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Thursday, August 23, 2018

---शिवोहम---

अपने निज स्वरूप को लेकर प्रत्येक जीव के मन में जिज्ञासा का होना स्वाभाविक है। मृत तथा जीवित शरीर के सभी तत्वों में समानता होने के बावजूद वह कौन सा ऐसा अंश है जिस कारण जीवित शरीर में चेतना व्याप्त है- उस चेतन अंश का स्वरूप क्या है, वह कहां से उत्पन्न होता है तथा जीवन समाप्ति के बाद उस अंश का क्या होता है? ऐसे ही अनेक प्रश्न लगभग हर जीव के मन में स्वाभाविक रूप से होते हैं। विभिन्न विद्वान अलग-अलग मतों द्वारा इसकी व्याख्या करते हैं।
कुछ अपवादों को छोड़कर लगभग सभी ग्रंथ यही बताते हैं कि जीव का स्वरूप भी ब्रह्म के समान ही अनंत है। ब्रह्म एक महासागर के समान है जबकि जीव उसी महासागर के जल की एक बूंद के समान है। यही बूंद जिस पदार्थ में उपस्थित है उसमें चेतना है। सृष्टि में दो प्रमुख तत्व माने गए हैं - जड़ एवं चेतन। जड़ पदार्थ में चेतना का संचार होते ही जीवन प्रारंभ हो जाता है। ब्रह्म को कोई साकार तथा कोई निराकार स्वरूप में मानता है। स्वरुप चाहे जो भी हो किन्तु इसमें कोई संदेह नहीं कि जीव उसी का अंश हैं अतः जो अमरता परमतत्व में है वही प्रत्येक जीव के चेतन अंश को प्राप्त है। फिर समाज में इतनी व्याधियां क्यों है, जीवन में इतना कष्ट क्यों है तथा जीवन की गति क्या है?
शास्त्रों ने उपरोक्त प्रश्न के उत्तर में बहुत कुछ लिखा है तथा सुंदर व्याख्याओं के माध्यम से अनेक सिद्धांत दिए हैं जिन्हें भक्तिपूर्वक ग्रहण करने से व्यक्ति सभी प्रश्नों के उत्तर पा जाता है। सामाजिक रूढ़ियों तथा अंधविश्वासों के चलते हम ईश्वर से प्रेम करने की बजाय भय करने लगते हैं तथा कर्मकांडों के माध्यम से उसे प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं। धन, चढ़ावा, सोने-चांदी, चादर, निरीह पशुओं की बलि इत्यादि अनेक भोगपरक वस्तुओं का दान उस परमचेतन स्वरूप को देने का प्रयास करते हैं जो सभी विषयों एवं वस्तुओं के मोह से पूर्णतया मुक्त है। इतना ही नहीं इसके भरोसे हम स्वयं की उत्तम गति, जो उसी महासागर से मिलने का नाम है, का भ्रम पालने लगते हैं तथा इस औपचारिकता के बाद उन कर्मों में संलग्न हो जाते हैं जो हमें उससे दूर करते हैं।
जीव और ब्रह्म की प्रत्येक व्याख्या सत्य है यदि उसके भाव को ठीक तरह समझा जाए। अनेक विद्वानों ने जीवन को रूपकों के माध्यम से दर्शाने का प्रयास किया है। डॉ सरोजिनी कुलश्रेष्ठ जी ने अपनी एक कविता में लिखा है- "मैं बनी हूं दीप बाती" - कितना सुंदर चिंतन है! यदि इस रूपक पर दृष्टि डालें तो महसूस होगा कि परमतत्व एक दिए के समान है तथा हम उसकी बत्ती की तरह है जिसमें एक गांठ पड़ गई है। गांठ के एक ओर हम हैं तथा दूसरी ओर जो हिस्सा घी में डूबा हुआ है वह परमात्मा का अंश है। गांठ घी में आधा डूबा है तथा आधा बाहर है। इस प्रकार बत्ती तो एक ही है किंतु गांठ उसे दो भागों में दर्शाने का प्रयास करती है। गांठ ईश्वर की माया के समान है जो अनेक जड़ तत्वों को भी समेटे हुए हैं। ईश्वर ही माया रूपी भ्रम को उत्पन्न करते हैं जिस कारण जीव स्वयं को ईश्वर से अलग समझते हुए लघुरूप को ही अपना संपूर्ण स्वरूप समझने की भूल करने लगता है। स्वयं में ईश्वर तत्व की अनुभूति के लिए इस गांठ को खोलना आवश्यक है। हमारा निज स्वरूप निरंतर ज्ञान के प्रकाश से प्रदीप्त रहता है जिसका रूपक बत्ती की ज्योति है। यही ज्योति बार-बार हमें अपनी लघुता का अनुभव कराती है तथा बत्ती के निरन्तर क्षय द्वारा यह संदेश देती रहती है कि जीवन एक न एक दिन समाप्त हो जायेगा। सच्ची प्रेममय भक्ति ही माया से संघर्ष करके इस गाँठ को खोल सकती है जिससे हमारे अनंत स्वरूप से साक्षात्कार का मार्ग प्रशस्त होना सम्भव है। बत्ती के छोर पर उपस्थित ज्ञानरूपी ज्योति बार-बार इस उद्देश्य की ओर ध्यान आकृष्ट कराने का प्रयास भी करती है किंतु अग्नि में ताप है अतः ज्ञान भी कई बार जीवन में अहंकार तत्व को उत्पन्न करता है जिसके वशीभूत होकर हम स्वयं के वास्तविक स्वरुप को नहीं समझ पाते और आत्मप्रशंसा में ही प्रसन्न रहने लगते हैं। एक समय ऐसा भी आता है जब जीवन पूरा करके बत्ती बुझ जाती है और गांठ वैसी की वैसी पड़ी रह जाती है। इससे भी बुरी स्थिति तब है - जब मन हवा के झोंकों की तरह आई इच्छाओं में ही लिप्त हो कर रह जाता है। धन, पुत्र, स्वर्ण, रजत, सुख-सुविधाओं एवं विलासिता की कामनाये हवा के झोंकों की तरह है जो जैसे ही जीवन में प्रवेश करती हैं वैसे ही ज्ञानरुपी बत्ती का प्रकाश हिलने लगता है तथा अस्थिर हो जाता है। जब कामना पूरी हो जाती है अर्थात झोंका गुजर जाता है तभी प्रकाश स्थिर हो पाता है। जब कामनाओं का झोंका बहुत तेज या आंधी की तरह हो तो बत्ती का प्रकाश उस का मुकाबला नहीं कर पाता और बुझ जाता है। गांठ वैसी की वैसी पड़ी रह जाती है, ज्ञानरूपी प्रकाश भी लुप्त हो जाता है तथा निज स्वरूप को जानने की सारी संभावनाएं समाप्त हो जाती हैं। विषयासक्त एवं कामनाओं से भरे जीवन की यही गति है।
हमारा प्रारब्ध हमें इस अनंत महासागर में लेकर आया है अतः अपने अंदर प्रदीप्त प्रकाश के सहयोग से भक्तिरूपी संसाधनों द्वारा इस गांठ को खोलने का प्रयास करें तभी जीवन में उत्तम गति का मार्ग प्रशस्त होगा।

- दीपक श्रीवास्तव

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