हम जन्म लेकर इस धरती पर आते हैं और विभिन्न चरणों में अपना जीवन पूरा करते हैं। जीवन-गढ़न के लिए प्रकृति में उपस्थित लगभग सभी तत्वों का योगदान होता है। अतः सभी तत्व महत्वपूर्ण हैं, केवल दृष्टि ही गलत या सही की परिभाषा गढ़ती है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी लिखा है - जाकी रही भावना जैसी, हरि मूरत देखी तिन्ह तैसी। प्रकृति में उपस्थित किसी भी तत्व का सदुपयोग जीवन और समाज को बेहतर बना सकता है तथा दुरुपयोग विनाश के कगार पर लाकर खड़ा कर देता है।
जब व्यक्ति अंत:चेतना से परे भौतिक अस्तित्व को ही अपना मूल स्वरूप समझने लगता है तो इसे अहंकार की वृत्ति कहते है। इस स्थिति में बौद्धिक दृष्टि की सीमाएं उसके स्वरूप को शरीर तक ही दर्शा पाती हैं। सामान्यतया अहंकार का नकारात्मक भाव ही प्रचलन में है किन्तु यह अधूरा है। अहंकार अर्थात मनुष्य में अहं तत्व अथवा मैं तत्व का जीवंत होना। स्वयं को सृष्टि से अलग करके देखने की प्रवृत्ति कहीं ना कहीं अहं-तत्व को दर्शाती है। अतः इसके सकारात्मक तथा नकारात्मक दोनों ही पक्ष हैं। जीवन के गढ़न में अहंकार तत्व की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है। प्रतिस्पर्धात्मक ज्ञानार्जन के दौर में यदि अहं तत्व का आभास न हो बालक अन्य बालकों से पीछे हो सकता है अतः विद्यार्थी जीवन में अहं तत्व की बड़ी भूमिका है - मैं अन्य बच्चों से बेहतर हूं, बेहतर बना रहूँ, मुझे और परिश्रम करने की आवश्यकता है ताकि मैं सबसे आगे रहूँ – यह अहं तत्व का सकारात्मक पक्ष है।
हम सभी ने मकान बनते देखे होंगे। पहले नींव बनाई जाती है, उसके बाद दीवारें, फिर छत बनती है। छत बनाने के लिए अनेक बल्लियों का सहारा लेना पड़ता है। जब तक छत कमजोर है या सुरक्षा देने में असमर्थ है तब तक बल्लियाँ ही उसे आधार देती हैं। छत के मजबूत हो जाने पर उन्हीं बल्लियों को हटा दिया जाता हैतब जाकर उसमे इतनी शक्ति आती है कि वह संपूर्ण परिवार को सुरक्षा दे सकता है। व्यक्ति का जीवन भी इसी प्रकार गढ़ा जाता है। नींव तैयार करना अर्थात वर्णमाला का अभ्यास, अक्षरों को जोड़कर शब्द बनाना तथा शब्द बनाने के बाद वाक्य बनाने का प्रारंभ। इसके बाद अनेक शिक्षाएं विभिन्न चरणों में दीवारों के रूप में खड़ी की जाती हैं जिनमें सामाजिक शिक्षा नैतिक शिक्षा तथा अन्य उपयोगी बातें शामिल होती हैं। चूंकि यही शिक्षाएं जीवनपर्यन्त व्यक्ति को अनेक बुराइयों से बचाकर रखती हैं अतः दीवारों का मजबूत होना आवश्यक है। छत व्यक्ति की सफलता अर्थात ऊंचाइयों की पहचान है अतः इसके निर्माण के लिए अहंकार रूपी बल्लियों का सहारा लेना पड़ता है। जब तक जीवन गढ़न की प्रक्रिया चल रही है, प्रतिस्पर्धाएं हैं, तब तक अहं की अनुभूति आवश्यक है जो लक्ष्य तक पहुँचने की अवधि तक ही होना चाहिए। जब छत पक्की हो जाए तब जीवन में से अहंकार तत्व को निकालना लें क्योंकि जब बल्लियां हटेंगी तभी व्यक्ति दूसरों को सहारा दे सकेगा।
हम अक्सर जीवन का गढ़न तो कर लेते हैं किंतु लक्ष्य की प्राप्ति के बाद अहं की बल्लियों को हटाने की बजाय और बल्लियां खड़ी कर लेते हैं जिसका दुष्परिणाम एकाकी जीवन के रूप में मिलता है। अहंकार व्यक्ति को समाज से अलग कर देता है। जिस प्रकार मकान का निर्माण प्राणियों को आश्रय देने के लिए होता है, उसी प्रकार समाज के लिए जीवन का गढ़न होता है। छत बनने के बाद यदि बल्लियों को न हटाया जाए तो घर साफ सफाई के अभाव में सड़ने लगता है, उसी प्रकार व्यक्ति के जीवन में यदि अहं तत्व को समय से न हटाया जाए तो व्यक्ति का भी यही हाल होता है।
