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Sunday, August 12, 2018

--- प्रेम तथा अहंकार, भक्ति या ज्ञान ---

भक्ति प्रेम का सबसे शाश्वत रूप है। यूं तो स्वयं को अपने शाश्वत रुप से एकाकार करने के अनेक मार्ग हैं। कोई उस रूप को ज्ञान के माध्यम से देखने  का प्रयास करता है तथा कोई ज्ञान की गहराइयों में ना जाकर निर्मल भक्ति भावना द्वारा स्वयं की चेतना को ईश्वरीय चेतना से एकाकार करता है। ज्ञान मार्ग को शास्त्रों ने अत्यंत कठिन बताया है किंतु यदि ज्ञान को ठीक से साध सके जिसमें अहंकार का लेशमात्र भी ना हो तब ज्ञान ही व्यक्ति के अंदर भक्ति की भावना को जागृत कर देता है।
भक्ति निर्मल होती है। भक्ति की भावना स्वयं को हीन मानते हुए परम तत्व की और निश्चल भाव से समर्पित होती है। अतः इसमें विकार होने की संभावना नहीं है। अतः भक्ति सरल है किंतु वर्तमान समाज में सरलता को प्राप्त करना अत्यंत कठिन हो गया है क्योंकि हर व्यक्ति अपने मूल स्वभाव से परे कठिनता प्राप्त करने का प्रयास कर रहा है जिसका उद्देश्य ना तो ज्ञान है ना भक्ति। जीवन के उद्देश्यों को जानने का प्रयास करने की बजाय मानव का प्रयास जीविकोपार्जन तक ही सीमित रह गया है। जीविकोपार्जन तत्पश्चात अर्थ की प्रगति से भी आगे बढ़ता हुआ भौतिक संसाधनों से परिपूर्ण एक विलासी जीवन। दुर्भाग्य से वर्तमान मनुष्य के जीवन का उद्देश्य यही तक सिमट कर रह गया है।
हम सभी जानते हैं कि सृष्टि के कण-कण में ईश्वर स्वयं विराजमान रहकर हमें आत्मोत्सर्ग के संकेत देते रहते हैं किंतु भौतिक चकाचौंध में दृष्टि पर भ्रम की अनेक परतों के चढ़े होने के कारण हम उन संकेतों को समझ नहीं पाते अतः एक अत्यंत सीमित एवं संकुचित जीवन बिता कर इस संसार को छोड़कर चले जाते हैं।
ज्ञान मानव जीवन को उन्नति के शिखर पर पहुंचाने की क्षमता रखने के बावजूद अनेक अवसरों पर जीवन में भ्रम उत्पन्न कर देता है वास्तव में यह ज्ञान की वजह से नहीं होता। ज्ञान के कारण मनुष्य के अंदर श्रेष्ठता की भावना उत्पन्न होती है। यह श्रेष्ठता की भावना उसके अंदर अहंकार को निर्मित करती है। अहंकार अपने मूल स्वभाव के कारण व्यक्ति की भौतिक दृष्टि जो दूसरों के दोषों को देख सकती है उसको सदा जागृत रखता है किंतु अंतर्दृष्टि जो स्वयं की चेतना का आकलन करने की क्षमता रखती है उस पर श्रेष्ठता के अहंकार का पर्दा चढ़ा जाती है। अतः व्यक्ति कण-कण में उपस्थित ईश्वर के अंश को जानने के बावजूद श्रेष्ठता से दूर रह जाता है। यदि ज्ञान के साथ भक्ति का समावेश हो जाए तो जीवन निर्विकार हो जाता है तथा ऐसा एक भी जीवन संपूर्ण समाज की प्रगति के लिए अति महत्वपूर्ण होता है क्योंकि ऐसे ही जीवन समाज के शाश्वत मूल्यों की रचना करने में सफल हो सकते हैं। दुर्भाग्य से वर्तमान समाज में अहंकार का आधार ज्ञान ना होकर आर्थिक स्थिति है जो किसी विषबेल से कम नहीं है।
शिक्षा जब तक मनुष्य को उसके मूल्यों का अनुभव नहीं कराती तब तक वह शिक्षा केवल आजीविका उपलब्ध कराने तक ही सीमित होकर रह जाती है। इस प्रकार निर्मित समाज ज्ञान एवं भक्ति से कोसों दूर मनुष्यों को पशुओं से भी नीचे स्तर का जीवन जीने पर विवश करता है। इस प्रकार के समाज में किसी भी प्रकार के संबंधों की गरिमा को बनाए रखने की क्षमता नहीं होती। वर्तमान में महिलाओं एवं छोटे बच्चों के विरुद्ध हो रहे अमानवीय कृत्यों के पीछे सबसे बड़ा कारण यही है।
 झूठी श्रेष्ठता साबित करने के इस दौर में भक्ति का मार्ग पाना अत्यंत दुष्कर है क्योंकि मन की मलिनता को दूर करना इतना सरल नहीं है। किंतु फिर भी यदि अपने शास्त्रों का अध्ययन ठीक से किया जाए तो कुछ हद तक हमारे जीवन में ज्ञान का समावेश तो हो ही सकता है। ज्ञान भले ही हमारे जीवन में श्रेष्ठता का अहंकार उत्पन्न करें किंतु फिर भी वह सामाजिक विकृतियों से लड़ने में सक्षम है। और ज्ञान भी तभी तक अहंकार उत्पन्न करता है जब तक ज्ञान संपूर्ण नहीं है।
 अतः आदर्श स्थिति तो भक्ति के साथ ज्ञान का संगम है किंतु निश्चल मन के साथ यदि भक्ति को हम ग्रहण न कर सके तो भी ज्ञान के माध्यम से वर्तमान समाज को सार्थक दिशा तो दे ही सकते हैं अतः अब भी समय है अपनी संस्कृति के मापदंडों को समझें, मर्यादाओं को अपने हृदय में धारण करें जिससे समाज की दिशा एवं दशा दोनों में उत्थान हो।

-  दीपक श्रीवास्तव

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