मनुष्य का सहज स्वभाव अहंकार एवं लोभ से परे सदा आनंद में डूबे रहने का है। जब तक हम भौतिक वस्तुओं की इच्छा में निरंतर प्रयास करते रहते हैं तब तक हृदय में कहीं ना कहीं असंतोष की भावना अवश्य रहती है। सुख चाहिए, धन चाहिए तथा विलासिता भरी सामग्री भी चाहिए परंतु कितना चाहिए यह नहीं पता होता। आज जितनी संपत्ति है या जितनी संपत्ति की आवश्यकता है उससे पांच गुना भी मिल जाए तब भी इच्छाएं अनंत रूप से बढ़ती जाती हैं। चाहिए तो अवश्य परंतु कितना चाहिए इसका कोई मानक नहीं हैकिन्तु जीवन भर असंतोष बना रहता है। वही एक दूसरा दृश्य देखिए- जब व्यक्ति निश्छल भाव से खेलते हुए बच्चों के बीच अपने बचपन का अनुभव कर रहा होता है तो उस समय उसके पास कोई कामना नहीं होती वह स्वयं भी निश्छल भाव से ओतप्रोत होकर अपना बचपन जीने में लग जाता है। किसी शांत सुरम्य वातावरण में प्रकृति के गोद में खिलता हुआ हिलोरे लेता हुआ मनुष्य भी किसी भोग की कामना नहीं करता अपितु वह आनंद में निमग्न रहता है। तो व्यक्ति का सहज स्वभाव क्या है- प्रथम दृश्य अहंकार से उपजा सुख है तथा दूसरा प्रेम से उपजा आनंद है। प्रथम दृश्य आसक्ति तथा द्वितीय दृश्य विरक्ति है। प्रथम दृश्य शारीरिक संतुष्टि है तथा द्वितीय दृश्य आत्मिक संतुष्टि।
अहंकार से प्राप्त सुख क्षणभंगुर होता है किंतु ज्ञान के बावजूद व्यक्ति अहंकार के अंधेरे में क्यों फंस जाता है? व्यक्ति वास्तव में सृष्टि में उत्पन्न समस्त वस्तुओं को अपनी सीमित बुद्धि द्वारा तर्क की कसौटी पर कसकर देखना चाहता है। सृष्टि अनंत है, ईश्वर अनंत है जिसमें एक व्यक्ति का शरीर या मन अत्यंत सीमित है। ठीक वैसे ही जैसे एक कमरे में व्यक्ति बंद हो और बाहर के वातावरण का ज्ञान ना होने पर व्यक्ति कमरे के भीतर के वातावरण को ही समस्त जगत का वातावरण समझ लेता है।
हम जीवन में जो भी उपलब्धियां प्राप्त करते हैं उसे अपने परिश्रम का फल मानते हैं। क्योंकि हम जो भी कर रहे हैं उसकी एक दिशा निर्धारित होती है अतः उसका लक्ष्य भी लगभग मस्तिष्क में साफ होता है। और कहते हैं कि हमने परिश्रम किया और जीवन में इस लक्ष्य को हासिल कर लिया। परंतु यह दृष्टि वैसी ही है जैसे एक बंद कमरे से संपूर्ण सृष्टि की कल्पना करना। यदि हमने कर्म किया है तो उसका फल मिलेगा यह सृष्टि का विधान है अतः हमें जो भी मिलता है उसे हम ईश्वर की कृपा ना मानकर उसको पूर्णतया अपने परिश्रम का फल मानते हैं। यह अधूरी दृष्टि है तथा यही वह कारण है जिसके द्वारा हमारे जीवन में अहंकार की उत्पत्ति होती है- मैंने किया, इसलिए हुआ यही अहंकार का प्रारंभ है।
