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Friday, August 31, 2018

पुस्तक "समग्रता की ओर" - भावांजलि

बलिया के एक छोटे से गांव शिवपुर से प्रारंभ हुई मेरे जीवन की भौतिक यात्रा गोरखपुर, वाराणसी, पुनः गोरखपुर तथा अब राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में लेकर आई है। प्रारंभिक दिनों में आज जैसी सुख सुविधाएं नहीं थी। मनोरंजन के नाम पर मिट्टी के घरौंदे बनाना, खेत की मिट्टी से विभिन्न चित्र तैयार करना, गांव के बच्चों के साथ विभिन्न प्रकार के खेल जैसे विष-अमृत, चोर सिपाही जैसे अनेक खेल हुआ करते थे। हमारे गांव में बिजली भी नहीं थी किंतु जब तक गांव में रहे तब तक किसी सुविधा की आवश्यकता महसूस नहीं हुई। हमारा गांव का घर मिट्टी की मोटी दीवारों से बना हुआ था जहां प्रतिदिन गोबर की लिपाई होती थी। मोटी मोटी बल्लियों के सहारे खपरैल की छत बनी थी जिनके नीचे भयानक से भयानक गर्मी भी बेअसर रहती थी। पानी के लिए घर में एक हैंडपंप था जिसके पानी की मिठास के मुकाबले शोधित बोतलबंद पानी अत्यंत फीका महसूस होता है। मेरे बाबा सिंचाई विभाग में सेवारत थे तथा दादी ग्रहणी थी। संयुक्त परिवार में दादी एवं बाबा का रुतबा किसी रानी एवं राजा से कम न था। बाबा गांव के मुखिया हुआ करते थे अतः पूरे गांव के निवासी अपनी समस्याओं को सुलझाने हेतु बाबा के पास आया करते थे। शिक्षा के नाम पर एक प्राइमरी विद्यालय था जो कक्षा 5 तक ही था। इससे ऊपर की शिक्षा प्राप्त करने हेतु दूर शहर में जाना पड़ता था जो लगभग 10 किलोमीटर दूर था। इन परिस्थितियों में मेरे पिताजी पहले व्यक्ति थे जो इस गांव से बाहर निकले तथा चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े। मेरे पिताजी को सरकारी सेवा का प्रथम अवसर गोरखपुर में मिला जहां से मेरी शिक्षा प्रारंभ हुई। आज तो शिक्षा में व्यवसायीकरण होने के कारण शिक्षा का उद्देश्य एक बेहतर रोजगार प्राप्त करने तक ही सीमित रह गया है किंतु जब मेरी शिक्षा प्रारंभ हुई थी तो मुझे आज भी याद है कि मेरे माता-पिता ने मुझसे कहा था सबसे पहले वहां जाकर आचार्य जी के पैर छूने हैं। वहां जो भी बताया जाए उसे पूरे मन से सीखना है तथा सजा मिलने पर भी उसे हृदय से स्वीकार करना है। यहां से गुरु एवं शिष्य के बीच एक संबंध बना था जो आज भी उसी भाव से जीवंत है जैसे प्रारंभ हुई थी। जब मैं कक्षा तृतीय में था तभी पिताजी का स्थानांतरण वाराणसी हो गया किंतु यहां भी शिक्षा उसी आदर्श परिवेश में हुई। वाराणसी में यूपी कॉलेज से स्नातक करने के बाद कुछ समय के लिए जीवन की दिशा को लेकर भ्रम रहा, संघर्ष रहा जो वास्तविक रूप में इंजीनियरिंग क्षेत्र की ओर अग्रसारित हुई तथा मदन मोहन मालवीय इंजीनियरिंग कॉलेज गोरखपुर से इंजीनियरिंग करने के पश्चात राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में आना हुआ।

जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव देखे तथा संघर्षों से जूझते हुए अनेक ठोकरें खाई फिर संभला किंतु अब तक की इस यात्रा में अनेक बार ईश्वर की प्रत्यक्ष कृपा का अनुभव किया है। यह साक्षात ईश्वर की कृपा ही है जो लगभग पूर्ण भौतिकवादी युग एवं समाज में होने के बावजूद बचपन की शिक्षा आज तक हृदय में जीवंत है। यह मेरे माता पिता एवं गुरुजनों द्वारा दी गई शिक्षा एवं स्नेहा का परिणाम ही है जो राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में आकर अनेक महान विचारकों तथा विद्वानों का सानिध्य मिला तथा सीखने की प्रक्रिया जारी रही। सन 2010 में श्री अतुल नागपाल के माध्यम से नोएडा के वरिष्ठ समाजसेवी श्री अशोक श्रीवास्तव से मुलाकात मेरे जीवन की अविस्मरणीय पलों में से एक है क्योंकि इसी मुलाकात ने मुझे नोएडा शहर में प्रथम बार तीन मिनट हेतु मंच दिया था। यह मेरे सामाजिक जीवन की शुरुआत थी। इसके बाद जो सम्मान मिला वह किसी ईश्वरीय कृपा से कम नहीं है। वरिष्ठ लेखिका डॉ सरोजिनी कुलश्रेष्ठ जी से हिंदी कविता तथा पद्मश्री शीला झुनझुनवाला जी से हिंदी लेख का बीज पड़ा।  परम विद्वान श्री कृष्ण कुमार दीक्षित जी से श्री रामचरितमानस प्रेम का बीज पड़ा। यह बातें मन में इतनी गहरी उतरी है के जीवन में जिस दिन इन पर बात ना हो उस दिन जीवन अधूरा सा लगता है।