अतः अहं तत्व के दोनों पक्षों का मर्म जानना आवश्यक है क्योंकि यहीं से व्यक्ति, परिवार तथा समाज की नींव पड़ती है।
- दीपक श्रीवास्तव
जब व्यक्ति अंत:चेतना से परे भौतिक अस्तित्व को ही अपना मूल स्वरूप समझने लगता है तो इसे अहंकार की वृत्ति कहते है। इस स्थिति में बौद्धिक दृष्टि की सीमाएं उसके स्वरूप को शरीर तक ही दर्शा पाती हैं। सामान्यतया अहंकार का नकारात्मक भाव ही प्रचलन में है किन्तु यह अधूरा है। अहंकार अर्थात मनुष्य में अहं तत्व अथवा मैं तत्व का जीवंत होना। स्वयं को सृष्टि से अलग करके देखने की प्रवृत्ति कहीं ना कहीं अहं-तत्व को दर्शाती है। अतः इसके सकारात्मक तथा नकारात्मक दोनों ही पक्ष हैं। जीवन के गढ़न में अहंकार तत्व की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है। प्रतिस्पर्धात्मक ज्ञानार्जन के दौर में यदि अहं तत्व का आभास न हो बालक अन्य बालकों से पीछे हो सकता है अतः विद्यार्थी जीवन में अहं तत्व की बड़ी भूमिका है - मैं अन्य बच्चों से बेहतर हूं, बेहतर बना रहूँ, मुझे और परिश्रम करने की आवश्यकता है ताकि मैं सबसे आगे रहूँ – यह अहं तत्व का सकारात्मक पक्ष है।
हम सभी ने मकान बनते देखे होंगे। पहले नींव बनाई जाती है, उसके बाद दीवारें, फिर छत बनती है। छत बनाने के लिए अनेक बल्लियों का सहारा लेना पड़ता है। जब तक छत कमजोर है या सुरक्षा देने में असमर्थ है तब तक बल्लियाँ ही उसे आधार देती हैं। छत के मजबूत हो जाने पर उन्हीं बल्लियों को हटा दिया जाता हैतब जाकर उसमे इतनी शक्ति आती है कि वह संपूर्ण परिवार को सुरक्षा दे सकता है। व्यक्ति का जीवन भी इसी प्रकार गढ़ा जाता है। नींव तैयार करना अर्थात वर्णमाला का अभ्यास, अक्षरों को जोड़कर शब्द बनाना तथा शब्द बनाने के बाद वाक्य बनाने का प्रारंभ। इसके बाद अनेक शिक्षाएं विभिन्न चरणों में दीवारों के रूप में खड़ी की जाती हैं जिनमें सामाजिक शिक्षा नैतिक शिक्षा तथा अन्य उपयोगी बातें शामिल होती हैं। चूंकि यही शिक्षाएं जीवनपर्यन्त व्यक्ति को अनेक बुराइयों से बचाकर रखती हैं अतः दीवारों का मजबूत होना आवश्यक है। छत व्यक्ति की सफलता अर्थात ऊंचाइयों की पहचान है अतः इसके निर्माण के लिए अहंकार रूपी बल्लियों का सहारा लेना पड़ता है। जब तक जीवन गढ़न की प्रक्रिया चल रही है, प्रतिस्पर्धाएं हैं, तब तक अहं की अनुभूति आवश्यक है जो लक्ष्य तक पहुँचने की अवधि तक ही होना चाहिए। जब छत पक्की हो जाए तब जीवन में से अहंकार तत्व को निकालना लें क्योंकि जब बल्लियां हटेंगी तभी व्यक्ति दूसरों को सहारा दे सकेगा।
हम अक्सर जीवन का गढ़न तो कर लेते हैं किंतु लक्ष्य की प्राप्ति के बाद अहं की बल्लियों को हटाने की बजाय और बल्लियां खड़ी कर लेते हैं जिसका दुष्परिणाम एकाकी जीवन के रूप में मिलता है। अहंकार व्यक्ति को समाज से अलग कर देता है। जिस प्रकार मकान का निर्माण प्राणियों को आश्रय देने के लिए होता है, उसी प्रकार समाज के लिए जीवन का गढ़न होता है। छत बनने के बाद यदि बल्लियों को न हटाया जाए तो घर साफ सफाई के अभाव में सड़ने लगता है, उसी प्रकार व्यक्ति के जीवन में यदि अहं तत्व को समय से न हटाया जाए तो व्यक्ति का भी यही हाल होता है।
अतः अहं तत्व के दोनों पक्षों का मर्म जानना आवश्यक है क्योंकि यहीं से व्यक्ति, परिवार तथा समाज की नींव पड़ती है।
- दीपक श्रीवास्तव
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