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Saturday, January 11, 2020

Tanhaji: The Unsung Warrior: गढ़ आला पण सिंह गेला

मेरी बचपन की शिक्षा सरस्वती शिशु मन्दिर में हुई है जहाँ इतिहास के रूप में हमने कक्षा द्वितीय में "रामायण", तृतीय में "महाभारत", चतुर्थ में "गौरव गाथा" तथा पंचम में "इतिहास गा रहा है" का अध्ययन किया है। अतः महान योद्धा तानाजी मालसुरे का नाम मेरे लिए अपरिचित नहीं है। कक्षा चतुर्थ में पढ़ा हुआ छत्रपति शिवाजी के वाक्य "गढ़ आला पण सिंह गेला" आज भी जेहन में ताजा है। आज तानाजी मालसुरे द्वारा सिंहगढ़ विजय पर आधारित फिल्म देखकर महसूस हुआ कि अपने आत्मसम्मान तथा अपनी संस्कृति के गौरव को व्यक्त करती फिल्मों का निर्माण वर्तमान समाज के लिए अति आवश्यक है। मैं फिल्म के निर्माता-निर्देशक एवं कलाकारों का हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ जिनके माध्यम से हमारे गौरवशाली अतीत का वह पृष्ठ हमारे समक्ष सामने आया है जिन पर समय की धूल चढ़ रही थी। 

किलेदार तानाजीराव मालसुरे, छत्रपति शिवाजी के अभिन्न मित्र थे तथा जीवनपर्यन्त उनके साथ लगभग प्रत्येक युद्ध में सम्मिलित रहे थे। एक बार शिवाजी के साथ वे औरंगजेब से मिलने आगरा गये थे तब औरंगजेब ने शिवाजी और तानाजी को छल से बंदी बना लिया था। ऐसी विकट परिस्थिति में शिवाजी और तानाजी ने मिठाई के पिटारे में छिपकर वहां से भाग गए थे। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार जब माता जीजाबाई लालमहल से कोंडाना किले की ओर देख रहीं थीं, तब शिवाजी ने उनके मन की बात पूछी तो माता जीजाबाई ने कहा था कि इस किले पर लगा हरा झण्डा मेरे मन को व्यथित कर रहा है। कोंडाणा का किला रणनीतिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण था। अगले ही दिन शिवाजी ने अपने प्रमुख योद्धाओं को बुलाकर पूछा था कि कोंडाना किला जीतने के लिए कौन जायेगा? तानाजी के अतिरिक्त किसी भी अन्य योद्धा में इस कार्य को करने का साहस नहीं हुआ तथा तानाजी ने चुनौती स्वीकार की और केवल 342 सैनिकों की टुकड़ी के साथ 5000 मुग़ल सैनिकों से युद्ध करते हुए मराठा गौरव का परचम किले पर फहरा दिया था किन्तु तानाजी गंभीर रूप से घायल होकर वीरगति को प्राप्त हुए। जब छत्रपति शिवाजी को यह सूचना मिली तो वे बहुत आहत हुये.और उन्होंने कहा था कि "गढ़ आला, पण सिंह गेला".अर्थात -"गढ़(किला) तो जीत लिया, किन्तु अपना सिंह खो दिया"

यद्यपि फिल्म में थोड़ी-बहुत रचनात्मक स्वतंत्रता ली गई है किन्तु कथानक एवं विचारों का प्रवाह हिन्दू समाज की गौरव-गाथा का एहसास कराने में सफल रहा है। फिल्म में स्वराज एवं भगवा शब्द का अनेक बार प्रयोग किया गया है जो भले ही वर्तमान राजनैतिक परिस्थितियों में एक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता दिखाई देता हो किन्तु उसके पीछे अपने सांस्कृतिक गौरव का सम्मान एवं उसकी रक्षा हेतु किसी भी हद तक गुजरने का जो सन्देश मिलता है, वह अद्वितीय है। मुगलों के अधीन हिन्दू समाज के कुछ लोगों का जब कहते  है कि "जी तो रहे ही हैं" पर तानाजी का कहना है - "यह कौन सा जीना है जब आपको अपनी माता, बहन और बेटियों को घरों में कैद करके रखना पड़ता है, आप अपने मंदिरों में ठीक से पूजा नहीं कर सकते, यहाँ तक कि अपने लोगों की मृत्यु पर खुलकर श्रीराम का नाम नहीं ले सकते, और खुलकर हर-हर-महादेव का नारा नहीं लगा सकते।" यह केवल संवाद नहीं है बल्कि समाज को अपनी संस्कृति एवं आत्मसम्मान की रक्षा हेतु प्रेरणा देता है। जिस समय तानाजी कोंडाणा के किले पर आक्रमण हेतु गए थे, उस समय उनके पुत्र रायबा के विवाह की तैयारियां चल रही थीं, किन्तु उन्होंने पुत्र के विवाह से अधिक छत्रपति शिवाजी के पूर्ण स्वराज्य को अधिक महत्त्व दिया यहाँ तक कि अपना जीवन भी समर्पित कर दिया।

फिल्म में युद्ध के दृश्य ठीक वैसे ही फिल्माए गए हैं जैसा इतिहास में वर्णित है। तानाजी को अपने सैनिकों के साथ किले पश्चिमी भाग से एक घनी अंधेरी रात को घोरपड़ की मदद से खड़ी चट्टान को पार करने में सफलता मिली थी। घोरपड़ को किसी भी ऊर्ध्व सतह पर खड़ा किया जा सकता है तथा इसके साथ बंधी रस्सी अपने साथ कई पुरुषों का भार उठा सकती है। इसी योजना से तानाजी अपने सैनिकों के साथ चुपचाप किले पर चढ़ गए तथा कोंडाणा का कल्याण द्वार खोलने के बाद मुग़लों पर हमला करने में सफल रहे। तानाजी मालुसरे जी ने बड़े वीरता से युद्ध करते हुए किले को मुगलों से स्वतंत्र कराया।  युद्ध के दौरान  जब ताना जी की ढाल टूट गई तो उन्होंने अपने सिर के फेटे (पगड़ी) को अपने एक हाथ पर बांधकर तलवारों के वार अपने उसी हाथ पर झेला तथा दूसरे हाथ से वे तलवार चलाते रहे और अंततः उदयभान राठौड़ का वध करते हुए किला जीतने में सफल हुए। वर्तमान में यह किला सिंहगढ़ के नाम से जाना जाता है।

विगत कुछ वर्षों से फिल्म निर्माताओं पर केवल एक विशेष विचारधारा से जुड़ी फ़िल्में ही परोसने के आरोप लगते रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में तानाजी जैसे महान योद्धा पर फिल्म का बनना भारतीय समाज को अपने महान गौरव की से पुनः जोड़ने की दिशा में अत्यन्त सराहनीय एवं अनुकरणीय प्रयास है। मैं फील निर्माताओं से निवेदन करना चाहूंगा कि वे गार्गी, मान्धाता, आरुणि, भामाशाह, पण्डित रामसिंह कूका जैसे चरित्रों को भी अपनी रचनात्मक क्षमता के अनुसार पुनर्जीवित करें। 

- दीपक श्रीवास्तव


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