री ह्रीं हो, तुम्ही ईश्वरी,
तुम्हीं बुद्धि, हे जगद-ईश्वरी।
खड्ग-शूल को धारण करती,
अचिन्त्यरूपे, परम-ईश्वरी।।
लज्जा,पुष्टि, तुष्टि तुम्हीं हो,
तुम्हीं शान्ति हो, क्षमा तुम्ही हो।
गदा-चक्र को धरने वाली,
घोर-रूप हो, सौम्य तुम्हीं हो।।
धनुष-शंख को धारण करती,
जनती, भरती, जीवन हरती।
बाण, भुशुण्डी,परिध लिए माँ,
तुम जड़ में चेतनता भरती।।
जग में जो सुन्दर कहलाते,
तुमसे ही सुन्दरता पाते।
तुम सबमे हो, किन्तु परे हो,
तुममें ही माँ सभी समाते।।
शक्ति तुम्हीं हो, भक्ति तुम्हीं हो,
भाव तुम्ही, सद्भाव तुम्ही हो।
तेरा वन्दन-पूजन क्या हो?
जन्म तुम्हीं हो मुक्ति तुम्ही हो।।
मैं मूरख हूँ, ध्यान न जानूं,
अपनी ही पहचान न जानूं।
जो भी हूँ, पर बालक तेरा,
अर्पित हूँ , परिणाम न जानूं।।
- दीपक श्रीवास्तव
वषट्कार हो तुम्हीं क्षुधा हो।
तुम्ही तृप्ति हो, तुम ही स्वर हो,
जीवनदात्री तुम्हीं सुधा हो।।
प्रणवाक्षर में तुम अकार हो,
तुम्ही मात्रा, तुम उकार हो।
बिन्दु तुम्ही, अव्यक्त रूप हो,
तीन रूप में तुम मकार हो।।
तुम संध्या, सावित्री, जननी,
तुम्ही सृष्टि की धारण करनी।
तुम जग-जननी, पालन करनी,
कल्प-अन्त में जीवन हरनी।।
सृष्टि जन्म की बारी आई,
तब तुम सृष्टिरूप कहलाई।
जग के पालन-भरण हेतु माँ,
स्थितिरूपा शक्ति कहाई।
कल्पकाल में अन्त समय में,
तुम संहाररूप बन आई।।
महासुरी हो, महास्मृति हो,
महामोहरूपा हो, गति हो।
तुमसे ही गुण होते जग में,
तुम ही सबकी सहज प्रकृति हो।।
तुम्ही भयंकर कालरात्रि हो,
महादेवि तुम महारात्रि हो।
महान-मेधा, महान-विद्या,
महान-माया, मोहरात्रि हो।।
तुम श्री ह्रीं हो, तुम्ही ईश्वरी,
तुम्हीं बुद्धि, हे जगद-ईश्वरी।
खड्ग-शूल को धारण करती,
अचिन्त्यरूपे, परम-ईश्वरी।।
लज्जा,पुष्टि, तुष्टि तुम्हीं हो,
तुम्हीं शान्ति हो, क्षमा तुम्ही हो।
गदा-चक्र को धरने वाली,
घोर-रूप हो, सौम्य तुम्हीं हो।।
धनुष-शंख को धारण करती,
जनती, भरती, जीवन हरती।
बाण, भुशुण्डी,परिध लिए माँ,
तुम जड़ में चेतनता भरती।।
जग में जो सुन्दर कहलाते,
तुमसे ही सुन्दरता पाते।
तुम सबमे हो, किन्तु परे हो,
तुममें ही माँ सभी समाते।।
शक्ति तुम्हीं हो, भक्ति तुम्हीं हो,
भाव तुम्ही, सद्भाव तुम्ही हो।
तेरा वन्दन-पूजन क्या हो?
जन्म तुम्हीं हो मुक्ति तुम्ही हो।।
मैं मूरख हूँ, ध्यान न जानूं,
अपनी ही पहचान न जानूं।
जो भी हूँ, पर बालक तेरा,
अर्पित हूँ , परिणाम न जानूं।।
- दीपक श्रीवास्तव
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