प्रगतिशीलता की अंधी दौड़ में खोते हुए न
जाने कितने एहसासों को दम तोड़ते हुए देखा है | नहीं-नहीं, मेरे कथन का यह तात्पर्य
बिलकुल नहीं है कि प्रगतिशील सोच गलत है किन्तु प्रगति की दिशा एकमुखी की बजाय
चहुंमुखी हो तभी वह समाज के लिए अधिक फलदायी हो सकती है | यदि एक व्यक्ति पहलवान
बनना चाहे तो उसे खान-पान के साथ शरीर की सभी मांसपेशियों तथा मन को भी उतना ही
ताकतवर बनाना पड़ता है तथा उसे अपने लक्ष्य तक पहुँचने में सफलता प्राप्त होती है |
पश्चिम की नक़ल करते करते हम अपने
सांस्कृतिक मूल्यों को भी उसी चश्मे से देखने लगते हैं | मेरा विचार इस जगह पर
पश्चिम की आलोचना भी नहीं है – कुछ समय पूर्व मैंने लिखा था कि सनातन सभ्यता यदि
आत्मा है तो पश्चिमी सभ्यता शरीर है | दोनों के तालमेल से ही जीवन सुचारू रूप से
चल सकता है अतः भौतिक आवश्यकताओं के लिए यदि हमें पश्चिम की ओर देखना पड़ता है तो
पश्चिमी देशों को आध्यात्मिक उन्नति के लिए केवल सनातन संस्कृति का सहारा है |
दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं लेकिन इस अन्तर को समझने के लिए आँखों से नकली
चश्मे का उतारना आवश्यक है |
कहीं एक कवि सम्मेलन में एक हास्य कवि को
कहते सुना था कि पति के प्रतीक के रूप में ईश्वर के स्थान अर्थात महिलाओं के माथे
पर सजने वाली बिन्दी सरकते सरकते आँखों के बीच आ गयी, सही भी है, ईश्वर के प्रति आस्था
के मापदंडों को कुछ दशकों से लगातार बदलते हुए देखा है | पति आजकल सजाने की बजाय
हमेशा निगरानी की वस्तु हो गया अतः उसकी नई जगह बदलते समाज के अनुरूप ही है | एक
अच्छा पति पाने के लिए न जाने कितने सोमवार शिवजी का व्रत करती हैं, और विवाह के
पश्चात यह सिलसिला और भी बढ़ जाता है जो न जाने कितने प्रकार व्रतों में तब्दील
होता है | सोमवार व्रत के अतिरिक्त तीज, करवा चौथ और न जाने कितनी तपस्याएँ शामिल
हैं | इससे भी आगे बढ़कर अब दूसरे स्थानों की परम्पराओं को अपनाने में भी तनिक भी
देर नहीं होती | कुछ महिलाओं इस मामले में बड़ी सुस्पष्ट सोच की भी होती हैं उनके
लिए व्रत का कारण पति हेतु मंगलकामना से कहीं अधिक डाइटिंग प्रभावी रहता है ताकि
बढ़ता मोटापा कहीं दूसरों के आगे उनकी वास्तविक आयु न स्पष्ट कर दे|
बीस वर्ष पहले जहाँ तक मुझे याद है, मैंने
बहुत कम ही घरों के लोगों को एक वक्त के भोजन के लिए होटलों के चक्कर काटते देखा
था | चाहे जितना बड़ा परिवार हो, सभी रोटी एक चूल्हे पर बनती थी, भोजन में प्यार
परोसा जाता था | ऐसा सुस्वादु भोजन और घर की बहुएं एक बार भी उफ़ तक नहीं करती थी |
यही कर्मण्यता उन्हें एवं उनके परिवारों के लिए उत्तम स्वास्थ्य के साथ साथ स्वस्थ
मस्तिष्क भी प्रदान करती है, लेकिन बीते वर्षों में कुछ ऐसा हो गया कि होटलों की
संख्या भी कम पड़ने लगी | अभी कुछ दिन पूर्व ऐसे ही एक होटल में जाने का सौभाग्य
मिला जहाँ हम वेटिंग में थे, हमारा नम्बर था 56 तथा बुकिंग के समय 39वे नम्बर का
ग्राहक अन्दर गया था | अक्सर घरों में यह सुनने को भी मिल जाता है कि खाना बनाना
मेरे बस का नहीं है कोई नौकरानी ले आओ जबकि अब तो परिवार भी अत्यन्त संकुचित हो गए
हैं |
फिर प्रश्न खड़ा होता है कि किन मापदंडों
को लेकर हम अपने परिवारों के मूल्यों की नींव रख रहे हैं एवं अपने बच्चों के लिए
किस प्रकार के समाज की रचना कर रहे हैं | हम तो फिर भी भाग्यशाली हैं कि बीते दौर के
नैतिक मूल्यों तथा एहसासों को करीब से महसूस किया है | चिंता इस बात की है हमारी
आगे की पीढ़ी अपने आगे की पीढ़ी को क्या दिशा निर्देश प्रस्तुत करेगी | आज कुछ नहीं
तो भी हम अपने व्रत-त्योहारों को अपने जीवन से सीधे सीधे जोड़कर देख पाते हैं, लेकिन
क्या आने वाली पीढ़ी केवल इन्हें एक कर्मकांड के रूप में ही देख पाएगी?
--दीपक श्रीवास्तव
1 comment:
Very nice deepak sir
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