हृदय में सदा विराजमान रहने वाले जिन भावों में हर क्षण प्रत्यक्ष ईश्वर की अनुभूति होती हो तथा पूज्य वरिष्ठ जनों के स्नेहाशीष द्वारा जिन भावों को रोपा और सींचा जाता हो उन्हें पूर्णतया लेखबद्ध करना असंभव है। जिस प्रकार ईश्वर के विराट स्वरूप की कल्पना भी मनुष्य द्वारा स्थूल शरीर के माध्यम से असंभव है किंतु फिर भी मनुष्य विभिन्न माध्यमों द्वारा उस ईश्वर को सांकेतिक रूप से देखने का प्रयास करता है चाहे वह पत्थर के रूप में हो या पुस्तक के रूप में। ठीक उसी प्रकार यह पुस्तक मेरे हृदय में स्थापित संस्कारों एवं सामाजिक परिकल्पना का प्रतीक भर ही है परंतु मेरी असमर्थ लेखनी इसे शब्दायित करने में समर्थ नहीं हो पाती यदि ईश्वर का प्रत्यक्ष आलंबन ना होता।

अतः इन रचनाओ को मेरी कलम ने सिर्फ कागज पर उतारने का कार्य किया है तथा स्वयं ईश्वर ने इन रचनाओं को रचकर मेरे माध्यम से समाज को देने का जो यश मुझे प्रदान किया है उसके आगे शब्दों के समूह अत्यंत सूक्ष्म है। भारतीय ज्ञानपीठ के पूर्व निदेशक स्वर्गीय दिनेश मिश्र जी मुझसे कहा करते थे कि रचनाओं के व्याकरण को समझने हेतु बहुत जीवन पड़ा है पहले रचनाओं को जीना शुरू करें, लिखना शुरू करें।  ह्रदय की अभिव्यक्ति को शब्दों में डालना आवश्यक है क्योंकि रचनाएं केवल कुछ शब्दों का समुच्चय नहीं है बल्कि यह तो सामाजिक परिकल्पना एवं व्यक्ति की अंतश्चेतना का आधार है। ईश्वर साक्षी है इन लेखों को लिखते समय मेरा मन विचारशून्य रहा है तथा कलम स्वतंत्र रूप से लिखती रही है। मैं हिंदी अकादमी के पूर्व अध्यक्ष डॉ रामशरण गौड़ जी का हृदय तल से आभार व्यक्त करता हूं जिन्होंने इस पुस्तक को साकार रुप देने हेतु प्रत्येक क्षण पर मेरा मार्गदर्शन किया है तथा पुस्तक का नाम "समग्रता की ओर" भी उन्हीं द्वारा दिया हुआ है। अनेक गुरु स्वरूप भारतीय विद्वानों ने इस पुस्तक को साकार रुप देने में मेरा मार्गदर्शन किया है। इसके साथ ही मेरे अभियंत्रण महाविद्यालय के आदरणीय अग्रज श्री अवधेश कुमार सिंह तथा श्री बी एल गुप्ता का निरंतर मार्गदर्शन मिलता रहा है। मैं प्रिय अनुजस्वरूप कवि श्री अंकित चहल एवं ऑफिस के सहकर्मी श्री मनीष पटवाल जी का भी आभार व्यक्त करता हूं जिन्होंने प्रथम पाठक के रूप में पाठकीय दृष्टि से मेरा सहयोग किया है। विशेष रूप से मैं अपनी पत्नी के योगदान को भी प्रणाम करता हूँ जिसने इस पुस्तक को मूर्तरूप देने में एक सच्चे सहयोगी एवं समालोचक की भूमिका अत्यंत निष्ठा से निभाई है ।

अपनी कलम से लिखी हुई रचनाएं किसे प्रिय नहीं होती अतः इस पुस्तक का कण-कण मुझे प्यारा है। मेरी अंतश्चेतना में निरंतर बसने वाली ईश्वर की इस रचना को साकार रूप में अब मैं पाठकों के हाथों में सौंपता हूं।  यदि इस में उपस्थित एक लेख भी सामाजिक एकता एवं अखंडता के स्वरूप को साकार करने में अपना योगदान दे सके तो मैं यह जीवन धन्य समझूंगा।

 - दीपक श्रीवास्तव

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