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Tuesday, August 7, 2018

--- सुंदरता एवं प्रगतिशील समाज ---


 अक्सर हम  सृष्टि में बहुत सारी चीजों को देखते हैं महसूस करते हैं। कुछ वस्तुएं हमें सुंदर लगती हैं कुछ बहुत सुंदर और कुछ हृदय में गहरे उतर जाती हैं। यदि वस्तुओं से अलग मनुष्य की ओर देखें तो पायेंगे कि कुछ मनुष्य हमें बहुत सुंदर लगते हैं तथा कुछ असुंदर। बहुधा हमें यह भी देखने को मिलता है कि कि जो मनुष्य हमें सुंदर लगता है वह किसी और की दृष्टि में असुन्दर हो सकता है तथा इसका विपरीत भी संभव है। प्रश्न यह उठता है कि एक ही व्यक्ति अथवा वस्तु के लिए अलग-अलग व्यक्तियों की दृष्टि में भिन्नता क्यों?  हमारी दृष्टि में जो गलत है वह किसी और की दृष्टि में सही तथा किसी और की दृष्टि में जो गलत है वह हमारी दृष्टि में सही हो सकता है।
 तो प्रश्न उठता है कि वास्तव में सुंदरता कहां है- वस्तु में, व्यक्ति में अथवा दृष्टि में? एक मित्र को अचानक कुछ आवश्यकता आन पड़ी तो दूसरे मित्र के पास पहुंचे और बोला कि भाई मुझे कुछ आवश्यकता है मुझे तुम्हारी मदद चाहिए। दूसरे मित्र कहते हैं हां मित्र क्यों नहीं आखिर सुख दुख में हम एक दूसरे के साथ नहीं खड़े होंगे तो मित्रता कैसी? पहले व्यक्ति की जरूरत में दूसरे व्यक्ति ने साथ दिया था अतः पहला व्यक्ति यही कहेगा कि कि दूसरा व्यक्ति बहुत सुंदर है उसका मन बहुत सुंदर है उसका हृदय विशाल है। अब दूसरा दृश्य एक तीसरे मित्र को आवश्यकता पड़ती है तथा वह पहले मित्र के पास पहुंचता है और बोलता है कि भाई मुझे कुछ सहयोग चाहिए तो पहला मित्र उन्हें दूसरे मित्र के पास भेजता है परंतु उस समय दूसरे मित्र किन्हीं परेशानियों में उलझे हुए थे, मनोदशा भी ठीक नहीं थी अतः उन्होंने तीसरे मित्र का ठीक से अभिवादन नहीं किया तथा उनका सहयोग करने में भी अक्षम रहे। तीसरे मित्र का क्या विचार होगा दूसरे मित्र के बारे में? व्यक्ति वही किंतु दो व्यक्तियों की धारणाएं उस व्यक्ति के बारे में अलग-अलग, दोनों की अपनी-अपनी पृथक परिभाषाएं, अपने-अपने पृथक विचार।
 यह धरती बहुत बड़ी है तथा भिन्नताएं भी अपरिमित हैं अतः किसी एक व्यक्ति के होने ना होने अथवा उसके विचार से इस सृष्टि के चलन पर कोई फर्क नहीं पड़ता। किंतु उसमें पृथक विचारों के बीच में जब साम्यता स्थापित की जाती है तब एक समाज का निर्माण होता है। उसमें लोगों का चाल-चलन, आचार-व्यवहार इन सब की परिभाषाएं बनती हैं तब एक संस्कृति का निर्माण होता है। संस्कृति बनती है तो मर्यादाएं भी बनती हैं। किंतु मर्यादाओं का निर्माण देश, काल एवं परिस्थितियों पर निर्भर करता है।  सामाजिक एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समय की मांग को देखते हुए परंपराएं निर्मित की जाती हैं, शास्त्र रचे जाते हैं। इस प्रकार एक प्रगतिशील समाज की रचना हो जाती है।
चूंकि मर्यादाओं पर आधारित परंपराएं समय की आवश्यकता के अनुसार निर्मित होती हैं यदि शास्त्रों को ठीक से न समझा जाए तो वहीं परंपराएं समय बदलने के साथ-साथ रूढ़ियां बन जाती हैं तथा समाज में अंधविश्वास का जन्म होता है। एक कालखंड में जो चीजें सुंदर थी वही अब असुन्दर होती चली जाती हैं। अल्प ज्ञान के आधार पर हर व्यक्ति उन्हें रूढ़ियों कि अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार व्याख्या करने लगता है। विभिन्न दृष्टिकोण उपजते हैं, कोई पक्ष में होता है कोई विपक्ष में होता है किसी को सुंदर लगती हैं किसी को बदसूरत जबकि परंपराएं वही है, मानक वही है, मान्यताएं वही है किंतु दृष्टिकोण ने अलग-अलग परिभाषाएं गढ़ दीं।
 यदि एक प्रगतिशील समाज की रचना करनी है तो सामाजिक संरचना के आधार स्तंभ शास्त्रों का गहन अध्ययन अनिवार्य है। तभी परंपराओं एवं मान्यताओं के मापदंडों को समझा जा सकता है और समय चक्र के बदलने के साथ ही परंपराओं में परिवर्तन की सामर्थ्य पैदा की जा सकती है इस प्रकार समाज को रूढ़ियों एवं अंधविश्वासों से बचाया जा सकता है। बदलता हुआ समय समाज की आंखों पर अनेक पर्दे चढ़ा जाता है तब शास्त्र पैदा करते हैं इन पदों के आर पार देखने की नजर ताकि सत्य बिल्कुल शीशे की तरह साफ हो। दृष्टि सुंदर हो। चारों ओर सूर्य सा चमकता हुआ प्रकाश हो और समाज भटकाव से परे निरंतर प्रगति की ओर कदम बढ़ा रहा हो।

- दीपक श्रीवास्तव

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