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Wednesday, July 12, 2017

लंका दहन

हे शिवरूप तुझे मैं कैसे, राजमहल ले जाऊं?
पूज्य पिता के पावन गुरुवर, कैसे ध्यान लगाऊं??

लंका का मैं श्रेष्ठ वीर हूँ, पर विचलित थोड़ा अधीर हूँ |
यहाँ न कोई है फलहारी, किसकी है वाटिका हमारी |
इक तो तुम रावणसुत मारे, उसपर कुछ निशिचर संहारे |
पर वध की आज्ञा ना पाई, निश्चित शिव की हो परछाईं |
क्यों ना सर्पों से ही तुमको, श्रृंगारित ले जाऊं ||1||

हनुमत नागों से श्रृंगारित, जब रावण के सम्मुख आये |
सभी सुर-असुर और देवजन, मन में उनको ध्यान लगाए |
कहे दशानन हे त्रिपुरारी, कहाँ रह गईं मातु हमारी |
सारी ममता पूंछ तुम्हारी, अरे यही हैं माता प्यारी |
खुद शिव का श्रृंगार रचाए, क्यों माँ को ऐसे ही लाये |
नहीं-नहीं भोले भंडारी, ये तो न्याय नहीं त्रिपुरारी |
हे माँ ज्योतिस्वरूपा जननी, मैं श्रृंगार कराऊं ||2||

माता का अद्भुत श्रृंगार, बचा न वस्त्र एक भी द्वार |
तभी दशानन ने उर खोले, मन ही मन हनुमत से बोले |
यहाँ राम के चरण पड़ेंगे, सब उनकी ही शरण लगेंगे |
पर पापो की नगरी लंका, दूर करो हम सबकी शंका |
तभी पूंछ में ज्योति जलाई, लपटें आसमान तक छाई |
सत्य कहा जलकर ही सोना, कुन्दन बनता कोना कोना |
क्या मैं भेंट तुम्हे दूं भोले, सब तुमसे ही पाऊं ||३||

--दीपक श्रीवास्तव

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