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Wednesday, August 22, 2018

--- मनुष्य में देवता तथा असुर ---

हम मनुष्य जन्म लेकर सोद्देश्य इस धरती पर आए हैं किंतु जन्म का हेतु न जानने के कारण एक निरर्थक जीवन बिता कर चले जाते हैं। कलयुग के प्रभाव तथा सीमित बुद्धि द्वारा तर्कों के माध्यम से जीवन को समझने का प्रयास हमें और उलझाता जाता है और हम आत्ममंथन से परे भ्रमजाल में ही उलझे रह जाते हैं।
देवताओं तथा असुरों के बारे में हम सभी ने सुना है। एक सीमित दृष्टि के कारण अच्छे और बुरे की परिभाषा को हमने देवताओं एवं असुरों के माध्यम से समझा है। किन्तु एक भ्रम अवश्य उत्पन्न होता है कि अनेक बार असुरों ने भी देवताओं को युद्ध में हराया है तथा कुछ असुर ज्ञानी, प्रतापी एवं बड़े भक्त हुए हैं फिर भी वे असुर के रूप में ही जाने जाते हैं। अनेक किंवदंतियां तथा पौराणिक कहानियां देवों तथा असुरों के बीच का सैद्धांतिक अंतर स्पष्ट करती हैं।
सृष्टि में कोई भी घटना निरर्थक नहीं होती बल्कि प्रत्येक घटना व्यक्ति तथा समाज का मार्गदर्शन करती है तथा किसी न किसी सिद्धांत को स्थापित एवं प्रसारित करती है। केवल उन पर मौलिक दृष्टि से चिंतन करने की आवश्यकता है। देवता एवं असुर हमारे जीवन में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है तथा क्रमशः आध्यात्मिक एवं भौतिक चेतना का विस्तार करते हैं किन्तु दोनों एक दूसरे के विरोधी तत्व हैं। एक उदाहरण से इसे समझने का प्रयास करेंगे - हमने जीवन में एक लक्ष्य निर्धारित किया तथा सही दिशा में कदम बढ़ा लिए। स्वाभाविक है कि मार्ग में उतार-चढ़ाव भी आएंगे तथा संघर्षों से जूझना पड़ेगा। अनेक बार दुविधाएं भी आती हैं हमारी भौतिक और आध्यात्मिक शक्तियों के बीच के अंतर को स्पष्ट कर देती हैं। जैसे अत्यधिक परिश्रम के कारण जब शरीर थकने लगता है तो भौतिक शक्तियां विश्राम करने का संकेत देती हैं क्योंकि स्वस्थ शरीर ही लक्ष्य तक पहुंचने की अनुकूलता विकसित करता है। किंतु साथ ही यह संकेत भी मिलता है कि थोड़ी सी दूरी ही शेष है, एक बार लक्ष्य मिल जाए फिर जितना चाहे आराम कर लें - यही आध्यात्मिक शक्ति का संकेत है। भौतिक वृत्ति शरीर तथा आध्यात्मिक वृत्ति लक्ष्य का ध्यान रखती है। अध्ययनकाल में किसी कक्षा की परीक्षा देते समय देर रात तक पढ़ते हुए हम अक्सर इसी दुविधा की स्थिति में होते हैं- शरीर को थकान के कारण निद्रा चाहिए जबकि आध्यात्मिक वृत्ति कहती है कि सुबह-सुबह परीक्षा देना है, यदि सुबह जल्दी नहीं उठ पाए तो अध्याय अधूरा रह जाएगा। आध्यात्मिक वृत्ति मनुष्य के लक्ष्य तक पहुंचने से पहले किसी प्रकार की बाधा नहीं चाहती जबकि भौतिक वृत्ति लक्ष्य तक पहुंचने वाले भौतिक संसाधनों की सुरक्षा का ध्यान रखती है। अतः दोनों शक्तियां एक दूसरे की परस्पर विरोधाभासी तथा परस्पर एक दूसरे से युद्ध करती दिखाई देती हैं इनमें जो शक्ति मनुष्य में प्रबल होती है वही उसकी मूल वृत्ति बन जाती है।