हमारे सामने त्रेता युग में रावण का उदाहरण मौजूद है जो अपने अहंकार को सही मानता है। उसका कथन है कि आप मुझे अपनी शक्तियों पर अहंकार करने का पूरा अधिकार है क्योंकि यह शक्तियां मुझे भीख या दान में नहीं मिलीं यह मेरे तप एवं परिश्रम द्वारा किए गए कर्मों के प्रतिफल के रूप में मुझे मिला है अतः यह शक्तियां मेरी विरासत हैं इनका मैं दुरुपयोग करूं या सदुपयोग करो इस पर सिर्फ मेरा अधिकार है। इतना ही नहीं वह यह भी कहता है कि कि जिस शान से मैंने इन शक्तियों को भोगा है उनका दुरुपयोग किया है उसी शान से में दंड भोगने को भी तैयार हूं। यह अहंकार का दूसरा चरण है जब व्यक्ति स्वयं को गलत जानने के बावजूद उससे होने वाली हानि भी उठाने को तैयार होता है। हम भी अपने जीवन में चाहे इंजीनियर हो डॉक्टर हो या किसी अन्य ऊंचे पद पर सुशोभित हो वहां तक पहुंचने का कारण ईश्वर की कृपा ना मानकर केवल अपने परिश्रम का परिणाम मानने लगते हैं जो अंततः हमारे लिए दुखों का कारण हो जाता है क्योंकि जीवन में अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं और अपेक्षाएं जब पूरी नहीं हो पाती तो व्यक्ति के जीवन में असंतोष की भावना उपजती है।
वस्तुतः जब हम जन्म लेकर इस धरती पर आते हैं तो हमारे जीवन का कोई न कोई उद्देश्य होता है किसी ना किसी की सेवा करने की भावना से हम यहां आते हैं। रावण यदि एक कदम पीछे जा कर देखता तो उसे यह अवश्य स्पष्ट होता इतनी सिद्धियां जो उसने प्राप्त की है उसके लिए श्रम करने की जो शक्ति थी वह उस युग में और किसी भी व्यक्ति के पास नहीं थी। जिस प्रकार ईश्वर ने सूर्य को अपरिमित प्रकाश दिया उसका चयन किया ताकि संपूर्ण सृष्टि आवश्यक प्रकाश से तृप्त हो सके। यह चयन अथवा यह क्षमता ईश्वर द्वारा हमें उपहार स्वरूप प्रदत्त है। रावण के अंदर कर्म का अहंकार है किंतु यह नहीं देखता कि तप करने की इतनी क्षमता ईश्वर ने उस युग में और किसी को नहीं दी, यह तो ईश्वर द्वारा दिया हुआ उपहार अथवा दान ही है।
यही दान हमें मिला हुआ है जिसके अनुसार हम अपने कर्म की दिशा की ओर आगे बढ़ते हैं तथा वह प्राप्त करते हैं जिसके लिए ईश्वर ने हमारा चयन किया है। हम सभी ईश्वर की इच्छा से धरती पर जन्म लेकर आए हैं तथा अपने जीवन के उद्देश्यों की ओर सही दिशा में बढ़ना ही हमारी गति है। यदि कर्म में यह भाव रखेंगे तो अहंकार का लेशमात्र भी हमारे जीवन में नहीं होगा तथा हम सही दिशा में कदम बढ़ा सकेंगे।
- दीपक श्रीवास्तव
अहंकार से प्राप्त सुख क्षणभंगुर होता है किंतु ज्ञान के बावजूद व्यक्ति अहंकार के अंधेरे में क्यों फंस जाता है? व्यक्ति वास्तव में सृष्टि में उत्पन्न समस्त वस्तुओं को अपनी सीमित बुद्धि द्वारा तर्क की कसौटी पर कसकर देखना चाहता है। सृष्टि अनंत है, ईश्वर अनंत है जिसमें एक व्यक्ति का शरीर या मन अत्यंत सीमित है। ठीक वैसे ही जैसे एक कमरे में व्यक्ति बंद हो और बाहर के वातावरण का ज्ञान ना होने पर व्यक्ति कमरे के भीतर के वातावरण को ही समस्त जगत का वातावरण समझ लेता है।
