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Friday, August 3, 2018

जीवन - विराटता की ओर

--- जीवन - विराटता की ओर ---

यूं तो धरती बहुत विशाल है, विशाल है महासागर की अथाह जलराशि और आकाश अनंत है। क्या कभी इनकी विशालता को सीमाबद्ध किया जा सकता है?  शहर से दूर - शांत भाव से कभी किसी समुद्र के किनारे बैठें तो दूर - बहुत दूर एक ऐसा स्थान दिखाई देता है जहां तीनों एक स्थान पर आकर मिलते हैं जिसे क्षितिज कहते हैं - यह है विशालता का सीमाबद्ध होना। ना आदि है, न अंत है, न शून्य है, ना अनंत है, किंतु यह एक असामान्य घटना नहीं है क्योंकि असामान्य कुछ भी नहीं होता। धरती, आकाश,  पवन,  खनिज,  पर्वत,  नदी,  इत्यादि जो कुछ भी है सब सामान्य है।  सामान्य है - कभी जंगलों में भटकता हुआ, कभी कंदमूल तो कभी दूसरे जानवरों के बासी मांस पर गुजारा करता हुआ मनुष्य जब आग और पहिए की खोज से आगे बढ़कर, विभिन्न पड़ावों को पार करता हुआ जब कंप्यूटर इंटरनेट जैसे महान अविष्कारों की ओर कदम बढ़ाता है तो लगता है कि व्यक्ति की क्षमताएं अनंत है। क्या इन क्षमताओं को सीमाबद्ध किया जा सकता है? शायद हाँ, शायद नहीं । क्योंकि अनन्त तो सृष्टि में सिर्फ एक ही तत्व है, वह परम तत्व जिसके कण जिस शरीर में हैं उसमें चेतना है। उन्हीं कणों के प्रभाव से सोच एवं शक्तियां अनंतता की ओर बढ़ती जाती हैं।
 यूं तो मनुष्य का जीवन अत्यंत सामान्य है किंतु इसे विशालता और असामान्यता की श्रेणी तक पहुंचाना एक विशिष्ट प्रक्रिया है। हर व्यक्ति के जीवन में एक ऐसा क्षण अवश्य आता है जब उसे यह अवसर मिलता है कि वह अपने जीवन से ऊंचा उठ कर साधारण से एक असाधारण व्यक्तित्व बन सकता है। यदि उस क्षण को पहचान गए तभी अपनी असीमित ऊर्जा का सही उपयोग कर सकते हैं। जब हम किसी के द्वार जाकर या किसी की चापलूसी द्वारा आगे बढ़ने का प्रयास करते हैं तो यकीन मानिए हम स्वयं को खो रहे होते हैं क्योंकि यह सब समझौते हैं।  किंतु जीवन में कुछ मौकों पर समझौते करना आवश्यक हो जाता है। समझौते करें तो किस से करें - यह प्रश्न उठता है। जो व्यक्ति इसकी पहचान कर लेता है वही असाधारण व्यक्तित्व बनने की दिशा में वास्तविक कदम उठा पाता है।
 जीवन एक यात्रा है अतः हम सभी चल रहे हैं।  घर में, बाहर में, भीड़ में, अकेले में, स्वप्न में, जाग्रत में, शून्य में, अनंत में, विचार में,  विचारशून्यता में।  यह यात्रा अनवरत चल रही है।  जब भीड़ में अकेलेपन का एहसास होने लगे तो समझ लें कि अब दिशा परिवर्तन की आवश्यकता है।  चूंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है अतः उसके अंदर सामाजिक सुरक्षा  पाने की भावना है। वह समाज का एक हिस्सा बनकर जीना चाहता है। उसके मित्र हैं, भाई हैं, परिवार है, इन सबके बीच होकर वह अपने आप को सुरक्षित महसूस करता है और इनसे दूर होने का विचारमात्र ही उसके मन में अकेलेपन का बोध कराने लगता है। बस यही है भीड़ में होते हुए भी अकेलेपन का एहसास।
जब भीड़ से ऊपर उठकर व्यक्ति अपने अंतर्मन में जाग्रत चेतना की पुकार सुनता है तब कहीं जाकर वह एक स्वतंत्र व्यक्तित्व का रूप धारण करता है। यह पुरुषत्व से महापुरुषत्व की ओर बढ़ता हुआ कदम है। ऐसी स्थिति में वह अनेक व्यक्तियों को अपने व्यक्तित्व में समेट लेने की क्षमता रखने लगता है।  उदाहरणस्वरूप कोई भी महापुरुष चाहे वह राम हों, कृष्ण हों, स्वामी विवेकानंद, शहीद अशफाक उल्ला खां या राम प्रसाद बिस्मिल हों यह भीड़ में खोए हुए व्यक्ति नहीं है बल्कि स्वतंत्र व्यक्तित्व है जो भीड़ में होकर भी भीड़ से अलग अपने स्वतन्त्र व्यक्तित्व के रूप में सदा जीवित हैं। जैसे ही मैंने कहा कि मैं फलां जैसा बनना चाहता हूं इसका सीधा अर्थ यह है कि उस व्यक्तित्व ने मेरे व्यक्तित्व को अपने भीतर समेट लिया।  यह है एक असाधारण व्यक्तित्व की पहचान।
 यदि मनुष्य जन्म मिला है, क्षमताएं मिली हैं तो वह सब करें जो हमारे जीवन को हमारी चेतना से एकाकार करती हैं।  यही जीवन का उद्देश्य है, यही परम सुख है, यही अनहद नाद है,  यही है जीवन की विराटता।

-  दीपक श्रीवास्तव

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