हमारा शरीर दस इंद्रियों को धारण करता है जिसमें पांच ज्ञानेंद्रियां तथा पांच कर्मेंद्रियां हैं। इंद्रियों के माध्यम से ही हम कोई कार्य करते हैं। यही कारण है कि देवताओं का राजा इंद्र को माना गया है जो ऎन्द्री शक्ति के स्वामी हैं। भौतिकवादी कलयुग में व्यक्ति की शारीरिक आवश्यकताएं जब इतनी हावी हो जाती हैं कि वह हित-अहित, दुराचरण-सदाचरण के बीच में अंतर नहीं कर पाता तथा अपने क्षणिक सुख के लिए पाप-कर्म जैसे चोरी, निंदा या इससे भी बढ़कर कोई निन्दनीय कर्म करने में नहीं हिचकता तो समझ लें कि उसके अंदर भौतिक वृत्तियाँ इतनी प्रबल हो गई हैं कि वे आध्यात्मिक वृत्तियों पर विजय पा चुकी हैं अर्थात स्वर्ग पर असुरों का राज्य हो गया।
असुर और देवता दोनों ही अमरत्व की प्राप्ति हेतु निरंतर संघर्ष कर रहे हैं। यही जीवन का वास्तविक लक्ष्य है, जिसके लिए मनुष्य की भौतिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों को एक साथ मिलकर संघर्ष करना होता है। समुद्रमंथन इसी का प्रतीक है। यह भवसागर समुद्र के समान है तथा मंदराचल पर्वत हमारे दृढ़ संकल्प का प्रतीक है। भगवान विष्णु को सृष्टि का पालनकर्ता माना गया है अतः वे कच्छप के रूप में मंदराचल पर्वत अर्थात हमारे संकल्प को आधार देते हैं। यह समुद्रमंथन अर्थात जीवन के मंथन का प्रारंभ है जो आत्ममंथन का स्वरुप है। इसी उद्देश्य हेतु प्राणी जन्म लेकर मृत्युलोक में आता है। प्राणी के अंदर विद्यमान रहने वाले ईश्वरतत्व अर्थात जाग्रत चेतना का अनुभव ही व्यक्ति के जीवन का प्रारंभिक लक्ष्य है जो समुद्रमंथन के रूप में जाना जाता है। इसके लिए देवता तथा असुर अर्थात भौतिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों को मिलकर प्रयास करना पड़ता है। अतः इस प्रक्रिया में सबसे पहले व्यक्ति के अंदर का विष अर्थात अहंकार, निंदा इत्यादि विषैले तत्व बाहर निकल जाते हैं। विष यदि बाहर निकलेगा तो संसार को जलाएगा और अन्दर ही रह गया तो मन को जलाएगा अतः निर्विकार शिव-स्वरूप इसे बीच में ही रोक लेता है। मंथन हमारे जीवन में अनेक रत्नों की उपलब्धता का अनुभव कराता है जो समुद्र मंथन के रत्नों के रूप में प्रतिष्ठित हैं तथा अंत में अमृत प्राप्त होता है जो आत्मज्ञान का प्रतीक है। शरीर तो नश्वर है अतः मृत्यु तो आनी ही है किंतु जो आध्यात्मिक गुणधर्म है वे सदा जीवित रहते हैं जो चिरकाल तक मनुष्य की पहचान के रूप में प्रतिष्ठित होते हैं। यही कारण है कि आत्ममंथन के परिणाम अर्थात आत्मज्ञान अर्थात अमृत को केवल हमारी आध्यात्मिक वृतियां अर्थात देवता ग्रहण करते हैं तथा अमरत्व को प्राप्त करते हैं।

- दीपक श्रीवास्तव

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