हम जीवन में जो भी उपलब्धियां प्राप्त करते हैं उसे अपने परिश्रम का फल मानते हैं। क्योंकि हम जो भी कर रहे हैं उसकी एक दिशा निर्धारित होती है अतः उसका लक्ष्य भी लगभग मस्तिष्क में साफ होता है। और कहते हैं कि हमने परिश्रम किया और जीवन में इस लक्ष्य को हासिल कर लिया। परंतु यह दृष्टि वैसी ही है जैसे एक बंद कमरे से संपूर्ण सृष्टि की कल्पना करना। यदि हमने कर्म किया है तो उसका फल मिलेगा यह सृष्टि का विधान है अतः हमें जो भी मिलता है उसे हम ईश्वर की कृपा ना मानकर उसको पूर्णतया अपने परिश्रम का फल मानते हैं। यह अधूरी दृष्टि है तथा यही वह कारण है जिसके द्वारा हमारे जीवन में अहंकार की उत्पत्ति होती है- मैंने किया, इसलिए हुआ यही अहंकार का प्रारंभ है।
हमारे सामने त्रेता युग में रावण का उदाहरण मौजूद है जो अपने अहंकार को सही मानता है। उसका कथन है कि आप मुझे अपनी शक्तियों पर अहंकार करने का पूरा अधिकार है क्योंकि यह शक्तियां मुझे भीख या दान में नहीं मिलीं यह मेरे तप एवं परिश्रम द्वारा किए गए कर्मों के प्रतिफल के रूप में मुझे मिला है अतः यह शक्तियां मेरी विरासत हैं इनका मैं दुरुपयोग करूं या सदुपयोग करो इस पर सिर्फ मेरा अधिकार है। इतना ही नहीं वह यह भी कहता है कि कि जिस शान से मैंने इन शक्तियों को भोगा है उनका दुरुपयोग किया है उसी शान से में दंड भोगने को भी तैयार हूं। यह अहंकार का दूसरा चरण है जब व्यक्ति स्वयं को गलत जानने के बावजूद उससे होने वाली हानि भी उठाने को तैयार होता है। हम भी अपने जीवन में चाहे इंजीनियर हो डॉक्टर हो या किसी अन्य ऊंचे पद पर सुशोभित हो वहां तक पहुंचने का कारण ईश्वर की कृपा ना मानकर केवल अपने परिश्रम का परिणाम मानने लगते हैं जो अंततः हमारे लिए दुखों का कारण हो जाता है क्योंकि जीवन में अपेक्षाएं बढ़ जाती हैं और अपेक्षाएं जब पूरी नहीं हो पाती तो व्यक्ति के जीवन में असंतोष की भावना उपजती है।
वस्तुतः जब हम जन्म लेकर इस धरती पर आते हैं तो हमारे जीवन का कोई न कोई उद्देश्य होता है किसी ना किसी की सेवा करने की भावना से हम यहां आते हैं। रावण यदि एक कदम पीछे जा कर देखता तो उसे यह अवश्य स्पष्ट होता इतनी सिद्धियां जो उसने प्राप्त की है उसके लिए श्रम करने की जो शक्ति थी वह उस युग में और किसी भी व्यक्ति के पास नहीं थी। जिस प्रकार ईश्वर ने सूर्य को अपरिमित प्रकाश दिया उसका चयन किया ताकि संपूर्ण सृष्टि आवश्यक प्रकाश से तृप्त हो सके। यह चयन अथवा यह क्षमता ईश्वर द्वारा हमें उपहार स्वरूप प्रदत्त है। रावण के अंदर कर्म का अहंकार है किंतु यह नहीं देखता कि तप करने की इतनी क्षमता ईश्वर ने उस युग में और किसी को नहीं दी, यह तो ईश्वर द्वारा दिया हुआ उपहार अथवा दान ही है।
यही दान हमें मिला हुआ है जिसके अनुसार हम अपने कर्म की दिशा की ओर आगे बढ़ते हैं तथा वह प्राप्त करते हैं जिसके लिए ईश्वर ने हमारा चयन किया है। हम सभी ईश्वर की इच्छा से धरती पर जन्म लेकर आए हैं तथा अपने जीवन के उद्देश्यों की ओर सही दिशा में बढ़ना ही हमारी गति है। यदि कर्म में यह भाव रखेंगे तो अहंकार का लेशमात्र भी हमारे जीवन में नहीं होगा तथा हम सही दिशा में कदम बढ़ा सकेंगे।
- दीपक श्रीवास्तव
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